द्वि बारं, ति-बारं ताळनं सुनखस्स, चजति ते त्वं द्वारं
बारम्बारं ताळनं पि दलित जना, न चजन्ति ते मन्दिरस्स द्वारं
दो बार, तीन बार कुत्ते को मारना, वह तुम्हारा दरवाजा छोड़ देता है
किन्तु बारम्बार प्रताड़ित होकर भी दलित, मंदिर का दरवाजा नहीं छोड़ते.
द्वि बारं, ति-बारं ताळनं सुनखस्स, चजति ते त्वं द्वारं
बारम्बारं ताळनं पि दलित जना, न चजन्ति ते मन्दिरस्स द्वारं
दो बार, तीन बार कुत्ते को मारना, वह तुम्हारा दरवाजा छोड़ देता है
किन्तु बारम्बार प्रताड़ित होकर भी दलित, मंदिर का दरवाजा नहीं छोड़ते.
अम्बेडकरस्स पञ्चसीलं
(अम्बेडकर के पञ्चसील)
1. असिक्खितानं सिक्खितं करनं.
(अक्षिशितों को शिक्षित करना)
2. सिक्खितानं सुसिक्खितं करनं.
(शिक्षितों को सुशिक्षित करना)
अम्बेडकरवादं
नग्गं दिस्वा
नंगे को देखकर
चजनं अत्तानि वत्थानि
अपने कपड़े त्यागना
इति गांधीवादं,
यह गांधीवाद है,
पन, नग्गं दिस्वा
किन्तु, नंगे को देखकर
तं 'टाई-सूट' धारनं
उसे 'टाई-सूट' पहनाना
अयं अम्बेडकरवादं.
यह अम्बेडकरवाद है.
भारतीय परिधानं
सर्व-ग्राह्यता
पडोसी मित्र शर्माजी, जो एक मंजे हुए लेखक और साहित्यकार है, के यहाँ बैठा मैं चाय पी रहा था.
अचानक पुस्तकों की रेक में 'धम्मपद' देख मैंने पूछा-
"तो फिर इन ग्रंथों के बीच डॉ. अम्बेडकर लिखित 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' भी होगा ?"
"जी नहीं, 'धम्मपद' जितनी सर्व-ग्राह्यता अभी उसमें आना बाकि है."
धर्मान्धता
भूत काले किरिया पयोगा(6)
1. मक्कटं नच्चन्तं दिस्वा दारका करतलेंसु।
बन्दर को नाचते देख बच्चों ने ताली बजाया।
2. धीतं मधुर सरेन भीमगीतं गायन्तं दिस्वा मात-पितुनो पसन्ना अभविंसु।
बेटी को मधुर स्वर से भीमगीत गाते हुए देख माता-पिता प्रसन्न हुए।
3. कर्मचारियों को दिल से काम करते देख अधिकारी प्रसन्न हुआ।
कम्मकरे चित्तेहि कम्मं करन्तं दिस्वा अधिकारी पसन्नो अभवि।
4. पेड़ से पका आम गिरता देख बच्चें तेजी से दौड़े।
रुक्खस्मा पक्कं अम्बं फलं पतन्तं दिस्वा दारका वेगेहि धाविंसु।
5. रोड़ की ओर अपने बच्चे को जाता देख मां तेजी से दौड़ी।
मग्गपस्से सकं बच्चं गच्छन्तं दिस्वा मातु वेगेन धावि।
6. मुझे बेर खाते हुए देख तुम्हारे मुंह में पानी आया।
बदरी फलानि मं खादन्तं दिस्वा त्वयि मुखे रसं आगच्छि।
INTERNATIONAL PALI FOUNDATION
Hon. Members,
It is informed that on increasing Kovid threat specially, in Maharashtra and sealing its boundaries by MP Govt, 'Second Dhammalipi-Pali Sangayana Sanchi' organiging committee held it meeting on 16th March 2021 and decided-
1. The 'Sanchi Sangayana' summit going to be held on 3-4 April 2021, is hereby postponed till May 2021. Situation shall be reviewed and date will be fixed in May 2021 last week.
2. However, Online publishing research papers/articles will be continue. You are requested to submit the papers/articles up to 25 March 2021, already fixed date. We are going to form a expert committee to scrutinize shortly.
-With regards.
भूतकाल में कुछ किरिया शब्दों के विशेष रूप
करोति(कर)- करता है।
देति/ददाति(दा)- देता है।
तिट्ठति(ठा)- खड़ा होता है।
पुरिस- एकवचने-- अनेकवचने
उत्तम पुरिस-अहं अकरिं/अकासिं-- मयं अकरिम्ह/अकम्हा।
मैंने किया। हमने किया।
मज्झिम पुरिस- त्वं अकरि/अकासि-- तुम्हे अकत्थ।
तूने किया। तुम लोगों ने किया।
अञ्ञ पुरिस- सो अकरि/अकासि/अका-- ते अकरिंसु/अकंसु।
वाक्यानि पयोगा-
1. मैंने जो कहा, उसने किया।
अहं यं वदिं, सो अकरि।
अहं यं वदिं, सो अका।
अहं यं वदिं, सो अकासि।
2. उसने क्या किया, जो दुर्गति को प्राप्त हुआ?
सो किं अकरि, यं दुग्गतं पापुणि ?
सो किं अकासि, यं दुग्गतं पापुणि ?
सो किं अका, यं दुग्गतं पापुणि ?
...................
पापुणति- प्राप्त करता है। भूतकाले- पापुणि।
18. 03. 2021
क्या तुमने वह कार्य किया ?
किं त्वं तं करिय अकासि ?
क्या तुमने वह कार्य किया, जो मैंने कहा ?
किं त्वं तं करियं अकासि, यं अहं वदिं ?
मैंने जो कहा, क्या तुम लोगों ने किया ?
यं अहं वदिं, किं तं तुम्हे अकत्थ ?
जो मैंने कहा, वह उसने किया.
यं अहं वदिं, तं सो अका.
क्या उसने तुम्हारा कार्य किया ?
किं सो तव करियं अका?
क्या उसने तुम्हारी पुस्तक दिया ?
किं सो तव पोत्थकं अदा ?
उसने तुमको क्या दिया ?
सो तव किं अदा?
अद्दसा भगवन्तं, मगध महाराजा अजातसत्तु सिरसा वन्दि.
भगवान को देख मगध महाराजा अजातसत्तु ने सिर से वंदन किया.
अद्दसा मात-पितूनं, पुत्तो सिरसा वन्दि.
माता-पिता के देख पुत्र ने सिर से वंदन किया.
कान्हेरी पर्वत का नाम वहाँ के शिलालेखों में 'कन्हासित पर्वत 'लिखा मिलता है। कान्हेरी को 'कन्हागिरी 'अथवा कृष्णागिरी भी कहा जाता है। यहाँ 107 विहार और 7 चैत्यगृह हैं।ईसा पूर्व की दूसरी सदी से ग्यारहवीं सदी तक यानि तेरह सौ वर्षों तक यहाँ बीच बीच में लेणी (गुफाएँ) निर्माण का कार्य होता रहा है।
तब गोंदिया से जबलपुर छोटी नेरो गेज ट्रेन चलती थी। रात को ग्यारह बजे वह बालाघाट आती और सुबह सात बजे जबलपुर पहुंचा देती।
भगवा वुच्चति-
(बुद्ध कहते हैं)
यथा नदियो नाना पब्बता, नाना ठाना
जिस प्रकार नदियाँ भिन्न भिन्न पर्वतों, भिन्न भिन्न स्थानों से
आगच्छन्ति च समादियन्ति समुद्दो
आती हैं और समुद्र में मिलती हैं,
तथेव जना, नाना कुला नाना वंसा
उसी प्रकार लोग भिन्न-भिन्न कुल और वंश
चजन्ति च समादियन्ति धम्मो.
