Saturday, May 23, 2020

मिलिन्द पंह (Milind Panha)

मिलिन्द पञ्ह
लेखक का पता नहीं-
1. ‘मिलिन्द पञ्ह’ के रचनाकार के बारे में निश्चित मत नहीं है।  पंडितों के बहुत परिश्रम करने पर भी न तो ग्रन्थ के आतंरिक और न बाहरी प्रमाणों से ही इस बात का निश्चय हो सका है कि इसके कर्ता कौन थे ? कुछ विद्वानों का मत है कि 'मिलिन्द पंह' मूलतः संस्कृत में या दूसरी प्राकृत भाषा में लिखा गया होगा और ग्रन्थ उसका पालि में अनुवाद है। इसकी शैली भी पालि की अपेक्षा संस्कृत के ही अधिक निकट है(जगदीश काश्यप : प्राक्कथन: मिलिन्द पंह)। 

2.  ति-पिटकाधीन ग्रंथों की तरह ही समादृत-
1. बौद्ध साहित्य में ‘मिलिन्द पञ्ह’  का स्थान  बहुत ऊँचा है। यद्यपि यह ति-पिटक ग्रंथों में से नहीं है, तो भी इसकी प्रमाणिकता उनसे किसी भी प्रकार कम नहीं मानी जाती(जगदीश काश्यप : प्राक्कथन: मिलिन्द पंह)। 
2. यह अनुपिटक साहित्य का सर्व-श्रष्ट ग्रन्थ है।  इसके नाम से सामान्य रूप से यह विदित होता है कि इसमें मिलिंद के प्रश्नों का विवरण है, किन्तु इस ग्रन्थ का प्रमुख विषय इन प्रश्नों का समाधान है जो भदंत नागसेन ने किये थे।  प्रश्नों का समाधान स्थविर वादी दृष्टीकोण से किया गया है। फलस्वरूप इस ग्रन्थ को पालि-ति-पिटक के समान ही सम्मान दिया जाता है( डाॅ. कोमलचन्द्र जैनः पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 63)।  
3. अट्ठकथाकार आचार्य बुद्धघोस ने अपनी अट्ठकथाओं में 'मिलिन्द पंह' से प्रमाण-स्वरुप उद्धरण प्रस्तुत किये है।  इससे यह स्पष्ट होता है कि स्थविरवादी सिद्धांतों के लिए आचार्य बुद्धघोस ने 'मिलिन्द पंह' को ति-पिटक के समान ही महत्त्व प्रदान किया( डाॅ. कोमलचन्द्र जैनः पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 63) ।
4. बाबासाहब अम्बेडकर के द्वारा भी अपने प्रसिद्द ग्रन्थ 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' को लिखते समय इसको सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में प्रयोग किया है। सम्पूर्ण बौद्ध जगत में यह ग्रन्थ श्रद्धा से देखा जाता है (पुरोवाक्य: डॉ, धर्मकीर्ति: मिलिन्द पंह)। 
5. साहित्य और दर्शन इन दोनों दृष्टियों से यह ग्रंथ स्थविरवाद बौद्ध धर्म का एक बहुत ही गौरवपूर्ण ग्रंथ है(पालि साहित्य का इतिहास पृ. 182-83ः राहुल सांकृत्ययान) ।

3. रचना काल-
 1. इस ग्रंथ का मूल उसी समय का है जबकि नागसेन थे(पालि साहित्य का इतिहास पृ. 182-83ः राहुल सांकृत्ययान)।
2. चूँकि ग्रन्थ में राजा मेनाण्डर(मेनाण्ड्रोस) का भदंत नागसेन से हुए ऐतिहासिक संवाद का संकलन है, अत: निस्संदेह,  ग्रन्थ का समय ईसा पूर्व द्वितीय या प्रथम शताब्दी का है( डाॅ. कोमलचन्द्र जैनः पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 63) ।
3. पालि के अतिरिक्त मिलिन्द पंह का एक दूसरा संस्करण (ना-से-पि-ब्कु-किन ) चीनी भाषा में भी मिलता है, जिसका ‘पूर्वयोग',  जिसमें भिक्खु नागसेन के जन्म का वर्णन है, पालि 'मिलिन्द पंह' से बिलकुल भिन्न है। दूसरे, यह ग्रन्थ पालि 'मिलिन्द पंह' के तीसरे परिच्छेद तक ही है(जगदीश काश्यप:प्राक्कथन: मिलिन्द पंह)। 
4 . इतना तो स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ राजा मिलिंद के बाद और आचार्य बुद्धघोस के पहले लिखा गया होगा। ग्रीक राजा मिनाण्डर का काल 150 ई. पू.  और अट्ठ-कथाकार बुद्धघोष 400 ई. बाद है(जगदीश काश्यप:प्राक्कथन: मिलिन्द पंह)। 

