विधान सभा चुनाव में अपनी करारी हार स्वीकारते हुए मुख्य-मंत्री शीला दीक्षित ने स्तीफा प्रेषित करने के बाद प्रेस को सम्बोधित किया। इस अवसर पर एक पत्रकार ने जानना चाहा कि लोगों की नब्ज पकड़ने के लिए कांग्रेस क्यों असफल रही ? इस पर शीला दीक्षित ने झुंझला कर कहा कि हम बेवकूफ हैं ?
- लोकतंत्र में सब ठीक है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं होगा। भीड़ में तब्दील जनता सब ठीक ही करे, यह कहना भी ज्यादा सही नहीं होगा। अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं, इस भीड़-तंत्र से निकले अतार्किक और असंगत परिणामों के।
मगर, इसके यह कतई मायने नहीं है कि भीड़-तंत्र को नकारा जाए। हमने लोकतांत्रिक-व्यवस्था स्वीकार की है। इस व्यवस्था के अपने फायदे और नुकशान हैं। हम, और यह भी जानते हैं कि शीला दीक्षित को इसकी समझ है।
'इण्डिया अगेंस्ट करप्शन ' मूवमेंट से जो फिजा बनी , बेशक उसके सार्थक मायने निकले। मगर , यह आगे कितना चलेगा, कहा नहीं जा सकता। क्रांति में जोश अपरिहार्य है। मगर, जोश के साथ होश की भी जरुरत है। होश अर्थात हर कदम पर 'कहीं फिसल न जाए' के विरुद्ध चेतावनी जिसकी राजनीति में कोई अहमियत नहीं होती। कम-से-कम इतिहास तो यही बतलाता है।
राजस्थान के चुनाव परिणाम समझ के परे हैं। लगता है, यहाँ भीड़-तंत्र हावी रहा। सवाल है, भीड़-तंत्र किसके विरुद्ध ? राजस्थान में ऐसी कोई बात नहीं थी कि गहलोत को इतनी बड़ी हार का सामना करना पड़े। वहाँ की सड़कें कम-से कम म प्र से अच्छी है। वसुंधरा, ऐसी कोई हस्ती नहीं कि जनता पीछे लाम-बंद हो।
जहाँ तक म प्र की बात है, कांग्रेस यहाँ बुरी तरह असफल रही है। कांग्रेस नेतृत्व शुतुरमुर्ग की तरह मुंह को रेत में दबाए रहा। कुछ लोग ना-समझ थे जो यह समझ रहे थे कि मोदी को घेरने की रण-नीति का यह एक हिस्सा है। अंतिम समय में कमान ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाथ में दी गई। मगर , यह कवायद लोगों को मूर्ख बनाने के आलावा कुछ नहीं थी।
दरअसल, आर एस एस के लाखों स्वयंसेवक दिन-रात हिन्दू सांगठनिक ढांचे के लिए काम करते रहते हैं। विश्व हिन्दू परिषद् , बजरंग दल , राम सेना/वानर सेना आदि कई मदर संस्थाएं और कोर ग्रुप अलग-अलग मोर्चों पर मगर, एक दिशा में काम करते हैं। और वह दिशा है, बीजेपी को सत्ता तक पहुँचाना।
कांग्रेस के पास ऐसा कोई नेट-वर्क नहीं है। कांग्रेस को इस घमासान में टिकने के लिए काफी काम करना पड़ेगा। कांग्रेस ने शहादत दी है। मगर , आर एस एस ने उस शहादत को कबसे ठेंगा दिखा दिया है ? महात्मा गांधी की हत्या इसका प्रमाण है ? आर एस एस ने बहुत पहले अपने आदर्श पुरुष अलग कर लिए हैं।
जन-कल्याणकारी योजनाएं ही काफी नहीं है, उनका प्रचार-प्रसार भी उतना ही जरुरी है। फिर चाहे चमचमाती सड़कें दिखाने के लिए अख़बारों में ईरान की सड़कें ही क्यों न दिखाना पड़े !
