लेखन की बंदिशें और परफार्मेंस:
हम साहित्यिक समारोहों में शामिल होते हैं लेकिन अभिव्यक्ति पर लगी बंदिशों को भूल जाते हैं और दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्यारी ताकतों की शिनाख्त नहीं करते । यह याद नहीं दिलाते कि कौन हैं वे लोग जो पेरूमल मुरुगन के उपन्यास के विरुद्ध कस्बे में हिंसा करवाते हैं और प्रतिबंध लगवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक जाते हैं, महाश्वेता देवी के नाटक का मंचन नहीं होने देते, आनंद पटवर्धन की फिल्म का प्रदर्शन नहीं होने देते, कांचा इल्लैया की अभिव्यक्ति पर पहरेदारी करते हैं और 92 वर्षीय लेखिका नयनतारा सहगल से निमंत्रण वापसी का दबाव बनाते हैं तो हम अपनी कविता, कहानी और उपन्यास आदि को सिर्फ एक परफॉर्मेंस समझते हैं।
हमें मंच पर खड़े होते हुए उन लोगों को याद करना चाहिए जो महज लिखने पढ़ने के कारण अर्बन नक्सल करार देकर जेल की सलाखों के पीछे हैं या आनंद तेलतुंबदे की तरह जिन पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। हमें उन चेहरों को भी याद रखना चाहिए जो अवार्ड वापसी की मुहिम के दौरान भगवा तख्ती लिए हुए अवार्ड वापसी में शामिल लेखकों को देशद्रोही कह रहे थे ।
इतिहास इस कारण भी हमें याद रखेगा या भुला देगा कि इस निर्णायक समय में हम सत्ता की दुरभिसंधि के इच्छुक सहभागी हैं या कि प्रतिपक्ष की आवाज़। काश ,हम डोमाजी उस्ताद के जुलूस में शामिल होने से खुद को बचा सकें। प्रेमचंद ने यूं ही नहीं कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है उसकी पिछलग्गू नहीं(संजीव चन्दन की पोस्ट )।
हम साहित्यिक समारोहों में शामिल होते हैं लेकिन अभिव्यक्ति पर लगी बंदिशों को भूल जाते हैं और दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्यारी ताकतों की शिनाख्त नहीं करते । यह याद नहीं दिलाते कि कौन हैं वे लोग जो पेरूमल मुरुगन के उपन्यास के विरुद्ध कस्बे में हिंसा करवाते हैं और प्रतिबंध लगवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक जाते हैं, महाश्वेता देवी के नाटक का मंचन नहीं होने देते, आनंद पटवर्धन की फिल्म का प्रदर्शन नहीं होने देते, कांचा इल्लैया की अभिव्यक्ति पर पहरेदारी करते हैं और 92 वर्षीय लेखिका नयनतारा सहगल से निमंत्रण वापसी का दबाव बनाते हैं तो हम अपनी कविता, कहानी और उपन्यास आदि को सिर्फ एक परफॉर्मेंस समझते हैं।
हमें मंच पर खड़े होते हुए उन लोगों को याद करना चाहिए जो महज लिखने पढ़ने के कारण अर्बन नक्सल करार देकर जेल की सलाखों के पीछे हैं या आनंद तेलतुंबदे की तरह जिन पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। हमें उन चेहरों को भी याद रखना चाहिए जो अवार्ड वापसी की मुहिम के दौरान भगवा तख्ती लिए हुए अवार्ड वापसी में शामिल लेखकों को देशद्रोही कह रहे थे ।
इतिहास इस कारण भी हमें याद रखेगा या भुला देगा कि इस निर्णायक समय में हम सत्ता की दुरभिसंधि के इच्छुक सहभागी हैं या कि प्रतिपक्ष की आवाज़। काश ,हम डोमाजी उस्ताद के जुलूस में शामिल होने से खुद को बचा सकें। प्रेमचंद ने यूं ही नहीं कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है उसकी पिछलग्गू नहीं(संजीव चन्दन की पोस्ट )।
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