4. मेनाण्डर/ मेनान्ड्रोस /मिलिन्द-
1. पंजाब से लेकर यमुना तक यवनों (ग्रीकों) ने ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में राज्य किया था। दिमित्र(189-197 ई. पू.) मौर्य साम्राज्य के नष्ट होने पर भारत विजय के प्रयास में निकला था और पातंजलि के महाभाष्य में हम स्पष्ट रूप से यह उल्लेख पाते हैं कि यवनों ने साकेत को घेर लिया था. दिमित्र(डेमेट्रियस) का एक सेनापति मिनान्डर था। बाख्त्रिया(बैक्ट्रिया) पर मेसोपोटामिया के यवनराज अत्रिया के सेनापति उक्रतिद के आक्रमण की बात सुनकर दिमित्र को वहां लौटना पड़ा, पर वह अपने दामाद तथा सेनापति मिनान्डर को पंजाब में छोड़ गया। मिनान्डर ने पंजाब में रहकर राज्य करना शुरू किया। उसने ‘सागल’ (स्यालकोट) को अपनी राजधानी बनाया। यही मिनान्डर ‘मिलिन्द’ के नाम से प्रसिद्ध है। भिक्खु नागसेन का इस मिलिन्द से जो संलाप हुआ था, वही इस 'मिलिन्द पञ्ह'  नामक ग्रंथ में संगृहित है(पालि साहित्य का इतिहास पृ. 182-83ः राहुल सांकृत्ययान)।

2 . ईसा पूर्व दूसरी सदी में जम्बुदीप के उत्तर-पश्चिमी राष्ट्र  ग्रीक शासकों के अधिकार में चले गए थे। ग्रीक इतिहास का मेनाण्डर ही ‘मेनाण्डोस’ था और वही ‘मिलिन्द पञ्ह’ का राजा मिलिन्द; इस बात से  सभी इतिहासकार सहमत हैं(मिलिन्द पञ्ह की इतिहासिकताः पुप्फंजलिः प्रोफेसर संघसेनसिंह)।

3 . अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार मेनाण्डर का राज्यकाल ई. पू. पहली शताब्दी में था। विसेंट स्मिथ के अनुसार ई. पू. 155 वर्ष पहले मेनाण्डर ने भारत(पाकिस्तान, बंगलादेश सहित संयुक्त भारत) पर आक्रमण किया था। राय चैधरी और बारनेट के मतानुसार मेनाण्डर का राज्यकाल ई. पू. पहली शताब्दी में था। रमेशचन्द्र मजुमदार के मत में मेनाण्डर का काल ईसा से  90 वर्ष पूर्व से पहले किसी भी प्रकार से नहीं हो सकता है(वही)।

4.  डाॅ. वी. ए. स्मिथ  मेनाण्डर के आक्रमण को  155-53 ई. पू. बतलाते हैं( प्राचीन भारत का इतिहास पृ. 350ः वी. डी. महाजन)।

5. मेनाण्डर के सिक्के-
3 . राजा मिलिन्द के सम्बन्ध में प्रमाणिक जानकारी हमें जो प्राप्त है, वह है उनके सिक्कों से। अभी तक राजा मिलिन्द के लगभग 22 सुंदर सिक्के उपलब्ध हैं। अधिकतर में राजा मिलिन्द का नाम स्पष्टतया पढ़ा जाता है। आठ सिक्कों में राजा की शक्ल भी है। यह सिक्के उत्तर भारत के सुदूर प्रदेश से प्राप्त हुए हैं- पश्चिम में काबुल तक, पूर्व में मथुरा तक और उत्तर में कश्मीर तक। कुछ सिक्कों में राजा मिलिन्द की शक्ल तरुण अवस्था की है और कुछ में अत्यन्त वृद्धावस्था की। स्पष्ट है, मिलिन्द शासन-काल लम्बा रहा होगा( जगदीश काश्यप:प्राक्कथन: मिलिन्द पंह) ।