त्याग कर भगवान के धम्म को अंगीकार करते हैं.
1. सिंहली में.
2. पालि भासा और सिंहली लिपि में.
-बुद्ध परिनिर्वाण के तीन-चार शताब्दियों बाद बुद्ध वचनों में आये दिनों होती अदल-बदल धम्मधरों को अरुचिकर प्रतीत होने लगी. उनमें से कुछ लोगों ने बुद्धवचनों की प्राचीन भासा को ही अपनाया और आगे यथा संभव प्रयत्न किया की इसमें कुछ रद्दो-बदल न होने पाए. दूसरे प्रकार के शिष्यों ने उसे अधिक स्थायी संस्कृत में कर दिया और तीसरे प्रकार के लोगों ने परवर्ती भाषा में उसे सुरक्षित करने का प्रयास किया. पहले प्रकार में सिंहल के स्थिर वादी धम्मधरों की गणना होती है. उनके अनुसार उनके धम्म ग्रन्थ मूल मागधी भाषा में है. इस प्रकार स्थिरवादी ति-पिटक जिस भाषा में उपलब्ध है, उसी को पालि के नाम से अभिहित किया जाता है(विषय प्रवेश : पालि साहित्य का इतिहास: राहुल सांस्कृत्यायन).
3. पालि भासा और बर्मी लिपि में.
4. पालि भासा और बर्मी लिपि में.
5. मिलिन्द पंह ई. पू. 150 के आस-पास
6. ललितविस्तर(जिसके लेखक का पता नहीं है). तत्पश्चात ललितविस्तर अनुकरण करते हुए अश्वघोष(100 ईस्वी) रचित 'बुद्धचरित'; प्रथम सदी के आस-पास.
7. अशोक(ई. पू. 247- 232) शिलालेख. तीसरी संगति के समय मोग्गलिपुत्त रचित कथावत्थु.
सन्दर्भ- कथावत्थु एक मात्र ग्रन्थ है, जिसके लेखक और तिथि का हमें पता है. इसे मोग्गालिपुत्त तिस ने सम्राट अशोक के दरबार में लगभग 250 ई. पू. में संकलित किया था(बौद्ध धर्म का इतिहास और साहित्य, पृ. 50 ; टी. डब्ल्यु. रीज डेविड).
8. ललित विस्तर, बुद्ध चरित; प्रथम सदी के आस-पास.
9. दोनों देशों में ति-पिटक लगभग एक जैसा है. सनद रहे, सिंहल द्वीप से ही ति-पिटक साहित्य म्यामार गया था.
10. भारत का अधिकांश ति-पिटक और अन्य साहित्य सिंहलद्वीप से ही आया है जिसे बुद्धघोष ने 500 ईस्वी के आस-पास नागरी लिपि में लिपिबद्ध किया था.
- वैसे चाइना, तिब्बत आदि देशों में यहाँ से गया हुआ पालि-संस्कृत ति-पिटक व अन्य साहित्य वहां की लिपि में लिपिबद्ध होकर प्रचुर मात्रा में वापिस भारत आया है.
1. कल मैंने तुमको बुद्धविहार जाते हुए देखा।
हियो अहं त्वं बुद्धविहारं गच्छन्तं पस्सो।
2. क्या तुमने खेलते हुए उस सिसु को देखा?
किं त्वं कीळन्तं तं सिसुवं पस्सो।
3. क्या तुमने मधुर स्वर से गाती हुई उस बालिका को सुना।
किं त्वं मधुर सरेन गायन्ती तं दारिकं सुणि।
4. कल मैंने धम्मपद पढ़ती हुई उन महिलाओं को सुना।
हियो अहं धम्मपदं संगायन्ती ता महिलायो सुणिं।
5. क्या तुमने उगते सूर्य की लालिमा देखी?
किं त्वं उदयन्तं सुरियस्स रत्तत्ता पस्सिो?
6. क्या तुमने बाग में खिलते हुए किसी पुष्प को देखा?
किं त्वं उय्याने कस्सचि पुप्फं पुप्फन्तं पस्सो?
7. मैंने तुमको कल हारमोनियम बजाते देखा।
हियो अहं त्वं हारमोनियमं वादन्तं पस्सिं।
8. क्या तुमने गुजरती हुई उस ट्र ेन को देखा।
किं त्वं गच्छन्तं तं लोकयानं पस्सो?
9. क्या तुमने भीख मांगते हुए उस मूक बधिर को देखा?
किं त्वं याचन्तं तं मूक बधिरं पस्सो?
10.क्या तुमने आपस में कलह करते हुए उन कुत्तों को देखा?
किं त्वं परस्परं कलहन्तं ते सुनखे पस्सो?
अयं विहारस्स नाम असोक बुद्धविहारो.
अस्मिं विहारे बुद्धस्स विसाला पटिमा अत्थि.
पटिमाय वदने अतीव करुणा अत्थि.
हदयस्मा 'अत्त दीपो भव' पभासेति.
द्विहि अक्खिहि अतीव सन्ति विकिरति.
पटिमा कमलासने सुसोभति.
पटिमा ञाणं मुद्दाय अत्थि.
कमलासने परितो विविधानि कुसुमानि सन्ति.
पटिमा पिट्ठे धम्मचक्कपवत्तनं उक्किण्णं अत्थि.
उपासका च उपासिकायो भगवन्तं वन्दन्ति.
जना संगायन्ति-
बुद्धं सरणं गच्छामि.
धम्मं सरणं गच्छामि.
संघं सरणं गच्छामि.
बौद्ध-ग्रंथों को प्रदूषित करती स्त्री-विषयक ब्राह्मण-घृणा
अनिरुद्ध! तीन धर्मों से युक्त होने पर स्त्री शरीर छूटने पर, मरने के बाद दुर्गति को प्राप्त होती है, नरक में उत्पन्न होती है। कौन से तीन?
तीहि खो अनिरुद्ध! धम्मेहि समन्नागतो मातुगामो कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जति। कतमेहि तीहि ?
