दलित पेंथर
सोचता हूँ लोग आखिर, बन्दूक क्यों उठाते हैं ? क्या उन्हें मरने का भय नहीं होता ? क्योंकि , अगर आपके पास बन्दूक है तो उससे निपटने कोई लाठी लेकर तो नहीं आएगा ?निश्चित रूप से इन सवालों के जवाब आसान नहीं है। आखिर यह स्थिति निर्मित होती क्यों है ? गरीब और कमजोर दलित हो या आदिवासी, हथियार उठाने क्यों बाध्य होता है ? राज्य का कानून उसके साथ न्याय क्यों नहीं करता ? शासन की नीतियां और कानून उसके साथ क्यों नहीं है ?
हम अल्पसंख्यकों पर आते हैं। देखते ही देखते बाबरी मस्जिद गिरा दी जाती है। राज्य की फ़ोर्स और शासन तमाशा देखते हैं । अब ऐसे में मुस्लमान बन्दूक उठाता है, तो इसका जिम्मेदार कौन है ? नक्लाइट आंदोलन हो या दलित पेंथर। निश्चित रूप में इनका उदय कुछ इसी तरह की परिणति है।
दलित पेंथर की दुश्मन हिन्दू और उनकी सामाजिक-व्यवस्था है। हिन्दू सामाजिक-व्यवस्था का आधार हिन्दू धर्म-ग्रन्थ हैं। हिन्दू धर्म-ग्रंथों में लिखा है कि दलित जाति में पैदा होना पूर्व जन्म में किए गए पाप-कर्मों का फल है। और दलितों को उनकी वर्त्तमान स्थिति से उबरने का कोई उपाय नहीं है। दलित अत्याचार और उत्पीड़न पर सत्ताधारियों की उदासीनता वह प्रमुख कारण है जिससे 'दलित पेंथर' का जन्म होता है।
'पेंथर' मतलब अपने अधिकारों के लिए संघर्ष। दलित पेंथर की स्थापना सन 1972 के दौरान मुम्बई में की गई थी। । नामदेव ढसाल , राजा ढाले , अरुण कामले, जे वी पवार इसके संस्थापक सदस्यों में हैं। डांगले, गिरकर, चेन्दवनकर, रामदास सोरते , थोराट , खरात, अविनाश महतेकर, एडव्होकेट सुनील दिघे का भी नाम इसके प्रमुख सदस्यों में लिया जाता है।
दलित पेंथर , अफ्रो-अमेरिकन क्रान्तिकारी संगठन ब्लैक पेंथर से अनुप्रेरित बतलाया जाता है। ब्लैक पेंथर सन 1966 -82 के दौर में संयुक्त राज्य अमेरिका में सक्रिय था। इस संगठन में अपने शोषकों के विरुद्ध जरुरत पड़ने पर हिंसा से भी परहेज नहीं किया जाता।
दलित पेंथर 18 से 30 उम्र वाले दलित नव-युवकों का संगठन है, जो समाज में बदलाव चाहते हैं । सन 1972 -75 की अल्पावधि में ही दलित पेंथर पुरे महाराष्ट्र फैल गया था। पडोसी राज्यों से लेकर देश के सुदूर दक्षिण तक इसकी दहशत देखी जा सकती थी।
दलित उत्पीडन के मसले पर दलित पेंथर ने आक्रामक रवैया अपनाया. उसने कम्युनिस्टों से तालमेल बनाने का प्रयास किया. यद्यपि, वे दोनों एक मंच पर कभी नहीं आये। दलित पेंथर की खासकर महाराष्ट्र के गावं-गावं में शाखाएं खुली. लोग बड़े स्तर पर इससे जुड़े।
मगर, अफ़सोस। फिर, यह जल्दी ही यह कमजोर पड़ गया। दलित पेंथर के दो गुट हो गए। पहला नामदेव ढसाल गुट और दूसरा राजा ढाले गुट। नामदेव ढसाल गुट कम्युनिस्टों का करीबी था वही राजा ढाले गुट आंबेडकर-बुद्धिस्ट आंदोलन के करीब।
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