डा आंबेडकर द्वारा लिखित 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' की कई आलोचक कुछ बिन्दुओं पर आलोचना करते हैं। इन आलोचनाओं के कई पहलू हैं। ऐसे आलोचकों को तीन केटेगरी में रखा जा सकता है। प्रथम केटेगरी में वे आलोचक है, जो गैर बुद्धिस्ट और खास कर हिन्दू हैं। मोटे तौर पर इनकी आलोचना का विषय डा आंबेडकर का हिन्दू संस्कृति और उनके धर्म-ग्रंथों से निंदा है। इस केटेगरी के आलोचकों का जवाब काफी पहले ही डा डी आर जाटव ने अपने शोध ग्रन्थ 'डा आंबेडकर के आलोचक' में दे दिया है।
दूसरे वे आलोचक वे हैं, जो ट्रेडिशनल बुद्धिस्ट संस्थाओं से मठ्ठा-धीश हैं। परम्परागत बुद्धिस्ट मठों के इन मठाधीशों को डा आंबेडकर का नया नजरिया पसंद नहीं आया। वे जिन मान्यताओं और विश्वासों को लेकर बौद्ध धर्म के मठ सम्भाल रहे थे, आंबेडकर की तत्सम्बंध में की गई आलोचना से तो उन्हें वैसा करना ही था। डा आंबेडकर ने जिस तीव्रता से हिन्दू धर्म और उनके धर्म-ग्रंथों का विरोध किया उसी तीव्रता और सिद्दत से उन्होंने उन मठ्ठाधिशों का भी विरोध किया जो हिन्दू और उनके धर्म-ग्रंथों की मान्यताओं और विश्वासों को बौद्ध धर्म का अंग बतला रहे थे।
तीसरे तरह के वे स्वतंत्र सामाजिक चिन्तक हैं जो किसी स्थापित विचार-धारा से अपने आप को बांध कर नहीं देखते। वे डा आंबेडकर को उसी क्रिटिकल स्टडी से देखते हैं जिस तरह अन्य विचारकों का। इन स्वतन्त्र विचारकों को डा आंबेडकर के चिंतन में कुछ कमिया नजर आती हैं। आंबेडकर द्वारा लिखित 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' में भी इन्हें कुछ कमियां नजर आती हैं। समता सैनिक दल नागपुर द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' की भूमिका में इन पर काफी विचार किया है।
इसी कड़ी में इधर डा धर्मवीर ने कुछ कमियां गिनायी है। डा धर्मवीर एक बड़े प्रखर सामाजिक विचारक के रूप में सामने आये हैं। कबीर पर लिखी इनकी पुस्तक ने डा हजारी प्रसाद व्दिवेदी जैसे स्थापित साहित्यकार को नाक के बल रगड़ दिया। यही नहीं, डा धर्मवीर ने बुद्ध और आंबेडकर को भी नहीं छोड़ा। उन्होंने डा आंबेडकर के सामाजिक दर्शन पर कई सवाल खड़े किये।
यह ठीक है कि कोई भी विचार और स्थापना अन्तिम नहीं होती। समय और सामाजिक परिस्थितियां इसकी निर्धारक होती है कि उन्हें कौन से विचार और स्थापनाएं अपनानी चाहिए। चूँकि , समय और सामाजिक परिवेश बदलते रहते हैं। अत: कोई विचार और स्थापना भी रूढ़ नहीं हो सकती। बेशक, डा धर्मवीर अलग विचार और अपनी स्थापना रखने के लिए स्वतन्त्र है।
डॉ. अम्बेडकर के सामने वही सारा लिटरेचर था, जिसे बुद्धिस्ट ब्राहमण लेखकों ने लिखा था। फिर भी, जहाँ कहीं भी उन्हें बुद्ध की मूल स्थापना से असंगति नजर आयी, इस बात की परवाह किए बगैर कि बौद्ध जगत में उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, उसे असंगत बताया। डा धर्मवीरजैसे आलोचकों को इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करनी चाहिए।