अनिरुद्ध! स्त्री पूर्वान्ह में मात्सर्य रूपी मल-युक्त चित्त से घर में निवास करती है। मध्यान्ह में इर्ष्या रूपी मल-युक्त चित्त से घर में निवास करती है। शाम के समय काम-राग रूपी मल-युक्त चित्त से घर में निवास करती है। अनिरुद्ध! इन तीन बातों से युक्त होने पर, स्त्री शरीर छूटने पर दुर्गति को प्राप्त होती है।
इध अनुरुद्ध! मातुगामो पुब्बण्ह समयं मच्छेर मल परियुट्ठितेन चेतसा अगारं अज्झावसति। मज्झन्हि समयं इस्सा परियुट्ठितेन चेतसा अगारं अज्झावसति। सायन्ह समयं कामराग परियुट्ठितेन चेतसा अगारं अज्झावसति। इमेहि खो अनिरुद्ध! तीहि धम्मेहि समन्नागतो मातुगामो कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गति विनिपातं निरयं उपपज्जति(अनिरुद्ध सुत्त; अंगुत्तर निकायः तिक निपातः कुसिनारवग्गो )।
छत्तीसगढ़ को कौशल प्रदेश भी कहा जाता रहा है.. इसे काल्पनिक वैदिक साहित्य रामायण के कौशल्या से संबंध स्थापित करने का भूल न करें..। बौद्धिक नगरी साकेत आज अयोध्या के नाम से जाना जाता है वहां के प्राप्त अवशेष अपने आप में छद्म कथाओं का पोल खोलता है..।
भारत दो प्रमुख साम्राज्य मगध और कौशल प्रदेश के नाम से विख्यात रहा है। कौशल प्रदेश का नाम व पहचान अपनी कृषि और कला के क्षेत्र में कुशलता अथवा प्रवीणता का परिचायक रहा है। जल जंगल और जमीन की आधुनिकतम उपयोगिता से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ दक्षिण कौशल के नाम पर विख्यात रहा है। जिसका राजधानी महानदी के तट पर बसा सिरपुर के नाम से जाना जाता है बौद्धिक विकास का महानतम केंद्र रहा है। जिसका नमूना आज धरती के आगोश में दबी खंडहरों से पता चलता है कि यह प्राचीन बौद्धिक शिक्षा केंद्र कितना विशाल रहा है। यह सभ्यता और संस्कृति बस्तर से लेकर महानदी और हसदेव नदी के तटपर पत्थरों में खुदे अनेकों शिलालेख से पता चलता है। यद्यपि ये इन शिलालेखों की लिपि पाली या प्राकृत भाषा दृष्टिपात होती है जो देवनागरी अथवा संस्कृत भाषा से हजारों साल पुरानी प्रतीत होती है।
कुछ लोग कौशल शब्द से यहां कौशल्या की जन्मभूमि बता कर रामवनगमन पथ की तलाश में भटकते फिर रहे हैं उन्हें सद्बुद्धि मिले।
छत्तीसगढ़ का यह क्षेत्र ऋग्वेद काल से भी प्राचीन लगता है .. जहां एक तरफ असुरगुजा (गढ़) राजा शबर, तो दूसरी ओर बारासुर जैसे राजा बलि के वंशजों का केंद्र रहा है जिन्होंने आर्यपुत्रों को भारत भूमि के प्रवेश पर डटकर मुकाबला किया है.. जिसके अनेकों प्रमाण यहां की प्राचीन श्रमण संस्कृति के रुप में आज भी मौजूद है। यहां की विभिन्न प्रकार के लोहा, हीरा, सोना, चांदी, तांबा, पीतल, कांसा, एल्युमिनियम आदि धातुओं के कलाकृतियों में महारत होने के अलावा मिट्टी, लकड़ी, बांस, चमड़ा, व अन्य प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ वनोपज से संबंधित सूती व कोसा कपड़ों की बारीकियों के जानकार कला कौशलता में विश्व विख्यात रहा है सिरपुर इसका जीता जागता प्रमाण है जहाँ ईंटों और पत्थरों की अनुपम कलाकृति का नमूना देखने को मिलता है। पूरा छत्तीसगढ़ एक समय बौद्धिक ज्ञान का केंद्र रहा है जिसके अनेकों जगह खुदाई से मिले अवशेषों से पता चलता है। इससे पता चलता है के अनेक आतताइयों से लड़ते मुकाबला करते हुए इसी कृषि और कला के धनी होने के कारण आज भी अपना अस्तित्व व अस्मिता दोनों को को बचाए रखने में सफल हैं।
यद्यपि छत्तीसगढ़ भौगोलिक दृष्टि से अत्यंत सुरक्षित क्षेत्र माना जाता है यही कारण वैदिक आतताइयों के दुष्प्रभाव से अब तक बचे रहे। हयहयवंशी साम्राज्य को स्वर्णिम युग कहा जाता रहा है जिसमें तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है। ऐतिहासिक सहस्त्रबाहू उर्फ कीर्तवीर्यार्जुन का उल्लेख महिष्मती साम्राज्य की संप्रभुता को दर्शाता है जिसका उल्लेख ऐतिहासिक पुष्यमित्र और पौराणिक परशुराम घोलमेल भी वैदिक साहित्यों में मिलता है। आज भी यहां के हैहैवंशी लोग कीर्तवीर्यार्जुन सहस्त्रबाहू को अपना ईष्ट मानते हैं।
सिरपुर महोत्सव दिनांक 12 से 14 मार्च को मनाया जा रहा है निश्चित ही यह गौरवशाली इतिहास की खोज में मील का पत्थर साबित होगा।
बधाई एवं शुभकामनाओं के साथ..
भूतकाले वाक्यानि
यस्मा वाहनं नत्थि तस्मा न आगच्छिं।
चूंकि वाहन नहीं था, इसलिए नहीं आया।
यस्मा लेखनी नत्थि तस्मा न लिखिं।
चूंकि पेन नहीं था इसलिए नहीं लिखा।
यस्मा समयं नत्थि तस्मा न नहायिं।
चूंकि समय नहीं था इसलिए नहीं नहाया।
यस्मा पोत्थकं नत्थि तस्मा न पठिं।
यस्मा समयं अत्थि तस्मा विसाखा आगच्छि।
चूंकि समय था इसलिए विसाखा आयी।
यस्मा अतिवुट्ठि भवि तस्मा सस्सं नट्ठं भवि।
क्योंकि अति वृष्टि हुई इसलिए फसल बरबाद हुई।
यस्मा सीलं अत्थि तस्मा सदाचारं पस्सिं।
क्योंकि सील है, इसलिए मैं सदाचार देखा।
तयि अक्खि अत्थि, तेन पन त्वं कथं न पस्सो?
तुम्हारे पास आंख थी फिर तुमने क्यों नहीं देखा?
यस्मा जलं न सिंचि तस्मा उयाने पादपानि सुक्खिंसु।
चूंकि पानी नहीं सींचा इसलिए बगीचे के पौधे सुख गए।
आज कामरेड स्तालिन की बरसी है।
स्तालिन के दत्तक पुत्र अर्तेम सेर्गीव ने लिखा है- एक बार स्तालिन के बेटे ने अपने "स्तालिन" उपनाम का प्रयोग सजा से बचने के लिए किया। स्तालिन को जब पता चला तो वो बहुत गुस्सा हुए। इस बात पर उनका बेटा वसीली बोला कि "मेरा उपनाम भी "स्तालिन" है। मैं भी एक स्तालिन हूँ।" स्तालिन ने कहा कि "नहीं तुम स्तालिन नहीं हो। मैं भी स्तालिन नहीं हूँ। स्तालिन सोवियत सत्ता का प्रतीक है। और जनता ही सोवियत सत्ता है।"
जब कामरेड स्तालिन की मृत्यु हुई उस समय उनकी संपत्ति थी :-
एक जोड़ा जूते
दो मिलिट्री ड्रेस
बैंक खाते में 900 रूबल...
