गौतम ताकसांडे जी, जो मुंबई के बी ए आर सी के एम्पलाईज हैं, के सुपुत्र बिपिन से बिटिया का रिश्ता हम लोग पिछली मुंबई विजिट में तय कर आए थे। आपसी बातचित में एंगेजमेंट का कार्यक्रम भी तय हुआ था। एंगेजमेंट का कार्यक्रम दिल्ली और मुंबई की दूरी को ध्यान में रख कर अपनी सुबिधा अनुसार करने की बात हुई थी।
तय हुआ कि शादी अर्थात 16 दिस के एक दिन पहले एंगेजमेंट का कार्यक्रम हो। शादी के रजिस्ट्रेशन और एंगेजमेंट के लिए हम लोग काफी पहले अर्थात 11 दिस को ही मुंबई आ चुके थे। मेहमानों का आना 15 दिस की सुबह से ही शुरू हो चूका था। हमारे तरफ से मेहमानों के लिए 4 फ्लेट्स पहले ही तैयार किए जा चुके थे।
गौतम ताकसांडे जी के आवास के पास ही लान में मंडप तैयार था। एंगेजमेंट के कार्यक्रम के साथ दोनों परिवारों के मेहमानों के लिए ब्रेक फास्ट, लंच और डिनर की व्यवस्था यही पर की गई थी। एक 7 सीटर फोर व्हीलर भी एंगेज किया गया था ताकि ब्रेक फास्ट, लंच और डिनर के लिए मेहमानों को उनके फ्लेट्स, जो यहाँ से करीब एक की मी की दूरी पर था, से लाने-ले जाने में सुविधा हो।
15 दिस की सुबह ब्रेक फास्ट के बाद हल्दी का कार्यक्रम शुरू हुआ। हम लोगों ने अपने फ्लेट्स में हल्दी का कार्यक्रम न रखते हुए इसी मंडप में करने का फैसला लिया था जबकि वर पक्ष ने इस मंडप से लगे अपने फ्लेट्स में ही करना श्रेयकर समझा।
दुल्हन की मेहँदी के लिए दो लेडिज हायर थी। 14 दिस की देर रात तक यह कार्यक्रम चला था। दुल्हन-दुल्हे के साथ बाराती महिलाओ में खास कर इस पर्व पर मेहँदी लगाने का रिवाज है। मेहँदी का पेड़ हर जगह पाया जाता है। यह झाड़ीनुमा पेड़ लोग फेंसिंग के रूप में अपने घरों की बाउंडरी में करते हैं, विशेषत: महिलाओं का इसके प्रति लगाव को ध्यान में रख कर। पहले मेहँदी की पत्तियों को तोड़ कर घंटों सिल-बट्टे में पिसा जाता था। सिल-बट्टे में मेहँदी को जितना पिसा जाता था, मेहँदी का रंग उतना ही चढ़ता था। मगर, आजकल पीसी मेहँदी बाजार में रेडीमेट मिलती है। महिलाऐं पिसने-पिसाने का झंझट छोड़ बाजार से मेहँदी के कोन खरीद लाती है। कोन से सुविधा यह होती है कि फाइन से फाइन आर्ट भी आप इससे आसानी से कर सकते है।
अब हल्दी का कार्यक्रम शुरू होना था। बीच मंडप में एक पाटा रखा गया था जिस पर दुल्हन को बैठना था। मेरी बड़ी बहू सोनू, छोटा भांजा राजा के तरफ की बहू वैशाली, ताई की मामी मेडम प्रदीप नागदेवे आदि ने ताई को रस्म रिवाज के अनुसार बीच पाटे पर बैठाला। मेडम ने मुझे संकेत किया। मैंने आदेश का आशय समझते हुए ताई को हल्दी लगाते हुए टिका लगा कर कार्यक्रम की शुरुआत की। सभी मेहमान जो वहां उपस्थित थे, ने बारी-बारी से ताई को हल्दी लगा कर टिका किया।
हल्दी के दूसरे दौर में सोनू वगैरे के ग्रुप के साथ मेरी भोपाल वाली बहन कुमुद बागडे, गोपिका वैद्ये बालाघाट आदि ने फिर, दुल्हन को अनौपचारिक रूप से हल्दी लगाया। हल्दी और मेहँदी शादी का अनिवार्य हिस्सा है। हल्दी घरों में प्रयुक्त मशालों का एक पार्ट है। यह एक न्यूट्रीशन के साथ तगड़ा एंटीबायटिक कम्पोनेंट है। मगर, हल्दी का उपयोग शरीर के ऊपर उबटन लगाने के लिए भी किया जाता रहा है। यह सही है कि हल्दी का उबटन पड़ते ही दुल्हन- और दुल्हे के साथ बारातियों का रंग खिल जाता है।
हल्दी के कार्यक्रम में बेन्गल पहिनने का रिवाज है। इस मौके पर बेंगल हरे रंग की होती है। हरी क्यों होती है, यह शोध का विषय है ? मगर, ऐसे मौकों पर शोध नहीं, रस्म निभाने की प्रथा है।
एंगेजमेंट के मायने है, शादी के बंधन में बंधने वाले जोड़े का एंगेजमेंट। भारतीय संस्कृति और परिवेश में इसका मतलब दो परिवारों का एंगेजमेंट है। एंगेजमेंट में रस्म-रिवाज होती है। ये रस्मों-रिवाज सामाजिक और धार्मिक आधार पर अलग-अलग होती है। बुद्धिस्ट पद्धति में भी इसका अपना तरीका है। इन फेक्ट, बाबा साहब डा आंबेडकर ने सन 1956 की अपनी धम्म-दीक्षा के बाद जो गाइड लाइन दी, समाज उसी को फालो करता है।
मूलत: एंगेजमेंट सिरेमनी में रिंग एक्सचेंज की जाती है। यह रिंग एक्सचेंज की प्रक्रिया भंते जी की उपस्थिति में सम्पन्न होती है। दोनों परिवारों के साथ समाज के गण-मान्य लोग इसका विटनेस होते हैं।
सायंकाल करीब 7.00 बजे इसी मण्डप पर एंगेजमेंट का कार्यक्रम शुरू हुआ। मेहमान अधिकतम आ चुके थे।
हमारे एरिया म प्र और इसके आस पास एंगेजमेंट जिस तरह होता है, मुंबई में उसके कुछ पार्ट स्लिप होते नजर आए। मगर, हम लोगों ने विविधता वाले देश और समाज में यह सोच कर इसे अपनी मौन स्वीकृति दी कि अगर कुछ हट कर होता है तो उससे अपना अनुभव बढाया जाना चाहिए। कुल मिला कर एंगेजमेंट का कार्यक्रम सुचारू रूप से और बड़े ढंग से सम्पन्न हुआ।
एंगेजमेंट के कार्यक्रम के बाद मस्ती करनी शेष थी। ब्राइड ग्रूम फ्लोर पर आ चूका था और आभा पाठक, ताई की फ़ास्ट फ्रेंड जो हम लोगों के परिवार का हिस्सा है, ने डी जे की धुन पर लहराना शुरू किया। देखते ही देखते दोनों तरफ के मेहमानों में से, खास कर युवा लडके-लड़कियाँ डी जे पर बजती धुनों पर थिरकने लगे।
डी जे पर बजती एक से एक करेंट फ़िल्मी गीतों की धुनों पर लोग थिरकते रहे और हम जैसे लोग इसका आनंद लेते रहे। मगर, जल्दी ही डी जे बंद कर देना पड़ा। मुंबई में रात 9.30-10.00 के बाद शोर बिलकुल भी अलाऊ नहीं होता।
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