Monday, March 30, 2020

महावंस में 24 बुद्धों की महिमा

महावंस (रचना काल  600 -700  ईस्वी ) में
          24 बुद्धों की महिमा

दीपंकर हि सम्बुद्धं, पस्सित्वा नो जिनो पुरा।
लोकं दुक्खा पमोचेतुं, बोधाय पणिधिं अका।।5।।

ततो तं चेव सम्बुद्धं, कोण्डञ्ञं मंगलं मुनिं।
सुमनं रेवतं बुद्धं, सोभितं च महामुनिं।।6।।

अनोमदस्सिं सम्बुद्धं, पदुमं नारदं जिनं।
पदुमुत्तरं सम्बुद्धं, सुमेधं च तथागतं।।7।।

सुजातं पियदस्सिं च, अत्थदस्सिं च नायकं।
धम्मदस्सिं च सिद्धत्थं, तिस्सं फुस्सं जिनं तथा।।।8।।

विपस्सिं सिखि सम्बुद्धं, सम्बुद्धं वेस्सभुं विभुं।
ककुसन्धं च सम्बुद्धं, कोणागमनं एव च।।9।।

कस्सपं सुगतं च इमे, सम्बुद्धे चतुवीसति।
आराधेत्वा महावीरो, तेहि बोधाय व्याकतो।।10।। पठमो परिच्छेदो।

Sunday, March 29, 2020

भारतीय परिधानं

भारतीय परिधानं

भारते, जना  नाना
परिधानानि धारेन्ति।
धारन्तते  परिधानानि
ते उय्यानस्स विविधानि
पुप्फानि इव दिस्सन्ति।

तेलगु महोदयो 'लुंगी' धारेन्ति
बंगाली महोदयो 'धोती' धारेन्ति
महरट्ठी महिला 'साड़ी' धारेन्ति
अधुना बालिकायो 'शर्ट पेन्ट' धारेन्ति।

बुद्ध अनुयायियो
सेत वत्थानि धारेन्ति।
नीलं परिधानं पि
बहुजनानि सोभन्ति।

बहुवो भारतीय महिलायो
साटिकायो धारेन्ति
अस्स परम्परागत परिधाने
ता बहु सुन्दरा दिस्सन्ति।

सम्पूण्ण विस्से
भारतीय परिधानस्स
महत्ता अत्थि
परिधान विपणने पि
भारतीय परिधानस्स
सेट्ठता अत्थि

मयं,  भारतीय
भारतीय परिधानस्स
अम्हे गारवो।

Saturday, March 28, 2020

बाबासाहब अम्बेडकरो

बाबासाहब अम्बेडकरो
रित्त ठान पूरनीयं-
पन्हं . 1. रामजी सकपालो सेना व्यूहे कस्मिं पदे(कौन-से पद पर) अहोसि(थे)?
विस्सज्जनं. रामजी सकपालो सेना व्यूहे.......पदे अहोसि। सुभेदार/हवालदार।
प. 2ः भीमरावस्स मातुया(माता का) नाम किं(क्या है)?
वि. भीमरावस्स मातुया नाम .........। जीजाबाई/भीमाबाई।
प. 3ः भिमरावो कस्मिं आयुनि (आयु में) विवाह-बन्धनं बन्धि?
वि. भिमरावो .......... वस्सस्स आयुनि विवाह-बन्धनं बन्धि। तेरस/चतुद्दस ।
प. 4ः भीमरावस्स सिक्खं(शिक्षा) कुतो(कहां) अभवि(हुई थी)?
वि. भीमरावस्स न्हातपरियन्त(स्नातक पर्यन्त) सिक्खं........अभवि। महारट्ठे/मज्झ-पदेसे।
प. 5ः भीमरावस्स उच्च सिक्खा कुतो अधिगता?
वि. कोलम्बिया, लंडन इति लोकविस्सुतेसु विज्जापीठेसु तस्स........ अधिगता। न्हात-परियन्त/उच्चसिक्खा।
प. 6ः कस्स देसस्स गोलमेज परिसायं बाबासाहेब अम्बेडकरो समागतो?
वि. .......देसस्स गोलमेज परिसायं बाबासाहेब अम्बेडकरो समागतो।ब्रम्ह/आंग्ल।
प. 7ः किं अमच्च-पदं, नेहरू अमच्च-मण्डले, बाबासाहेबेन, भूसितं?
वि. .......अमच्च पदं, नेहरू अमच्च-मण्डले बाबासाहेबेन भूसितं।विधि/न्याय।
प. 8ः भारतदेसस्स रज्ज-घटनाकारो को(कौन है)?
वि. भारतदेसस्स रज्ज-घटनाकारो............। बाबासाहेब डॉ. भीमरावजी अम्बेडकरो/बाबू जगजीवनरामो।
प. 9ः किं हेतु बाबासाहेब अम्बेडकरो धम्मचक्कं पवत्तयि?
वि. दलितानं...........विमोचनं हेतु बाबासाहेब अम्बेडकरो धम्मचक्कं पवत्तयि।अप्फोट्ठब्बाय(अस्पृश्यता से)/चतुवण्णपासम्हा(चतुर्वर्ण-व्यवस्था से)।
प. 10ः कस्मिं संवच्छरे बाबासाहेब अम्बेडकरो परिनिब्बायि?
वि. ..........संवच्छरे बाबासाहेब अम्बेडकरो परिनिब्बायि।एकूनविंसति सत छहपंचासत्तिमे/अठ्ठारह सत एकनवूतिमे।
प. 11ः किं कारणे बाबासाहेब अम्बेडकरो सुरियस्स विय पभासेति?
वि. भारतस्मिं ............दुक्खं निवारेतुं बाबासाहेब अम्बेडकरो सुरियस्स विय पभासेति(प्रकाशित होते हैं)। सुद्दानं(शुद्रों को)/नारीनं च सुद्दानं(स्त्री और शुद्रों को)।

उत्तरं लेखनीयं-

प्र. 1. रामजी सकपालो सेना व्यूहे कस्मिं पदे(कौन-से पद पर) अहोसि(थे)?
उ. रामजी सकपालो सेना व्यूहे ------ पदे अहोसि। सुभेदार/हवालदार।
प्र. 2ः भीमरावस्स मातुया(माता का) नाम किं(क्या है)?
उ. भीमरावस्स मातुया नाम .........। जीजाबाई/भीमाबाई।
प्र. 3ः भिमरावो कस्मिं आयुम्हि(आयु में) विवाह-बन्धनं बन्धि?
उ. भिमरावो .......... वस्सस्स आयुम्हि विवाह-बन्धनं बन्धि। तेरस/चतुद्दस ।
प्र. 4ः भीमरावस्स सिक्खं(शिक्षा) कुतो(कहां) अभवि(हुई थी)?
उ. भीमरावस्स न्हातपरियन्त(स्नातक पर्यन्त) सिक्खं........अभवि। महारट्ठे/मज्झ-पदेसे।
प्र. 5ः भीमरावस्स उच्च सिक्खा कुतो अधिगता?
उ. कोलम्बिया, लंडन इति लोकविस्सुतेसु विज्जापीठेसु तस्स........ अधिगता। न्हात-परियन्त/उच्चसिक्खा।
प्र. 6ः कस्स देसस्स गोलमेज परिसायं बाबासाहेब अम्बेडकरो समागतो?
उ. .......देसस्स गोलमेज परिसायं बाबासाहेब अम्बेडकरो समागतो।ब्रम्ह/आंग्ल।
प्र. 7ः किं अमच्च-पदं, नेहरू अमच्च-मण्डले, बाबासाहेबेन, भूसितं?
उ. .......अमच्च पदं, नेहरू अमच्च-मण्डले बाबासाहेबेन भूसितं।विधि/न्याय।
प्र. 8ः भारतदेसस्स रज्ज-घटनाकारो को(कौन है)?
उ. भारतदेसस्स रज्ज-घटनाकारो............। बाबासाहेब डॉ. भीमरावजी अम्बेडकरो/बाबू जगजीवनरामो।
प्र. 9ः किं हेतु बाबासाहेब अम्बेडकरो धम्मचक्कं पवत्तयि?
उ. दलितानं...........विमोचनं हेतु बाबासाहेब अम्बेडकरो धम्मचक्कं पवत्तयि।अप्फोट्ठब्बाय(अस्पृस्यता से)/चतुवण्णपासम्हा(चतुर्वर्ण-व्यवस्था से)।
प्र. 10ः कस्मिं संवच्छरे बाबासाहेब अम्बेडकरो परिनिब्बायि?
उ. ..........संवच्छरे बाबासाहेब अम्बेडकरो परिनिब्बायि।एकूनविंसति सत छहपंचासत्तिमे/अठ्ठारह सत एकनवूतिमे।
प्र. 11ः किं कारणे बाबासाहेब अम्बेडकरो सुरियस्स आलोके विय पभासेति?
उ. भारतस्मिं ............दुक्खं निवारेतुं बाबासाहेब अम्बेडकरो सुरियस्स आलोकं विय पभासेति(प्रकासित होते हैं)। सुद्दानं(सूद्रों को)/नारीनं च सुद्दानं(स्त्री और सूद्रों को)।