केनेथ नील कैमरून लिखते हैं - स्तालिन ने सर्वहारा वर्ग के लिए जो किया था उतना उन्होंने बुर्जुआ वर्ग के लिए किया होता तो बुर्जुआ हलकों में उनको बहुत पहले ही सिर्फ सदी का नहीं बल्कि आज तक पैदा हुए सबसे महान लोगों में से एक घोषित कर दिया गया होता।
हार्वड के स्मिथ लिखते हैं - ‘‘इस शताब्दी के पहले आधे हिस्से में अगर किसी आदमी ने दुनिया को बदलने के लिये सबसे ज्यादा काम किया था तो वे स्तालिन ही थे।’’
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नाज़ी सेनाएं मास्को के अंदर तक घुस आई थी। सोवियत सुरक्षा एजेंसियों, सेना के उच्चाधिकारियों और पोलित ब्यूरो के सदस्यों, सभी की राय यही थी कि स्तालिन को किसी सुरक्षित जगह पर चले जाना चाहिए। लेकिन स्तालिन ने कहीं भी जाने से इंकार कर दिया और वहीँ एक छोटी सी झोंपड़ी से लाल सेना व सोवियत जनता का नेतृत्व करते रहे। यह था स्तालिन का व्यक्तित्व और उनकी इच्छाशक्ति। इसका कारण भी था। एक तो वह वर्ग संघर्ष और क्रांति की आग से तपकर तैयार हुए नेता थे, और दूसरा वे सोवियत जनता की शक्ति में अटूट विश्वास रखते थे।
विश्वयुद्ध के दौरान स्तालिन का बेटा फौज में लेफ्टिनेंट था। वह जर्मन फौज द्वारा बंदी बना लिया गया। हिटलर ने प्रस्ताव दिया था कि जर्मनी के एक जनरल को छोड़ने पर बदले में स्तालिन के बेटे को छोड़ दिया जाएगा। स्टालिन ने यह कहकर इंकार कर दिया कि , "एक सामान्य-से लेफ्टिनेंट के बदले नाजी फौज के किसी जनरल को नहीं छोड़ा जा सकता।"
एक बार स्तालिन की बेटी स्वेतलाना के लिए एक अच्छे फ्लैट की व्यवस्था की गई थी तो ये सुनकर स्तालिन बहुत गुस्सा हुए और उन्होंने कहा," क्या वह केंद्रीय कमेटी की सदस्य है या पोलित ब्यूरो की सदस्य है कि उसके लिए अलग इंतजाम होगा? जहाँ सब रहेंगे, वहीं वह भी रहेगी।"
स्तालिन के बॉडीगार्ड ने एक इंटरव्यू में बताया था कि विश्वयुद्ध में विजय के बाद सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत ने स्तालिन को "सोवियत संघ का नायक" सम्मान देने की घोषणा की। स्तालिन ने यह कहते हुए यह अवार्ड लेने से मना कर दिया कि वे नायक नहीं हैं। नायक है सोवियत संघ की लाल सेना और सोवियत संघ की जनता जिसने इस युद्ध को असंख्य कुर्बानियां देकर जीता है। हालाँकि अपनी मृत्यु के बाद वे उनको नहीं रोक पाये और उनको मरणोपरान्त यह अवार्ड दिया गया।
अमरीकी लेखिका व पत्रकार अन्ना लुई स्ट्रांग स्तालिन के बारे में लिखती हैं :- "फ़िनलैंड की स्वतंत्रता तो बोल्शेविक क्रांति का सीधा तोहफा थी। जब जार का पतन हो गया तो फ़िनलैंड ने स्वतंत्रता की मांग की। तब वह रूसी साम्राज्य का हिस्सा था। केरेंसकी सरकार ने इसे नामंजूर कर दिया। ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका भी तब फ़िनलैंड की स्वतंत्रता के पक्षधर नहीं थे। वे नहीं चाहते थे कि पहले विश्वयुद्ध में उनका मित्र रहा जारशाही साम्राज्य टूट जाए। बोल्शेविकों के सत्ता सँभालते ही राष्ट्रीयताओं से जुड़ी समस्याओं के मंत्री स्तालिन ने इस बात को आगे बढाया कि फ़िनलैंड के अनुरोध को स्वीकार कर लिया जाए। उन्होंने कहा था: 'फिनिश जनता निश्चित तौर पर स्वतंत्रता की मांग कर रही है इसलिए "सर्वहारा का राज्य" उस मांग को मंजूर किए बिना नहीं रह सकता।......."
'............मैंने "मास्को न्यूज़" नामक अख़बार को संगठित किया था। उसके रूसी संपादक के साथ मैं ऐसे चकरा देने वाले झगड़ों में उलझ गई थी कि इस्तीफा दे देना चाहती थी। रूस छोड़कर ही चली जाना चाहती थी। एक मित्र की सलाह पर मैंने अपनी शिकायत स्टालिन को लिख भेजी। उनके ऑफिस ने मुझे फ़ोन करके बताया कि मैं "चली आऊँ और इस सम्बन्ध में कुछ जिम्मेदार कामरेडों से बात कर लूं"। यह बात इतने सहज ढ़ंग से कही गई थी कि जब मैंने खुद को उसी टेबल पर स्तालिन, कगानोविच और वोरोशिलोव के साथ मौजूद पाया तो अवाक रह गई। वे लोग भी वहां उपस्थित थे जिनके खिलाफ मैंने शिकायत की थी। छोटी सी वह पोलिट ब्यूरो पूरे सोवियत संघ की संचालन समिति थी। आज वह मेरी शिकायत पर विचार करने बैठ गई थी। मैं लज्जित हो गई।.....'
स्तालिन के नेतृत्व में जब सोवियत संघ ने अपना संविधान बनाया तो क्या हुआ था। पढ़िए :-
"संविधान को पास करने का तरीका बहुत महत्वपूर्ण था। लगभग एक वर्ष तक यह आयोग राज्यों और स्वैछिक समाजों के विभिन्न ऐतिहासिक रूपों का अध्ययन करता रहा जिनके जरिये विभिन्न काल में लोग साझे लक्ष्यों के लिए संगठित होते रहे थे। उसके बाद सरकार ने जून 1936 में एक प्रस्तावित मसविदे को तदर्थ रूप से स्वीकार करके जनता के बीच बहस के लिए 6 करोड़ प्रतियां वितरित कीं। इस पर 5,27,000 बैठकों में तीन करोड़ साठ लाख लोगों ने विचार-विमर्श किया। लोगों ने एक लाख चौवन हजार संशोधन सुझाए। निश्चित तौर पर इनमे से काफी में दोहराव था और कई ऐसे थे जो संविधान की बजाय किसी कानून संहिता के ज्यादा अनुकूल थे। फिर भी जनता की इस पहलकदमी से 43 संशोधन सचमुच अपनाये गए।"
स्तालिन को स्तालिन यूँ ही नहीं कहा जाता था। रूसी भाषा में इसका मतलब है "स्टील का आदमी"। वह सच में फौलादी इरादों वाले नेता थे। एक पिछड़े हुए भूखे नंगे देश को महाशक्ति में बदलना किसी टटपूंजीए के बस की बात नहीं है। तमाम पूंजीवादी साम्राज्यवादी कुत्साप्रचार के बावजूद आज भी रूस की जनता अपने इस महान नेता को उतना ही प्यार करती है। कुछ समय पहले रूस में हुए एक सर्वे में स्तालिन को आधुनिक समय का सबसे महान रूसी चुना गया है।
कुत्ता बन्दर पर दौड़ा।
सुनखो वानरे धावि।
कुत्ते बन्दर पर दौड़ें।
सुनखा वानरे धाविंसु।
बिल्ली चुहे पर दौड़ी।
मज्जारी उन्दरे धावि।
चुहे बिल्ली देखकर भागे।
उन्दरा मज्जारं दिस्वा पलायिंसु
शेर देखकर गीदड़ भागे।
सीहो दिस्वा सिंगाला पलायिंसु।
सुरक्षा प्रहरी के हाथ में दण्डा देख चोर भागे।
आरक्खस्स हत्थे दण्डं पसित्वा चोरा पलायिंसु।
संविधानस्स उद्देसिका पठित्वा जनस्स भयं पलायि.
