Wednesday, July 25, 2018

आळवक सुत्तं

आळवी प्रवास के दौरान आळवक नामक यक्ष को दमन करने के निमित्त बुद्ध उसी के आवास में ठहरे। बुद्ध का सामना होते ही आळवक अत्यंत कुपित हुआ।  किन्तु, जैसे जैसे संवाद बढ़ते गया, आळवक भाव-विभोर होते गया और अंत में तो वह बुद्ध की शरण ही चला गया। यह वाकया जयमंगल अट्ठगाथा में हम इस प्रकार सुनते हैं- मारातिरेकं(मार से भी बढ़-चढ़ कर) अभि-युज्झित (युद्ध करने वाले) सब्ब रत्तिं (सारी रात)  'घोरं(भयानक)-पन-आलवक, मक्खंं(दुष्ट) -थद्ध(कठोर ह्रदय वाले)-यक्खं(यक्ष को)...। आइये, देखें वह संवाद क्या है-
आळवक सुत्त 
एवं मे सुत्तं। एकं समयं भगवा आळवियं विहरति।
ऐसा मैंने सुना। एक समय भगवान आळवी में विहार कर रहे थे।
तेन खो समयेन भगवा आळवक-यक्खस्स भवने पवसति।
उस समय भ. आळवक नामक यक्ष के भवन में प्रवेश करते हैं।
अथ खो आळवको यक्खो येन भगवा तेनुपसंकमि।
तब आळवक यक्ष, जहां भगवान थे, गए।
उपसंकित्वा भगवन्तं एतद वोच-
जा कर भगवान को ऐसा कहा-
‘‘निक्खम समणाा"'ति ।"
‘‘समण, बाहर निकल।’’
‘‘साधु आवुसो"ति भगवा निक्खमि।
‘‘आवुस! बहुत अच्छा।’’ -कह भगवान बाहर निकल गए।
‘‘पविस समणा’’‘ति।
समण! भीतर आओ!’’
‘‘साधु आवुसो’’‘ति भगवा पाविसि।
‘‘आवुस! बहुत अच्छा।"  -कह कर भगवान भीतर आ गए।
दुतियम्पि, ततियम्पि खो आळवको भगवन्तं एतद वोच-
दूसरी बार, तीसरी बार भी आळवक ने भगवान को ऐसा कहा-
 ‘‘निक्खम समणा’’‘ति।
‘‘साधु आवुसो’’‘ति भगवा निक्खमि।
‘‘पविस समणा’’‘ति।
‘‘साधु आवुसो’’‘ति भगवा पाविसि।
चतुत्थं‘पि खो आळवको, भगवन्तं एतदवोच- ‘‘निक्खम समणा’’‘ति।
‘‘न खो अहं आवुसो निक्खमिस्सामि। यं ते करणीयं, तं करोही ’’‘ति।
"आवुस! (अब की बार) मैं नहीं निकलूंगा। तुम्हें जो करना है, करो।"
‘‘पञ्ह तं समण पुच्छिस्सामि। सचे मे न ब्याकरिस्ससि, हदयं वा ते फालेस्सामि,
पादेसु वा गहेत्वा पार-गंगाय खिपिस्सामी’’‘ति।
 "समण! मैं तुम से प्रश्न पूछंगा।  यदि मुझे उत्तर नहीं दिए, तो तुम्हारी छाती चिर दूंगा
अथवा पैर पकड़ कर गंगा के पार फेंक दूंगा।"
‘‘न खो अहं आवुसो पस्सामि लोके, यो मे हदयं वा फालेय्य,
पादेसु वा गहेत्वा पार गंगाय खिपेय्य।"
"आवुस!  मैं इस लोक में किसी को नहीं देखता, जो मेरी छाती चीर दें
अथवा पैर पकड़ कर गंगा के पार फेंक दें।
अपि च तं आवुसो, पुच्छ यदा-कंखसी"'ति ।
फिर भी, आवुस! पूछो जो तुम्हें शंका हो।’’
अथ खो आळवको यक्खो भगवन्तं गाथाय अज्झभासि-
इस पर उस आळवक-यक्ख ने भगवान को गाथा में यह कहा-
‘‘किं सु इध वित्तं पुरिसस्स सेट्ठं , किं सु सुचिण्णं सुखं आवहति  ।
किं सु हवे साधुतरं रसानं, कथं जीविं जीवितं आहु सेट्ठं?’’
‘‘पुरुष का सर्वोत्तम धन क्या है? क्या अभ्यास सुख लाता है?
रसों में सबसे स्वादिष्ट क्या है? कैसा जीना श्रेष्ठ कहा गया  है?’’
भगवा-
‘‘सद्धा इध वित्तं पुरिसस्स सेट्ठं, धम्मो सुचिण्णो सुखंं आवहति।
सच्चं हवे साधुतरं रसानं, पञ्ञा जीविं जीवितं आहु सेट्ठंं ।’’
‘‘श्रद्धा पुरुष का सर्वोत्तम धन है?  धर्म-अभ्यास सुख लाता है?
सत्य, रसों में सबसे स्वादिष्ट रस  है? प्रज्ञा-पूर्वक जीना श्रेष्ठ कहा है। "
आळवक -
कथं सुलभते पञ्ञं, कथं सुविन्दते धनं।
कथं सुकित्तिं पप्पोति, कथं मित्तानि गन्थति?’’
‘‘कैसे (कोई ) प्रज्ञा-लाभ करता है? कैसे धन प्राप्त करता है?
कैसे कीर्ति प्राप्त होती है? कैसे मित्रों को बाँध कर रखता है?’’
भगवा-
‘‘सद्दहानो(श्रद्धा रख) अरहतं च धम्मं(अरहत और धर्म पर)
निब्बान पत्तिया(निर्वाण प्राप्ति के लिए)
 सुस्सूसं(शुश्रूषा कर) लभते पञ्ञं(प्रज्ञा लाभ करता है),
अप्पमत्तो(अप्रमत्त) विचक्खणो(विलक्षण पुरुष)
पतिरूपकारी धुरवा(अनुकूल काम करने वाला),
उट्ठाता(उत्साही, परिश्रमी) विन्दते(कमाता है) धनं।
सच्चेन(सत्य से) कित्तिं पप्पोति(प्राप्त करता है),
 ददं(देकर) मित्तानि(मित्रों को) गन्थति(बांध लेता है)।’’

आळवक-
‘‘अत्थाय वत मे बुद्धो, वासाय आळवी आगमा।
सो अहं अज्ज पजानामि, यत्थ दिन्न महप्फलं।’’
मेरे कल्याण के लिए बुध्द, आळवी प्रवास करने आएं।
यह मैंने जान लिया कि किसे देने महाफल होता है।

भगवा-
‘‘आवुसो, साधु! साधु!! साधु!!!’’(स्रोत- संयुंत्त निकाय भाग -1: सगाथा वग्गः 10-12ः पृ. 170 )

आळवक सुत्तं निट्ठितं
...............................