सुरियो

सुरियो

सुरियो पुब्बदिसाय उदेति।
उदित भानु सब्बे विहगमा
मधुरेन सरेन रवन्ति
तस्स आगमनं थोमेन्ति।
सब्बे मनुस्सा सकानि सकानि
कम्मानि आरभन्ति।
अयं सब्बेसानं जीवनदाता।
पभाते अयं सविता अतीव सुखदो,
पसादकरो।
मज्झन्तिके सो येव तपनो, तापतरो।
सायण्हे पुनं सीतकरो, नेत्तहरो।
अयं सुरियो दिवाकरो, पभाकरो,
दिनकरो आदि अञ्ञेहि नामेभि ञ्ञायते।
सुरियो अन्धकारं अपनेति,
पठवीं च पभासेति।
भगवा बहुजनानं अञ्ञाण अन्धकारो अपनेति
अपि च धम्म ञाणं दत्वा
जनस्मिं निब्बान-सुखं वितरति।

Friday, March 27, 2020

कपि

कपि
'डारविन' महोदयो मतानुसारेन
मनुस्सस्स पुब्बजो कपि अत्थि
आकारेन, पकारेन कपि
मनुस्स इव दिस्सति.
आचरण व्यवहारेन अपि च
मनुस्सस्स अनुकरोति।
कपयो समूहेहि विचरन्ति।
मनुस्सा पि समूहेहि निवसन्ति।
कपीनं एको पमुखो होति।
मनुस्सानं पि परिवार, गांव पमुखो होति।
कपि साकाहारी होति।
मनुस्सो पि स्वभावेन साकाहारी होति।
डारविन महोदयो सच्चं वदति।
मनुस्सस्स पुब्बजो कपि अत्थि।

Thursday, March 26, 2020

कस्सको

कस्सको
अयं अम्हाकं भारत देसो।
भारत कसि पधान देसो।
अधिसंख्य जना कसि कम्म करोन्ति।
यं कसि करोति, सो कस्सको।
कस्सको गामं वसति।
कस्सका खेतं गच्छन्ति।
कस्सका नंगलेन खेतानि कस्सन्ति।
बीजानि भूमियं वपन्ति।
आकासतो मेघा खेतेसु सिंचन्ति।
यथाकालं भूमिया सस्सं जायति।
तेन हरितेन कस्सकानं हदयानि पप्फुल्लन्ति।

Wednesday, March 25, 2020

स्वामी विवेकानंद और बौद्ध धर्म.

मैं बौद्ध धर्मावलम्बी नहीं हूँ, जैसा कि आप लोगों ने सुना है, पर फिर भी मै बौद्ध हूँ। यदि चीन, जापान अथवा सीलोन (श्रीलंका), उस महान तथागत के उपदेशों का अनुसरण करते हैं तो भारत वर्ष उन्हें पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार मानकर उनकी पूजा करता है। आपने अभी-अभी सुना कि मैं बौद्ध धर्म की आलोचना करने वाला हूँ, परन्तु उससे आपको केवल इतना ही समझना चाहिए। जिनको मैं इस पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार मानता हूँ, उनकी आलोचना! मुझसे यह सम्भव नहीं। परन्तु बुद्ध के विषय में हमारी धारणा यह है कि उनके शिष्यों ने उनकी शिक्षाओं को ठीक-ठीक नहीं समझा। हिन्दू धर्म (हिन्दू धर्म से मेरा तात्पर्य वैदिक धर्म है) और जो आजकल बौद्ध धर्म कहलाता है, उनमें आपस में वैसा ही सम्बन्ध है, जैसा यहूदी तथा ईसाई धर्मो में। ईसा मसीह यहूदी थे और शाक्य मुनि हिन्दू। यहूदियों ने ईसा को केवल अस्वीकार ही नहीं किया, उन्हें सूली पर भी चढ़ा दिया। हिन्दूओं ने शाक्य मुनि को ईश्वर के रूप में ग्रहण किया है और उनकी पूजा करते हैं। किन्तु प्रचलित बौद्ध धर्म तथा बुद्धदेव की शिक्षाओं में वास्तविक भेद हम हिन्दू लोग दिखलाना चाहते हैं, वह विशेषतः यह है कि शाक्य मुनि कोई नयी शिक्षा देने के लिए अवतीर्ण नहीं हुए थे। वे भी ईसा के समान धर्म की सम्पूर्ति के लिए आए थे, उसका विनाश करने नहीं। अन्तर इतना है कि ईसा को प्राचीन यहूदी नहीं समझ पाये। जिस प्रकार यहूदी प्राचीन व्यवस्थान की निष्पत्ति नहीं समझ सके, उसी प्रकार बौद्ध भी हिन्दू के सत्यों की निष्पत्ति को नहीं समझ पाये। मैं यह बात फिर दुहराना चाहता हूँ कि शाक्य मुनि ध्वंस करने नहीं आये थे वरन् वे हिन्दू धर्म की निष्पत्ति थे। उसकी तार्किक परिणति और उसके सुक्तिसंगत विकास थे।
हिन्दू धर्म के दो भाग है- कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड। ज्ञानकाण्ड का विशेष अध्ययन संन्यासी लोग करते हैं। ज्ञानकाण्ड में जातिभेद नहीं हैं। भारतवर्ष में उच्च अथवा नीच जाति के लोग संन्यासी हो सकते हैं और तब दोनों जातियाँ समान हो जाती हैं। धर्म में जाति भेद नहीं है। जाति तो एक सामाजिक संस्था मात्र है। शाक्य मुनि स्वयं संन्यासी थे, और यह उनकी गरिमा है कि उनका हृदय इतना विशाल था कि उन्होंने अप्राप्य वेदों से सत्यों को निकालकर उनको समस्त संसार में विकीर्ण कर दिया। इस जगत में सब से पहले वे ही ऐसे हुए, जिन्होंने धर्म प्रचार की प्रथा चलायी, इतना ही नहीं, वरन् मनुष्य को दूसरे धर्म से अपने धर्म में दीक्षित करने का विचार भी सब से पहले उन्हीं के मन में उदित हुआ।
सर्वभूतों के प्रति, और विशेषकर अज्ञानी तथा दीन जनों के प्रति अद्भुत सहानुभूति में ही तथागत का महान गौरव सन्निहित है। उनके कुछ शिष्य ब्राह्मण थे। बुद्ध के धर्मोपदेश के समय संस्कृत भारत की जनभाषा नहीं रह गयी थी। वह उस समय केवल पण्डितों के ग्रन्थों की ही भाषा थी। बुद्धदेव के कुछ ब्राह्मण शिष्यों ने उनके उपदेशों का अनुवाद संस्कृत में करना चाहा था, पर बुद्धदेव उनसे सदा यही कहते- मैं दरिद्र और साधारण जनों के लिए आया हूँ, अतः जनभाषा में ही मुझे बोलने दो, और इसी कारण उनके अधिकांश उपदेश अब तक भारत की तात्कालीन लोकभाषा में पाये जाते हैं।
दर्शनशास्त्र का स्थान चाहे जो भी हो, तत्वज्ञान का स्थान चाहे जो भी हो, पर जब तक इस लोक में मृत्यु मान की वस्तु है, तब तक मानवहृदय में दुर्बलता जैसी वस्तु है। जब तक मनुष्य के अन्तःकरण से उसका दुर्बलताजनित करूण क्रन्दन बाहर निकलता है तब तक इस संसार में ईश्वर में विश्वास कायम रहेगा। जहाँ तक दर्शन की बात है, तथागत के शिष्यों ने वेदों की सनातन चट्टानों पर बहुत हाथ-पैर पटके, पर वे उसे तोड़ न सके और दूसरी ओर उन्होंने जनता के बीच से उस सनातन परमेश्वर को उठा लिया, जिसमें हर नर-नारी इतने अनुराग से आश्रय लेता है। फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारतवर्ष में स्वाभाविक मृत्यु प्राप्त करनी पड़ी और आज इस धर्म की जन्मभूमि भारत मे अपने को बौद्ध कहने वाला एक भी स्त्री-पुरूष नहीं है।
किंतु इसके साथ ही ब्राह्मण धर्म ने भी कुछ खोया, समाज सुधार का वह उत्साह, प्राणिमात्र के प्रति वह आश्चर्यजनक सहानुभूति और करूणा, तथा वह अद्भुत रसायन, जिसे बौद्ध धर्म ने जन-जन को प्रदान किया था एवं जिसके फलस्वरूप भारतीय समाज इतना महान हो गया कि तत्कालीन भारत के सम्बन्ध में लिखने वाले एक यूनानी इतिहासकार को यह लिखना पड़ा कि एक भी ऐसा हिन्दू नहीं दिखाई देता, जो मिथ्याभाषण करता हो, एक भी ऐसी हिन्दू नारी नहीं है जो पतिव्रता न हो। हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म के बिना नहीं रह सकता और न बौद्ध धर्म, हिन्दू धर्म के बिना ही। तब यह देखिए कि हमारे पारस्परिक पार्थक्य ने यह स्पष्ट रूप से प्रकट कर दिया कि बौद्ध, ब्राह्मणों के दर्शन और मस्तिष्क के बिना नहीं ठहर सकते, और न ब्राह्मण बौद्धों के विशाल हृदय के बिना। बौद्ध और ब्राह्मण के बीच यह पार्थक्य भारतवर्ष के पतन का कारण है। यही कारण है कि आज भारत में तीस करोड़ भिखमंगे निवास करते है और वह एक सहस्र वर्षो से विजेताओं का दास बना हुआ है। अतः आइए, हम ब्राह्मणों की इस अपूर्व मेधा के साथ तथागत के हृदय, महानभावता और अद्भुत लोकहितकारी शक्ति को मिला दें।
स्वामी विवेकानंद के व्याख्यान-5 : बौद्ध धर्म
सितम्बर 26,1893