संविधान की प्रस्तावना पढ़ लोगों का भय जाता रहा।
अर्हंत महादेव Vs हर हर महादेव
चक्रवर्ती सम्राट महाराजा अशोक द्वारा धम्मप्रचार के लिए अर्हंत भिक्खु महादेव और यवन देश से आए हुए भिक्खु धम्मरक्खित को भिक्खुदल के साथ भेजा था। नाला सोपारा (प्राचीन नालक-सुप्पारक) में पाटलिपुत्र से गंगा नदी से होते हुए गुजरात भरुच से होते हुए पहुंचे थे। भगवान बुद्ध के भिक्षापात्र पर स्तूप निर्माण किया था। बहुत बड़ा पत्थर का बर्तन नालासोपारा के स्तूप खुदाई में मिला है। उस पाषाण पिटारे से प्राप्त स्वर्ण मुर्तियां और फूल मुंबई के एशियाटिक सोसायटी के भवन में मौजूद है। पत्थर वाले कास्केट को मैंने 2006 और 2016 में देखा है। अंदर के सामान को देखने के लिए लिखा-पढ़ी के साथ देखने का समय भी निर्धारण की शर्तें है।
कान्हेरी गुफाएं निर्माण होने की वजह भिक्खुओं का वर्षावास है। नासिक के पास अर्हंत भिक्खु महादेव ने त्र्यंबकेश्वर में (शायद नाम,गोदावरी नदी ) वर्षावास किया था और वहां से धम्म चारिका भिक्खाटन करते हुए जहां से गुजरे उन स्थानों पर अनुयाई निर्माण हुए और बौद्ध गुफाओं का निर्माण हुआ।
भिक्खु यवन धम्मरक्खित गोदावरी नदी के किनारे किनारे कुछ भिक्खुओं के साथ पतिट्ठान (प्रतिष्ठान, जिसे वर्तमान में पैठण कहते है) से आगे दक्षिण भारत में कर्नाटक राज्य में धर्मस्थान को गये थे। यलम्मा देवी और देवदासी वाला स्थान प्राचीन भिक्खुनी विहार था, जैसे कलकत्ता का कालीमठ। विदर्भ महाराष्ट्र के अमरावती जिले में मोर्शी तहसील में सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला में सालबर्डी में वर्षावास करने की संभावना है, क्योंकि विदर्भ प्रान्त के लोग उसे छोटा महादेव कहते है। वहां पर बौद्ध गुफाएं है, महानुभाव पंथ के लोगों ने उन गुफाओं में परिवर्तन किया है। गुफाओं वाला क्षेत्र मध्यप्रदेश के बैतूल जिले और भैंसदेही तहसील में आता है।
भंडारा जिले में वैनगंगा नदी के तट पर पौनी का बौद्ध स्तूप महाराजा चक्रवर्ती सम्राट अशोक द्वारा बनाया था। वहां से भिक्खुगण महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की सीमा पर मोरखा जगह नागदेवता की जगह है, वहां से आगे पचमढ़ी के जंगलों में (पांच कमरे पत्थर काटकर बनाये है, उसके उपर महाराजा अशोक द्वारा बनाए बुद्ध स्तूप की बेसमेंट की ईंटों को मैंने आज से करीब पंद्रह साल पहले देखा हूं) वहां पर टुटा हुवा पुरातत्व विभाग का साइन बोर्ड था।
अर्हंत महादेव भिक्खु का आखरी वर्षावास या अंतिम अवस्था पचमढ़ी के जंगलों में होने की संभावना है। बड़ा महादेव की महाशिवरात्रि और नागपंचमी को यात्रा होती है। पचमढ़ी में नागराजाओं की हत्याएं की गई होगी। गुप्त महादेव की गुफा है, चौवर्या गढ़ है। महादेव से संबंधित गौरा पार्वती और जटाशंकर आदि बहुत सी बातें शोध का विषय है(आर्य अनार्य सांस्कृतिक संघर्ष भूमि का प्राचीन क्षेत्र है)।
भदंत प्रज्ञाशील महाथेरो (शुक्रवार 05 फरवरी 2021 सुबह 1: 48 बजे (डोनकियम, सुवन मोक्ख बलाराम का अंतरराष्ट्रीय ध्यान केंद्र का विदेशी साधक निवास, दक्षिण थाईलैंड)
गहरा षडयंत्र-
(1). बाल गंगाधर तिलक ने अपने द्वारा लिखित सन् 1895 के "संविधान " में और उनकी पत्रिका -केसरी और मराठा पत्रिका के लेख में लिखा है कि, "शूद्र वर्ण (पिछड़ा वर्ग) और अछूतों को " भारत की नागरिकता " नही दी जा सकती क्योंकि वर्ण व्यवस्था के अनुसार 'शुद्र वर्ण' का एकमात्र कर्तव्य तीनों उच्च वर्णों {ब्राह्मण, छत्रिय (ठाकुर), वैश्य (बनिया)} की सेवा करना है और धर्म शास्त्रों के अनुसार वे किसी भी "अधिकार" को धारण करने के अधिकारी नही हैं।
(2). मोहन दास कर्मचंद गांधी ने 1925 में लिखी अपनी पुस्तक "भारत का वर्णाश्रम धर्म और जाती व्यवस्था" में साफ साफ लिखा है कि, " शूद्र वर्ण (पिछड़ा वर्ग) और दलितों को "भारत की नागरिकता" की मांग करनी ही नही चाहिए क्योकि इससे "वर्णाश्रम धर्म" नष्ट हो जायेगा।"
(3). राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दूसरे सरसंघ संचालक -गुरु गोलवरकर अपनी पुस्तक "बंच ऑफ़ थॉट्स" में लिखते हैं कि "शूद्र वर्ण को देश की नागरिकता किसी भी हालत में नही दी जानी चाहिये क्योंकि वेदों के अनुसार हमारे पूर्वजों ने शूद्रों के पूर्वजों को हराकर शूद्रों को उच्च तीनों वर्णों की सेवा का काम सौंपा हैं।"
(4). सन् 1932 में गोलमेज कांफ्रेंस (लन्दन, इंग्लैंड) में आयोजित की गयी थी जिसमें कांग्रेस, महात्मा गांधी और हिन्दू महासभा की ओर से मदन मोहन मालवीय ने प्रतिनिधित्व किया था, जिसमें इन दोनों ने "शूद्र वर्ण" की "नागरिकता "और "वयस्क मताधिकार" का जबरदस्त विरोध किया था। लेकिन बाबा साहेब डा.भीमराव अम्बेडकर ,भास्कर राव जाधव (कुनबी) और प्रो. जयकर (माली ) के अकाट्य तर्कों और मजबूत आधार के कारण शूद्र वर्ण (पिछड़ा वर्ग) और दलित समाज को ये अधिकार अंग्रेजी सरकार को देने पड़े थे।
(5). आरएसएस की राजनैतिक शाखा "बीजेपी" सरकार का CAA, NRC और NPR का मामला इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।
विपश्यना केंद्र आरएसएस चलाता है!!