सुचिण्णो- सदाचार।  पञ्ञा जीविं जीवितं- प्रज्ञापूर्वक जीवन। विन्दति- अनुभव करना।
आवहति- लाता है. आवहन- लाना। सुस्सूसा- शुश्रुषा(श्रवण करने की इच्छा)

Monday, July 23, 2018

Tense/Mood लकार (3)

अनुज्ञा परस्सपद  लकार   (Imperative Tense)
पुरिस-                 एकवचन                              बहुवचन
उत्तम पुरिस-         भवामि                                  भवाम         
मज्झिम पुरिस-    भव/भवाहि                            भवथ
पठम पुरिस-         भवतु                                    भवन्तु
टिप-
1.  उ. पु. और म. पु. बहुवचन के किरिया-पद, बहुधा वत्तमान(पच्चुपन्न) काल के समान होते हैं।
2. इस तरह के किरिया-पद आदेश, निषेध, निमंत्रण, इच्छा आदि व्यक्त करने प्रयोग होते है।

वाक्यानि पयोगा
इच्छा -
अहं सप्पुरिसो भवामि(मैं अच्छा आदमी बन जाऊं/जाता हूँ  )।
अज्ज, अहं अवकास सिकरोमि(आज, मैं अवकाश/छुट्टी लेता हूँ)।
अम्हे खिप्पं सज्जा भवाम(हम शीघ्र तैयार होते हैं )।
अज्ज चल-चित्तं पस्साम(आज, चल-चित्र/मूवी देखते हैं)।
चल भोजनं करोम(चलो, भोजन करते हैं )।
सदा माता-पितुन्न वचनकरा भवथ।
(माता-पिता कि आज्ञा का सदा पालन करो )।
सुखिनो च दीघायु भव(सुखी और दीर्घायु हों )।


निवेदन-
आगच्छतु/ निसीदतु। (आओ/ बैठो )
भवं, पीठेसु निसीदन्तु (महोदय, कुर्सियों पर बैठें।
चायं सिकरोतु(चाय स्वीकार/ग्रहण करें )।
आसंदी इध आनेतु(आसान/आसंदी  इधर ले आओ )।
द्वारं उग्घाटेतु (कपाट/दरवाजा खोलो) ।
अजयं इदं सूचेतु(अजय के यह बतला देना )।
यानं मन्दं चालेतु(वाहन धीरे से चलाओ )।
विजनं चालेतु(फंखा चलाओ )।
मम सहायता करोतु(मेरी सहायता करें )।
सावधानेन करियं करोतु(सावधानी से कार्य करें )।
अस्स हिन्दियं अनुवादं करोतु(इसका हिंदी में अनुवाद करो ) ।
याव इच्छतु ताव सिकरोतु(जितनी इच्छा हो, उतना लीजिए )।
मम आसयं सुणोतु(मेरा आशय तो सुनो )। 

आदेश-
यमहं(यं-अहं) वदामि, तं वदेहि/ वदेथ((तुम) जैसा मैं कहता हूँ, वैसा कहो)।
तुम्हे इध तिट्ठथ(तुम लोग इधर बैठो)।
भिक्खवे! अहं धम्मं देसेमि, साधुकं सुनाथ।
(भिक्खुओं! मैं धम्म की देशना करता हूँ, तुम लोग अच्छी तरह सुनो )।
त्वं घरस्मा निक्खमाहि(तुम घर से निकलो )।
आवुसो, अटविया दारुं आहरित्वा अग्गिं करोहि।
आवुस, जंगल से लकड़ी लाकर आग करो/जलाओ) ।
मम वाहनं इध आहर(मेरा वहां इधर ले आओ )।


निषेध-
मा गच्छ(मत जाओ )।
मा द्वारं द्वारं उग्घाटेहि(दरवाजा मत खोलो )।
मा इध तिटठथ(यहाँ खड़े मत रहो )।
मा सद्दं(शब्द (आवाज) मत करो )।
मा निरत्थकं वद(बकवास मत करो )।
आवुसो, भिक्खु पुरतो मा तिट्ठथ(आवुस, भिक्खु के सामने मत बैठो )।
कं अपि तस्स वत्थेन न जानातु।
(किसी को उसके कपड़ों से मत पहिचानों  )।
वच्छ ! आतापे मा गच्छाहि(बेटा! धुप में मत जाओ )।
अनुपाहनेन विना मा चलथ(बिना जूतों के मत चलों )।          

Sunday, July 22, 2018

Tense/Moods लकार(2)

आओ पालि सीखें -
नम(नमन करना) किरिया-पद वाक्यनि पयोगा
वत्तमान(पचुपन्न) कालो
पुरिस-         एकवचन                   बहुवचन
उत्तम पुरिस-

अहं बुद्धं नमामि।  मयं/अम्हे बुद्धं नमाम।
अहं अम्बुफलं खादामि।  मयं/अम्हे अम्बुफलं खादाम।
(मैं आम खाता हूँ।)  (हम आम खाते हैं। )   
अहं करियालयं गच्छामि। मयं /अम्हे करियालयं गच्छाम।
अहं पातो'व उट्ठहामि। मयं/अम्हे पातो'व उट्ठहाम
(मैं प्रात: ही उठता हूँ। हम प्रात: ही उठते हैं।)
अहं धम्मपदं पठामि।  मयं/अम्हे धम्मपदं पठाम।
           
मज्झिम पुरिस-
त्वं बुद्धं नमसि।   तुम्हे बुद्धं नमत्थ।
त्वं अम्बुफलं खादसि । तुम्हे अम्बुफलं खादत्थ ।
त्वं करियालयं गच्छसि । तुम्हे करियालयं गच्छत्थ।
त्वं पातो'व उट्ठहसि । तुम्हे पातो'व उट्ठहत्थ।
त्वं धम्मपदं पठसि । तुम्हे धम्मपदं पठत्थ।