मिडिया बीजेपी के साथ है। निर्णयों की अनिश्चितता से कार्पोरेट लॉबी ने बी जे पी से गठजोड़ कर लिया है। मिडिया और कार्पोरेट लॉबी को धता बता कर कांग्रेस बीजेपी को काउंटर नहीं कर सकती ? सारा का सारा मिडिया एंटी-कांग्रेस क्यों हुआ, कांग्रेस को इसे समझना पड़ेगा।
टी वी चेनलों की बहस में चाहे जो पार्टी हो, बीजेपी को काउंटर-कम कांग्रेस की बखिया अधिक उधेड़ रहा था। टी वी एंकर भी जब कांग्रेस की बारी आती थी, बातों की दिशा बदल देता या फिर ब्रेक दे देता था। मिडिया का यह रुख रातों-रात तो नहीं हुआ था ? निश्चित रूप में , मायावती की तरह कांग्रेस भी मिडिया को अपने साथ मिलाने में विफल रहा।
हिंदुओं को लाम-बंद करते हुए आज, आर आर एस एस को 90 साल हो रहे हैं। रूट वर्क में कांग्रेस जीरो है। जिस तरह संस्था और फिर संस्थाओं की संस्था का नेट-वर्क बी जे पी के पास है, कांग्रेस के पास वैसा नेट-वर्क नहीं है।
आज, लोगों के दिमाग में गुस्सा है। इसे और स्प्ष्ट कहें तो गुस्सा-मिश्रित घृणा है। घृणा का टारगेट धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। यह कोई अनायास नहीं हुआ है। इसके लिए बकायदा मेहनत की गई है। बीजेपी बहुसंख्यक वर्ग को इसके विरुद्ध लाम-बंद कर दिल्ली पहुँचना चाहती है। ऐसा नहीं है कि बीजेपी के धुर विरोधी इसे नहीं समझते। मगर, यही तो राजनीति है ?
इस चुनाव में बीएसपी को भी तगड़ा झटका लगा है। क्या पता, बीएसपी की हालत आने वाले दिनों में कांग्रेस की तरह न हो जाए ?
- लोकतंत्र में सब ठीक है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं होगा। भीड़ में तब्दील जनता सब ठीक ही करे, यह कहना भी ज्यादा सही नहीं होगा। अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं, इस भीड़-तंत्र से निकले अतार्किक और असंगत परिणामों के।
मगर, इसके यह कतई मायने नहीं है कि भीड़-तंत्र को नकारा जाए। हमने लोकतांत्रिक-व्यवस्था स्वीकार की है। इस व्यवस्था के अपने फायदे और नुकशान हैं। हम, और यह भी जानते हैं कि शीला दीक्षित को इसकी समझ है।
'इण्डिया अगेंस्ट करप्शन ' मूवमेंट से जो फिजा बनी , बेशक उसके सार्थक मायने निकले। मगर , यह आगे कितना चलेगा, कहा नहीं जा सकता। क्रांति में जोश अपरिहार्य है। मगर, जोश के साथ होश की भी जरुरत है। होश अर्थात हर कदम पर 'कहीं फिसल न जाए' के विरुद्ध चेतावनी जिसकी राजनीति में कोई अहमियत नहीं होती। कम-से-कम इतिहास तो यही बतलाता है।
राजस्थान के चुनाव परिणाम समझ के परे हैं। लगता है, यहाँ भीड़-तंत्र हावी रहा। सवाल है, भीड़-तंत्र किसके विरुद्ध ? राजस्थान में ऐसी कोई बात नहीं थी कि गहलोत को इतनी बड़ी हार का सामना करना पड़े। वहाँ की सड़कें कम-से कम म प्र से अच्छी है। वसुंधरा, ऐसी कोई हस्ती नहीं कि जनता पीछे लाम-बंद हो।