रामभाऊ म्हाळगी अकॅडमी मुंबई, गोखले इन्स्टिट्यूट पूना और भोसले मिलि्ट्री स्कुल नाशिक, यह RSS के सैंटर है। गोयंका के संस्था द्वारा आर.एस.एस लोगो को खुलकर सहयोग देना यह इस बात का सबूत है कि बनिया गोयंका डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी के बुद्ध धम्म क्रांति को रोकने के लिए ही काम करते है।
डॉ बाबासाहब आंबेडकर जी ने 1954 में द्वितीय अंतरराष्ट्रीय परिषद में खुलकर कहा था कि अभिधम्म और समाधी यह भारत मे बुद्ध धम्म के पुनर्जीवन के लिए सबसे बड़ी बाधक है, तथागत बुद्ध ने जो सामाजिक क्रांति की, सामाजिक उपदेश किये उसी को आधार बनाकर बौद्ध धम्म मुहमेंट चलानी पड़ेगी, "तथागत बुद्ध" ने जो सामाजिक और विनय (शील) इस पर जो उपदेश दिया है उसी पर ज्यादा जोर देने के जरूरत है, मुझे यह आप लोगो के नजर में यह खास बात लाकर देने की है कि आधुनिक बौद्ध धम्म के मानने वालों में अभिधम्म, समाधी और ध्यान पर बहुत ही जोर दिया जाता है, वही रीत भारत मे प्रस्तुत की तो वह बौद्ध धम्म के लिए बहुत ही हानिकारक सिद्ध होगी।" जब डॉ बाबासाहब आंबेडकर जी को समझ मे आ रहा था तो उतना बनिया गोयंका को समझ मे क्यों नहीं आ रहा था ?
भारत मे बौद्ध धम्म गोयंका ने नही डॉ बाबासाहब आंबेडकर जी ने लाया है, फिर इसका अध्ययन भारत के ब्राम्हणो ने किया और एक बनिया गोयंका को डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी के आंदोलन को रोक लगाने के काम पर लगा दिया, कांग्रेस के कार्यकाल में कुछ गद्दार लोगो को हाथ मे लेकर यह अभियान चलाया गया कि सरकारी कर्मचारियों के लिए कम्पलसरी 10 दिन की विपश्यना भेजा जाएगा, दरअसल जाति व्यवस्था और गैरबराबरी के खिलाफ विद्रोह न बढ़े इसके लिए गोयंका ने काम किया। गोयंका वही बताते है जो ब्राम्हण बुद्ध के बारे में गलत बताते है, जैसे कि सिद्धार्थ ने गृह त्याग क्यों किया? तो उसकी वजह है, चार दृश्य देखना, दरअसल यह मिथ्या बात है यह सबूतो के आधार पर डॉ बाबासाहब आंबेडकर जी ने सिद्ध किया कि सिद्धार्थ ने प्रेत, गरीब, बुढापा यह चीज देखी नही है यह गलत है, जो बात डॉ बाबासाहब आंबेडकर जी ने सबूतों के आधार सिद्ध की, बिल्कुल उसके खिलाफ मुंबई में जो पगोडा बनाया गया उसके मेन हाल में गोयंका ने वही चार दृश्य के पेंटिंग करवाकर दीवारों पर लगाये, इससे क्या सिद्ध होता है?
गोयंका बुद्ध के और धम्म के विरोधी है, इसका और एक सबूत इस तरह है, साधको का मासिक प्रेरणा पत्र (वर्ष 35, अंक -4) विपश्यना के 17 अक्टूबर 2005 को गोयंका ने एक आर्टिकल लिखा है जिसका शीर्षक "धर्म यात्रा के पचास वर्ष" ऐसा है, उसमें गोयंका ने जो लिखा वह सच्चे आंबेडकरवादी बौद्ध को घुस्सा दिलाएगा मगर थोड़ा दिमाग लगाओगे तो !!! गोयंका ने लिखा है -"इतना तो मैं समझ ही रहा था कि बुद्धवाणी में अनेक अच्छी शिक्षाएं विद्यमान है, तभी यह विश्व के इतने देशों में और इतनी बड़ी संख्या में लोगो द्वारा मान्य हुई है, पूज्य हुई है, परंतु इसमें जो कुछ अच्छा है, वह हमारे वैदिक ग्रंथो से ही लिया गया है।" गोयंका ने आगे लिखा है बुद्ध का अपना कुछ भी नही है बुद्ध ने तो वैदिक धर्म से ही चुराया है, अब गोयंका भक्तो को यह पढ़कर क्या महसूस होगा इसकी हम परवाह नही करते, मगर गोयंका ने वह गलत और भद्धि बात 2005 को ही क्यों कही? उन्होंने उस आर्टिकल को अपने धर्म यात्रा के पचास वर्ष ऐसा शीर्षक दिया था, जो कि डॉ बाबासाहब आंबेडकर के धम्म परिवर्तन के 50 साल 2006 को पूरे होने वाले थे उसे काउंटर करने के लिए यह गोयंका का आर्टिकल था। डॉ बाबासाहब आंबेडकर जी के द्वारा दिये गए बुद्ध धम्म को गोयंका मिटाना चाहते थे, विपश्यना जातिवाद को और मजबूत करती है, ब्राम्हणवाद को और मजबूत करती है। बनिया ने बुद्ध धम्म को धंदे में बदल दिया!!
गोयंका की छोटी छोटी कुछ किताबें है जो खुद उन्होंने प्रकाशित की है, 'क्या बुद्ध दुक्खवादी थे?' यह किताब सन 2000 में प्रकाशित की थी, दरअसल ब्राम्हण सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह आरोप लगाया था कि बुद्ध दुक्खवादी थे, पलायनवादी थे, अब गोयंका जैसे व्यक्ति ने उसके बातो का जिक्र किया है तो उसका खण्डन भी तो करना चाहिए था, इस पर गोयंका ने जो जवाब दिया वह अपने आप सिद्ध करता है कि गोयंका बुद्ध धम्म का विरोधी है ब्राम्हणो का आरएसएस का एजंट है, गोयंका ने जवाब दिया कि "मै नही मानता कि डॉ राधाकृष्णन जी ने जान बूझकर ऐसा किया, भले अनजाने में किया हो "गोयंका बुद्ध के वकील नही बुद्ध के दुश्मनों के वकील बने रहे जिंदगी भर!!!
