Thursday, May 21, 2020

जोतिरॉव फुले(1827-1890)

महामना जोतिरॉव फुले
   (1827-1890)

किसी ने कहा है कि अगर फुले न होते, तो अम्बेडकर, बाबासाहेब अम्बेडकर न होते। बाबासाहेब अम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन की मशाल है। निस्संदेह, सामाजिक परिवर्तन की मशाल अगर किसी ने जलायी है, तो वे महामना जोतिरॉव फुले हैं। सामाजिक विषमता, नारी शिक्षा और उनकी स्वतंत्रता, दलितों की सामाजिक दुर्दशा, मजदूर और किसानों के हक-हकूक के लिए महामानव जोतिरॉव के कार्य अप्रतिम थे। वे सामाजिक परिवर्तन की कभी न बुझने वाली मशाल थे।



महान विभूतियां पैदा नहीं होती, वक्त उन्हें पैदा करता है। जोतिरॉव और कार्ल मार्क्स (1818-1883) समकालीन थे। दोनों के उद्देश्य एक थे किन्तु कार्ल मार्क्स जहां मजदूर वर्ग को सत्ताधारी बनाने के लिए ललकार रहे थे वहीं, जोतिरॉव अज्ञान और अन्धकार में पड़े शूद्रों , अतिशूद्रों तथा नारी वर्ग को ज्ञान के प्रकाश की किरण दिखा रहे थे।

महामना जोतिरॉव फुले, बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के प्रेरणा-स्रोत रहे हैं। डॉ. अम्बेडकर(1891-1956) ने तीन युग पुरुषों को अपना प्रेरणा-स्रोत माना है, वे युग पुरुष हैं- बुद्ध, कबीर और महामना जोतिरॉव फुले। जोतिरॉव फुले के निधन के ४ महीने बाद बाबासाहब अम्बेडकर का जन्म हुआ था। डॉ. अम्बेडकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘शूद्र कौन थे’ को अपने गुरू जोतिरॉव फुले को समर्पित की थी।

जोतिरॉव की जन्म तिथि के बारे काफी वर्षों तक विद्वान एक मत नहीं थे। तत्संबंध में की गई जांच-पड़ताल के बाद उनकी जन्म-तिथि 11 अप्रेल 1827 मान्य की गई। बालक जोति के पिता का नाम गोविन्दरॉव था। उनका जन्म पुणे के खानवड़ी नामक गांव के माली समाज में हुआ था। जोति को जब स्थानीय पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजा गया तो शिक्षा को अपने बाप-दादाओं की जागीर समझे ब्राह्मण वर्ग को यह बात नागवार लगी। उन्होंने स्कूल प्रबन्धन से कह कर बच्चे का नाम कटवा दिया। बालक जोति ने बस्ता-कलम छोड़ हाथ में कुदाली ले खेत की राह पकड़ी।

इसी बीच सन् 1841 के दौरान भारत में कार्यरत क्रश्चियन मिशनरी संस्था ने पूना में ‘स्कॉटिश मिशन’ नामक एक स्कूल खोला। बालक जोति की पढ़ने की ललक ने उसके पिता को मिशनरी स्कूल में उसे भेजने प्रेरित किया। जोतिराव क्रश्चियन स्कूल में पढ़ने लगा।

जोति की माता का नाम चिमनाबाई था। जब वह 9 माह का था, उसकी माता का देहान्त हो गया था। बालक जोति का पालन-पोषण उनके पिता की मौसेरी बहन सकुणा ने किया था। सकुणा विधवा थी जो एक अनाथालय में बच्चों को पालने का कार्य करती थी। गोविन्दराव के कहने पर उसने उनके दोनों बच्चों का पालन-पोसण करने की जिम्मेदारी ले ली।

तब बच्चों का विवाह बाल्यावस्था में करने का रिवाज था। सन् 1840 में 13 वर्ष की आयु में बालक जोतिरॉव का विवाह सावित्री से हुआ। सावित्री  महाराष्ट्र में सतारा जिले की खंडाला तहसील  के नायगांव निवासी खंडोजी नावसे पाटिल की पुत्री थी। विवाह के समय सावित्री की उम्र 9 वर्ष थी।

सावित्री के पिता पढ़े-लिखे नहीं थे। अतः उनकी जन्म-तिथि पता नहीं है। तत्संबंध में की गई शोध के अनुसार इनका जन्म-तिथि  3 जन. सन् 1831 मान्य है। महाराष्ट्र शासन की ओर से इसे ‘बालिका दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

वर्ष 1847 में जोतिराव ने क्रश्चियन स्कूल की अंतिम कक्षा 7 वीं पास की। तब यह पढ़ाई नौकरी या जीविका के लिए पर्याप्त मानी जाती थी।