Saturday, March 21, 2020

प्रेरणार्त्थक किरिया

प्रेरणार्त्थक किरिया
असोको लेखं लिखति। अशोक लेख लिखता है।
असोको लेखं लिखापेति। अशोक लेख लिखवाता है।
यहां ‘लिखापेति’ प्रेरणार्त्थक किरिया है। कभी-कभी कोई कार्य स्वयं न करके दूसरों से करवाया जाता है, इसके लिए ‘प्रेरणार्त्थक किरिया’ का प्रयोग होता है।
प्रेरणा करने के अर्थ में , धातु से परे ‘इ’ तथा ‘आपि’ प्रत्यय लगते हैं। प्रत्यय लगने से धातु के अन्त्य तथा उपान्त हस्व स्वर की वृद्धि हो जाती है। ‘अ’ की वृद्धि ‘आ’, ‘इ’ तथा ‘ई’ की वृद्धि ‘ए’ और ‘उ’ तथा ‘उ’ की वृद्धि ‘ओ’ हो जाती है। प्रत्यय लगे हुए धातु के रूप ‘चुरादि गण(चोरेति, चोरयति- चुराना)’ के समान चलते हैं। यथा-
धातु-           प्रेरणार्त्थक धातु/रूप
1. खिप(फैंकना)- खेपि, खेपापि(फैंकवाना)/ खेपेति, खेपयति
खेपापेति, खेपापयति।
2. लिख(लिखना)- लेखि, लेखापि(लिखवाना)/  लेखेति, लेखयति
लेखापेति, लेखापयति।
3. भुज(खिलाना)- भोजि, भोजापि(खिलवाना)/ भोजेति, भोजयति
भोजापेति, भोजापयति।
गिरनार(पश्चिम) से प्राप्त अशोक शिलालेख, जो लगभग 250 वर्ष ईसा पूर्व के हैं, में इस ‘प्रेरणार्त्थक किरिया’ का सुन्दर ढंग से प्रयोग किया गया है- ‘इयं धम्मलिपि देवानं पियेन पियदस्सिना राजा लेखापिता’(यह धम्मलिपि देवों के प्रिय प्रियदस्सी राजा ने लिखवाया है)। स्पष्ट है, तब न केवल पालि भाषा बल्कि पालि व्याकरण समुन्नत था। 

वत्तमान(पच्चुपन्न) काल किरिया पयोगा

वत्तमान काल किरिया पयोगा
निम्न किरिया-प्रयोगों को ध्यान से देखिए-
अभिवादेमि-  अभिवादन करता हूँ। समादियामि- मैं अंगीकार करता हूँ। नमामि- नमन करता हूँ। वन्दामि- वन्दना करता हूँ। खमामि- क्षमा करता हूँ। याचामि- याचना करता हूँ। खादामि- खाता हूँ । पिबामि- पीता हूँ । सयामि- सोता हूँ। चलामि- चलता हूँ । धावामि- दौड़ता हूँ । गच्छामि- जाता हूँ। वदामि- कहता हूँ । सुणोमि- सुनता हूँ। पस्सामि- देखता हूँ।
-ये सब वत्तमान(पच्चुपन्न) काल की किरियाएं हैं। वत्तमानकाल में किरिया प्रयोग तीनों पुरुषों में निम्न प्रकार से होता है-
किरिया ‘गच्छति’(धातु- गच्छ) प्रयोगा-
2. वत्तमान काल परस्सपद
पुरिस- एकवचन/ अनेकवचन
उत्तम पुरिस- अहं गच्छामि/ मयं गच्छाम।
मैं जाता हूॅं/ हम जाते हैं।
मज्झिम पुरिस- त्वं गच्छसि/ तुम्हे गच्छथ।
तुम जाते हो/ तुम लोग जाते हो।
अञ्ञं (पठम) पुरिस- सो गच्छति/  ते गच्छन्ति।
वह जाता है/ वे जाते हैं।

Friday, March 20, 2020

रित्त ठानं पूरणीयं

रित्त ठानं पूरणीयं (रिक्त स्थान भरना है)-
अ. वत्तमानकालो
1. अहं बुद्धं वन्दामि। मयं ........ वन्दाम।
मैं बुद्ध को वन्दन करता हूं। हम बुद्ध को वन्दन करते हैं।
2. त्वं बुद्धं वन्दसि। तुम्हे बुद्धं वन्दथ।
........ बुद्ध को वन्दन करते हो। तुम लोग बुद्ध को वन्दन करते हों।
3. बालिका बुद्धं वन्दति। बालिकायो बुद्धं वन्दन्ति।
बालिका बुद्ध को नमन करती है। बालिकाएं ....................।
ब. भूतकालो
1. अहं बुद्धं वन्दिं। मयं बुद्धं वन्दाम।
............... वन्दन किया। हमने बुद्ध को वन्दन किया।
2. त्वं बुद्धं वन्दसि। तुम्हे बुद्धं वन्दत्थ।
तुमने .........................। तुम लोगों ने बुद्ध को वन्दन किया।
3. बालिका बुद्धं वन्दि। बालिकायो बुद्धं वन्दिसुं।
बालिका ने बुद्ध को वन्दन किया। बालिकाओं ने ...................।
स. भविस्सकालो
1. अहं बुद्धं वन्दिस्सामि। मयं बुद्धं वन्दिस्साम।
मैं बुद्ध को वन्दन करूंगा। ......................... करेंगे ।
2. त्वं बुद्धं वन्दिस्ससि। तुम्हे बुद्धं वन्दिस्सथ।
तुम बुद्ध को वन्दन करोगे। ........................................करोगे।
3. बालिका बुद्धं वन्दिस्सति। बालिकायो बुद्धं वन्दिस्सन्ति।
बालिका बुद्ध को वन्दन करेगी। .............................।

Thursday, March 19, 2020

न किञ्चि अभेसज्जं अद्दसं

न किञ्चि अभेसज्जं अद्दसं
तेन समयेन तक्कसिलायं
दिसा पामोक्खो वेज्जो पटिवसति।
तं पटिसुत्वा, राजगहस्स कोमारभच्चो, जीवको
येन वेज्जो तेन उपसंकमि।
उपसंकमित्वा तं वेज्जस्स एतदवोच-
‘‘इच्छामहं आचरिय, सिप्पं सिक्खितुं ’’ति
‘‘तेन हि भणे जीवक! सिक्खस्सुं’ति।

अथ खो जीवको कोमारभच्चो
बहुं च गण्हाति लहुं च गण्हाति,
सुट्ठं च उपधारेति
गहितं च अस्स न सम्मुस्सति।

