Saturday, March 21, 2020

प्रेरणार्त्थक किरिया

प्रेरणार्त्थक किरिया
असोको लेखं लिखति। अशोक लेख लिखता है।
असोको लेखं लिखापेति। अशोक लेख लिखवाता है।
यहां ‘लिखापेति’ प्रेरणार्त्थक किरिया है। कभी-कभी कोई कार्य स्वयं न करके दूसरों से करवाया जाता है, इसके लिए ‘प्रेरणार्त्थक किरिया’ का प्रयोग होता है।
प्रेरणा करने के अर्थ में , धातु से परे ‘इ’ तथा ‘आपि’ प्रत्यय लगते हैं। प्रत्यय लगने से धातु के अन्त्य तथा उपान्त हस्व स्वर की वृद्धि हो जाती है। ‘अ’ की वृद्धि ‘आ’, ‘इ’ तथा ‘ई’ की वृद्धि ‘ए’ और ‘उ’ तथा ‘उ’ की वृद्धि ‘ओ’ हो जाती है। प्रत्यय लगे हुए धातु के रूप ‘चुरादि गण(चोरेति, चोरयति- चुराना)’ के समान चलते हैं। यथा-
धातु-           प्रेरणार्त्थक धातु/रूप
1. खिप(फैंकना)- खेपि, खेपापि(फैंकवाना)/ खेपेति, खेपयति
खेपापेति, खेपापयति।
2. लिख(लिखना)- लेखि, लेखापि(लिखवाना)/  लेखेति, लेखयति
लेखापेति, लेखापयति।
3. भुज(खिलाना)- भोजि, भोजापि(खिलवाना)/ भोजेति, भोजयति
भोजापेति, भोजापयति।
गिरनार(पश्चिम) से प्राप्त अशोक शिलालेख, जो लगभग 250 वर्ष ईसा पूर्व के हैं, में इस ‘प्रेरणार्त्थक किरिया’ का सुन्दर ढंग से प्रयोग किया गया है- ‘इयं धम्मलिपि देवानं पियेन पियदस्सिना राजा लेखापिता’(यह धम्मलिपि देवों के प्रिय प्रियदस्सी राजा ने लिखवाया है)। स्पष्ट है, तब न केवल पालि भाषा बल्कि पालि व्याकरण समुन्नत था। 

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