सखाराम नामक जोति का एक ब्राह्मण मित्र था। उसने अपनी शादी में जोति को आमंत्रित किया। बारात में माली जाति के लड़के को देख मित्र के जात-विरादरी के लोग भड़क उठे। जोति को बेइज्जत होकर बारात से लौटना पड़ा। पिता गोविन्दरॉव को जब इस घटना का पता चला तो उन्होंने जोति को कहा-  ‘अच्छा हुआ, उन्होंने मारा पीटा नहीं।’ पेशवाओं के समय दलित और शूद्र जाति के लोगों  से कैसे पशुओं से भी बदतर व्यवहार किया जाता था, पिता ने बेटे का बतायी। जोति के बालक मन पर सामाजिक विषमता की इस अपमानजनक घटना का बेहद विद्रूप प्रभाव पड़ा।

इस घटना के 18 वर्ष पहले, अब्राहम लिंकन(ईस्वीं 1809-1865) ने गोरों द्वारा काले लोगों को दी जाने वाली यंत्रणाओं को जब सड़क से जाते हुए देखा तो उसका किशोर मन समाज के विरुद्ध विद्रोह करने को इसी प्रकार उतारू हुआ था। किसानों को संगठित कर जारशाही के विरुद्ध विद्रोह करने वाले अपने बड़े भाई एलेक्जी को फांसी पर लटकते हुए अपनी ओखों से देखा तो जोतिराव से 42 साल छोटे कामरेड लेनिन(1870-1924) का किशोर मन उस अत्याचारी राजसत्ता के विरुद्ध शायद ऐसे ही विद्रोह कर उठा था।

सावित्री पढ़ी लिखी नहीं थी। स्त्री पढे़गी तो परिवार पढ़ेगा-  जोतिराव ने नारी शिक्षा का यह कार्यक्रम अपने घर से प्रारम्भ किया। जोतिरॉव ने न सिर्फ सावित्री को पढ़ाया वरन् उसे एक अच्छी अध्यापिका बनाया। यही अध्यापिका आगे चलकर देश की पहली भारतीय अध्यापिका बनी।

सावित्री ने विधिवित् मिसेज मिचेल के ‘नार्मल स्कूल’ में सन् 1847 में अध्यापिका का प्रशिक्षण लिया था। तब उसकी उम्र महज 17 वर्ष थी।

भारत में क्रश्चियन मिशनरियों द्वारा चलायी जा रही शिक्षण संस्थाओं का जोतिरॉव के दिमाग पर गहरा प्रभाव पड़ा। जोतिराव चाहते तो कोई सरकारी नौकरी कर किसी सरकारी ओहदे पर पहुंच सकते थे। किन्तु जोतिरॉव के दिमाग में सामाजिक विषमता के दंश उसे चैन की नींद नहीं लेने दे रहे थे। जोतिरॉव ने दलित जाति और नारी वर्ग की सामाजिक अवस्था पर अपना ध्यान केन्द्रित किया।

अग. 1848 को जोतिराव ने अपनी पत्नी सावित्री बाई की मदद से पुणे के बुधवार पेठ में पहली कन्या पाठ शाला खोली। इस समय जोतिराव की आयु 21 वर्ष थी। सावित्री इस स्कूल की अध्यापिका बनी। कट्टर-पंथियों की भृकुटी तन गई। लड़कियों को पढ़ाना धर्म के ठेकेदारों को पसंद नहीं आया। उनका खून खौल उठा। उन्होंने जोतिराव के पिता को भड़काया। समाज के बहिष्कार के डर से गोविन्दरॉव ने बेटा और बहू को घर से निकाल दिया।

पिता के द्वारा घर से निकाले जाने के बाद उस्मान सेख नाम उनके एक मुस्लिम मित्र ने फुले दम्पति को न सिर्फ अपने घर में आश्रय दिया वरन् हर प्रकार की सहायता भी दी। यह घर ‘फुले बाड़ा’ नाम से आज भी मशहूर है।

पिता का घर छोड़ने से जोतिराव पर जीविका चलाने की जिम्मेदारी सिर पर आ गई। उन्होंने मकान, पुल, बांध आदि निर्माण के कामों में लगने वाले सामान की आपुर्ति करने के ठेके लेना शुरू किया। इन कामों से जहां उनकी आजीविका सम्भली, वहीं गरीब मजदूरों का शोषण कैसे होता है, इस रहस्य का भी उन्हें पता चला।

