मेट्रो में खड़ा मैं उस इबारत की और देख रहा था जिसमें लिखा था कि यह वृद्ध और शारीरिक रूप से कमजोर लोगों की सीट है। दोपहर 2 बजे का समय मैंने जान-बुझ कर चुना था ताकि भीड़-भाड़ न रहे। मैंने गुरु द्रोणाचार्य चौक से मेट्रो पकड़ी थी। ज्यादा भीड़ तो नहीं थी मगर, सारी सीटें भरी हुई थी। यह सोच कर कि एक दो स्टेशन बाद कोई न कोई तो उतरेगा, मैं एक लम्बी सीटर के पास पोल के सहारे खड़ा हो गया।
प्रारम्भ में 4 बोगिया लगायी गयी थी जो बाद में 6 कर दी गई। मगर, मेट्रो से जाने-आने वालों की संख्या दुगनी हो गयी। हालत यह है कि जिस तरह मुंबई लोकल में भीड़ रेंगती है, वैसे ही 'सेक्रेटरीयट', 'राजीव चौक' जैसे स्टेशनों में भीड़ रेंगती है।
मेट्रो एक के बाद एक स्टेशन क्रास कर रही थी। मगर, दोनों साईड बैठे लोग जो अधिकतर नवजवान थे, हिलने का नाम नहीं ले रहे थे। एक ने तो अर्जनगढ़ के बाद, उलटे लेपटाप खोल लिया था। एक लडकी जो शुरू से ही मोबाईल पर किसी से बात कर रही थी, कहीं से भी नहीं लग रहा था कि उसे उतरने की जल्दी है। पहले सिरे के कोने में बैठा नवजवान पीछे सिर टिकाये झपकी ले रहा था। दूसरे कोने में बैठा एक जोड़ा न ख़त्म होने वाली बातों में मग्न था। एक एंग्लो इन्डियन टाईप लड़का जिसने अपने लेपटाप वाला बैग बगल में टांग रखा था, बीच-बीच में मेरी ओर उचटती निगाह डाल देता था, जैसे मैं कोई 'एक्स्ट्रा' आदमी हूँ।
ग्रीन पार्क गुजरने के बाद मैंने हिम्मत की - "बेटे ! यहाँ मैं बैठ जाऊं?"
असल में इस टू-सीटर के ऊपर ही हम जैसों को भरोसा देती वह इबारत लिखी थी। उसने अजीब-सी नजर से मुझे देखा और माथे पर बल देते हुए कहा- " अंकल, यहाँ दो सीटें आलरेडी से हैं !"
"मगर, ये सीट एजेड लोगों के लिए है ?" -मैंने लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए थोडा जोर से कहा.
" पर, आप तो 'एजेड' नहीं लगते ?"
" 65 क्रास कर चुका हूँ।" - मैंने खिसिया कर कहा।
"मगर, आपके बाल तो काले हैं ?"
" ये तो कलर किये हैं।"
"तो करते रहिए, 'एजेड' के चक्कर में क्यों पड़ते हैं ?"
प्रारम्भ में 4 बोगिया लगायी गयी थी जो बाद में 6 कर दी गई। मगर, मेट्रो से जाने-आने वालों की संख्या दुगनी हो गयी। हालत यह है कि जिस तरह मुंबई लोकल में भीड़ रेंगती है, वैसे ही 'सेक्रेटरीयट', 'राजीव चौक' जैसे स्टेशनों में भीड़ रेंगती है।
मेट्रो एक के बाद एक स्टेशन क्रास कर रही थी। मगर, दोनों साईड बैठे लोग जो अधिकतर नवजवान थे, हिलने का नाम नहीं ले रहे थे। एक ने तो अर्जनगढ़ के बाद, उलटे लेपटाप खोल लिया था। एक लडकी जो शुरू से ही मोबाईल पर किसी से बात कर रही थी, कहीं से भी नहीं लग रहा था कि उसे उतरने की जल्दी है। पहले सिरे के कोने में बैठा नवजवान पीछे सिर टिकाये झपकी ले रहा था। दूसरे कोने में बैठा एक जोड़ा न ख़त्म होने वाली बातों में मग्न था। एक एंग्लो इन्डियन टाईप लड़का जिसने अपने लेपटाप वाला बैग बगल में टांग रखा था, बीच-बीच में मेरी ओर उचटती निगाह डाल देता था, जैसे मैं कोई 'एक्स्ट्रा' आदमी हूँ।
ग्रीन पार्क गुजरने के बाद मैंने हिम्मत की - "बेटे ! यहाँ मैं बैठ जाऊं?"
असल में इस टू-सीटर के ऊपर ही हम जैसों को भरोसा देती वह इबारत लिखी थी। उसने अजीब-सी नजर से मुझे देखा और माथे पर बल देते हुए कहा- " अंकल, यहाँ दो सीटें आलरेडी से हैं !"
"मगर, ये सीट एजेड लोगों के लिए है ?" -मैंने लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए थोडा जोर से कहा.
" पर, आप तो 'एजेड' नहीं लगते ?"
" 65 क्रास कर चुका हूँ।" - मैंने खिसिया कर कहा।
"मगर, आपके बाल तो काले हैं ?"
" ये तो कलर किये हैं।"
"तो करते रहिए, 'एजेड' के चक्कर में क्यों पड़ते हैं ?"
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