मिलिन्द के एक बौद्ध राजा होने के पुख्ता प्रमाण- 
सिक्कों के एक तरफ ग्रीक भाषा में और दूसरी तरफ उस समय की पालि भाषा में लेख है। इक्कीस सिक्कों में एक तरफ बेसिलियस सोटिरस मेनान्ड्रोस  (Basileos Soteros Menrdaou)  और दूसरी तरफ ‘महरजस, तद्रतस मेनन्द्रस’ पद उत्कीर्ण है। कुछ सिक्कों पर दौड़ते घोड़े, ऊंट, हाथी, सूअर, चक्र या ताड के पत्ते उत्कीर्ण हैं। चक्र वाले सिक्के से यह प्रमाणित होता है की राजा के ऊपर बौद्ध धर्म का प्रभाव अवश्य पड़ा होगा, क्योंकि चक्र(धम्म चक्क) बुद्ध धम्म का एक प्रधान चिन्ह है। केवल एक सिक्का ऐसा है जो दूसरों से बिलकुल भिन्न है और इस बात को बहुत हद तक पुष्ट करता है की मिलिंद राजा ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। उसके एक तरफ-  'Besileos Dikaiou Menandrau'  और दूसरी तरफ-  'महरजस, धर्मिकस मेनन्द्रस'  है। बौद्ध ग्रंथों में उपासक राजा के लिए ‘धम्मराज’ शब्द का प्रयोग मिलता है। स्पष्ट है, ‘धर्मिकस’ का अर्थ ‘धम्मराज’ है। असोक का तो नाम ही हो गया था- 'धर्मासोक'। 'धर्मिकस' शब्द के प्रयोग से सिद्ध होता है कि राजा मिलिंद अवश्य ही बौद्ध हो गया होगा(जगदीश काश्यप:प्राक्कथन: मिलिन्द पंह) ।

दूसरे,  यूनानी इतिहासकार प्लूटार्क(इसवीं 46-120) भी लिखता है कि मेनाण्डर बड़ा न्यायी, विद्वान और जनप्रिय राजा था। उसकी मृत्यु के बाद उसके भस्मावशेष लेने के लिए लोगों में लड़ाई छिड़ गई थी। लोगों ने उसकी अस्थियों पर बड़े-बड़े स्तूप बनवाये। यह कहानी बुद्ध के महापरिनिर्वाण के समय जो बाते हुई थी, उनसे बहुत मिलती है। फूलों के ऊपर स्तूप बनवाना बौद्धों की प्रचलित प्रथा थी। इससे भी मेनाण्डर के बौद्ध राजा होने की पुष्टि होती है((जगदीश काश्यप: प्राक्कथन: मिलिन्द पंह) ।

तीसरे, ‘मिलिन्द पञ्ह’ में ही लिखा हुआ है-  नागसेन के समाधानों से अत्यन्त सन्तुष्ट राजा ‘‘भन्ते नागसेन, मुझे उपासक स्वीकार करें ’’ -ऐसी प्रार्थना करता है। उसके बाद ही वहीं पर-  ‘अपने पुत्र को राज्य का भार सौंप घर से बेघर हो सन्यास ग्रहण किया और अरहत्त पद प्राप्त किया ’ का भी लेख है( प्रो. डॉ संघसेन सिंह: पुप्फंजली: मिलिंद पंह की इतिहासिकता)। उक्त प्रमाण निस्संदेह सिद्ध करते हैं कि मिलिन्द एक महा प्रतापी बौद्ध राजा थे।  

6. मूल मिलिन्द पञ्ह-
1. पालि के अतिरिक्त मिलिन्द पंह का एक दूसरा संस्करण चीनी भाषा में(ना-से-पि-ब्कु-किन)  भी मिलता है, जिसका ‘पूर्वयोग परिच्छेद',  जिसमें भिक्खु नागसेन के जन्म का वर्णन है, पालि 'मिलिन्द पंह' से बिलकुल भिन्न है। दूसरे, यह ग्रन्थ पालि 'मिलिन्द पंह' के तीसरे परिच्छेद तक ही है( जगदीश काश्यप:प्राक्कथन: मिलिन्द पंह)। 

