बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर विवाद पर असंगत फैसला-
बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर के मुद्दे पर देश के सर्वोच्च न्यायलय के पांच जजों की बेंच के द्वारा दिया गया निर्णय असंवैधानिक, प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध और हिन्दू बहुसंख्यकों की आस्था से प्रभावित दिया गया फैसला है. हम, इस फैसले को अपनी पूरी शक्ति के साथ अस्वीकार करते हैं.
बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर के मुद्दे पर देश के सर्वोच्च न्यायलय के पांच जजों की बेंच के द्वारा दिया गया निर्णय असंवैधानिक, प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध और हिन्दू बहुसंख्यकों की आस्था से प्रभावित दिया गया फैसला है. हम, इस फैसले को अपनी पूरी शक्ति के साथ अस्वीकार करते हैं.
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले, न सिर्फ सत्य और असत्य का निर्णय करते हैं, वरन, भविष्य में व्यक्तिगत अथवा जन-सामान्य से सम्बंधित मुद्दों/ विवादों पर न्यायालयीन विमर्श के लिए एक नजीर पेश करते हैं. सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला सीधे-सीधे एक पक्षीय और देश में रहने वाले बुद्धिस्ट, मुस्लिम, कृश्चियन, सिक्ख आदि धार्मिक सम्प्रदायों के बीच विधि व्दारा स्थापित न्याय-प्रणाली/व्यवस्था के प्रति आशंका और अविश्वास पैदा करता है.
यह ठीक है कि न्यायालय के फैसलों की आलोचना होती रही है और होना भी चाहिए. यह स्वस्थ लोकतंत्र को मजबूत ही करता है. किन्तु सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला इसलिए भी निंदनीय है क्योंकि यह ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाणों को दर-किनार कर दिया गया फैसला है. यह बौद्धों के उस दावे को भी ख़ारिज करता है जो ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्यों से स्वयं-सिद्ध है !
प्रश्न यह भी है कि बहुसंख्यक हितों की आस्था के मद्दे-नजर दिया गया यह निर्णय, क्या क्या दीर्घ-कालीन समाधान कारक है ? क्या इससे उर्जा प्राप्त कर हिंदूवादी संस्थाएं आगे उन विवादस्पद धार्मिक मुद्दों को नहीं उठाएंगे, जो समय-समय पर उठाती रही हैं ? क्या यह एक 'वन टाइम सेटल-मेंट है ? जैसे कि पीएम नरेंद्र मोदी और श्री श्री रविशंकर वगैरे हिन्दू संत/मठाधीश निर्णय आने के कुछ ही दिनों पूर्व पैरवी कर रहे थे ?
और अगर, आस्था से ही निर्णय होना है तो विवाद कोर्ट में क्यों जाय ? धर्म-मठाधीश ही निर्णय कर लें ?
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