उसके राधाकृष्णन ने बड़े गर्व से कहा था (और जिंदगीभर कहता ही रहा) की हिन्दू (वैदिक)संस्कृति हजारो सालो में टिकी रही इसका कारण उसमे अच्छाई है बाकी संस्कृतिया खत्म हुई, इस पर डॉ बाबासाहब आंबेडकर जी ने एनिहिलेशन ऑफ कास्ट में जवाब दिया था कि आप कितने वर्ष जिये यह महत्वपूर्ण नही है आप कैसे जिये यह महत्वपूर्ण है।
गोयंका के संस्था द्वारा आरएसएस के लोगो के साथ आकर काम करना यह अपने आप मे सबूत मिल गया है कि गोयंका का असली मकसद क्या था, ध्यान देने वाली बात यह है कि गोयंका ने महाराष्ट्र को ही अपना मुख्य केंद्र क्यों बनाया था? वजह क्या थी? डॉ बाबा साहब आंबेडकर जी के धम्म क्रांति को महाराष्ट्र में ही दबाया जा सके ताकि यह यह आंदोलन वैदिक धर्म को ही दुनिया से मिटा देगा, इस पर चिंतन हो विचार हो मंथन हो, क्योंकि डॉ बाबासाहब आंबेडकर जी ने हमें बुद्ध धम्म दिया है, गोयंका ने नही, गोयंका बनिया है, और ब्राम्हण और बनिया एक हो जाते है तो वह पूरे देश को लुटते है।
नत्थि में सरणं अयं बुद्धो में सरणं वरण- अर्थात -बुद्ध के अलावा मुझे किसी के भी शरण मे नही जाना है। अतः दीप भवो- अर्थात-स्वयम प्रकाशमान बनो, खुदका दिपक खुद बनो। जागृति का दीपक जलाएं रखो। जय भीम,नमो बुद्धाय।
प्रोफेसर विलास खरात,
डायरेक्टर डॉ बाबासाहेब आंबेडकर रिसर्च सेंटर, नई दिल्ली।
पालि भाषा भारत की एक प्राचीन भाषा है। पालि जिसकी लिपि, धम्मलिपि है, के वर्णाक्षर और सिन्धू संस्कृति के संकेताक्षरों में बहुत साम्यता है। पालि भाषा का मूल नाम मागधी है। यह मगध राज्य और इसके आस-पास के क्षेत्र में बोली जाती थी। बुद्ध ने अपने उपदेश इसी भाषा में दिए थे, इसलिए पालि को ‘बुद्धवचन’ भी कहा जाता है। बुद्धवचन की भाषा होने के कारण पालि भाषा का प्रचार तेजी से हुआ। मगध साम्राज्य ने भी इसी भाषा को अपनी राजभाषा बनाया। परिणामस्वरूप पालि, एशिया महाद्वीप की सीमाओं को लांघ गई। पालि अशोक काल की यह राजभाषा थी। अशोक ने अपने साम्राज्य में आम जनता के लिए आवश्यक दिशा-निर्देश पालि में ही लिखवाये थे, जो शिला, स्तम्भ, और गुफालेख के रूप में हमें मिलते हैं। अशोक के अधिकांश शिलालेख धम्मलिपि में हैं।
बोली मनुष्य विकास के क्रम में आपसी संवाद के लिए प्रयुक्त संकेतों का विकसित रूप है। प्रारम्भ में प्राकृत अर्थात क्षेत्रिय बोली का विकास होता है, तदन्तर वह व्याकरण की क्रमबद्ध संरचना को पार कर भाषा का रूप लेती है। संसार की प्रत्येक भाषा का अपना व्याकरण होता है। पालि भाषा का भी अपना व्याकरण है। पालि भाषा में व्याकरण की कई परम्पराएं हैं। उस में कच्चान व्याकरण और मोग्गल्लान व्याकरण दो परम्पराएं प्रमुख है। बुद्ध के प्रधान शिष्य महाकच्चान ने पालि भाषा का व्याकरण तैयार किया था; किन्तु वह नहीं मिलता है। आजकल कच्चान, मोग्गल्लान- इन्हीं दो व्याकरणों का अधिक प्रचार है। मोग्गल्लान व्याकरण आज से लगभग 750 वर्ष पूर्व सिंहलद्वीप में प्रथम पराक्रमबाहु के समय लिखा गया था।
01. 02. 2021
अतीतकालो
एकवचन-- अनेकवचन
उत्तम पुरिसो- अहं बुद्धं वन्दिं।-- मयं बुद्धं वन्दिम्ह।
मैं बुद्ध को वन्दन किया।-- हमने बुद्ध को वन्दन किया।
मज्झिम पुरिसो- त्वं बुद्धं वन्दि।-- तुम्हे बुद्धं वन्दित्थ।
तुमने बुद्ध को वन्दन किया।-- तुम लोगों ने बुद्ध को वन्दन किया।
अञ्ञ पुरिसो- सो बुद्धं वन्दि।-- ते बुद्धं वन्दिंसु।
उसने बुद्ध को वन्दन किया।-- उन्होंने बुद्ध को वन्दन किया।
सरलानि वाक्यानि-
रात में मैं अच्छे से सोया. रत्तियं अहं सम्मा सयिं.
क्या तुमने आज नहाया ? किं त्वं अज्ज नहायि?
क्या तुमने आज अल्पहार किया ? किं त्वं अज्ज अप्पहारं करि?
आज तुमने भोजन कहाँ किया ? अज्ज त्वं भोजनं कुत्थ करि?
अज्ज अहं भोजन घरं एव करि. आज मैंने भोजन घर में ही किया.
02-02-2021
मैं भोजन किया- अहं भोजन करिं-
मैं पानी पिया- अहं जलं पिबिं
मैं चाय पिया- अहं चायं पिबिं-
मैं सोया- अहं सयिं
मैं बैठा- अहं निसीदिं-
मैं कुर्सी पर बैठा- अहं पीठे निसीदिं-
मैं उठा- अहं उठिं
मैं प्रातकाल उठा- अहं पातकाले उठिं-
मैं प्रातकाल 6 बजे उठा- अहं पात काले 6 वादने उठिं-
मैं गाया- अहं गायिं
मैं गीत गया- अहं गीतं गायिं-
मैंने लिखा] अहं लिखिं-
मैंने पालि भाषा लिखा- अहं पालि भासं लिखिं-
मैं गया- अहं गच्छिं-
मैं नागपुर गया- अहं नागपुरं गच्छिं-
मैंने देखा- अहं पस्सिं-
मैंने नागपुर देखा- अहं नागपुरं पस्सिं-
मैंने नागपुर में दिक्खा-भूमि देखा- अहं नागपुरे दिक्खा&भूमिं पस्सिं-
6- पेड़ों पर बन्दर चढ़े- रुक्खेसु वानरा आरुहिंसु-
७- पेड़ों पर बन्दर चढ़कर फलों को खाया-
रुक्खेसु वानरा आरुहित्वा फलानि खादिंसु-
8. क्या तुम्हें पुस्तकें प्राप्त हुई ? किं तुय्हं पोत्थकानि अलभित्थ ?
7. भगवा धम्मचक्क पवत्तयि. बुद्ध ने धम्मचक्क प्रवर्त्तन किया.
2. नरपति हत्थेन असिं गहेत्वा अस्सं आरुहि।
राजा हाथ में तलवार लेकर घोड़े पर चढ़ा.
3. कदा तुम्हे कविम्हा पोथकानि अलभित्थ?
तुम लोगों को कवि से कब पुस्तकें प्राप्त हुई ?
4. कपयो रुक्खं आरुहित्वा फलानि खादिंसु।
बंदरों ने पेड़ पर चढ़ कर फलों को खाया.