2. इसमें संदेह नहीं कि मिलिन्द पञ्ह इकाईबद्ध रचना नहीं है। ग्रन्थ के तीसरे परिच्छेद के अंत में लिखा है कि "मिलिन्दस्स पन्हानं पुच्छा-विस्सजना निट्ठिता" अर्थात मिलिन्द के प्रश्नों के उत्तर समाप्त हुए. इस आन्तरिक साक्ष्य से यह स्पष्ट है कि मूल रूप से ग्रन्थ तृतीय परिच्छेद तक ही था। इन में से प्रथम परिच्छेद  का वह प्रारंभिक अंश भी बाद में जोड़ा गया प्रतीत होता है, जिनमें मिलिन्द और नागसेन के  पूर्वजन्मों की कथा है तथा जहाँ यह बतलाया गया है कि किस प्रकार नागसेन धर्म में दीक्षित हुआ है। अतयव प्रथम परिच्छेद के कुछ अंशों के साथ ही द्वितीय और तृतीय परिच्छेद की विषयवस्तु ग्रन्थ का मूलरूप है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि आचार्य बुद्धघोस ने अपनी रचनाओं में मिलिन्द पञ्ह के इसी भाग से उद्धरण लिए हैं। भिक्षु जगदीश काश्यप ने भी मेंडक प्रश्न तथा उपमा-कथा प्रश्न पर असहमति जताई है( डाॅ. कोमलचन्द्र जैनः पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 63) ।
3. मौखिक साहित्य के रूप में ग्रंथों में घटना-बढ़ना लगा ही रहता है और यह ग्रंथ भी इसस प्रक्रिया से अछूता कैसे रह सकता है(पालि साहित्य का इतिहास पृ. 182-83ः राहुल सांकृत्ययान)?

7. कथ्य-
1 . मिलिन्द पञ्ह में सात परिच्छेदों में विभक्त है- 1. बाहिरकथा, 2. लक्खण-पञ्हो, 3. विमतिच्छेदन-पञ्हो,  4. मेण्डक-पञ्हो,  5. अनुमान-पञ्हो, 6. धुतंगकथा, 7. ओपम्म-कथा-पञ्हो। बाहिरकथा में नागसेन की जन्मकथा एव उसके बौद्ध धर्म में दीक्षित होने का विवरण दिया गया है। इसमें राजा मिलिन्द के विषय में भी जानकारी दी गई है( डाॅ. कोमलचन्द्र जैनः पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 63) ।

2. लक्खण पञ्हो नामक दूसरे परिच्छेद में अनात्मवाद, पुनर्जन्म, संस्कार आदि से सम्बद्ध शंकाओं का समाधान है। विमतिच्छेदन पञ्हो नामक तीसरे परिच्छेद में कर्मफल, निर्वाण, बुद्धत्व आदि विषयोें पर प्रश्न और समाधान रूप संलाप है। इसके बाद राजा मिलिन्द एवं भदन्त नागसेन का कथा संलाप समाप्त हो जाता है( डाॅ. कोमलचन्द्र जैनः पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 63) ।

3. मेण्डक पञ्हो नामक चौथे परिच्छेद में पुनः मिलिन्द राजा को भदन्त नागसेन के पास आते हुए देखते हैं। इसका बार उनका लक्ष्य ति-पिटक में व्याप्त उन विरोधों को सुलझाना है जो भविष्य में भ्रम उत्पन्न कर सकते थे।  नागसेन के समक्ष राजा मिलिन्द एक-एक करके सभी प्रश्नों को रखता है और नागसेन उन सबका समाधान करते हैं( डाॅ. कोमलचन्द्र जैनः पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 63) ।

4. अनुमान पन्हो नामक पांचवे परिच्छेद में पुन: राजा मिलिन्द को नागसेन के पास जाते हुए देखते हैं। इस बार वह बुद्ध के अस्तित्व के विषय में प्रमाण चाहता है। भदंत नागसेन धम्म के अस्तित्व से ही बुद्ध के अस्तित्व का अनुमान प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रसंग में धम्मनगर का रूपक द्वारा सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया गया है( डाॅ. कोमलचन्द्र जैनः पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 63)।

5. धुतंगकथा नामक छठे परिच्छेद में राजा मिलिन्द द्वारा गृहस्थ द्वारा निर्वाण प्राप्ति के सम्बन्ध में पूछे गये प्रश्न के उत्तर में भदन्त नागसेन 13 धुतंगो का विवेचन करते हैं। अन्तिम ओपम्म-कथा पञ्हो नामक सातवें परिच्छेद में यह बतलाया गया हे कि अर्हत्व का साक्षात्कार की इच्छा करने वाले व्यक्त्वि को किन-किन गुणों से सम्पन्न होना चाहिए( डाॅ. कोमलचन्द्र जैनः पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 63) ।

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