साहित्य, समाज का दर्पण है ?
‘साहित्य, समाज का दर्पण है’- दलित समाज को इस कथन पर आपत्ति है। आपत्ति इसलिए है कि जिस ‘दर्पण’ की बात की जाती है, उसमें दलितों का चेहरा बदसूरत और घृणास्पद है। अजीब बात यह है कि जिन लोगों ने कलम की ठेकेदारी अपने पास रखी, उन्होंने ही यह घृणित और अपमानजनक कार्य किया। जिनके पास समाज के सभी वर्गों को साथ में लेने की जिम्मेदारी थी, उन्होंने ही यह विभेदकारी रास्ता अपनाया। आखिर, स्वयं को पूज्य बनाने के लिए समाज के एक बड़े वर्ग को नीचा दिखाने की क्या जरूरत है ? जो विश्व में 'वसुधैव कुटुंबकम' का ढोल पीट रहे हो, अपने ही घर में अपने ही सहोदरों के साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार करने का क्या तुक है ? दलित, साहित्य के ऐसे दोगले मानदंडों को अपनी पूरी शक्ति के साथ नकारते हैं।
बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर ने दलितों में स्वाभिमान की अलख जगाई। उन्होंने बतलाया कि दलितों को रोटी से कहीं अधिक अपने मान-सम्मान की जरूरत है। दलित, रोटी के बिना तो सकते हैं किन्तु स्वाभिमान के बिना नहीं। एक सुअर की जिन्दगी दलित नहीं जी सकते ?
और दलितों ने सही मायने में जीना सीखा। स्वाभिमान के साथ जीना। दलितों ने जाना कि वे आदमी है। दलितों ने जाना कि वे सिर उंचा रख कर चल सकते हैं। दलितों ने जाना कि उनका इतिहास स्वाभिमान और वीरता का इतिहास है। दलित इस देश के मूल निवासी हैं। यह जम्बुदीप उनकी थाती और विरासत है। दलितों पर बाहर से आए आक्रमणकारी और अब शासन नहीं कर सकते। दलित अपने ही देश में गुलाम बन कर नहीं रह सकते। उन्हें अपनी विरासत सम्भालनी होगी।
और तब, दलितों ने अपने मुंह पर बंधी पट्टी को उतार फेंका। बोलने का साहस किया। हाथ में कलम ली। और, सदियों से भरी सड़ान्ध उनकी गलियों से भर-भरा कर बहने लगी। घर और आंगन साफ हुए। उजली धूप से घर रोशन हुआ। यह ‘कालाम सुत्त’ था जिसकी धूप से दलित नहा गए। यह बुद्ध की देशना थी। कालाम सुत्त कहता है कि हमें कोई बात इसलिए नहीं मानना है कि वह परम्परा से चली आ रही है। कोई बात इसलिए नहीं माननी है कि वह किसी धर्म-ग्रंथ में लिखी है। कोई बात इसलिए नहीं माननी है कि ऐसा कोई धर्म-गुरू कह रहे हैं। बल्कि, इसलिए माननी चाहिए कि वह बहुजनों के हित में है और समान्य न्याय की कसौटी पर खरी उतरती है।
दलित साहित्य ‘कालाम सुत्त’ की वकालत करता है। वह बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त 22 प्रतीज्ञाओं से अपनी बात शुरू करता है। किसी को ‘पूजनीय’ और किसी को ‘ताड़न के अधिकारी’ जैसे रामराज्य के ‘आदर्श’ को नकारता है। दलित साहित्य समानता की बात करता है। बुद्ध की मैत्री और करुणा दलित साहित्य के आधार-स्तम्भ हैं। सम्राट अशोक का सर्वजन हिताय शासन उसका आदर्श है।
अब तक दलितों के साथ, उनकी संस्कृति और इतिहास के साथ अन्याय होते रहा है। अब वह मूक दर्शक बना नहीं रह सकता। 'साहित्य समाज का दर्पण है' - इस बहकावे में नहीं रह सकता। हमें अपनी बात करनी होगी। हमें उनके नकली दर्पण की पोल खोलनी होगी। आखिर ब्राह्मण ही ‘गरीब’ क्यों होता है, दलित क्यों नहीं होता; इस ‘सनातन सत्य’ का भंडा-फोड़ करना होगा।
आजकल, ‘दलित’ शब्द पर आपत्ति जतायी जाती है। ब्राहमण तो ठीक है, कुछ दलित ही ‘दलित’ शब्द पर आपत्ति करते हैं। दलित का अर्थ दलन अथवा पीड़ा से है। निस्सेदह, दलित समाज सदियों से दलित-पीड़ित रहा है। दलित शब्द उसकी इसी दशा को चित्रित करता है। हमारे कुछ साथी प्रश्न करते हैं कि हम कब तक ‘दलित’ बने रहेंगे?
दरअसल, ‘दलित’ शब्द हमें ‘दलन’ वाली स्थिति से बाहर निकलने के लिए पिंच करता है। यह पिंच होते रहना आवश्यक है। यह पिंच निरन्तर हमें इस इस स्थिति से बाहर निकलने के झकझोरता है।
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