कुछ हालात ठीक होने के बाद फुले-दम्पति ने न सिर्फ बंद हुई पाठशालाएं पुनः खोली वरन् एक और पाठशाला गंजपेठ में प्रारम्भ(सन् 1851) की, जहां बड़ी संख्या में अछूत बच्चें रहते थे। जोतिराव ने 3 जुलाई 1851 को बुधवार पेठ में एक कन्या पाठशाला खोली। सावित्री बाई इसकी प्रधान अध्यापिका बनी। 17 सित. 1851 में ही रास्तापेठ में, इसके बाद नानापेठ में,  16 मार्च 1852 को बेताल पेठ में पाठशालाएं खोली गई।

तत्कालीन मुम्बई सरकार के दस्तावेजों में पुणे तथा इसके आस-पास के क्षेत्रों में फुले दम्पति के द्वारा कुल 18 पाठशालाए खोले जाने का उल्लेख मिलता है। कई पाठशालाओं में पुस्तकालय भी थे। सन् 1855 में पुणे में ही रात्रि-पाठशाला खोली गई। यहां दिन भर काम करने के बाद रात में मजदूरों को पढ़ने की सुविधा थी। भारत में यह प्रथम रात्रि-पाठशाला थी।

दलित और लड़कियों के लिए स्थान-स्थान पर पाठशाला खोले जाने से जहां फुले दम्पति से धर्म के ठेकेदार नाराज थे, वहीं कुछ लोग उनकी प्रशंसा और सहायता कर रहे थे। 16 नव. 1952 को गवर्नर की अध्यक्षता में पुणे के विश्राम बागवाड़े में जोतिराव का सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया।

जोतिराव चाहते थे कि शूद्रातिशूद्र वर्ग के छात्रा और महिलाओं को इस प्रकार शिक्षा मिले कि वे अपनी सामाजिक समानता और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकारों के लिए लड़ने को तैयार हो जाए। जबकि राजाराम मोहन राय (1772-1833) जैसे हिन्दू समाज सुधारक शिक्षा को उंचे वर्गों तक ही सामित रखने के पक्षधर रहे। वे नहीं चाहते थे कि महारों और  अछूतों को पाठशालाओं में प्रवेश दिया जाए। अंग्रेजों को उन्होंने उनके सामाजिक ढांवे में अपनी टांग न फंसाने को कहा था। जबकि जोतिराव अंग्रेज सरकार पर गांव-गांव पाठशालाएं खोलने के लिए निरन्तर दबाव बना रहे थे। सरकार की शिक्षा नीति की कटु आलोचना करते हुए जोतिराव ने कहा कि इसके चलते सभी सरकारी पद ब्राह्मण-वर्ग की बपौती बन गए हैं।

जोतिराव पाठशालाओं के लिए धन की व्यवस्था अपने निजी साधनों से करते थे। कभी-कभी कुछ अंग्रेज अधिकारी और प्रगतिसील मित्रों से भी दान प्राप्त हो जाता था। जोतिराव ने पुणे की स्काटिश मिशन की कन्याशला में अंशकालीन नौकरी त्वॉइन कर ली थी। उन्हें ठेकों में ज्यादा आय नहीं हो रही थी। दूसरे वे उसमें गरीब मजदूरों का शोषण होते देखते थे। लोग अब फुले को ’बा’ के नाम से जानने लगे थे। ‘बा’ मराठी में सम्मान का सूचक है।

समाज के दबाव से जोतिराव के पिता चाहते थे उनकी बहू घर के बाहर न निकले। सावित्री ने जोतिराव से पूछा कि उसे क्या करना चाहिए? इस पर जोतिराव ने कहा कि अच्छा है, वह स्वयं निर्णय करें। सावित्री ने पति के साथ कदम मिलाने का फैसला किया। सन् 1848 से 1852 के बीच फुले-दम्पति ने कुल 18 पाठशालाएं खोलीं। इन पाठशालाओं का संचालन और प्रबन्धन सावित्री के हाथ में था। वह अध्यापिका, प्रधान अध्यापिका, संचालिका के रूप में कार्य रही थी।

सन् 1954 में  प्रकाशित हुए ‘काव्य-फुले’ नामक काव्य-संग्रह में सावित्री बाई एक स्थान पर कहती है-
‘उठो, अतिशूद्र भाईयो जागो
परम्परागत गुलामी को तोड़ने तैयार हो जाओ
भाईयों, पढ़-लिखने के लिए जागो’


विरोधी फुले दम्पति के पीछे हाथ धोकर पड़े थे। एक बार रात्रि में घर पर जब सभी सो रहे थे, उन पर प्राण-घातक हमला हुआ। जोतिबा की हत्या करने के लिए रामोसी रोड़े और धोण्डिराम नामदेव नाम के दो गुण्डों को भेजा गया था। किन्तु जब वे वार करते, किसी वस्तु के टकराने से जोतिराव की नींद खुल गई। जोतिबा स्वयं हट्टे-कट्ठे थे। तब के प्रसिद्ध ‘लहु उस्ताद’ के अखाड़े में उन्होंने लड़ने के दांव-पेच सीखे थे। फूर्ति दिखाते हुए उन्होंने दोनों को पकड़ कर लिया। बाद में ये दोनों जोतिराव के अंग-रक्षक बन गए।