सत्तन्नं वस्सानं अच्चयेन
अथ खो जीवको, कोमारभच्चो
तं वेज्जं एतदवोच-
अहं खो आचरिय,
बहु च गण्हाति, लहु च गण्हाति,
सुट्ठं च उपधारेति
गहितं तं मे न सम्मुस्सति,
सत्त च मे वस्सानि अधियन्तस्स,
न इमस्स सिप्पस्स अन्तो पञ्ञायति।
कदा इमस्स सिप्पस्स अन्तो पञ्ञायिस्सति’’ति ?
‘‘तेनहि भणे, जीवक! खणितिं आदाय
तक्क्सिलाय समन्ता योजनं आहिण्डित्वा
यं किञ्चि अभेसज्जं पस्सेय्यासि, तं आहरा’’ति

एवं आचरिय, ति खो जीवको कोमारभच्चो
तस्स वेज्जस्स पटिसुणित्वा खणितिं आदाय
तक्कसिलाय समन्ता योजनं आहिण्डितो
न किञ्चि अभेसज्जं अद्दस।

अथ खो जीवको कोमारभच्चो
येन सो वेज्जो तेनुपसंकमि।
उपसंकमित्वा तं वेज्जं एतदवोच-
‘‘आहिण्डिन्तोम्हि, आचरिय
तक्कसिलाय समन्ता योजनं
न किञ्चि अभेसज्जं अद्दसं’’ति।
‘‘सुक्खितो, भणे जीवक,
अलं ते एत्तकं जीविकाया’’ति।

Thursday, March 12, 2020

ब्राम्हणो द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ किये गए आंदोलन

रामवतार यादव की पोस्ट-
अगर आपको लगता है अंग्रेज भारत के लुटेरे और अन्यायी थे तो आप अब भी गलत है फिर अंग्रेजों द्वारा आपके लिए की गई उपलब्धियां भी जान लीजिये और जानिये ब्राम्हणो द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ किये गए आंदोलन की वजह....
1- अंग्रेजो ने 1795 में अधिनयम 11 द्वारा शुद्रों को भी सम्पत्ति
रखने का कानून बनाया।
2- 1773 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने रेगुलेटिग एक्ट पास किया जिसमें न्याय व्यवस्था समानता पर आधारित थी। 6 मई 1775 को इसी कानून द्वारा बंगाल के सामन्त ब्राह्मण नन्द कुमार देव को फांसी हुई थी।
3- 1804 अधिनीयम 3 द्वारा कन्या हत्या पर रोक अंग्रेजों नेलगाई (लडकियों के पैदा होते ही तालु में अफीम चिपकाकर, माँ के स्तन पर धतूरे का लेप लगाकर, एवम् गढ्ढाबनाकर उसमें दूध डालकर डुबो कर मारा जाता था।
4- 1813 में ब्रिटिश सरकार ने कानून बनाकर शिक्षा ग्रहण करने का सभी जातियों और धर्मों के लोगों को अधिकार दिया।
5- 1813 में ने दास प्रथा का अंत कानून बनाकर किया।
6- 1817 में समान नागरिक संहिता कानून बनाया (1817 के पहले सजा का प्रावधान वर्ण के आधार पर था। ब्राह्मण को कोई सजा नही होती थी ओर शुद्र को कठोर दंड दिया जाता था।अंग्रेजो ने सजा का प्रावधान समान कर दिया।)
7- 1819 में अधिनियम 7 द्वारा ब्राह्मणों द्वारा शुद्र स्त्रियों के शुद्धिकरण पर रोक लगाई। (शुद्रोंकी शादी होने पर दुल्हन को अपने यानि दूल्हे के घर न जाकर कम से कम तीन रात ब्राह्मण के घर शारीरिक सेवा देनी पड़ती थी।)
8- 1830 नरबलि प्रथा पर रोक (देवी -देवता को प्रसन्न करने के लिए ब्राह्मण शुद्रों, स्त्री व् पुरुष दोनों को मन्दिर में सिर पटक–पटक कर चढ़ा देता था।)
9- 1833 अधिनियम 87 द्वारा सरकारी सेवा में भेद भाव पर रोक अर्थात योग्यता ही सेवा का आधार स्वीकार किया गया तथा कम्पनी के अधीन किसी भारतीय नागरिक को जन्म स्थान, धर्म, जाति या रंग के आधार पर पद से वंचित नहीं रखा जा सकता है।
10-1834 में पहला भारतीय विधि आयोग का गठन हुआ।कानून बनाने की व्यवस्था जाति, वर्ण, धर्म और क्षेत्र की भावना से ऊपर उठकर करना आयोग का प्रमुख उद्देश्य था।
11-1835 प्रथम पुत्र को गंगा दान पर रोक (ब्राह्मणों ने नियम बनाया की शुद्रों के घर यदि पहला बच्चा लड़का पैदा हो तो उसे गंगा में फेंक देना चाहिये। पहला पुत्र ह्रष्ट-पृष्ट एवं स्वस्थ पैदा होता है। यह बच्चा ब्राह्मणों से लड़ न पाए इसलिए पैदा होते ही
गंगा को दान करवा देते थे।
12- 7 मार्च 1835 को लार्ड मैकाले ने शिक्षा नीति राज्य का विषय बनाया और उच्च शिक्षा को अंग्रेजी भाषा का माध्यम बनाया गया।
13- 1835 को कानून बनाकर अंग्रेजों ने शुद्रों को कुर्सी पर बैठने का अधिकार दिया।
14- दिसम्बर 1829 के नियम 17 द्वारा विधवाओं को जलाना अवैध घोषित कर सती प्रथा का अंत किया।
15- देवदासी प्रथा पर रोक लगाई। ब्राह्मणों के कहने से शुद्र अपनी लडकियों को मन्दिर की सेवा के लिए दान देते थे। मन्दिर के पुजारी उनका शारीरिक शोषण करते थे। बच्चा पैदा होने पर उसे फेंक देते थे।और उस बच्चे को हरिजन नाम देते थे। 1921 को जातिवार जनगणना के आंकड़े के अनुसार अकेले मद्रास में कुल जनसंख्या 4 करोड़ 23 लाख थी जिसमें 2 लाख देवदासियां मन्दिरों में पड़ी थी। यह प्रथा अभी भी दक्षिण भारत के मन्दिरो में चल रही है।
16- 1837 अधिनियम द्वारा ठगी प्रथा का अंत किया।
17- 1849 में कलकत्ता में एक बालिका विद्यालय जे ई डी बेटन ने स्थापित किया।
18- 1854 में अंग्रेजों ने 3 विश्वविद्यालय कलकत्ता मद्रास और बॉम्बे में स्थापित किये। 1902 मे विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त किया गया।
19- 6 अक्टूबर 1860 को अंग्रेजों ने इंडियन पीनल कोड बनाया। लार्ड मैकाले ने सदियों से जकड़े शुद्रों की जंजीरों को काट दिया ओर भारत में जाति, वर्ण और धर्म के बिना एक समान क्रिमिनल लॉ लागु कर दिया।
20- 1863 अंग्रेजों ने कानून बनाकर चरक पूजा पर रोक लगा दिया (आलिशान भवन एवं पुल निर्माण पर शुद्रों को पकड़कर जिन्दा चुनवा दिया जाता था इस पूजा में मान्यता थी की भवन
और पुल ज्यादा दिनों तक टिकाऊ रहेगें।
21- 1867 में बहू विवाह प्रथा पर पुरे देश में प्रतिबन्ध लगाने के
उद्देश्य से बंगाल सरकार ने एक कमेटी गठित किया ।
22- 1871 में अंग्रेजों ने भारत में जातिवार गणना प्रारम्भ की। यह जनगणना 1941 तक हुई । 1948 में पण्डित नेहरू ने कानून बनाकर जातिवार गणना पर रोक लगा दी।
23- 1872 में सिविल मैरिज एक्ट द्वारा 14 वर्ष से कम आयु की कन्याओं एवम् 18 वर्ष से कम आयु के लड़को का विवाह वर्जित करके बाल विवाह पर रोक लगाई।
24- अंग्रेजों ने महार और चमार रेजिमेंट बनाकर इन जातियों को सेना में भर्ती किया लेकिन 1892 में ब्राह्मणों के दबाव के कारण सेना में अछूतों की भर्ती बन्द हो गयी।
25- रैयत वाणी पद्धति अंग्रेजों ने बनाकर प्रत्येक पंजीकृत भूमिदार को भूमि का स्वामी स्वीकार किया।
26- 1918 में साऊथ बरो कमेटी को भारत मे अंग्रेजों ने भेजा। यह कमेटी भारत में सभी जातियों का विधि मण्डल (कानून बनाने की संस्था) में भागीदारी के लिए आया था। शाहू
जी महाराज के कहने पर पिछङो के नेता भाष्कर राव जाधव ने एवम् अछूतों के नेता डा अम्बेडकर ने अपने लोगों को विधि मण्डल में भागीदारी के लिये मेमोरेंडम दिया।
27- अंग्रेजो ने 1919 में भारत सरकार अधिनियम का गठन किया ।
28- 1919 में अंग्रेजो ने ब्राह्मणों के जज बनने पर रोक लगा दी थी और कहा था की इनके अंदर न्यायिक चरित्र नही होता है।
29- 25 दिसम्बर 1927 को डा अम्बेडकर द्वारा मनु समृति का दहन किया।
30- 1 मार्च 1930 को डाॅ. अम्बेडकर द्वारा काला राम मन्दिर (नासिक) प्रवेश का आंदोलन चलाया।
31- 1927 को अंग्रेजों ने कानून बनाकर शुद्रों के सार्वजनिक स्थानों पर जाने का अधिकार दिया।
32- नवम्बर 1927 में साइमन कमीशन की नियुक्ति की।जो 1928 में भारत के लोगों को अतिरिक्त अधिकार देने के लिए आया। भारत के लोगों को अंग्रेज अधिकार न दे सके इसलिए इस कमीशन के भारत पहुँचते ही गांधी ने इस कमीशनके विरोध में बहुत बड़ा आंदोलन चलाया। जिस कारण साइमन कमीशन अधूरी रिपोर्ट लेकर वापस चला गया। इस पर अंतिम फैसले के लिए अंग्रेजों ने भारतीय प्रतिनिधियों को 12 नवम्बर 1930 को लन्दन गोलमेज सम्मेलन में बुलाया।
33- 24 सितम्बर 1932 को अंग्रेजों ने कम्युनल अवार्ड घोषित किया जिसमें प्रमुख अधिकार निम्न दिए----
A--वयस्क मताधिकार
B--विधान मण्डलों और संघीय सरकार में जनसंख्या के अनुपात में अछूतों को आरक्षण का अधिकार
C--सिक्ख, ईसाई और मुसलमानों की तरह अछूतों को भी स्वतन्त्र निर्वाचन के क्षेत्र का अधिकार मिला। जिन क्षेत्रों में अछूत प्रतिनिधि खड़े होंगे उनका चुनाव केवल अछूत ही करेगें।
D--प्रतिनिधियोंको चुनने के लिए दो बार वोट का अधिकार मिला जिसमें एक बार सिर्फ अपने प्रतिनिधियों को वोट देंगे दूसरी बार सामान्य प्रतिनिधियों को वोट देगे।
34- 19 मार्च 1928 को बेगारी प्रथा के विरुद्ध डा अम्बेडकर ने मुम्बई विधान परिषद में आवाज उठाई। जिसके बाद अंग्रेजों ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया।
35- अंग्रेजों ने 1 जुलाई 1942 से लेकर 10 सितम्बर 1946 तक डाॅ अम्बेडकर को वायसराय की कार्य साधक कौंसिल में लेबर मेंबर बनाया। लेबरो को डा अम्बेडकर ने 8.3 प्रतिशत आरक्षण दिलवाया।
36-- 1937 में अंग्रेजों ने भारत में प्रोविंशियल गवर्नमेंट का चुनाव करवाया।
37-- 1942 में अंग्रेजों से डा अम्बेडकर ने 50 हजार हेक्टेयर भूमि को अछूतों एवम् पिछङो में बाट देने के लिए अपील
किया। अंग्रेजों ने 20 वर्षों की समय सीमा तय किया था।
38- अंग्रेजों ने शासन प्रसासन में ब्राह्मणों की भागीदारी को 100% से 2.5% पर लाकर खड़ा कर दिया था। इन्ही सब वजाह से ब्राह्मणों ने अन्ग्रेजो के खिलाफ़ क्रांति शुरू कर दी क्योकि अन्ग्रेजो ने शुद्रो को सारे अधिकार दे दीये थे और सब जातियो के लोगो को एक समान अधिकार देकर सबको बराबरी मे लाकर खडा किया।