अञ्ञ पुरिस-  सो बुद्धं नमति।  ते बुद्धं नमन्ति।
सो अम्बुफलं खादति ।  ते अम्बुफलं खादन्ति। 
सो करियालयं गच्छति । ते करियालयं गच्छन्ति।
सो पातो'व उट्ठहति । ते पातो'व उट्ठहन्ति।
सो धम्मपदं पठति । ते धम्मपदं पठन्ति।

भूत (अतीत) कालो 
पुरिस-       एकवचन                   बहुवचन
उत्तम पुरिस
अहं बुद्धं नमिंं । मयं/अम्हे बुद्धं नमिम्ह/नमिम्हा।
अहं अम्बुफलं खादिं । मयं/अम्हे अम्बुफलं खादिम्ह/ खादिम्हा ।
अहं करियालयं गच्छिं ।  मयं /अम्हे करियालयं गच्छिम्ह/ गच्छिम्हा।
अहं पातो'व उट्ठहिं ।  मयं/अम्हे पातो'व उट्ठहिम्ह/उट्ठहिम्हा।
अहं धम्मपदं पठिं ।  मयं/अम्हे धम्मपदं पठिम्ह/पठिम्हा ।
             
मज्झिम पुरिस-
 त्वं बुद्धं नमि।   तुम्हे बुद्धं नमिथ ।
त्वं अम्बुफलं खादि। तुम्हे अम्बुफलं खादिथ ।
त्वं करियालयं गच्छि। तुम्हे करियालयं गच्छिथ ।
त्वं पातो'व उट्ठहि। तुम्हे पातो'व उट्ठहिथ।
त्वं धम्मपदं पठि। तुम्हे धम्मपदं पठिथ ।

अञ्ञ पुरिस-
सो बुद्धं नमि । ते बुद्धं नमिंसु ।
सो अम्बुफलं खादि। ते अम्बुफलं खादिंसु ।
सो करियालयं गच्छि। ते करियालयं गच्छिंसु ।
सो पातो'व उट्ठहि। ते पातो'व उट्ठहिंसु।
सो धम्मपदं पठि। ते धम्मपदं पठिंसु ।

अनागत कालो 
पुरिस-        एकवचन-                   बहुवचन

उत्तम पुरिस
अहं बुद्धं नमिस्सामि । मयं/अम्हे बुद्धं नमिस्सम्ह/नमिस्सम्हा।
अहं अम्बुफलं खादिस्सामि । मयं/अम्हे अम्बुफलं खादिस्सम्ह/खादिस्सम्हा।
अहं करियालयं गच्छिस्सामि । मयं /अम्हे करियालयं गच्छिस्सम्ह/ गच्छिस्सम्हा।
अहं पातो'व उट्ठहिस्सामि । मयं/अम्हे पातो'व उट्ठहिस्सम्ह/उट्ठहिस्सम्हा।
अहं धम्मपदं पठिस्सामि । मयं/अम्हे धम्मपदं पठिस्सम्ह/पठिस्सम्हा ।
            
मज्झिम पुरिस-
त्वं बुद्धं नमिस्ससि। तुम्हे बुद्धं नमिस्सथ ।
त्वं अम्बुफलं खादिस्ससि । तुम्हे अम्बुफलं खादिस्सथ।
त्वं करियालयं गच्छिस्ससि । तुम्हे करियालयं गच्छिस्सथ।
त्वं पातो'व उट्ठहिस्ससि । तुम्हे पातो'व उट्ठहिस्सथ
त्वं धम्मपदं पठिस्ससि । तुम्हे धम्मपदं पठिस्सथ।

अञ्ञ पुरिस-
सो बुद्धं नमिस्सति।  ते बुद्धं नमिस्सन्ति।
सो अम्बुफलं खादिस्सति । ते अम्बुफलं खादिस्सन्ति।
सो करियालयं गच्छिस्सति। ते करियालयं गच्छिस्सन्ति।
सो पातो'व उट्ठहिस्सति । ते पातो'व उट्ठहिस्सन्ति।
सो धम्मपदं पठिस्सति । ते धम्मपदं पठिस्सन्ति ।
    

Saturday, July 21, 2018

Tense/Moods लकार (1)

आओ पालि सीखें -
नम(नमन करना) किरिया-पद वाक्यनि पयोगा
वत्तमान(पचुपन्न) कालो
पुरिस                           एकवचन                                बहुवचन
उत्तम पुरिस                 अहं बुद्धं नमामि।                 मयं/अम्हे बुद्धं नमाम।               
मज्झिम पुरिस            त्वं बुद्धं नमसि।                   तुम्हे बुद्धं नमत्थ।
अञ्ञ पुरिस                 सो बुद्धं नमति।                    ते बुद्धं नमन्ति।

भूत (अतीत) कालो 
पुरिस                          एकवचन                                बहुवचन
उत्तम पुरिस                 अहं बुद्धं नमिं ।                    मयं/अम्हे बुद्धं  नमिम्ह/नमिम्हा।               
मज्झिम पुरिस            त्वं बुद्धं नमि।                     तुम्हे बुद्धं नमित्थ।
अञ्ञ पुरिस                 सो बुद्धं नमि ।                    ते बुद्धं नमिंसु ।

अनागत कालो 
पुरिस                            एकवचन                                बहुवचन
उत्तम पुरिस                 अहं बुद्धं नमिस्सामि।          मयं/अम्हे बुद्धं नमिस्साम।               
मज्झिम पुरिस            त्वं बुद्धं नमिस्ससि।            तुम्हे बुद्धं नमिस्सथ ।
अञ्ञ पुरिस                 सो बुद्धं नमिस्सति।             ते बुद्धं नमिस्सन्ति।


Tuesday, July 17, 2018

चूळदुक्ख्क्खंध सुत्त(म. नि.)