सन् 1973 में उनकी पुस्तक ‘गुलामगीरी प्रकाशित हुई। यह प्रश्नोत्तर में लिखी गई है। इसमें प्रश्नकर्ता ‘धोण्डिबा’ है, जबकि उत्तर स्वयं जोतिराव ने दिए हैं। यह ‘घोण्डिबा’ वही धोण्डिराम नामदेव है।

शिक्षा के साथ-साथ फुले दम्पति का ध्यान दूसरे आवश्यक सामाजिक सुधारों पर भी जाने लगा। तब विधवाओं की समाज में स्थिति बहुत ही नारकीय थी। पहचान के लिए उनका मुण्डन किया जाता था। उन्हें अशुभ समझा जाता था। वह गहने और अच्छे कपड़े नहीं पहन सकती थी। जोतिराव ने विधवा-मुडन बंद कराने का काम अपने हाथ में लिया। ब्राह्मण पुरोहित प्रत्येक से 8 से 10 रूपये लेते थे, जबकि मुंडन करने वाले नाई को वे 4 से 5 आने टिकाते थे। जोतिबा ने मुम्बई में 400-500 नाईयों की एक सभा कर विधवा-मुंडन बंद कराने का ऐलान किया।

इसी प्रकार विधवा-विवाह को जोतिराव ने उसी ताकत से उठाया। उन्होंने वर्ष 1863 में ‘बालहत्या-प्रतिबन्धक गृह’ की स्थापना कर अवैध रूप से पैदा हुए बच्चों की परवरिश करने का कार्य शुरू किया। पुरुषों से धोखा खाई, फंसी हुई गर्भवती विधवाएं या तो कुएं में कूद कर अपनी जान देती है या अपने नवजात बच्चे को कूड़े-कचरे में फेंक कर निजात पा लेती है।  सावित्राी बाई स्वयं यहां दाई/ प्रसूतिका का कार्य करती थी।

जोतिराव ने इसके लिए जगह-जगह पोस्टर चिपकाए। पोस्टरों में लिखा था- विधवाओं! इस बाल-हत्या प्रतिबंधक गृह में आओ और गुप्त तथा सुरक्षित रूप से अपनी प्रसूति कराओ। चाहो तो बच्चे को ले जा सकती हो या हमारे यहां रख सकती हो। हमारा अनाथाश्रम तुम्हारे बच्चों का पालन-पोषण करेगा।

इस कार्य में लोगों से सहयोग की अपील करते हुए जोतिराव ने आवश्यक शर्त रखी- जो लोग अपनी बहनों की रक्षा नहीं कर सकते, अपनी माताओं को यातना और उत्पीड़न से बचा नहीं सकते, वे मेरी संस्था के सदस्य बनने की कृपा न करें। जोतिराव का बालहत्या प्रतिबन्धक गृह भारत में इस प्रकार की पहली संस्था थी, जो गर्भवती विधवाओं के लिए खोली गई थी।

इसी अनाथालय में सन् 1874 में काशीबाई नामक एक ब्राह्मण विधवा ने एक पुत्र को जन्म दिया। इस पुत्र की प्रसूतिका का कार्य भी सावित्रीबाई ने किया था। इसी बालक को आगे निःसंतान फुले-दम्पति ने गोद लिया था। बालक का नाम ‘यसवन्त’ था। यसवन्त पढ़-लिख कर डॉक्टर बना।

निस्संतान होने के कारण दूसरी सादी करने के लिए जब सावित्री ने आग्रह किया तब जोतिराव का कहना था- यदि दूसरी पत्नी से भी पुत्र नहीं हुआ तब मैं ही दोषी सिद्ध होऊंगा। तब क्या तुम मुझसे तलाक लेकर दूसरी शादी करने को रजामंद होगी?