भारत अम्हाकं देसो

भारत अम्हाकं देसो
भारत मम देसो। भारत अम्हाकं देसो।
भारत तव देसो। भारत तुम्हाकं देसो।

इमस्मिं भारते, हिन्दू, मुस्लिम निवसन्ति।
इमस्मिं भारते, बौद्ध सिक्ख निवसन्ति।
भारत, अम्हाकं देसो। भारत, तुम्हाकं देसो।

मयं देसस्स खेत्तानि, उयानस्स कुसुमानि।
कश्मीरतो कन्याकुमारी, गुजराततो आसामी।
चरन्ति मयं यत्थ तत्थ, विहरन्ति विय खगानि।
भारत, अम्हाकं देसो, भारत, तुम्हाकं देसो।

होलिका

होलिका
अतिते जम्बुदीपे, वाराणसी नगरे
हिरञ्ञकसिपु नाम अनरियराजा अहोसि।
तस्स पल्हादो नाम एको पुत्तो, अपि च
होलिका नाम एका भगिनी अहोसि।
पितुच्छा होलिकाय  पल्हादो बहु  पियाे आसि.

राजा अरियब्राह्मणेहि अति दुम्मनो अत्थि।
यो कोवि अरियब्राह्मणो तस्स रट्ठस्मिं दिस्सति
तस्स सिरो असिना छिज्जति।
पितुस्स अनेन कम्मेन
राजकुमार पल्हादो बहु दुक्खि आसि।
एकं समये सो किञ्चि अरियब्राह्मणं
राजपुरिसेहि बलक्कारेन नीयमानं दिस्वा
तस्स रक्खणं अत्थं सयमेव वधट्ठाने अट्ठासि।
हाहाकार हुत्वा राजपुरिसेहि रञ्ञो आरोचेंसु।
अत्तनो पुत्तस्स एतादिस कतं दिस्वा राजा कुज्झि।
त्वं कदावि पि एवं न करोहीति तं वारेसि।
एवं वारितो पि पल्हादो पटिदिनं
बहूनं अरियब्राह्मणानंं जीवितं रक्खि।

कमेन राजा अतिविय कुद्धो हुत्वा
तमेव मारणत्थाय वायमि।
एक दिवसे कुद्धो राजा
अत्तनो पुत्तं भगीनि होलिकाय सद्धिं
अतिविय पज्जलित अग्गिस्मिं पातेसि।
ता तिथि फग्गुन पुण्णमी आसि।
इतिहासे, अयं घटना अरिय-अनअरिय
सङगाामरूपेण दिस्सति.

बुद्ध के 18 नाम

प्रसिद्ध  कोष ग्रन्थ 'अमरकोष' में बुद्ध के 18 नाम गिनाए गए हैं-
सर्वज्ञः सुगतो बुद्धो धर्मराजस्तथागतः
समन्तभद्रो भगवान् मारजिल्लोकजिज्जिनः ।।13।।
षड़भिज्ञो दशबलो’द्वयवादी विनायकः
मुनीद्रः श्रीधन: शास्ता मुनिः शाक्य मुनि स्तुत्य :।।14।। प्रथमकाण्ड, स्वर्गवर्ग - 1)
1. सर्वज्ञ 2. सुगत 3. बुद्ध 4. धर्मराज 4. तथागत 5. समन्तभद्र  6. भगवान 7. माराजित 8. लोकजित  9. जिन 10. षड़भिज्ञ 11. दशबल 12 अद्वयवादी 13. विनायक 14. मुनीद्र 15. श्रीधन 16. शास्ता 17. मुनि 18  शाक्य मुनि ।

Wednesday, March 11, 2020

मम पिय गन्थो

मम पिय गन्थो
‘बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’ मम पियो गन्थो।
विस्सविख्यात संविधानवेत्ता, अत्थवेत्ता बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकरो अस्स लेखको।
गन्थस्स आरभिक ‘परिचयो’ सयं बाबासाहेब आम्बेडकरेन लिखितं अत्थि।
भारते मानव धम्म संस्थापनाय तेसं अयं अपतिम कति.