जैनि साधु और बुद्ध 
बुद्ध और वर्द्धमान महावीर यद्यपि समकालीन थे, किन्तु इन दोनों युग-पुरुषों का सीधा संवाद सम्पूर्ण ति-पिटक में कहीं नहीं नजर आता। हाँ, कहीं-कहीं जरूर बुद्ध, जैन साधुओं की खबर लेते दिखाई पड़ते हैं। प्रस्तुत प्रसंग दिलचस्प है-
तेन खो पन समयेन सम्बुहुला
उस समय कुछ
निगण्ठा(जैन साधु) इसिगिलिपस्से(इसिगिरि के पास)
काळ सिलायं (काल-शिला पर) उब्भट्ठका(खड़े हुए)
आसन पटिक्खिता(छोड़) ओपक्कमिका(उपक्रम करते हुए)
दुक्खा तिब्बा(तीव्र) कटुका वेदना वेदयन्ति।
दुक्ख-पूर्ण, तीव्र और कठोर वेदनाएं सह रहे थे।

अथ खो अहं, महानाम, सायन्ह  समयं
तब मैं महानाम, सायं समय
पटिसल्लाना(एकांत वास से) वुट्ठितो
एकांत वास से उठ कर
येन इसिगिलिपस्से काळसिला
जहाँ इसिगिरि के पास काळशिला थी
येन ते निगण्ठा तेनुपसंकमि
जहाँ पर ये निगंठ थे, वहां गया
उपसङ्कमित्वा ते निगण्ठे  एतदवोच-
जाकर उन निगंठों से बोला -

"किन्नु(किंं नु) तुम्हे आवुसो, निगण्ठा
क्यों तुम लोग ? आवुस निगंठों !
आसन पटिक्खिताओपक्कमिका
आसन त्याग, उपक्रम करते
दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदयाथ ?
दुक्ख-पूर्ण, तीव्र कठोर वेदनाएं सह रहे हो ?"

एवं वुत्ते,  महानाम, ते निगंथा मं एतद वोचुं-
ऐसा कहने पर उन निगंठों ने मुझसे कहा-
"निगंठो, आवुसो, नाथपुत्तो सब्बञ्ञू सब्ब दस्सावी
"निगंथ नाथपुत्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी
अपरिसेसं ञाण दस्सनं पटिजानाति
अपरिशेष(अखिल) ज्ञान-दर्शन को जानते हैं
चरतो च तिट्ठतो च सुतस्स च जागरस्स च
चलते, खड़े, सोते, जागते
सततं समितं ञाण दस्सनं पच्चुपट्ठितं। '
सदा निरंतर उनको ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है।

सो एवमाह-
वे ऐसा कहते हैं-
'अत्थि खो भो निगंथा
 निगंठो ! तुम्हारा जो  है
पुब्बे पाप कम्म कतं
पहले के किए हुए दुष्कर्मों को
तं इमाय कटुकाय
उसे इस कठोर
दुक्कर कारिकाय निज्जरेथ।
दुष्कर-क्रिया से नाश करो।
मयं पन एत्थ एतरहि
जो इस वक्त यहाँ, हमारे
कायेन वाचाय मनसा संवुता
काय-वचन-मन से संवृत(संवर) हैं
तं आयति पापस्स कम्मस्स अकरणंं
उससे भविष्य के लिए दुष्कर्मों का न करना होगा
इति पुराणानं कम्मानं तपसा ब्यन्तिभावा,
इस प्रकार पुराने कर्मों का तपस्या से अंत होने से
नवानं कम्मानं अकरणा
और नए कर्मों के न करने से
आयति अनवस्सवो
भविष्य में चित्त अन-आस्रव(निर्मल) होगा।
आयति अनवस्सवा कम्मक्खयो
भविष्य में आस्रव न होने से कर्म का क्षय होगा,
कम्मक्खया दुक्खक्खयो
कर्म के क्षय होने से दुक्ख का क्षय होगा
दुक्खक्खया वेदनाक्खयो
दुक्ख के क्षय होने से वेदना का क्षय होगा
वेदनाक्खया सब्बं दुक्खं निज्जिनं भविस्सति
वेदना के क्षय होने से सभी दुःख नष्ट होंगे।'

-तं च अम्हाकं रुच्चति चेव ख़मति।
-हमें यह (विचार) रुचता है, अच्छा लगता है।
तेन च अम्ह अत्तमना।"
इससे हम संतुष्ट हैं।"

एवं वुत्ते, अहं, महानाम, ते निगंठे एतद वोच-
ऐसा कहने पर मैंने महानाम, उन निगंठों से कहा -
"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
अहु येव अम्ह एव मयं पुब्बे; वा नाहु येव अम्हा ?''
हम ही पहले थे; अथवा हम नहीं थे ?''
''नो हि इदं आवुसो।''
''नहीं आवुस।''

"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
अकरम्हा येव मयं पुब्बे पाप कम्मं; वा नाकरम्हा।"
हम ने ही पूर्व में दुष्कर्म किए हैं; अथवा नहीं किए हैं।"
 "नो हि इदं आवुसो।"
"नहीं आवुस।"

"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
एवरूपं वा एवरूपं वा पापकम्मं अकरम्हा ?"
अमुक अमुक दुष्कर्म किए हैं ?"
 "नो हि इदं आवुसो।"
"नहीं आवुस।"

"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
एतकं वा दुक्खं निज्जिण्णं ?
इतना दुःख नाश हो गया ?
एतकं वा दुक्खं निज्जीरेतब्बं?
इतना दुक्ख नाश करना है?
एतकम्हि वा दुक्खे निज्जिण्णे
इतना दुःख नाश होने पर
सब्ब दुक्ख निज्जिण्णं भविस्सति?"
सब दुःख नाश हो जाएगा?"
"नो हि इदं आवुसो।"
"नहीं आवुस।"

"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
दिट्ठेव धम्मे अकुसलानं धम्मानं पहाणं
इसी जन्म में अकुशल धर्मों का प्रहाण(विनाश)
कुसलानं धम्मानं उपसम्पदं ?"
और कुशल धर्मों का लाभ(होना) है ?"
"नो हि इदं आवुसो।"
"नहीं आवुस।"

एवं वुत्ते भगवा
भगवान के ऐसा कहने पर
अत्तमनो महानामो सक्को भगवतो भासितं अभिनन्दति।
संतुष्ट होकर महानाम शाक्य ने भगवान का अभिनन्दन करता है ।
चुल दुक्ख्क्खंध सुत्त निट्ठितं।
------------------------------------
गिज्झकूटे पब्बते-  गृध्रकूट पर्वत पर।
सम्बुहुला- कुछ
सल्लीयति- एकांत वास करना।  सल्लीन - एकांत वास
खित्त - फैका हुआ
ब्यन्ति/व्यन्ति-भाव- अंत।
निज्जिण्णं- निजीर्ण अर्थात अंत, नाश।
        

Friday, July 13, 2018

ककच-उपम सुत्त (म. नि.)