सार्वजनिक कुओं से अछूत पानी नहीं भर सकते थे। सन् 1868 में इसके विरूध्द आन्दोलन की शुरूआत कर जोतिराव ने इसे व्यापाक रूप दिया। इसी प्रकार सन् 1872 में ‘छुआछूत निवारण आन्दोलन’ की शुरूआत की।

सामाजिक सुधार की दिशा में कार्य कर रहे कुछ ब्राह्मण मित्र उनके प्रशंसक भी थे। किन्तु वर्ग-हित उनके लिए सर्वोपरि था। उनकी कथनी और करनी में आश्चर्यजनक रूप से विरोधाभास था। महादेव गोविन्द रानाडे (1842-1901) उनमें एक थे। रानाडे विधवा विवाह के समर्थक थे लेकिन पहली पत्नी के मर जाने पर रानाडे ने विधवा के साथ पुनर्विवाह न करके कुंवारी कन्या जिसकी उम्र 9 वर्ष थी, विवाह किया था। सनद रहे, उस समय रानाडे की उम्र 32 वर्ष थी।

सामाजिक परिर्वतनों के विविध चरणों में जोतिराव ने सन् 1855 में ‘तृतीय रत्न’ शीर्षक नाटक, सन् 1865 में ‘जातिभेद विवेकसार’ ग्रंथ के दूसरे संस्करण का प्रकाशन, सन् 1869 में ‘शिवाजी महाराज के पंवाड़े’ तथा ‘ब्राह्मणों की धूर्तता’ और सन् 1873 में ‘गुलामगीरी’ आदि ग्रंथों की रचना की थी।

‘गुलामगीरी’ की प्रस्तावना में नारी और शुद्रातिशुद्रों के अविद्या के दलदल में सदियों से पड़े होने पर जोतिराव कहते हैं-
विद्या बिना मति गई, मति बिना नीति गई
नीति बिना गति गई, गति बिना वित्त गया
वित्त बिना सूद्र गए, इतने अनर्थ एक अविद्या ने किए।

हिन्दुओं में ‘सत्यनारायण की कथा’ के बहाने ब्राह्मण- पुरोहितों द्वारा भोली-भाली जनता को अन्ध-विश्वास के दलदल में ढकेला जाता है। जोतिराव ने इसकी पोल खोलने के लिए ‘तृतीय रत्न’  नामक नाटक पुस्तिका लिखी थी।

‘ब्राह्मणाचे कसब’(ब्राह्मणों की धूर्तता) नामक पंवाड़ों और अभंगों का पद्य-संग्रह में पंडे-पुराहितों का भंडाफोड़ किया गया है। एक स्थान पर जोतिराव लिखते हैं कि जो ब्राह्मण, चांडाल से पानी नहीं पीता, वह उसके हाथ से भिक्षा कैसे ले लेता है?

सन् 1883 में लिखा शेतकय्राचा असूढ़(किसानों का कोड़ा) नामक किताब में किसानों के साथ ब्राह्मण अधिकारियों द्वारा किए जाने वाले घमंडी बर्ताव का कच्चा चिट्ठा बयान था।

जोतिराव पत्र-पत्रिकाओं में भी लेख लिखते थे। उनके अधिकतर लेख ‘दीनबन्धु’ में छपते थे। दीनबन्धु,  सत्य-शोधक समाज का मुख-पत्र था। पत्र के सम्पादन और प्रकाशन का सारा काम जोतिराव के एक मित्र कृष्णाजी पांडुरंग भालेकर देखते थे। प्रेस भी उन्होंने अपने पैसे से खरीदी थी। दीनबन्धु का पहला अंक 1 जन. 1877 को छपा था। आगे भी कई साप्ताहिक/मासिक पत्र निकलते रहे। 

सामाजिक परिवर्तन के कार्यों को एक व्यवस्थित रूप देने के लिए 24 सित. सन् 1873 को जोतिरॉव ने ‘सत्य-शोधक समाज’ की स्थापना की। संस्था का उद्देश्य सूद्रों और अछूतों को मनुवादी धर्म-शास्त्रों के कुप्रभाव से मुक्ति दिलाना था। ब्राह्मण-पुरोहितों के जाल से बाहर निकालना था। मानवीय अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना था। समाज-सुधार की क्षेत्रा में महाराष्ट्र  में यह पहला आन्दोलन था।

संस्था की बैठक प्रत्येक रविवार को होती थी, इसमें लोगों को सामाजिक कुरितियों, अन्धविश्वासों और आडम्बरों के विरुद्ध आगाह किया जाता था।

भारत की शिक्षा संबंधी समस्या की जांच करके सुधार के उपाय सुझाने अंगेज सरकार ने सन् 1882 में एक आयोग का गठन किया था। जोतिराव को इस क्षेत्र में, खासकर गरीब तबके में काम करने का गहरा अनुभव था। जोतिराव ने गांव-गांव में पाठशाला खोले जाने के लिए के महतवपूर्ण सुझाव दिए।