‘बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’ गन्थो पठमं वारं 1956 तमे संवच्छरे पकासितो।
मूलरूपेन अयं गन्थो आंग्ल भासायं  लिखितं अत्थि।
तदन्तरे, अस्स हिन्दी अनुवादं 1961 तमे वस्से भदन्त आनन्द कोसल्यायन कर कमलेन सम्पादितो।
ततो 1970 तमे वस्से अस्स मराठी च परं इतर भासेसु अनुवादं पकासितं।

अयं सम्पूण्ण गन्थो अट्ठ पमुख परिच्छेदेसु सुविसयानुसारेन सुविभाजितं अत्थि।

Tuesday, March 10, 2020

होली

होली
कुछ त्यौहार और परम्पराएं समय के साथ साथ अपना रंग छोड़ देते हैं. किन्तु इन त्यौहारों और परम्पराओं के ठेकेदार उससे भी आगे की सोचते हैं. कृष्ण और राधा को समझा जा सकता है किन्तु रंगों के साथ होली को किसने और क्यों जोड़ा, अबूझ पहेली है. जो भी हो, इसे सतरंगा करने में सिनेमा और मीडिया का रोल अहम है.

पालि-व्याकरण बहुत सरल है

पालि-व्याकरण बहुत सरल है-
1. पालि में कारक बतलाने के लिए 8 विभक्तियाँ होती हैं-
1. पठमा- कर्ता (ने)
2. दुतिया- कर्म (को)
3. ततिया- करण (से, द्वारा)
4. चतुत्थी- सम्प्रदान (को, के, लिए)
5. पंचमी- अपादान (से)
6. छट्ठी- सम्बन्ध (का, के, की)
7. सत्तमी- अधिकरण (में, पर, पास)
8. आलपन- सम्बोधन (हे!, अरे!)
स्मरण रखने का सूत्र- कर्ता ने, कर्म को, करण से/द्वारा, सम्प्रदान को के लिए, अपादान से, संबंध का के की, अधिकरण में पर पास, सम्बोधन हे अजी अरे!
2. विभक्ति-विन्ह-
उक्त विभक्तियों में मोटे तौर पर 'विभक्ति-चिन्ह' इस प्रकार होते हैं-
विभत्ति- एकवचन/अनेकवचन
पठमा- सि/ यो
दुतिया- अं/ यो
ततिया- आ/ हि
चतुत्थी- स्स/ नं
पंचमी- स्मा/ हि
छट्ठी- स्स/ नं
सत्तमी- स्मिं/ सु
आलपन- सि/ यो
स्मरण रखने का सूत्र- सि, यो इति पठमा, अं, यो इति दुतिया, आ, हि इति ततिया, स्स, नं इति चतुत्थी, स्मा, हि, इति पंचमी, स्स, नं इति छट्ठी, स्मिं, सु इति सत्तमी।
3. उक्त विभत्ति चिन्हों को याद करना बड़ा सरल है, क्योंकि- 1. चतुत्थी और छट्ठी में दोनों वचनों के रूप एक जैसे होते हैं। 2. ततिया और पंचमी में बहुवचन के रूप एक जैसे होते हैं। amritlalukey.blogspot.com

स्त्रियां कुछ भी बर्बाद नहीं होने देती।

स्त्रियां कुछ भी बर्बाद नहीं होने देती।
वो सहेजती है।
संभालती है।
ढकती है।
बांधती है।
उम्मीद के आखिरी छोर तक ।
कभी तुरपाई करके।
कभी टांका लगा के ।
कभी धूप दिखा के ।
कभी हवा झला के।
कभी छांटकर।
कभी बीनकर।
कभी तोड़कर।
कभी जोड़कर।
देखा होगा ना आपने ?
अपने ही घर में उन्हे खाली डिब्बे जोड़ते हुए।
बची थैलियां मोड़ते हुए।
बची रोटी शाम को खाते हुए।
दोपहर की थोड़ी सी सब्जी को तड़का लगाते हुए।
दीवारों की सीलन तस्वीरों से छुपाते हुए।
बचे हुए खाने को अपनी थाली में सजाते हुए।
फटे हुए कपड़े हो।
टूटा हुए बटन हो।
पुराना आचार हो।
सीलन लगे बिस्किट हो।
चाहे पापड़ हो।
डिब्बे में पुरानी दाल हो।
गला हुआ फल हो।
मुरझाई हुए सब्जी हो।
या फिर तकलीफ देता ' रिश्ता'
वो सहेजती है।
संभालती है।
ढकती है।
बांधती है।
उम्मीद के आखिरी छोर तक ।
इसीलिए,
आप एहमियत रखिए!
वो जिस दिन मुंह मोडेंगी तुम ढूंढ नहीं पाओगे....!
"मकान की घर बनाने वाली रिक्तता उनसे पूछो जिन घर में नारी नहीं मकान कहे जाते है।
-एड सुनील पगारे 

Sunday, March 8, 2020

बुद्धि-कौशल

मतिमता
(बुद्धि-कौशल)

एकस्मिं वने,
एक जंगल में 
एको सीहो निवसति।
एक सिंह रहता था।  
तस्मिं येव वने 
उसी जंगल में 
एको ससो पि निवसति।
एक खरगोश भी रहता था। 

एकस्मिं दिने
(एक दिन) 
सीहो संस आह-
(सिंह ने खरगोश से कहा-) 
"अहं तुवं खादामि।"
(मैं तुमको खाता हूँ)

ससो वदति-
(खरगोश कहता है-)
"मिगराज, मा मं खाद।
(मृगराज, मुझको मत खा)
अस्मिं वने,
(इस जंगल में) 
अञ्ञो' पि सीहो निवसति ।
(एक दूसरा सिंह भी रहता है)  
सो पि ममं खादतुं इच्छति।
(वह भी मुझे खाना चाहता है) 

महाराज, सो सन्तिके
(महाराज! वह पास ही ) 
उदपाने वसति।
(जलाशय में रहता है) 

सीहो कोधेन पुच्छति- 
(सिंह क्रोध से पूछता है-)
"तं दस्सेतु ?"
(उसको दिखाओ?) 

सीहो ससेन 
(सिंह खरगोश के साथ) 
उदपाने गच्छति। 
(जलाशय पर जाता है) 
एवं उदपाने 
(एवं जलाशय में) 
अत्तनो छाया दिस्वा 
(अपनी छाया देख कर) 
सीहनाद नदित्वा 
(सिंह-गर्जना कर) 
तं अपरं सीहं हन्तुं 
(उस दूसरे सिंह को मारने) 
उदपाने पक्खन्दति।
(जलाशय में छलांग लगाता है)
एवं मरति।
(एवं मरता है) 

एवमेव
(इस प्रकार) 
दुब्बलेन मतिमता 
(कमजोर के बुद्धि-कौशल से)  
बलवा सीहो 
(बलवान सिंह का) 
घातितो।
(अंत होता है)

Thursday, March 5, 2020

ब्राहमण छल कपट-

ब्राहमण छल कपट-
सम्राट अशोक ने अपने शिलालेखों में अपने लिए ‘देवानां पिय'(देवताओं की जिस पर कृपा हो) शब्द का प्रयोग किया है। किन्तु इससे ब्राह्मण पण्डे रुष्ट हो गए थे. उन्हें 'देवताओं' की ठेकेदारी अपने हाथ से खिसकती प्रतीत हुई. क्योंकि, बौद्ध धर्म के प्रति अशोक के झुकाव से ब्राहमण पंडो को अब राजा से मुप्त का माल, दान मिलना कम हो गया था. इसलिए धूर्त ब्राह्मणों ने चिढ़कर ‘देवानां प्रिय' का अर्थ ‘मूर्ख’ प्रचारित कर दिया (सन्दर्भ- व्याकरण बनाम ब्राहमणवादः पृ. 77ः डॉ. सुरेन्द्र कुमार अज्ञात)।
आप देखेंगे कि ब्राह्मण- ग्रंथों/व्याकरणों में 'बुद्ध' और 'दीवानां पिय' का अर्थ 'मूर्ख' मिलता है. ब्राह्मणों को इससे जरा भी शर्म नहीं है. क्योंकि हजारीप्रसाद द्विवेदी से शुक्ला, मिश्रा आदि स्वयं नामधन्य ब्राह्मण साहित्यकारों ने आज तक इसके लिए कोई सार्वजानिक माफ़ी नहीं मांगी है.

Wednesday, March 4, 2020

अशोक की लिपि को "धम्मलिपि" कहने केलिए इतनी उदासीनता क्यों?

