Sunday, December 2, 2012

जहर

ज़हर
वाकया पिछले अग. 2012 का  है। हम लोग बपेरा (महाराष्ट्र) से अपने गावं सालेबर्डी जा रहे थे। बालाघाट   से वारासिवनी और खास कर वारासिवनी से रामपायली वाली सड़क इतनी ख़राब थी कि 6 की. मी. का रास्ता फोरव्हीलर से तय करने में ढाई-तीन घंटा लगता था।
सड़क की ऐसी हालत अपने आप नहीं हुई थी। जैसे कि वर्षों तक रिपेयरिंग न होने के कारण अक्सर हमारे यहाँ हो जाती है। कई वर्षों बाद किसी योजना के तहत दूर-दराज के क्षेत्रों में सड़क तो बन जाती है।  मगर, 'प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना ' जैसी कोई 'सड़क-रिपेयरिंग योजना' न होने के कारण, वह वर्षों तक भाग्य के भरोसे पड़ी रहती है।
वास्तव में इसका ये हाल सड़क-ठेकेदार ने किया था। मुद्दत के बाद फंड मंजूर हुआ। सड़क निर्माण का ठेका भी हुआ। मगर, जैसे कि होता है, कमीशन की राशि के सवाल पर मामला उलझ गया। दरअसल, जितनी राशि की मांग की जा रही थी, ठेकेदार के वह कूबत के बाहर  थी। सड़क करीब 10 की. मी. के दायरे में खोदी जा चुकी थी। मगर, तभी यह झमेला खड़ा हो गया। ठेकेदार ने देखा कि मांगी गई राशी उसके कूबत के बाहर है, वह काम छोड़ कर भाग गया।
जैसे जैसे दिन गुजरते गए, सड़क की हालत बद से बदतर होती गई। शेष बचा काम बरसात ने पूरा किया। बालू के लहराते हुए टीलों की तरह सड़क पर बने बड़े-बड़े गढ्ढ़ों की अंतहीन श्रंखला ने गाड़ियों का आना जाना अवरुद्ध-सा कर दिया। बस और ट्रक वाले भी क्या करे ? ये ठीक है कि उनकी रोजी-रोटी मारी जा रही है मगर, सड़क चलाने लायक तो हो ?
 मुझे साल में दो से तीन बार अपने गावं किसी न किसी वजह से जाना होता है। विगत दो तीन वर्षों से सड़क का यही हाल था। इस बार भी जब हम लोग रामपायली से बपेरा आये थे तो नाक में दम आ गया था। लगता था, अब वापिस मुड़े, तब वापिस मुड़े। मगर, अन्य कोई मार्ग भी नहीं था। वैसे, वारासिवनी से रामपायली  के लिए सिकंदरा वाला रास्ता लोगों ने खोज लिया था। मगर, यह जगह-जगह ख़राब था। लोगों की जरूरते सड़क नहीं देखती। ये जरूरतें जंगल-पहाड़ों में भी रास्ता बना लेती है।
जैसे कि मैंने बतलाया, हम लोग मोहाड़ से तुमसर वाली सड़क से सालेबर्डी आ रहे थे। सड़क किनारे-किनारे गन्ने के बड़े-बड़े खेत लगे थे। आप, जब शहर छोड़ कर गावं की ओर जाते हैं, तब हरे-भरे खेत देखने का खूब मन करता है। हमें गन्ने के लहराते खेत देख कर अच्छा लग रहा था।
थोड़ा और चल कर अमरुद के बगीचे नजर आये। मुझे रहा नहीं गया। मैंने गाड़ी धीमे की और सड़क किनारे रोक दी। बगल में बैठी मिसेज भी यही चाह रही थी। हम गाड़ी से उतर कर बगीचे की ओर मुड़े। बगीचे में अमरुद के पेड़ फलों से लदे थे। बगीचे में एक आदमी दवा का छिडकाव कर रहा था। मुझे फलों से लदे पेड़ों पर दवा का छिडकाव अच्छा नहीं लगा। मैंने उससे मुखातिब हो कर कहा-
"दादा जी, आप काहे का छिडकाव कर रहे हैं ?"
"ये दवा का छिडकाव है जी।"
"आप दवा का छिडकाव क्यों रहे है ?
"मौसमी कीड़े और दीगर बिमारियों से बचाव होता है जी।"
"मगर, केमिकल का असर फलों पर भी होता है ?"
"घबराओ नहीं जी, यहाँ के सारे अमरुद बाहर जाते हैं।"
- अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com

2 comments:


  1. दिनांक 03/02/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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    फिर मुझे धोखा मिला, मैं क्या कहूँ........हलचल का रविवारीय विशेषांक .....रचनाकार--गिरीश पंकज जी

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  2. बहुत सुन्दर!
    कृपयाhttp://voice-brijesh.blogspot.inपर पधारने का कष्ट करें!

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