स्त्रियां कुछ भी बर्बाद नहीं होने देती।
वो सहेजती है।
संभालती है।
ढकती है।
बांधती है।
उम्मीद के आखिरी छोर तक ।
कभी तुरपाई करके।
कभी टांका लगा के ।
कभी धूप दिखा के ।
कभी हवा झला के।
कभी छांटकर।
कभी बीनकर।
कभी तोड़कर।
कभी जोड़कर।
देखा होगा ना आपने ?
अपने ही घर में उन्हे खाली डिब्बे जोड़ते हुए।
बची थैलियां मोड़ते हुए।
बची रोटी शाम को खाते हुए।
दोपहर की थोड़ी सी सब्जी को तड़का लगाते हुए।
दीवारों की सीलन तस्वीरों से छुपाते हुए।
बचे हुए खाने को अपनी थाली में सजाते हुए।
फटे हुए कपड़े हो।
टूटा हुए बटन हो।
पुराना आचार हो।
सीलन लगे बिस्किट हो।
चाहे पापड़ हो।
डिब्बे में पुरानी दाल हो।
गला हुआ फल हो।
मुरझाई हुए सब्जी हो।
या फिर तकलीफ देता ' रिश्ता'
वो सहेजती है।
संभालती है।
ढकती है।
बांधती है।
उम्मीद के आखिरी छोर तक ।
इसीलिए,
आप एहमियत रखिए!
वो जिस दिन मुंह मोडेंगी तुम ढूंढ नहीं पाओगे....!
"मकान की घर बनाने वाली रिक्तता उनसे पूछो जिन घर में नारी नहीं मकान कहे जाते है।
-एड सुनील पगारे
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