दूसरे, यह तर्क दिया जा सकता है कि डॉ. आंबेडकर को यह अवसर नहीं मिला था कि वे 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' का पुनरावलोकन कर सके। आम तौर पर पुनरावलोकन में बहुत सारी बातें, जो मूल स्थापना/सैद्धांतिकी से मेल नहीं खाती, में या तो आप आवश्यक संसोधन करते हैं या फिर उन्हें छोड़ देते हैं। नि:संदेह, डा. आंबेडकर को उनके असामयिक निधन से ऐसा अवसर नहीं मिला। किन्तु डा अम्बेडकर जैसे विद्वान् पर इस तरह की आशंका निराधार ही कही जाएगी। क्योंकि, बुद्धिज़्म पर उनका अध्ययन लम्बा और गहन था। दूसरे, उनके व्दारा लिखोत अन्य ग्रन्थ इस बात के साक्षी हैं कि पुनरावलोकन जैसी कोई चीज उनके डिक्शनरी में नहीं थी।
डा आंबेडकर, वैचारिक दृष्टि से बुद्ध की आधारभूत स्थापना से पूरी तरह सहमत थे। बुद्ध ने मध्यम मार्ग का उपदेश किया। वे किसी विवाद में नहीं पड़े। जहाँ कहीं विवाद की बात दिखी, बुद्ध ने मध्यम मार्ग को चुना। बुद्ध सामंजस्य के प्रखर प्रवक्ता थे। बुद्ध ने बहुजन हिताय,बहुजन सुखाय की संकल्पना को केंद्र में रखा। बुद्ध अलगाव के विरोधी थे। बुद्ध ने कहा कि कोई बात इस लिए मत मानों कि किसी धर्म ग्रन्थ में लिखी है या पीढ़ी दर पीढ़ी से चली आ रही है या किसी महापुरुष/महात्मा ने कहा है। बल्कि, इसलिए मानों कि वह विज्ञानं सम्मत है, तार्किक है और बहुजनो के कल्याण के लिए है।
डा अम्बेडकर ने भी माध्यम मार्ग का अनुसरण किया। उन्होंने अति का निषेध किया। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के डा अम्बेडकर प्रवक्ता थे। अलगाव के चिन्ह अगर कहीं डा अम्बेडकर में दिखते हैं तो सिर्फ इसलिए कि देश का बहुसंख्यक हिन्दू उंच-नीच का जातीय हठ छोड़ सामाजिक समरसता का परिचय दें। लोग आते हैं , चले जाते हैं, किन्तु उनके विचार जिन्दा रहते हैं। आज, गाँधी लगातार अप्रासंगिक हो रहें हैं। दूसरी ओर, डा आंबेडकर के पुतले हर गली-चौराहे पर लग रहे हैं।
दूसरे वे आलोचक वे हैं, जो ट्रेडिशनल बुद्धिस्ट संस्थाओं से मठ्ठा-धीश हैं। परम्परागत बुद्धिस्ट मठों के इन मठाधीशों को डा आंबेडकर का नया नजरिया पसंद नहीं आया। वे जिन मान्यताओं और विश्वासों को लेकर बौद्ध धर्म के मठ सम्भाल रहे थे, आंबेडकर की तत्सम्बंध में की गई आलोचना से तो उन्हें वैसा करना ही था। डा आंबेडकर ने जिस तीव्रता से हिन्दू धर्म और उनके धर्म-ग्रंथों का विरोध किया उसी तीव्रता और सिद्दत से उन्होंने उन मठ्ठाधिशों का भी विरोध किया जो हिन्दू और उनके धर्म-ग्रंथों की मान्यताओं और विश्वासों को बौद्ध धर्म का अंग बतला रहे थे।
तीसरे तरह के वे स्वतंत्र सामाजिक चिन्तक हैं जो किसी स्थापित विचार-धारा से अपने आप को बांध कर नहीं देखते। वे डा आंबेडकर को उसी क्रिटिकल स्टडी से देखते हैं जिस तरह अन्य विचारकों का। इन स्वतन्त्र विचारकों को डा आंबेडकर के चिंतन में कुछ कमिया नजर आती हैं। आंबेडकर द्वारा लिखित 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' में भी इन्हें कुछ कमियां नजर आती हैं। समता सैनिक दल नागपुर द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' की भूमिका में इन पर काफी विचार किया है।