"अशोक की लिपि को "धम्मलिपि" कहने केलिए इतनी उदासीनता क्यों?
भारत में लिखावट का इतिहास शुरू होता हैं सम्राट अशोक के अभिलेखों से. उसके पहले के कोई सबूत नही मिलता क्योंकि ना कोई अभिलेख हैं ना कोई हस्तलिखित ना कुछ लिखावट मिलती हैं. १८३६ में जेम्स प्रिंसेप ने पहली बार अशोक के अभिलेख का लिप्यांतर कर उसका भाषांतर किया. प्रिंसेपने इस अभिलेख की भाषा पालि - प्राकृत बताई मगर लिपि के बारे में कोई सबूत न मिलने पर उसने इन अभिलेखों की लिपि को पहले 'लट' कहा (क्यूंकि ये अभिलेख लट यानि स्तम्भ पर लिखा था) और बाद में 'इंडिक स्क्रिप्ट (indic script) कहा. प्रिंसेप के बाद आये हुए अनेक संशोधकों ने इस लिपि को 'पालि', 'अशोकन स्क्रिप्ट', 'इंडो पालि' भी कहा हैं.
१९वी शताब्दी में Terrien de Lacouperie ने इस लिपि को 'ब्राह्मी' कहा. उसका प्रमुख आधार था बौद्धों का 'ललितविस्तार' और जैन धर्म का 'समवायांग सूत्र' ग्रन्थ जो लगभग ४थी से ६ठी शताब्दी के दरम्यान लिखे हुए हैं. इन दोनों ग्रन्थ में लिपियों की सूचि में ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि का नाम पहले और दूसरे स्थान पर हैं. इसका आधार लेते हुए Lacouperie ने बाएं से दाएं लिखने वाली लिपि को 'ब्राह्मी' कहा और दाएं से बाएं लिखने वाली लिपि को 'खरोष्ठी' कहा. ६४ लिपियों के सूचि में से इन्ही दो नामो को क्यों चुना इसका कारण Lacouperie ने नही बताया हैं. भारत के इन प्राचीन लिपियों को ये दो नाम देने के कारण इस प्रकार हैं -
१. जैन धर्मियों की श्रद्धा हैं की भगवन ऋषभदेवने अपनी बेटी बंभि को जो लिखावट सिखाई उसी लिखावट को अपने बेटी का नाम दिया जो 'बंभि' हैं. (इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं.)
२. १३ वे शताब्दी में पैदा हुए सायणाचार्य कहते हैं - "ब्राह्मी: ब्राह्मणप्रेरितः यही महत्य: ऋतस्य यज्ञस्य मातरः निर्मात्र्य: स्तुतय:" यानी ब्राह्मणों द्वारा जिस लिपि का उच्चारण हुआ हैं और जो लिपि से स्तुति ग्रंथों में देवों की प्रशंसा की हैं वही लिपि 'ब्राह्मी' हैं. नारदस्मृति ग्रन्थ में कहा गया हैं की ब्रह्मदेवने जिस लिपि का निर्माण किया हैं वही 'ब्राह्मी' कहलायी. (इसका भी कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं और हो भी नहीं सकता!)
३. प्रा. विश्वम्भरशरण पाठक (अर्वाचीन संस्कृत भाषा के विद्वान) का कहना हैं की ऋग्वेद में आया शब्द 'ब्रह्मी' वेदकालीन हैं और अशोक की लिपि ही वेदकालीन ब्रह्मी हैं जो आगे चलकर ब्राह्मी के रूप मैं आयी हैं.

अब इनकी चर्चा करते हैं -
१. जेम्स प्रिंसेप जिसने सबसे पहले बार इस लिपि का लिप्यांतरण किया, उसने भी इस लिपि का नाम जानना चाहा. उस वक्त बनारस के ब्राह्मणोंने उसे कहा की ब्राह्मी नाम दिया जाय क्यूंकि ये उनके धर्म की मान्यता हैं, मगर प्रिंसेप ने इसे साफ़ नकारा क्यूंकि इस नाम का कोई प्रमाण नहीं मिलता.
२. ललितविस्तार ग्रन्थ में ६४ लिपियों का नाम हैं. इसका क्या प्रमाण हैं की इस सूचि में जो पहला नाम हैं - ब्राह्मी वही अशोक के अभिलेखों की लिपि हैं? क्या अशोक के अभिलेखों की लिपि बाकी के ६३ लिपि में से कोई लिपि नहीं हो सकती क्या?
३. Lacouperie और उसके बाद के लिपि विशेषतज्ञोंने बाएं से दाएं लिखने वाली लिपि को 'ब्राह्मी' कहने का कोई प्रमाण नहीं दिया.
४. जगविख्यात लिपि विशेषतज्ञ रिचर्ड सालोमोन अपनी किताब "Indian Epigraphy" में कहते हैं - .....it should be kept in mind that we do not know precisely what form or derivative of the script the authors of the early script lists were referring to as Brahmi nor whether this term was actually applied to the script used in the time of Ashok". मतलब भारत के इस प्राचीन लिपि का नाम ब्राह्मी ही हैं या कुछ और हैं ये हमें पता नहीं और ये भी पता नहीं की क्या अशोक के समय इस लिपि को ब्राह्मी ही कहा जाता था या कुछ और.

अब सम्राट अशोक के अभिलेखों के कुछ अंश देखा जाए -
"इयं धंमलिपि देवानांप्रियेन प्रियदसिना राञा लेखापिता.....", "यदा अयं धंमलिपि लिखिता.....", "एताये आठाये इयं धंमलिपि लेखिता.......", "अथाय अयं धंमलिपि लेखापिता किं च........", "अयं धंमलिपि देवानांप्रियेन प्रियदसिना राञा लेखापिता........" - ये सब गिरनार के अभिलेख हैं.
"अयं च लिपि तिसनखतेन सोतविया......", "एताये आठाये इयं धंमलिपि लेखित....." - ये दोनों अभिलेख धौली के हैं.
"इयं च लिपि आनुचातुंमासं सोतविया तिसेन......." - ये जौगड का अभिलेख हैं.
"हेदिसा च इका लिपि तुफाकंतिकं हुवाति संसलनसि निखिता इकं च लिपिं हेदिसमेव उपासकानंतिकं निखिपाथ......." - ये सारनाथ का लघुस्तंभ अभिलेख हैं.
"सडुवीसतिवस अभिसितेन मे इयं धंमलिपि लेखापिता......", "इयं धंमलिबि अत अथी सिलाथंभानि वा सिलाफलकानि वा तत कटाविया एन एस चिल ठीतिके सिया......" - ये अभिलेख टोपरा के स्तम्भ पर उत्कीर्ण किया हैं.

ऐसे और भी लगभग ४० अभिलेख हैं. थोड़ा गौर करोगे तो पता चलेगा की 'लिपि', 'लेखापिता' और 'लेखिता' ये शब्द इन अभिलेख के शुरुवात के कुछ शब्द हैं. अशोक के इस अभिलेख का कई अध्ययनकर्ताओंने जो अर्थ लगाया हैं - "ये धर्मलेख देवों के प्रिय राजा लिख रहा हैं" बिलकुल गलत हैं. क्यूँकि धम्मलिपि का अर्थ धर्मलेख नहीं हो सकता हैं. लिपि और लेख में फर्क हैं. लिपि शब्द का मूल धातु लिप हैं और लेख का धातु लिख हैं. अगर अशोक को धम्मलेख शब्द अभिप्रेत होता तो वे लिखते - "इयं धम्मलेख देवानं प्रियेन प्रियदसि राज्ञा लेखापिता". सम्राट अशोकने बड़े साफ़ शब्दों में धम्मलिपि इसलिए लिखा क्यूँकि वे बताने चाहते हैं की जो भी अभिलेख वे लिख रहें हैं वे "धम्मलिपि" में लिख रहे हैं.

अशोकने दिया हुआ भारत के इस प्राचीन लिपि का नाम यहाँ के भाषाविद और लिपितज्ञ इसलिए नकारते हैं क्यूँकि "धम्म" इस शब्द से उन्हें एलर्जी हैं. धम्म शब्द जुड़ने से उन्हें लगता हैं यह बौद्ध धर्म का प्रतिक होगा. अगर वे पालि जानते तो उन्हें पता होता की यह शब्द सबसे पहले भ.बुद्ध ने इस्तेमाल किया था लेकिन पालि भाषा में धम्म शब्द अनेक अर्थों से इस्तेमाल किया हैं. मंगल कामना, आदेश, सुचना, मंगल विचार, देशना, प्रवचन इन अर्थों से धम्म शब्द पालि त्रिपिटक में दिखाए पड़ता हैं.