जैसे भिक्खुओं, किसी गावं या नगर के पास
सेय्याथापि भिक्खवे, गामस्स वा निगमस्स वा अविदुरे
एरंड की झाड़ियों से आच्छादित बड़ा-सा शाल वन हो
एळण्डेहि सञ्छन्न महन्तं सालवनं। 
वहां कोई अर्थकारी हितकारी पुरुष आ जाए ।
तत्थ कोचि हितकामो अत्थकारी पुरिसो आगच्छेय्य। 
वह उस शालवन के ओज को अपहरण करने वाली
सो सालवनस्स ता ओजहरणियो
टेढ़ी-मेढ़ी लकड़ियों को काट कर बाहर ले जाए।
कुटिला साल-लट्ठियो तच्छेत्वा बहिधा निहरेय्य
वन के भीतरी भाग को अच्छी तरह साफ़ कर दे
अंतोवनं सु विसोधितं विसोधेय्य।
और जो शाल-शाखाएं सीधी सुन्दर हैं,
या पन ता साल-लट्ठियो उजुका सुजाता
उन्हें अच्छी तरह रखे।
ता सम्मा परिहरेय्य।
इस प्रकार भिक्खुओं, वह शाल वन
एवं च हेतं, भिक्खवे, सालवनं
बाद समय पीछे वृद्धि,विपुलता को प्राप्त हों।
अपरेन  समयेन वुद्धिं वेपुल्लं आपज्जेय्य।

ऐसे ही भिक्खुओं, तुम भी अकुशल विचारों को छोड़ो
एवमेव, खो भिक्खवे, तुम्हे अपि अकुसलं अपजहथ।
और कुशल विचारों की अभिवृद्धि के लिए प्रयत्न करो।
कुसलेसु  धम्मेसु आयोगं करोथ।
इससे तुमें भी इस धम्म विनय में
एवं हि तुम्हे पि इमस्मिं धम्म विनये
वृद्धि, वेपुलता प्राप्त होगी।
वुद्धिं वेपुल्लं आपज्जिस्सथ।
 (स्रोत- मज्झिम निकाय: ककच-उपम सुत्त)

Thursday, July 12, 2018

सिद्धत्थकुमारो

आओ पाली सीखें-

सिद्धत्थकुमारो सम्मासम्बुद्धो।
दहरकाले तस्स नाम सिद्धत्थो।
सिद्धत्थस्स मातु-पिता सुद्धोदनो च महामाया।
दहरकाले सिद्धत्थस्स माता महामाया कालं अकासि।
मातुच्छा महापजापति गोतमी तं पालि।
सिद्धत्थस्स भरिया नाम यसोधरा।
राहुलो तस्स पुत्तस्स नाम।
एकूनतिंसति वस्से सिद्धत्थो अभिनिक्खमि।
छहतिंसति आयुस्मिं तं बोधि-लाभ अलभि।
असीतिमो वस्से तथागतो परिनिब्बायि।
बुद्धस्स माणवका भिक्खु होन्ति।
बुद्धस्स धम्मं अम्हे रोचाम।
अहं बुद्धं नमामि।

कट्ठहारको

आओ  पालि सीखें-
एको अधनो(गरीब)  कट्ठहारको(लकड़ी बेचने वाला) आसि।
सो(वह) नदी तीरं गन्त्वा(जा कर) वासिया(कुल्हाड़ी से) कट्ठानि(लकड़ियों को) छिन्दित्वा(काट कर),
तानि(उनको) विक्किणित्वा(बेच कर) जीवकं (जीविका) कप्पेति(चलाता है)।
एकदिवसं(एक दिन) तस्स(उसकी) वासि नदियं(नदी में) पति(गिर गई)।
तेन(उससे) सो दुक्खितो(दुक्खी) अभवि(हुआ)।
तेन समयेन, एको साधु पुरिसो तस्स पुरतो(सामने) आगच्छि(आया)।
अत्तनो(अपने) हत्थे(हाथ में) एकं सुवण्णवासिं(सूवर्ण कुल्हाड़ी) दस्सेत्वा(दिखा कर) पुच्छि  -
"तव(तुम्हारी) नु(वास्तव में) खो अयं(यह) वासि ?"
"न अयं मम वासि।" -कट्ठहारको अवोच(बोला)।
दुतियवारं साधु पुरिसो एकं रजतवासिं दस्सेसि(दिखाया)।
"अयं मम वासि। मम वासि अयोमय(लोहे की) । -कट्ठहारको अवोच।
तस्स सच्चं वदनं(कथन) पसीदित्वा(प्रसन्न हो कर) साधु तं तिस्सो(तीनों) वासियो पदासि(प्रदान किया)।
..............................................
अधनो- गरीब। कट्ठहारको- लकड़हारा वासि- कुल्हाड़ी
छिन्दति- काटना। छिन्दित्वा- काटकर(पू. कि.)।
विक्किणाति- बिक्री करना, बेचना।
अयोमय(अय-मय)- अय(लोहे) से निर्मित। अन्य उदा.- दारुमय, मनोमय, रजतमय, सुवण्णमय आदि।
पदाति/पदेति- प्रदान करना। पदासि(भू. कि.)।
पसीदति- प्रसन्न होना

Tuesday, July 10, 2018

दक्खिना विभंग सुत्त(म. नि.)