पूना में सत्य-शोधक समाज की ओर से महाराजा सयाजीरॉव गायकवाड़ के सम्मान में एक बड़ी सभा की गई थी। महादेव गोविंद रानाडे भी इसमें आमंत्रित थे। रानाडे ने इस अवसर पर कहा था- ‘भारत में जाति-प्रथा लम्बे समय से चली आ रही है, किन्तु इससे देश की प्रगति में कोई बाधा पैदा नहीं हुई। जोतिराव आमंत्रित अतिथि को नाराज नहीं करना चाह रहे थे। उस समय वे चुप रहे। किन्तु सित. 1885 में उन्होंने इस पर ‘इसारा’ नामक एक पुस्तक लिखकर रानाडे की अच्छी खबर ली थी।

जनता का शंका-समाधान करने के उद्देश्य से जोतिरॉव ने जून 1885 में ‘सतसार’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। यह पत्रिका प्रश्नोत्तर के रूप में थी। प्रश्नकर्ता जोतिरॉव के दत्तक पुत्र यसवन्त थे और उत्तर देने वाले स्वयं जोतिरॉव। अक्टू. 1885 में इसका दूसरा अंक निकला।

ब्राह्मण पुरोहितों का पूजा-पद्दति और संस्कार विधि पर से एकाधिकार समाप्त करने के उद्देश्य से जून 1887 में जोतिराव ने मंत्रादि सहित ‘सर्व पूजा-विधि’ नामक पुस्तिका प्रकाशित की। इसमें जन्म मरण, विवाहादि संस्कार कैसे सम्पन्न हो,  की विधि सिलसिलेवार दी गई थी। शादी-ब्याह में समझ में न आने वाले संस्कृत-मंत्रों के बदले मराठी में सर्वबोधगम्य मंगलसूत्र दिए गए थे। बिना ब्राह्मण पुरोहित के विवाह-पद्दति सम्पन्न की जानी थी।

ब्रह्म और प्रार्थना समाज को छद्म बताते हुए जोतिराव ने उनकी कटु आलोचना की थी। उनका कहना था कि ईसाई धर्म की नकल कर ये ब्रह्म और प्रार्थना-समाजी शुद्रातिशुद्रों के मन मे उलझन पैदा रहे है। एक तरह से उन्हें पुनः बेवकूफ बना रहे थे।

जोतिरॉव सामाजिक परिवर्तन के पुरोधा थे। वे सामाजिक परिवर्तन के असली रोढ़े को जानते थे। मनुवादी व्यवस्था को समाप्त करने के लिए उन्होंने धर्म-शास्त्रों पर प्रहार करना आरम्भ किया।

8 मार्च 1960 को 18 वर्षीय शैनवी ब्राह्मण विधवा नर्मदा का विवाह रघुनाथ जनार्दन यूवक से पूना के गोखले बाग में जोतिरॉव ने सम्पन्न कराया।

सत्य-शोधक समाज के प्रयास से महाराष्ट्र के सभी सरकारी स्कूलों में शूद्र-अछूत समाज के छात्रों को निःशुल्क शिक्षा देने की व्यवस्था आरम्भ हुई।

5 दिस. 1873 को सीताराम नामक यूवक का विवाह सत्य-शोधक समाज के नियमानुसार सम्पन्न हुआ। कुछ ही दिनों बाद पुणे के निकट हड़पसर नामक गांव के ग्यानोबा ससाने नामक यूवक का विवाह इसी प्रकार सम्पन्न हुआ। इसमें पहले तो ग्यानोबा ब्राह्मणों के झांसे में आ गया था किन्तु जोतिराव के समझाने पर वह मान गया। बिना किसी बाधा के विवाह सम्पन्न हो, जोतिराव ने इसके लिए अपने मकान में आयोजित किया था।

इसी प्रकार पुणे के कुछ दूर जुन्नर तहसील के बाळाजी कुसाजी पाटिल ने अपने पुत्री का विवाह सत्य-शो धक समाज के नियमानुसार सम्पन्न कराया। इसमें किसी कर्मकाण्डी ब्राह्मण पुरोहित को नहीं बुलाया गया था। पुरोहिती पर आश्रित ब्राह्मण समाज में खलबली मच गई। कट्टर-पंथियों के होश उड़ गए। एक बड़ी सभा बुलाकर एक विवाह को अवैधानिक करार किया गया। दूसरी ओर कोर्ट में मुकदमा दायर किया गया। लोअर कोर्ट ने ब्राह्मणों के पक्ष में फैसला दिया। मुकदमा हाई कोर्ट तक पहुंचा। हाई कोर्ट ने विवाह को वैघ करार किया।