इसी कड़ी में इधर डा धर्मवीर ने कुछ कमियां गिनायी है। डा धर्मवीर एक बड़े प्रखर सामाजिक विचारक के रूप में सामने आये हैं। कबीर पर लिखी इनकी पुस्तक ने डा हजारी प्रसाद व्दिवेदी जैसे स्थापित साहित्यकार को नाक के बल रगड़ दिया। यही नहीं, डा धर्मवीर ने बुद्ध और आंबेडकर को भी नहीं छोड़ा। उन्होंने डा आंबेडकर के सामाजिक दर्शन पर कई सवाल खड़े किये।
यह ठीक है कि कोई भी विचार और स्थापना अन्तिम नहीं होती। समय और सामाजिक परिस्थितियां इसकी निर्धारक होती है कि उन्हें कौन से विचार और स्थापनाएं अपनानी चाहिए। चूँकि , समय और सामाजिक परिवेश बदलते रहते हैं। अत: कोई विचार और स्थापना भी रूढ़ नहीं हो सकती। बेशक, डा धर्मवीर अलग विचार और अपनी स्थापना रखने के लिए स्वतन्त्र है।
डॉ. अम्बेडकर के सामने वही सारा लिटरेचर था, जिसे बुद्धिस्ट ब्राहमण लेखकों ने लिखा था। फिर भी, जहाँ कहीं भी उन्हें बुद्ध की मूल स्थापना से असंगति नजर आयी, इस बात की परवाह किए बगैर कि बौद्ध जगत में उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, उसे असंगत बताया। डा धर्मवीरजैसे आलोचकों को इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करनी चाहिए।
दूसरे, यह तर्क दिया जा सकता है कि डॉ. आंबेडकर को यह अवसर नहीं मिला था कि वे 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' का पुनरावलोकन कर सके। आम तौर पर पुनरावलोकन में बहुत सारी बातें, जो मूल स्थापना/सैद्धांतिकी से मेल नहीं खाती, में या तो आप आवश्यक संसोधन करते हैं या फिर उन्हें छोड़ देते हैं। नि:संदेह, डा. आंबेडकर को उनके असामयिक निधन से ऐसा अवसर नहीं मिला। किन्तु डा अम्बेडकर जैसे विद्वान् पर इस तरह की आशंका निराधार ही कही जाएगी। क्योंकि, बुद्धिज़्म पर उनका अध्ययन लम्बा और गहन था। दूसरे, उनके व्दारा लिखोत अन्य ग्रन्थ इस बात के साक्षी हैं कि पुनरावलोकन जैसी कोई चीज उनके डिक्शनरी में नहीं थी।
डा आंबेडकर, वैचारिक दृष्टि से बुद्ध की आधारभूत स्थापना से पूरी तरह सहमत थे। बुद्ध ने मध्यम मार्ग का उपदेश किया। वे किसी विवाद में नहीं पड़े। जहाँ कहीं विवाद की बात दिखी, बुद्ध ने मध्यम मार्ग को चुना। बुद्ध सामंजस्य के प्रखर प्रवक्ता थे। बुद्ध ने बहुजन हिताय,बहुजन सुखाय की संकल्पना को केंद्र में रखा। बुद्ध अलगाव के विरोधी थे। बुद्ध ने कहा कि कोई बात इस लिए मत मानों कि किसी धर्म ग्रन्थ में लिखी है या पीढ़ी दर पीढ़ी से चली आ रही है या किसी महापुरुष/महात्मा ने कहा है। बल्कि, इसलिए मानों कि वह विज्ञानं सम्मत है, तार्किक है और बहुजनो के कल्याण के लिए है।
डा अम्बेडकर ने भी माध्यम मार्ग का अनुसरण किया। उन्होंने अति का निषेध किया। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के डा अम्बेडकर प्रवक्ता थे। अलगाव के चिन्ह अगर कहीं डा अम्बेडकर में दिखते हैं तो सिर्फ इसलिए कि देश का बहुसंख्यक हिन्दू उंच-नीच का जातीय हठ छोड़ सामाजिक समरसता का परिचय दें। लोग आते हैं , चले जाते हैं, किन्तु उनके विचार जिन्दा रहते हैं। आज, गाँधी लगातार अप्रासंगिक हो रहें हैं। दूसरी ओर, डा आंबेडकर के पुतले हर गली-चौराहे पर लग रहे हैं।
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