जहाँ तक म प्र की बात है, कांग्रेस यहाँ बुरी तरह असफल रही है। कांग्रेस नेतृत्व शुतुरमुर्ग की तरह मुंह को रेत में दबाए रहा। कुछ लोग ना-समझ थे जो यह समझ रहे थे कि मोदी को घेरने की रण-नीति का यह एक हिस्सा है। अंतिम समय में कमान ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाथ में दी गई। मगर , यह कवायद लोगों को मूर्ख बनाने के आलावा कुछ नहीं थी।
दरअसल, आर एस एस के लाखों स्वयंसेवक दिन-रात हिन्दू सांगठनिक ढांचे के लिए काम करते रहते हैं। विश्व हिन्दू परिषद् , बजरंग दल , राम सेना/वानर सेना आदि कई मदर संस्थाएं और कोर ग्रुप अलग-अलग मोर्चों पर मगर, एक दिशा में काम करते हैं। और वह दिशा है, बीजेपी को सत्ता तक पहुँचाना।
कांग्रेस के पास ऐसा कोई नेट-वर्क नहीं है। कांग्रेस को इस घमासान में टिकने के लिए काफी काम करना पड़ेगा। कांग्रेस ने शहादत दी है। मगर , आर एस एस ने उस शहादत को कबसे ठेंगा दिखा दिया है ? महात्मा गांधी की हत्या इसका प्रमाण है ? आर एस एस ने बहुत पहले अपने आदर्श पुरुष अलग कर लिए हैं।
जन-कल्याणकारी योजनाएं ही काफी नहीं है, उनका प्रचार-प्रसार भी उतना ही जरुरी है। फिर चाहे चमचमाती सड़कें दिखाने के लिए अख़बारों में ईरान की सड़कें ही क्यों न दिखाना पड़े !
मिडिया बीजेपी के साथ है। निर्णयों की अनिश्चितता से कार्पोरेट लॉबी ने बी जे पी से गठजोड़ कर लिया है। मिडिया और कार्पोरेट लॉबी को धता बता कर कांग्रेस बीजेपी को काउंटर नहीं कर सकती ? सारा का सारा मिडिया एंटी-कांग्रेस क्यों हुआ, कांग्रेस को इसे समझना पड़ेगा।
टी वी चेनलों की बहस में चाहे जो पार्टी हो, बीजेपी को काउंटर-कम कांग्रेस की बखिया अधिक उधेड़ रहा था। टी वी एंकर भी जब कांग्रेस की बारी आती थी, बातों की दिशा बदल देता या फिर ब्रेक दे देता था। मिडिया का यह रुख रातों-रात तो नहीं हुआ था ? निश्चित रूप में , मायावती की तरह कांग्रेस भी मिडिया को अपने साथ मिलाने में विफल रहा।
हिंदुओं को लाम-बंद करते हुए आज, आर आर एस एस को 90 साल हो रहे हैं। रूट वर्क में कांग्रेस जीरो है। जिस तरह संस्था और फिर संस्थाओं की संस्था का नेट-वर्क बी जे पी के पास है, कांग्रेस के पास वैसा नेट-वर्क नहीं है।
आज, लोगों के दिमाग में गुस्सा है। इसे और स्प्ष्ट कहें तो गुस्सा-मिश्रित घृणा है। घृणा का टारगेट धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। यह कोई अनायास नहीं हुआ है। इसके लिए बकायदा मेहनत की गई है। बीजेपी बहुसंख्यक वर्ग को इसके विरुद्ध लाम-बंद कर दिल्ली पहुँचना चाहती है। ऐसा नहीं है कि बीजेपी के धुर विरोधी इसे नहीं समझते। मगर, यही तो राजनीति है ?
इस चुनाव में बीएसपी को भी तगड़ा झटका लगा है। क्या पता, बीएसपी की हालत आने वाले दिनों में कांग्रेस की तरह न हो जाए ?
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