यह क्यों नहीं सोचा जाता हैं की अशोक के समय इस लिपि का नाम "धम्मलिपि" ही होगा और बाद में अनेक देश के राजाओं ने इसे अपनाकर अपनी एक लिपि विकसित की. और यह भी हो सकता हैं की ललितविस्तर और समवायांग सूत्र में जो लिपियाँ हैं उन में धम्मलिपि जैसे लचीलापन न होने से सारी लिपियाँ नष्ट हुयी. यही तो सत्य हैं वरना भारत के २.५ करोड़ हस्तलिखित, ताम्रपट, अभिलेख, शिलापट, इत्यादि में एक बार भी "ब्राह्मी" शब्द नहीं आया हैं, बल्कि "धम्मलिपि" शब्द ३२ बार आया हैं.

जिस सम्राट ने भारत के लेखन इतिहास का प्रारम्भ किया और जिसके लिपि के कारण पुरे एशिया में लिपि, भाषा और संस्कृति का उत्कर्ष हुआ, क्या हम उस सम्राट अशोक के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उसने लिखी हुई लिपि को उसीने दिया हुआ नाम "धम्मलिपि" नहीं कह सकते? विश्व के एक महान सम्राट को इससे बड़ी आदरांजलि और क्या हो सकती हैं!
अतुल भोसेकर
९५४५२७७४१०

सरलानि वाक्यानि-

सरलानि वाक्यानि-
एकस्मिं हत्थे पञ्च अंगुलियो होन्ति
एकस्मिं सत्ताहे सत्त दिनानि होन्ती।
सत्ताहस्स सत्तमो दिवसो रविवारो।
सप्ताह के सातवां दिन रविवार होता है
एकस्मिं मासे तिंस दिवसा होन्ति।
एक माह में 30 दिन होते हैं।
एकस्मिं वस्से तिसतं पञ्च सट्ठि दिवसा होन्ति।
एक वर्ष में 365 दिन होतें हैं।
पच्चेक चतुत्थस्स संवच्छरस्स फरवरी मासे एकूनतिंसति दिनानि होन्ति।
प्रत्येक चौथे वर्ष के फरवरी माह में 29 दिन होते हैं।
'बुद्धा एंड हिज धम्मा' गन्थस्स पठमे कण्डे सत्त परिच्छेदा सन्ति।
बुद्धा एंड हिज धम्मा' ग्रन्थ के प्रथम कांड में सात परिच्छेद हैं।

सो तस्स तिण्णं पुत्तानं चत्तारी चत्तारी कत्वा द्वादस फलानि अदासि।
एतस्मिं घरे चतस्सो इत्थियो वसन्ति।
भिक्खवो द्विसतं सत्तवीसति सिक्खापदानि रक्खन्ति।
तिपति बालाजी मंदिरे सुवण्णस्स अपारं भंडारणं अत्थि।


अम्बेडकर महाविज्झालये  पञ्च सतानि सिस्सा उग्गण्हान्ति।
तस्स मय्हं, भिक्खवे, तयो पासादा अहेंसु।

अहं एकेन मनुस्सेन सद्धिं गामं गतो।
महापुरिसो सत्त दिवसानि वीतिनामेसि।
दस चीवरानि अहं दानं दातुं इच्छामि।
मैं दस चीवर दान देना चाहता हूँ।
विसाखा फलानि कुसुमानि गहेत्वा विहारं गच्छति।
विशाखा फूल और फल लेकर विहार जाती है। 
सहस्सानि भिक्खु-भिक्खुणियो गमा गामे चरन्ति।
हजारों भिक्खु-भिक्खुनियां गावं गावं जाते हैं.

वणिजो तीणि वत्थानि किणित्वा आपणे देति।
भोपाल नगरे अट्ठसतसहस्सं मनुस्सा वसन्ति।
मयं सत्तदिवसेहि दिल्लियं गमिस्साम।
सोळसमो(सोलवां) दारको मम जेट्ठ पुत्तो होति।

सिद्धत्थ कुमारो एकूनतिंसतिमे वस्से गेहा निक्खमि।
तथागतो अस्सीतिमे वस्से परिनिब्बायि।

चत्तारि अरियसच्चानि पञ्ञातब्बानि।

दसस्स दस गुणितं कत्वा सतं होति।

दुतियायं विभत्तियं ‘अम्ह’ सद्दस्स ‘मे’ इति रूपं होति।

Tuesday, March 3, 2020

रट्ठं, रट्ठं ?

रट्ठं रट्ठं ?
इदं(यह) ते(तेरे द्वारा) रट्ठं, इदं तव(तुम्हारा) रट्ठं।
इदं मे(मेरे द्वारा) रट्ठं(राष्ट्र), इदं मम(मेरा) रट्ठं।
वद(कहो) रे ! सठ(दुष्ट), किमत्थं(किस लिए)
त्वं करोसि. . . . रट्ठं, रट्ठं ?

Monday, March 2, 2020

संबंधो

सम्बन्धो
आचरियस्स(आचार्य की) भरिया (पत्नी) आचरियानी,
गहपतिस्स भरिया गहपतानी।
मातु(माता का) भाता मातुलो(मामा)।
तस्स(उसकी) भरिया मातुलानी(मामी)।
पितु भाता चुळपिता(चाचा)। तस्स भरिया चुळमाता(चाची)।
मातु भगिनी मातुच्छा(मौसी), पितु भगिनी पितुच्छा(बुआ)।
भगिनिया(बहन की) पुत्ती भगिनेय्या(भांजी)।
तस्सा(भांजी का) भाता भगिनेय्यो(भांजा)।
मातु(माता की) माता मातामही, मातु पिता मातामहो।
पितु माता पितामही, पितु पिता पितामहो।
भत्तुस्स(पति का) भाता देवरो, तस्स(पति की) भगिनी ननन्दरा।
भत्तुस्स माता सस्सु, एवं पितु ससुरो ।
पुत्तस्स(पुत्र की) पुत्ती नत्तरी, एवं पुत्तो नत्तरो ।

पालि में संख्या

एकं एकं च द्वे होन्ति।
(एक और एक दो होते हैं)
द्वे द्वे च चत्तारि होन्ति।
तीणि तीणि च छह होन्ति।
चतु चतु च अट्ठ होन्ति।
पञ्च पञ्च च दस होन्ति।
छह छह च द्वादस होन्ति।
सत्त सत्त च चतुद्दस होन्ति।
अट्ठ अट्ठ च सोळस होन्ति।
नव नव च अट्ठारस होन्ति।
दस दस च विसति होन्ति।

द्वे च तीणि समग्गा /संकलिता पञ्च होन्ति।
(दो और तीन मिलाकर पांच होते हैं)
छह च छह समग्गा/संकलिता द्वादस होन्ति।
वीसति(20) च तिंसति(30) समग्गा/संकलिता पञ्चासा(50) होन्ति।
ते पञ्चासा(53) च द्वे तिंसा(32)  समग्गा/संकलिता पञ्चासीति(85) होन्ति।
चतुधिक-सतं(104) च दसाधिक सतं(110) समग्गा/संकलिता सतं अधिकं चतुवीसति (124) होन्ति।
द्वे सतं चतुवीसति (224)  च तिसतं सत्तवीसति (327) समग्गा/संकलिता  पञ्च सतं एकपञ्चासा (551) होन्ति।

एकं एकका वग्गा(वर्ग) एकं। द्वे द्वेका वग्गा चत्तारि।
ति तिका वग्गा नव। चतु चतुका वग्गा सोळस।
पञ्च पञ्चका वग्गा पञ्चवीसति। छह छहका वग्गा छत्तिंसति।
सत्त सत्तका वग्गा एकूनपञ्चासा। अट्ठ अट्ठका वग्गा चतुसट्ठि।
नव नवका वग्गा एकासीति। दस दस का वग्गा सतं।

एकस्स एक गुणितं कत्वा एकं होति।
द्विन्नं द्वे गुणितं कत्वा चत्तारि होति।
तिण्णं ति गुणितं कत्वा नवं होति।
चतुन्नं चतु गुणितं कत्वा सोळस होति।
पञ्चन्नं पञ्च गुणितं कत्वा पञ्चवीसति होति।
छन्नं छह गुणितं कत्वा छत्तिंसति होति।
सत्तन्नं सत्त गुणितं कत्वा एकूनपञ्चासा होति।
अट्ठन्नं अट्ठ गुणितं कत्वा चतुसट्ठि होति।
नवन्नं नव गुणितं कत्वा एकासीति होति।
दसन्नं दस गुणितं कत्वा सतं होति।