संघ, व्यक्ति के ऊपर 
एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति कपिलवत्थुस्मिं निगोधा आरामे।
अथ खो महापजापति गोतमी नव दुस्स युगं आदाय येन भगवा तेनुपसङ्कमि।
उपसंकमितवा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि।
एकमन्तं निसिन्ना खो महापजापति गोतमी भगवन्तं एतदवोच-
"इदं मे भंते, नव दुस्स युगं उद्दिस्स सामं कन्तं सामं वायितं।
"भंते, यह स्वयं ही काता, स्वयं ही बुना मेरा यह नया धुस्सा-जोड़ा
तं मे भंते, भगवा पटिगण्हातु अनुकम्पं उपादाय।"
उसको भंते, भगवान ग्रहण करें, अनुकम्पा कर ।"

एवं वुत्ते, भगवा महापजापतिं गोतमिं एतद वोच-
"संघे गोतमी देहि। गोतमी, इसे संघ को दे दो .
संघे ते दिन्ने संघो च अहं येव पूजितो भविस्सामि।"
संघ को देने से संघ और मैं भी पूजित होंगा."


दुतियम्पि, ततियम्पि खो महापजापति गोतमी भगवन्तं एतदवोच-
"इदं मे भंते, नव दुस्स युगं उद्दिस्स सामं कन्तं सामं वायितं।
तं मे भंते, भगवा पटिगण्हातु  अनुकम्पं उपादाय।"

तातियम्पि खो भगवा महापजापतिं गोतमिं एतद वोच-
"संघे गोतमी देहि।
संघे ते दिन्ने संघो च अहं येव पूजितो भविस्सामि।"

एवं वुत्ते आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच-
"पटिगण्हातु भंते, भगवा महापजापतिया गोतमिया नवं दुस्सयुगं।
भंते, भगवान महाप्रजा पति गोतमी के धुस्सा-जोड़े को स्वीकार करें।
 
बहू उपकारा भंते, महापजापति गोतमी भगवतो मातुच्छा
भंते, बहुत उपकारी है, महाप्रजापति गोतमी, भगवान की मौसी माँ
आपादिका, पोसिका, खिरस्स दायिका
दाई, पोषिका, दूध पिलाने वाली
भगवन्तं जनेत्तिया कालं कताय थञ्ञं पायेसि।
भगवान की जननी के मरने पर स्तन-पान कराने वाली।
भगवा पि भंते, बहुपकारो महापजापतिया गोतमिया।
भगवान भी महाप्रजापति गोतमी के महा-उपकारक हैं

भगवन्तं, भंते, आगम्म महापजापति गोतमी
भगवान की सरण आकर महाप्रजापति गोतमी 
बुद्धं सरण गता, धम्मं सरण गता, संघं सरण गता
बुद्ध की सरण गई, धम्म की सरण गई. संघ की सरण गई

भगवन्तं, भंते, आगम्म महापजापति गोतमी
भगवान की सरण आकर महाप्रजापति गोतमी
पणातिपाता पटिविरता, अदिन्ना दाना पटिविरता
कामेसु मिच्छाचारा  पटिविरता, मुसावादा पटिविरता
सूरा मेरयमज्ज पमादट्ठाना पटिविरता।"

भगवा-
"तदापि अहं आनंद, संघ गतं दक्खिणं अ-संखेय्य, अ-पमेय्य वदामि।
"तब भी मैं, आनंद ! संघ को दी दक्खिणा को अ-संखेय्य, अपरिमित कहता हूँ
न तव येव अहं आनंद, केनचि परयायेन संघ गताय दक्खिणाय
मैं नहीं, आनंद, किसी तरह भी संघ को दी दक्खिणा से 
पाटिपुग्गालिकं दानं मह-फलतरं वदामि।"
व्यक्तिगत दान को अधिक फलदायी कहता।"   
---------------------
वायेति- बुनवाना
सामं- स्वयं
आपादेति- दूध पिलाना
तदापाहं - तदापि अहं
त्वेवाहं- तव येव अहं
कान्त -  कमनीय, सुन्दर 

Monday, July 9, 2018

रेख सुत्त(अ. नि.)

तीन तरह के आदमी
तयो मे भिक्खवे, पुग्गला संतो लोकस्मिं।
भिक्खुओं, लोक में तीन तरह के आदमी होते हैं।
कत्तमे तयो ? कौन-से तीन ?
पासाणे लेख उपमो पुग्गलो, पथवि लेख उपमो पुग्गलो,
पत्थर पर खिंची रेखा के सामान आदमी, पृथ्वी(रेत) पर खिंची रेखा के सामान आदमी
उदक लेख उपमो पुग्गलो ।
पानी पर खिंची रेखा के समान आदमी।

कत्तमो खो भिक्खवे, पासाणे लेख उपमो पुग्गलो ?
भिक्खुओं! पत्थर पर खिंची रेखा के समान आदमी कैसा होता है ?

सेय्यथापि भिक्खवे, पासाणे लेखा खिप्पं लुज्जति
जैसे भिक्खुओं, पत्थर पर खिंची रेखा शीघ्र नहीं मिटती
 न वातेन वा, उदकेन वा, चिरट्ठिका होति।
न हवा से, न पानी से, चिरस्थायी होती है। 
एवमेव खो, भिक्खवे, इध एकच्चो पुग्गलो अभिण्हं कुज्झति,
इसी प्रकार भिक्खुओं, यहाँ एक आदमी क्रोधित होता है
तस्स कोधो दीघरत्तं अनुसेति।
उसका  क्रोध दीर्घ काल तक रहता है
अयं वुच्चति पासाण लेख उपमो पुग्गलो।
ऐसा 'पत्थर पर खिंची रेखा के सामान आदमी' कहलाता है।

सेय्याथापि, भिक्खवे, पथविया लेखा खिप्पं लुज्जति,
वातेन वा उदकेन वा,  न चिरट्ठिका होति।
 एवमेव खो. भिक्खवे, इध एकच्चो पुग्गलो अभिण्ह कुज्झति,
तस्स कोधो न दीघरत्तं अनुसेति।
अयं वुच्चति भिक्खवे, पथविलेख उपमो पुग्गलो।

सेय्यथापि, भिक्खवे,  उदके लेखा खिप्पं येव पटिविगच्छति
जैसे भिक्खुओं, पानी पर खिंची रेखा शीघ्र मिट जाती है 
न चिरट्ठिका होति। एवमेव खो भिक्खवे,
चिरस्थायी नहीं होती। उसी प्रकार भिक्खुओं, 
इध एकच्चो पुग्गलो यहाँ एक आदमी ऐसा होता है
आगाळ्हेन पि वुच्चमानो
जिसे कडुवा भी बोला जाए
फरुसेनपि वुचमानो, अमनापेन पि वुच्चमानो
कठोर भी बोला जाए, अप्रिय भी बोला जाए
सन्धियतिमेव, संसन्दतिमेव, सम्मोदतिमेव ।
तो भी वह जुड़ा ही रहता है, मिला ही रहता है, प्रसन्न ही रहता है
अयं वुच्चति, भिक्खवे उदक लेख उपमो पुग्गलो।
उसे भिक्खुओं, 'पानी पर खिंची रेखा के समान आदमी' कहा जाता है।
इमे खो भिक्खवे, तयो पुग्गला संविज्जमाना लोकस्मिं।
भिक्खुओं! लोक में ये तीन तरह के आदमी होते हैं।
स्रोत-रेख सुत्त: तिक निपात: अंगुत्तर निकाय 

Sunday, July 8, 2018

एसुकारी सुत्त(म. नि.)

