साँची विजिट
14 -15 दिस 2013 के साँची मेले के बारे में टी वी न्यूज़ और समाचार -पत्रों में खबरें आ रहीं थी। हम, वैसे तो सांची पहले देख आए थे और काफी इत्मीनान से देख आए थे। मगर, मेले के दिन सांची देखना , कुछ अलग होता है । सो हमने, दो फेमिली और साथ ली। चूँकि, हमारी गाड़ी (मारुती ज़ेन )में जगह थी और फिर, कम्पनी में कहीं जाना, मायने रखता है।
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साँची, भोपाल से करीब 50-60 की मी दूर है। कार से जाते वक्त हमें रोड पर जगह-जगह पुलिस के बेरिकेड दिखे। पुलिस भी चेकिंग करती दिखी। इस बार मेले के कारण शायद, काफी पहले ही पार्किंग स्थान बनाया गया था। हमने गाड़ी को पार्क किया और टिफिन का सामान वगैरे हाथ के रख आगे बढे।
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जगह-जगह पुलिस बेरिकेड लगाईं हुई चैक करते नजर आई। हो सकता है, पिछले दिनों बिहार के महा बोधिमहाविहार में हुए बम विस्फोट की दहशत या फिर, यहाँ आज के दिन आ रहे देश-विदेश के बुद्धिस्ट वी आई पी। बहरहाल, हमने खुद को सुरक्षित-सा महसूस किया और आगे बढ़ते गए। पहाड़ी, जहाँ पर यहाँ का विश्व प्रसिद्द बौद्ध स्तूप स्थित है , की गेट पर लगी लम्बी लाइन हमें धेर्य रखने को कर रही थी। महिला और पुरुषों की अलग-अलग लाइन थी। मगर, लाइन की लम्बाई धैर्य को जवाब भी दे रही थी। मगर, लगता है , जल्दी ही गेट पर खड़े पुलिस के आला अधिकारीयों को लोगों की ये परेशानी समझ आ गई। क्योंकि , फिर सेकुरिटी गेट से पुलिस वाले ही खुद प्रत्येक लाइन को दो-दो लाइनों में तब्दील करते नजर आए। मैं लाइन से निकल कर बीच-बीच में गेट का नजारा भी देख आता था कि वहाँ हो क्या रहा है ? गेट पर मुझे ऐसा लगा कि कुछ पदाधिकारी (
बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ़ इंडिया' ) पुलिस को असिस्ट कर रहे थे।
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इसी गेट पर दो भोजन स्टॉल लगे थे। ये भोजन स्टॉल भोपाल के थे जहाँ मुफ्त में भोजन वितरित किया जा रहा था। स्टॉल काउंटर से बाकायदा अनाउंस कर लोगों को इस संबंध में जानकारी दी जा रही थी।
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जैसे कि मैंने कहा , एक-एक लाइन के दो-दो लाइनों में तब्दील होने से हमारा नम्बर जल्दी ही आया। मेन गेट से चैक-इन होने के बाद हम लोग बुद्ध विहार की तरफ बढे। इसी बुद्ध विहार में भगवन बुद्ध के शिष्य
सारिपुत्त और
महामोग्गल्यायन की अस्थियों का कलश रखा होता है। श्री लंका की परम्परा के अनुसार प्रति वर्ष आज के दिन यह अस्थियों का कलश जनता के दर्शनार्थ रखा जाता है।
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यह विचित्र लगता है कि हमारे देश में जहाँ भगवान् बुद्ध पैदा हुए और विश्व को शांति की धम्म-देशना की , वहाँ साँची के बौद्ध स्तूप में श्रीलंका के रीती-रिवाजों के अनुसार पूजा-अर्चना होती है ? छोटे से देश बर्मा के बुद्धिस्ट आ कर
बुद्धगया के महाबोधिविहार के गुंबद पर सोने की पर्त चढ़ाते हैं ?