बाळाजी पाटील के विरुद्ध मुकदमें में सुनवाई मुम्बई के हाई कोर्ट में हो रही थी, तब की बात है। सड़क पर कोई  शोभा-यात्रा गाजे-बाजे के साथ से शान से जा रही थी। पता चला एक धनवान माता अपनी बेटी का विवाह किसी मंदिर के भगवान की मूर्ति से कराने जा रही है। स्मरण रहे, लड़किया भगवान की दासि के नाम पर एय्यास पूजारी और धनी पुरुषों के लिए भोग की वस्तु हो जाती है।

जोतिराव ने तुरन्त थाने का रुख किया। किन्तु थानेदार ने अपनी असमर्थता प्रगट की। जाेतिराव पुलिस आयुक्त के पास पहुंचे और उन्हें समझाया कि कुछ एय्यास लोगों की वासना पूर्ति के लिए धर्म की आड़ में नई-नई युवतियों का प्रबन्ध करने की प्रथा को रोकना नितान्त आवश्यक है। अंगेज पुलिस आयुक्त ने तुरन्त आदेश देकर विवाह को रुकवा दिया। बात हवा की तरह फैली। मुम्बई के समाचार पत्रों ने सोर मचाया कि विदेशी सरकार सदियों से चली आ रही हमारी प्रथाओं को रोक कर हमारे धर्म पर आक्रमण कर रही है।

जोतिराव वेदों को छुआछूत और जाति’भेद की असली जड़ कहा करते थे। इनके समकालीन दयानन्द सरस्वती(1824-1883) वेदों से छुआछूत और जाति-भेद मिटाने की बात करते थे। इन्होंने ‘आर्य समाज’ की स्थापना की थी। सन् 1875 की अवधि में वे एक बार पूना आए। महादेव गोविन्द रानाडे ने उनकी शोभा-यात्रा में जाेतिराव की मदद मांगी। जोतिराव इस सर्त पर राजी हुए कि न तो वे वेदों की जयजयकार करेंगे और न ही ग्रंथों की पालकियां उठाएंगे। जोतिराव पुणे नगरपालिका के सन् 1876 से 1882 तक सदस्य रहे थे। जोतिराव को जब भी मौका मिला, उन्होंने अपनी बात पूरी शक्ति के साथ रखी।

सत्य-शोधक समाज के आन्दोलन में आगे आए, उनमें ठाणे के नारायण मेघाजी लोखंडे प्रमुख है। लोखंडे ने सन् 1879 में बम्बई में मिल-मजदूरों का पहला संगठन बनाया और मजदूरों के हक-हकूक के लिए आन्दोलन की शुरूआत की। इसके के परिणामस्वरूप सन् 1891 में फैक्टी एक्ट बना और मजदूरों के लिए सुरक्षा के उपाय निर्धाति हुए। निःसंदेह मजदूर-आन्दोलन की नींव डालने वाले जोतिराव फुले पहले नेता थे।

सरकार द्वारा सर्वत्र शिक्षा का प्रबन्ध किया जाए, जोतिराव की लगातार यह मांग तब फलिभूत हुई जब अंगेज सरकार ने सन् 1882 में  ‘हंटर आयोग’ का गठन किया। जोतिराव ने आयोग से मांग की कि 12 वर्ष के सभी बालक और बालिकाओं को अनिवार्य रूप से प्राथमिक शिक्षा दी जाए।

शिक्षण संस्थाओं में ब्राह्मणों की भरमार थी। पाठ्य-पुस्तकों में ब्राह्मणों के लिखे धर्म-ग्रंथों के दोषों को ढक दिया जाता है। बहुजन समाज को अंधेरे में रखने का धर्म और शिक्षा के माध्यम से प्रयास किया जाता है। जोतिराव लगातार इन षढ़यंत्रों का पर्दाफास कर रहे थे।

जोतिराव की ज्योति का प्रकाश चारों ओर विखेर रहा था। बड़ौदा नरेश सयाजी गायकवाड़ जोतिराव के भारी प्रशंसक थे। वे जब भी मौका मिलता, उनकी सहायता करते थे।

जोतिराव का उनके असाधारण धेर्य, त्याग, निस्वार्थ सेवा के लिए 11 मई 1888 को मुम्बई के मांडवी-कोलीवाड़ा अभिनन्दन किया गया। इस सभा में जोतिरॉव को ‘महात्मा’ की उपाधि से अलंकृत किया गया।

अपने उद्बोधन में जोतिरॉव ने कहा- मैंने जो कुछ किया है, यश लूटने की भावना से नहीं बल्कि एक पुनित कर्त्तव्य की भावना से किया है। मुझे संतोष होगा अगर आप लोग इस आन्दोलन को आगे बढ़ाए।

हम देखते हैं कि ब्राह्मण-बनियों ने ‘महात्मा’ की पदवी से गांधीजी (1869-1948) को अलंकृत किया जो तमाम उम्र जात-पांत और वर्ण आदि व्यवस्था पर घी-शक्कर चुपड़ते रहे।

