न्यायालयों में गीता पर हाथ रख कर शपथ दिलाना कहाँ तक उचित है ?
गीता, हिन्दुओं का पवित्र धार्मिक ग्रन्थ है। वे इसे अपने पूजा घर में रखते हैं। पुरुष और महिलाएं इसका पाठ करते हैं। हिन्दुओं में ब्राह्मण और क्षत्रियों की बात तो समझ में आती है। क्योंकि इस ग्रन्थ में चातुर्वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत उनको प्राप्त विशेषाधिकारों पर किसी तरह का घात नहीं किया गया है। वैश्यों के अधिकार भी काफी हद तक सुरक्षित हैं। किन्तु शूद्र इस व्यवस्था में कैसे खुद को गौरान्वित महसूस करते हैं ? और सबसे अधिक हमारी माँ, बहनें चाहे, ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र ही समाज की क्यों न हो, वे क्यों कर गीता की पूजा करती है, समझ के परे हैं ? पढ़ी-लिखी महिलाएं किस तरह इन नीचे लिखी पंक्तियों को उचित और न्यायसंगत ठहराती है, कुतूहल का विषय है ?
चातुर्वर्णयं मया सृष्टं गुणकर्मविभागाश:
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।।4.13
ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र; इन चार वर्णों का समूह गुण और कर्मों के विभाग पूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचानादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य ये'पि स्यु: पाप योनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शुद्रास्ते'पि यान्ति परांं गतिम्।। 9.32
हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र और पाप योनी- चंडालादि जो कोई भी हो, वे भी मेरे शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।
और सबसे अधिक आश्चर्य का विषय हमारे न्यायालयों में इस पर हाथ रख कर शपथ दिलाने का है ! जो धार्मिक ग्रन्थ इस तरह की ऊंच-नीच और विभाजनकारी नीति का पाठ पढ़ाता हो, वह आज भी किस तरह उचित और न्यायसंगत हो सकता है ?
गीता, हिन्दुओं का पवित्र धार्मिक ग्रन्थ है। वे इसे अपने पूजा घर में रखते हैं। पुरुष और महिलाएं इसका पाठ करते हैं। हिन्दुओं में ब्राह्मण और क्षत्रियों की बात तो समझ में आती है। क्योंकि इस ग्रन्थ में चातुर्वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत उनको प्राप्त विशेषाधिकारों पर किसी तरह का घात नहीं किया गया है। वैश्यों के अधिकार भी काफी हद तक सुरक्षित हैं। किन्तु शूद्र इस व्यवस्था में कैसे खुद को गौरान्वित महसूस करते हैं ? और सबसे अधिक हमारी माँ, बहनें चाहे, ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र ही समाज की क्यों न हो, वे क्यों कर गीता की पूजा करती है, समझ के परे हैं ? पढ़ी-लिखी महिलाएं किस तरह इन नीचे लिखी पंक्तियों को उचित और न्यायसंगत ठहराती है, कुतूहल का विषय है ?
चातुर्वर्णयं मया सृष्टं गुणकर्मविभागाश:
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।।4.13
ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र; इन चार वर्णों का समूह गुण और कर्मों के विभाग पूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचानादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य ये'पि स्यु: पाप योनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शुद्रास्ते'पि यान्ति परांं गतिम्।। 9.32
हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र और पाप योनी- चंडालादि जो कोई भी हो, वे भी मेरे शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।
और सबसे अधिक आश्चर्य का विषय हमारे न्यायालयों में इस पर हाथ रख कर शपथ दिलाने का है ! जो धार्मिक ग्रन्थ इस तरह की ऊंच-नीच और विभाजनकारी नीति का पाठ पढ़ाता हो, वह आज भी किस तरह उचित और न्यायसंगत हो सकता है ?
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