वर्ण-व्यवस्था का खंडन
ऐसा मैंने सुना-
एवं मे सुतं-
एक समय भगवान जेतवन,  सावत्थि में
एकं समयं भगवा सावत्थियं जेतवने
अनाथ पिण्डिक के आराम में विहार करते थे।
विहरति अनाथ पिण्डिकस्स आरामे

तब एसुकारी ब्राह्मण जहाँ भगवान थे, वहां गया।
अथ खो एसुकारी बाह्मणो येन भगवा तेनुपसंकमि
जा कर भगवन के साथ कुशल-मंगल पूछा
उपसंमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि
कुशल-मंगल पूछकर एक ओर बैठ गया
सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि
एकमंत निसिन्नो खो एसुकारी बाह्मणो भगवन्तं एतद वोच -
एक ओर बैठे एसुकारी ब्राह्मण ने भगवन से यह कहा-

भो गोतम,  ब्राह्मण चार प्रकार के सेवा-धर्म(परिचर्या)  बतलाते हैं-
भो गोतम, बाह्मणा, चतस्सो परिचरिया पञ्ञपेन्ति-

बाह्मण, बाह्मण की परिचर्या करें।
बाह्मणा बाह्मणस्स परिचरेय्य।

क्षत्री बाह्मण की परिचर्या करें । क्षत्री, क्षत्री की परिचर्या करें।
खत्तियो बाह्मणस्स परिचरेय्य, खत्तियो खत्तियस्स परिचरेय्य।

वैश्य बाह्मण की परिचर्या करें, वैश्य क्षत्री की परिचर्या करें ।
वेस्सो बाह्मणस्स परिचरेय्य, वेस्स्सो खत्तियस्स परिचरेय्य।
वेस्स्सो वेसस्स परिचरेय्य।
वैश्य वैश्य की परिचर्या करें,

शुद्र बाह्मण की परिचर्या करें, शुद्र क्षत्रिय की परिचर्या करें 
सुद्दो बाह्मणस्स परिचरेय्य। सुद्दो खत्तियस्स परिचरेय्य
शुद्र वैश्य की पर्चार्य करें, शूद्र, शूद्र ही परिचर्या करें।
सुद्दो वेसस्स परिचरेय्य, सुद्दो सुद्दस्स  परिचरेय्य।

यहाँ, आप गोतम क्या कहते हैं ?
इध, भवं गोतमो किं आह ? 

भगवा-
''ब्राह्मण, क्या सभी लोग ब्राह्मणों को
किं पन बाह्मण, सब्ब लोका बाह्मणानं
इस के लिए अनुज्ञा देते हैं-
एतद अब्भनुजानान्ति-
कि इन चारों परिचर्याओं को वे प्रज्ञापन करें ?
इमा चतस्सो परिचरिया पञ्ञपेतुं ?''

''नहीं भो, गोतम।
नो हि इदं भो गोतम।''

नाहं बाह्मण, सब्बं परिचरितब्बं वदामि,
बाह्मण, न मैं सभी परिचार्याओं को परिचरणीय कहता हूँ
नाहं बाह्मण, सब्बं न परिचरितब्बं वदामि.
और न मैं सभी परिचारियाओं को अ-परिचरणीय कहता हूँ .

ब्राह्मण! जिसको परिचरण करते
यं हि अस्स बाह्मण, परिचरतो
जिसे परिचर्या के हेतु अहित होता है,
परिचारिया हेतु पापियो,
उसे मैं परिचरणीय नहीं कहता
नाहं तं परिचरिब्बं वदामि .
जिसको परिचरण करते
यं च खो अस्स बाह्मण, परिचरतो
जिसे परिचर्या के हेतु हित होता है
परिचारिया हेतु सेय्यो 
उसे मैं परिचरणीय कहता हूँ
तमहं परिचरितब्बं वदामि.

बाह्मण, उच्च कुल वाला भी
बाह्मण, उच्चाकुलीनो पि हि
कोई पाणातिपाती होता है, अदिन्ना दायी होता है
इध एकच्चो  पाणातिपाती होति, अदिन्नादायी होति
काम मिथ्याचारी होता है, पिशुनभासी होता है
कामेसुमिच्छाचारी होति, पिसुनावाचो होति
फरुस भासी होता है, संप्रलापी होता है
फारुसावाचो होति, सम्फप्पलापी होति
अभिध्यालु(लोभी) होता है
अभिज्झालु(लोभी) होति
व्यापन्न चितो(द्वेषी) होति, मिच्छा दिट्ठि होति .

उच्चाकुलीनो पि हि बाह्मण,
इध एकच्चो  पाणातिपाती पटिविरतो होति, अदिन्नादाना पटिविरतो होति,
कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो होति, पिसुनावाचा पटिविरतो होति,
फारुसावाचा पटिविरतो होति, सम्फप्पलापा पटिविरतो होति,
अनभिज्झालु(अ-लोभी) होति,
अव्यापन्न चितो(अ-द्वेषी) होति, सम्मा दिट्ठि होति .

तं किं मञ्ञसि बाह्मण;
तुम क्या सोचते हो बाह्मण,
बाह्मण येव नु खो पहोति(समर्थ होता है)
बाह्मण ही समर्थ होता है
अवेरं, अब्याबज्झं मेत्तचित्तं भावेतुं ?
अवैर, व्यापाद रहित मैत्री-चित्त की भावना करने के लिए ?
क्षत्री, वैश्य और शुद्र नहीं ?
नो खत्तियो, नो वेस्सो,नो सुद्दो ?

