शेर और बकरी की सोच एक नही है, ठीक वैसे ही जैसे ब्राह्मण और एक दलित की सोच एक नहीं है. सवाल है, सोच अलग-अलग क्यों है ? सोच बनती है, रहन-सहन से, दैनिक आवश्यकता से. यद्यपि दैनिक आवश्यकता दोनों की भूख है किन्तु भोजन भिन्न-भिन्न है. और यही से सोच में फर्क है. सवाल है, क्या बकरी को जीने का हक़ है ? ब्राह्मण-दलित या इसे विस्तार से देखें तो सवर्ण- दलित की थ्योरी इसी सोच को आगे बढ़ाती है. ब्राहण, शेर की तरह परजीवी है . अगर वह बकरी को न मारे तो खाए क्या ? यह भी हकीकत है कि सवर्ण-अवर्ण दोनों को एक ही परिवेश में रहना है, ठीक वैसे ही जैसे शेर और बकरी को एक ही जंगल में. मगर, यहाँ एक बड़ा फर्क है और वह यह कि सवर्ण- अवर्ण जानवर नहीं है, जैसे शेर और बकरी. जानवर और मनुष्य में बड़ा भेद है और यह भेद प्रकृति-प्रदत्त है. मनुष्य में बुद्धि है और उसके पास मन भी है . बुद्धि जहाँ चीजों को तौलती है वहीँ मन चिन्तन करता है कि क्या उचित है और क्या अनुचित. और यहीं कारण है कि आरंभिक काल से देखा जाए तो उसके रहन-सहन और खान-पान में काफी बदलाव आया है. उसने जहाँ प्रकृति को अपने अनुकूल किया है वही आवश्यकता पड़ने पर उस खुद को प्रकृति के अनुकूल ढाला भी है। जानवर और मनुष्य में यह बड़ा भेद है। ब्राह्मण जानवर नहीं है. उसने भी अपने रहन-सहन और खान-पान में काफी बदलाव किया है, ठीक वैसे ही जैसे दलित समाज ने। सीधी सी बात है, ब्राह्मण की सोच में भी बदलाव होना चाहिए ?
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