Monday, May 11, 2020

पालि के विरुद्ध कुचक्र

पालि के विरुद्ध कुचक्र
बड़े दुक्ख की बात है कि एक ओर जहां पालि भाषा उवं साहित्य के प्रचार-प्रसार का प्रयत्न चल रहा है, वही दूसरी ओर वर्ग विशेष के कुछ लोग  एक विशेष प्रकार की भ्रान्ति फैला रहे हैं कि बौद्ध-विद्या के महत्व के समक्ष पालि भाषा एवं साहित्य का महत्व नगण्य है। उनका कहना है कि पालि भाषा में विद्यमान ग्रंथों का ज्ञान तो अंगेजी या अन्य भाषा में सम्पन्न अनुवाद-ग्रंथों से भी किया जा सकता हे। अतः जहां कही पालि भाषा का स्वतंत्र विषय के रूप में पठन-पाठन हो रहा हो वहां उसके स्थान पर 'पालि एवं बौद्ध-विद्या' विषय कर दिया जाए। कितनी भयावह है, यह भ्रान्ति!
यदि किसी भाषा के स्वतंत्र अस्तित्व को नष्ट कर उसमें धर्म एवं दर्शन की घुसपैठ करायी गई तो विश्वविद्यालयों में कोई भाषा स्वतंत्र विषय के रूप में नहीं रह सकेगी। कारण, प्रत्येक भाषा का किसी न किसी धर्म-दर्शन से सम्बन्ध होता ही है। इसके अतिरिक्त यह बात समझ नहीं आती है कि बौद्ध-विद्याा के तथाकथित समर्थक पालि को स्वतंत्रा विषय के रूप में देखकर हैरान क्यों है? सच्चे बौद्ध विद्या प्रेमी को तो इस बात के गौरव का अनुभव करना चाहिए कि बौद्ध-विद्या का प्रतिनिधित्व करने वाली एक मात्रा पालि भाषा के पठन-पाठन की व्यवस्था कर उसे भारत में समुचित सम्मान दिया जा रहा है।
वास्तविकता तो यह कि पालि-साहित्य में वह सब कुछ है जो अन्य भाषाओं के साहित्य में उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त यह साहित्य बुद्ध, धर्म तथा संघ का सबसे बड़ा परिचायक है। इसका अनुभव तभी किया जा सकता है जब स्वार्थपूर्ण दुराग्रह को त्यागकर निष्पक्ष भाव से उस साहित्य का अध्ययन किया जाए। अकेला ति-पिटक एवं अट्ठकथा-साहित्य ही लगभग तीन महाभारत के बराबर है(डॉ. कोमलचन्द्र जैनः प्राक्कथनः पालि-साहित्य का इतिहास, पृ. 6)। 

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