धर्म-शास्त्रा और पुराणों की जोतिराव ने जमकर धुनाई की। पुराणों में वर्णित परशुराम के द्वारा अपनी माता रेणुका का वध को जोतिराव ने धिक्कारा। इसी प्रकार शिशुपाल की प्रस्तावित वधू रुक्मिणी का श्रीकृण द्वारा हरण करके विवाह करने के कृत्य की भी निन्दा की। जोतिराव कहते थे कि इस तरह के कृत्य महिलाओं के प्रति असमानता और अमानवीय क्रूरता के प्रतीक हैं। नारी शिक्षा का निषेघ ब्राह्मण इसलिए करते हैं कि पढ़-लिख कर वह विद्रोह न कर बैठे।

बुलढाना जिले के सत्य-शोधक समाज के एक कार्यकर्ता की बेटी ताराबाई शिन्दे के जोतिराव बड़े कायल थे। ताराबाई ने सन् 1884 में लिखे अपने एक लेख में पुरुष प्रधान समाज से सवाल किया कि क्या पति का हर-हाल में आज्ञा-पालन करना, उसकी मर्जी से बर्ताव करना, उसके मारने -पीटने, गाली-गलौज करने, रखैल रखने, शराब में घुत लड़-झगड़ करने पर भी उफ न करना ही ‘स्त्राी-धर्म’ है? ताराबाई की जमकर आलोचना हुई किन्तु जोतिराव ने उनका बचाव किया।

जोतिराव की ख्याति जब चरम सीमा पर थी, तब जुलाई 1888 में  वे हार्ट अटेक से अचेत हो गए और उनका दाया हिस्सा पक्षाघात का शिकार हो गया। शरीर के असक्त हो जाने के बाद भी इस महामानव का लेखन कार्य चलता रहा। ‘सार्वजनिक सत्य धर्म’ नामक  ग्रंथ वे बाएं हाथ से लिखते रहे जो उनके मरणोपरान्त प्रकाशित हुआ।

जोतिरॉव के दत्तक पुत्रा यशवन्त का विवाह जोतिरॉव के एक मित्रा ज्ञानोबा कृष्णराव ससाने की पुत्राी राधा से 4 फर. 1889 को हुआ था। विवाह की रस्म सत्य-शोधक समाज के विधि अनुसार हुई थी। राधा को रोग-सय्या पर पड़े इस ससुर की सेवा करने का अवसर मिला था। यशवन्त मेडिकल की पढ़ाई कर सरकारी नौकरी करने लगे थे।

रोग सय्या पर पड़े इस महामानव के द्वारा जलाई हुई मशाल जहां-तहां पहुंच रही थी। जोतिारॉवव को इसकी खबरे मिल रही थी। 14 अप्रेल 1890 को नाईयों ने अपने नेता सदोबा कृष्णाजी की अध्यक्षता में एलफिंटन कॉलेज बम्बई में सभा कर ब्राह्मण विधवाओं का केस मुण्डन न करने का ऐलान किया।

28 नव. 1890 को 63 वर्स की उम्र में इस महामानव ने इस संदेश के साथ अंतिम सांस ली ‘कि जो जोत उन्होंने जलाई है, वह बुझने न पाएं। यह सच है कि गणेस, शंकर, हनुमान, दूर्गा आदि देवी-देवताओं के मंदिरों के बाहर बड़ी-बड़ी कतारे लगती हैं, जिनमें अधिकािाक संख्या उन शिक्षितों की होती है जिनके बाप-दादाओं और मां, बहनों को शिक्षित करने का कार्य देश की प्रथम महिला अध्यापिका सावित्राी बाई फुले ने किया किन्तु इससे सामाजिक परिवर्तन के कार्य को धक्का लगा हो, कहना गलत होगा।

महाराष्ट्र  में प्लेग की बीमारी ने भयंकर रूप धारण किया था। सावित्राी बाई घर-घर जाती और रोगियों को ढूंढ ढूंढ कर अपने पुत्रा डॉ. यसवन्त के पास ले आती। इस आपा-धापी में सावित्राीबाई स्वयं को उस रोग से बचा नहीं पायी। 10 मार्च 1897 को उन्होंने अन्तिम सांस ली। ठीक भी है, दम निकले तो गरीब-बीमारों की सेवा में निकले। खुद या परिवार पर बोझ बनकर क्या जीना ?(संदर्भ- युग पुरुष महात्मा फुलेः मुरलीधर जगताप, महात्मा फुले चरित्रा साधने पकाशन समिति, शिक्षा मंत्रालय, महाराष्ट्र  शासन मुम्बई 400032)।

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