Monday, December 30, 2013

ग़ज़ल (2)

29. 12 . 2013

सबेरे सबेरे धुप्प,  कोहरा था छत के पार
अलसायी आँखे खोला , तो रजाई नज़र आयी ।

यह ठीक है के बनाया है, आदम हव्वा ने इस जहाँ को
अगरचे  न भी बनाता , तो हम क्या कर लेते।

तुम चलो तो सही , हम तुम्हारे साथ हैं
जहाँ चलना होगा चलेंगे, जहाँ रुकना होगा रुकेंगे।

इस जहाँ के उस पार , शायद और जहाँ हो
मगर, पडोसी मुल्क के न हो सके, तो उसे क्या करेंगे।

तुम करते हो बात तोड़ने की , जमीं से चाँद सितारे
किसी समंदर की लहरों से , कुछ सीख लिया करो

                                             -अ ला उके
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