5. सकुणा खेत्तेसु वीहिं दिस्वा खादिंसु।
खेतों में धान देख पक्षियों ने खाया .
6. गहपति अतिथीहि संद्धिं आहारं भुञ्जित्वा मुनि पस्सितुं अगमि।
गृहपति अतिथियों के साथ भोजन कर मुनि को देखने आया.
7. सुनखा अट्ठीनि गहेत्वा मग्गे धाविंसु।
कुत्ता हड्डियों को पकड़ कर सड़क पर दौड़ा.
8. अहं ममं ञातिनो घरे चिरं वसिं।
मैं अपने सम्बन्धी के घर दीर्घ समय रहा.
9. अहं तेसं आरामे अधिपति अहोसिं।
मैं उसके विहार में स्वामी होता था .
10. अहं गन्त्वा कविनो वदिं।
मैं जाकर कवि को कहा .
अरञ्ञे पक्खिनो दन्तिनं आगच्छन्तं दिस्वा रवं करिंसु।
थालियं उच्छिट्ठं भोजनं अवक्कार-पातियं ठापेतु।
भित्तीयं सन्धियं अम्हे रत्तियं सप्पे पस्सिम्ह।
यायं तिथियं रत्तियं वुट्ठि भवि, अम्हाकं गब्भीनी गावि विजायि।
भिक्खिुनियो गहपतानीनं ओवादं अदंसु।
नारियो महेसिं पस्सितुं नगरं अगमिंसु।
पारगू मग्गे मूल्हो सागरं गतो।
मा मज्झण्हे धेनूनं तिण्णं अदा।
सुजाता गाविया खीरेन पायासं पचित्वा बोधिसत्तस्स अदासि।
सुजाता ने गाय के दुध से खीर बना कर बोधिसत्व को दिया।
सो सयं अकासि। उसने स्वयं किया।
र××ाा तस्मिं गामे एको भिक्खूनं आवासो कारापितो।
राजिनि पसन्नम्हि भटो धनवा जातो।
र××ो रज्जं कारेन्ते मागधे अजातसत्तुस्ंिम, भगवा परिनिब्बायि।
अम्हाकं सत्थुनो पादे मयं सिरसा अवन्दम्हा।
सानो सेहि सद्धिं सन्धवं न करोन्ति।
खेत्तेसु तिणानि भु×िजतविनो गावो गोपालस्स अक्कोस्सनं सुत्वा निवत्तिंसु।
मय्हं भाता गोनं तिणं अदा।
मेरे भाई ने गायों को घास दिया।
‘‘भदन्ते’’ ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। स. नि. 1.249
एको गो तमसि खेत्तं अगमा।
एक बैल तुम्हारे खेत गया।यो पुरिसो मं पस्सि, सो अगमासि।
जिस आदमी ने मुझे देखा, वह चला गया।
येन मग्गेन सो आगतो, तेन मग्गेन अहं गच्छिस्सामि।
जिस रास्ते वह आया, मैं उस रास्ते से जाऊंगा।
या इत्थी मं पक्कोसि, सा अतिविय पंडिता।
जिस स्त्राी ने मुझे बुलाया, बहुत बुद्धिमान है।
येसं पुरिसानं ते सहाया भवन्ति तेसं अहं सहायो भविस्सामि।
जिन पुरुषो के वे सहायक हैं, उनका मैं भी सहायक बनूंगा।
तुम्हे तं न गुणवन्तं जानेय्य, यं सो पंडितो होति।
तुम्हें उसे गुणवन्त नहीं जानना चाहिए जब तक वह पण्डित न हो।
सो किं अकासि, यो मरणं पापुणि?
सो किं अकासि? उसने क्या किया?
उसने क्या किया जो मृत्यु को प्राप्त
यानि कि×चापि करणीयानि किच्चानि भविंसु,
जो कुछ करणीय कार्य हो रहे थे,
दिट्ठं, सुतं, मुतं वि××ाातं- सब्बं अनिच्चतो पच्चवेक्खितब्बं।
भगवा सावकेहि पुट्ठे प×हे ब्याकरोति।
एवं मे सुतं। ऐसा मेरे द्वारा सुना गया।
1. तस्ंिम दीपे साकुणिका गन्त्वा सकेन पाटवेन बहू सकुणे गण्हिंसु।
उस द्वीप में चिड़ीमारों ने जाकर अपनी पटुता से बहुत से पक्षियों को पकड़ा।
2. सोगतस्स सûिकं अज्जवं मद्दवं दिस्वा उपासकस्स चित्तं पसीदि।
बुद्ध के संघ की रिजुता मृदुता देखकर उपासक का चित्त प्रसन्न हुआ।
3. सेट्ठिम्हि कालं कते तस्स पुत्तो मत्तिकं पेत्तिकं धनं लभित्वा लोकिकं
वोहारो करोन्तो जीवं कप्पेसि। सेठ के मरने पर उसका पुत्रा, माता-पिता
पुत्तिके! भोति कदाचि कुत्थचि विवाह-उस्सवे गतवति किं ?
पुत्राी, आप कभी कहीं पर विवाह-उत्सव में गयी क्या?नदिया तीरं गताविनो पुरिसा नहायिंसु।
नदी किनारे गए हुए पुरुषों ने नहाया।
बुद्धं आगते, बालका सप्पं पहरन्तमानस्मा विरमिंसु च
ते सद्धाष्य बुद्धस्स पादेसु सीसे पक्खपित्वा वन्दिंसु।
बुद्ध के आने पर, लड़के सांप मारने से रुके और
उन्होंने श्रद्धा के साथ बुद्ध के चरणों पर सिर रखकर वन्दना की।
पठिते गंथे पुनप्पुनं पठितब्बं।
पढ़े गए ग्रंथों का बार-बार पढ़ना चाहिए।
के धन को प्राप्त कर लौकिक व्यवहार से जीवन व्यतित करने लगा।
4. कपासिकानि वत्थानि आच्छादेत्वा सारदिकाय रत्तियं सेतानि
पदुमानि गहेत्वा बुद्ध वन्दनाय सा चेतियं गच्छि।
सूती वस्त्रा धारण कर शरद रितु की रात में श्वेत कमल-पुष्पों के साथ
वह बुद्ध वन्दना करने चैत्य गई।
5. समणको गामे पिण्डाय चरन्तो एकस्मिं गेहे तेलकेन मिस्सतं ओदनं लभिं।
समण ने गांव में भिक्षाटन करते हुए एक घर में तेल मिला भात प्राप्त किया।
7. भगवा पुग्गलिकस्मा दानस्मा सûिकस्स दानस्स अतिरेक गारवतं पकासेसि।
भगवान ने व्यक्ति-विशेष को दिए दान से सû को दिए दान की
अतिरेक महत्ता प्रकाशित किया है।पिता पन तुम्हाकं जानाम, मातरं पन न पस्सिम्हा।
तुम्हारे पिता को जानते हैं, किन्तु माता को हमने नहीं देखा है।
अहं मग्गे गच्छन्तो तं पुरिसं पस्सिं।
मैंने मार्ग में जाते हुए उस पुरुष को देखा।
पब्बतस्स समीपे तिट्ठन्तानि घरानि, वाणिजा अज्ज विक्किणिंसु।
पर्वत के समीप खड़े घरों को व्यापारी ने आज बेचा।