फेमिली और फ्रेंड सर्किल में इसी दिन शुभचिंतक विश करते हैं और मैं थोडा खिसिया कर मुस्करा देता हूँ। वैसे, मुझे आज तक समझ नहीं आया कि लोग जन्म-दिन पर खुश क्यों होते हैं ! बच्चा जब पैदा होता है तो रोते हुए पैदा होता है। अब इस में खुश होने की क्या बात है ?
मेरे देश के करोड़ों-करोड़ों लोग जिन्हें दो जून की रोटी मयस्सर नहीं है, क्या उन्हें इस ख़ुशी में शामिल होने का हक नहीं है ? और अगर, पैदा होना इतनी ख़ुशी की बात है, तो उनके हिस्से की ख़ुशी को किसने केक बना कर खा लिया ?
यह मेरा 60 वां जन्म-दिन था। डा हेमलता महिस्वर के यहाँ मैं बिटिया के शादी का निमंत्रण कार्ड ले कर गया था। हम बाते कर ही रहे थे कि दामाद संजय जी ने कहा-
मैं हतप्रभ हो कर उन्हें देखने लगा। थोडा खिसिया कर और थोडा मुस्करा कर मैंने कहा-
"हाँ, बात तो सही है। मगर, एकाएक आपको मेरे जन्म-दिन का ख्याल कैसे आया ?"
"मामाजी, हम तो आपके एक-एक बात की खबर रखते हैं ?" - संजय ने मुस्करा कर कहा।
बहरहाल, जनकपूरी से मैं दोपहर 12 बजे तक गुडगावं आ कर अपने रूटीन काम में लग गया। पिछले अग 12 से हम लोग ताई के रूम 'एस ब्लाक' में ही रह रहे थे। प्री-शेड्यूल्ड प्रोग्राम के अनुसार ताई के शादी की तैयारी हमें यही से करनी थी।
बीच में खुसर-पुसर तो हुई थी, मगर, मेडम ने ताई को डांट दिया- "तेरे डिक्शनरी में सब्र नाम का कोई शब्द है या नहीं ?" करीब 5 बजे मेडम ने राज खोला- "ताई कह रही थी कि रात का डिनर बाहर होगा।" भला इसमें मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी ?
हम लोग तैयार हो कर एक चमचमाते होटल में पहुंचे। होटल का नाम दाना चोगा था। वहां का नजारा देखने लायक था। एक लम्बी-सी सजी हुई टेबल पर मेरी बड़ी बहू सोनू मोमबत्तिया जला रही थी। एक बड़ा सा केक जो अपनी किस्मत पर इतरा रहा था, को नातिन जोई नन्हीं नन्हीं मासूम निगाहों से देख रही थी। मेरा भांजा राजा और उनकी मिसेज वैशाली भी सोनू की हेल्प कर रहे थे।
चाहे फाईव स्टार होटल हो या सड़क का ढाबा, होटल का खाना मुझे कभी पसंद नहीं आता। मिसेज समझाती है -
" लोग यहाँ मजे के लिए आते हैं न कि घर का खाना खाने। वह तो डेली खाते हैं। थोडा चेंज हो जाता है। यही तो लाईफ है। जरा लाईफ के मजे लेना सीखो।
"
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