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खैर , हमने उस ख्याति -प्राप्त बुद्ध विहार में जा कर भगवान् बुद्ध के शिष्य सारिपुत्त और महा मोग्गलायन की अस्थि कलश के दर्शन किए। श्रीलंका के बौद्ध भिक्षु वहाँ विराजमान थे जो गर्भ गृह के मध्य में रखे हुए सुनहरे कलश की ओर ईशारा कर दर्शकों को बतला रहे थे। मगर , मेरी नजर जहाँ स्थिर हुई , वह भगवान् बुद्ध की वह मूर्ति थी जो मैंने अन्यथा और कहीं नहीं देखी थी। मूर्ति के चेहरे पर जो सौम्यता और शांति मैंने लक्ष्य किया , वह सचमुच अदभुत थी। मनुष्य को जब इच्छित वस्तु मिल जाती है और तब, वह जिस शांति और सौम्यता का हकदार होता है, मैं वही भगवान बुद्ध के चेहरे पर देख रहा था।
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अब तक दिन का डेढ़ बज रहा था। साथी चाह रहे थे कि कहीं बैठ कर लंच ले लिया जाए। हम लोग मंदिर परिसर के बाई ओर खाली स्पेस की तरफ बढ़ गए। यहाँ कई बड़ी-बड़ी फर्श-नुमा शिलाएं है। ऐसे लगता है जैसे ये शैलानियों के बैठने के लिए ही बनायीं गई हो। मगर, ये सब हैं प्राकृतिक। हमने यहाँ बैठ कर आराम से टिफ़िन खाएं। मैं देख रहा था कि हमारी तरह ग्रुप में आए शैलानी इसी तरह अपना-अपना लंच ले रहे हैं।
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लंच के बाद हमने
मुख्य बुद्ध स्तूप का रुख किया। फिर यहाँ चैक -इन था। काफी शैलानी थे। मगर, सभी शालीन और तरीके से आ-जा रहे थे। बच्चें, महिलाऐं, युवक , युवतियां सब थे। मगर, वहाँ अगर कुछ नहीं था तो वह थी बदतमीजी और अनुशासनहीनता। लोग खुद-बी-खुद एक दूसरे की गरिमा का ध्यान रख कर चल रहे थे। ऐसे लग रहा था जैसे सभी किसी एक ही परिवार के रक्त संबंधी हो।
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चूँकि, मैंने केमरा रखा था , इसलिए मैं यादों को साथ में समेटने का काम भी कर रहा था। यह कार्य भी एक कला है। मगर, इसका अपना-अपना अंदाज है।
मुख्य स्तूप के आलावा इसी से लगे अन्य स्पॉट को बारीकी से देखने का हमारे पास समय नहीं था। दरअसल, इसके लिए आप को अकेले या अधिक से अधिक दो को जाना होता है। क्योंकि , अधिक लोगों के साथ होने पर उनके भी मूड का ख्याल आपको रखना होता है।
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मुख्य बौद्ध स्तूप और उससे सटे अन्य स्पॉट जो अब
भग्नावशेष अवस्था में हैं ,सब पुरे के पुरे एक पहाड़ी पर स्थित हैं । मुख्य स्तूप के बाई ओर का बुद्ध विहार जिसकी चर्चा हम पहले कर आए हैं और जो ठीक-ठाक दशा में है ,श्री लंका सरकार की मदद और देख-रेख में चल रहा है। हाँ , पूरा परिदृश्य जो अब हरा-भरा दीखता है , का श्रेय जरुर भारत सरकार को जाना चाहिए।
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मगर, इस ऐतिहासिक पर्व पर एक बात खटकने वाली लगी। वह यह कि बौद्ध भिक्षु, जो काफी संख्या में वहाँ पधारे थे , को उनके हाल पर छोड़ दिया गया था। क्या उनके लिए उचित व्यवस्था नहीं की जा सकती थी ? धम्म में भिक्षुओं का स्थान पवित्र है। भिक्षुओं के बैठने के लिए अगर ठीक व्यवस्था होती तो लोग अभिवादन करने उनके पास जाते, उनके भिक्षा-पात्र में यथा शक्ति दान डालते।
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