नो हि इदं भो गोतम,
खत्तियो'पि पहोती अवेरं, अब्याबज्झं, मेत्त-चित्तं भावेतुं
वेस्सो 'पि पहोती अवेरं, अब्याबज्झं, मेत्त-चित्तं भावेतुं 
सुद्दो 'पि पहोती अवेरं, अब्याबज्झं, मेत्त-चित्तं भावेतुं
चत्तारो वण्णा 'पि पहोती अवेरं, अब्याबज्झं, मेत्त-चित्तं भावेतुं

एवमेव खो बाह्मण, खत्तिय कुला च अपि
अगारस्मा, अग्गारियं पब्बजितो होति
सो च तथागत उप्वेदितं धम्म विनयं आगम्म
पाणातिपाती पटिविरतो होति, अदिन्नादाना पटिविरतो होति,
कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो होति, पिसुनावाचा पटिविरतो होति,
फारुसावाचा पटिविरतो होति, सम्फप्पलापा पटिविरतो होति,
अनभिज्झालु(अ-लोभी) होति,
अव्यापन्न चितो(अ-द्वेषी) होति, सम्मा दिट्ठि होति।

एवमेव खो बाह्मण, वेस्सकुला च अपि
अगारस्मा, अग्गारियं पब्बजितो होति
सो च तथागत उप्वेदितं धम्म विनयं आगम्म
पाणातिपाती पटिविरतो होति, अदिन्नादाना पटिविरतो होति,
कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो होति, पिसुनावाचा पटिविरतो होति,
फारुसावाचा पटिविरतो होति, सम्फप्पलापा पटिविरतो होति,
अनभिज्झालु(अ-लोभी) होति,
अव्यापन्न चितो(अ-द्वेषी) होति, सम्मा दिट्ठि होति।

एवमेव खो बाह्मण, सुद्दा कुला च अपि
अगारस्मा, अग्गारियं पब्बजितो होति
सो च तथागत उप्वेदितं धम्म विनयं आगम्म
पाणातिपाती पटिविरतो होति, अदिन्नादाना पटिविरतो होति,
कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो होति, पिसुनावाचा पटिविरतो होति,
फारुसावाचा पटिविरतो होति, सम्फप्पलापा पटिविरतो होति,
अनभिज्झालु(अ-लोभी) होति,
अव्यापन्न चितो(अ-द्वेषी) होति, सम्मा दिट्ठि होति।
स्रोत- एसुकारी सुत्त: मझिम निकाय

Saturday, July 7, 2018

अम्बलट्ठिक राहुलोवाद(म. नि.)

अपने या दूसरे को दुक्ख देने वाला काम न करें
तो क्या जानते हो, राहुल,
तं कि मञ्ञसि, राहुल,
दर्पण किस काम के लिए है ?
दप्पणो किं अत्थो  ?
भंते! देखने के लिए।
पच्चवेक्खणत्थो भंते।
ऐसे ही राहुल! देख-देख कर काया से काम करना चाहिए।
एवमेव खो राहुल, पच्चवेक्खित्वा कायेन कम्मं कत्तब्बं।
देख-देख कर वचन से काम करना चाहिए।
पच्चवेक्खित्वा वाचेन कम्मं कत्तब्बं
देख-देख कर मन से काम करना चाहिए।
पच्चवेक्खित्वा मनसा कम्मं कत्तब्बं

जब राहुल! तू काया से कोई काम करना चाहे,
यदेव त्वं राहुल, कायेन कम्मं कत्तुकामो अहोसि
काया के काम पर विचार करना चाहिए-
तदेव ते काय-कम्मं पच्चवेक्खितब्बं-
जो यह काम मैं करना चाहता हूँ,
यं नु खो अहं  कायेन-कम्मं कत्तुकामो
यह मेरा काय-कर्म अपने लिए पीड़ा दायक तो नहीं है ?
इदं मे काय-कम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तेय्य?
दूसरे के लिए पीड़ा दायक तो नहीं है?
परब्याबाधाय पि संवत्तेय्य?
अकुशल काय-कर्म है
अकुसलं काय-कम्मं
दुक्ख उत्पन्न करने वाला  है
दुक्ख उदयं काय-कम्मं
ऐसा राहुल, काया से कर्म
एवरूपं ते राहुल,
सर्वथा नहीं करना चाहिए। 
ससक्कं न करणीयं।
(स्रोत- भिक्खु वग्गो: मञ्झिम  निकाय )?
----------------------------
सरनीयं (स्मरणीय)-
पच्चवेक्खति- देखना, विचारना ।
संवत्तति- विदमान होता है।
ससक्कं- निश्चय से, सर्वथा।

Wednesday, July 4, 2018

जीवक सुत्त(म. नि.)

मांस-भक्षण
जीवक सुत्त
ऐसा मैंने सुना,
एवं में सुत्तं,
एक समय भगवान् राजगृह में
एकं समयं भगवा राजगहे
जीवक कोमार भृत्य के
जीवकस्स कोमार भच्चस्स
अम्बवन में विहार करते थे।
विहरति अम्बवने
तब जीवक कोमार भृत्य
अथ जीवको कोमार भच्चको
जहाँ भगवान थे, वहां गया
येन भगवा, तेनुपसंकमि
जाकर भगवन को अभिवादन कर
उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा
एक ओर बैठ गया।
एकमंतं निसीदि.
एक ओर बैठे जीवक ने
एकमंतं निसिन्नो खो सो जीवको
भगवान से ऐसा कहा-
भगवन्तं एतदवोच-

भंते! मैंने सुना है,
सुतं मे तं भंते!
'समण गोतम के उद्देश्य से
समण गोतमं उद्दिस्स
(लोग) जीव मारते हैं।
(जना) पाणंं हञ्ञन्ति
समण गोतम, जानते हुए
तं समणो गोतमो जानंं
उद्देश्य से बनाये
उद्दिस्स कतंं
मांस को खाते हैं'
मंंसंं परिभुञ्जन्ति
भंते ! जो यह कहते हैं
ये ते भंते ! एवं आहंसु,
क्या वे भंते, यथार्थ वादी हैं ?
कच्चि  ते, भंते ! वुत्त वादिनो ?
क्या वे नहीं, भंते ! भगवन पर दोषारोपण लगाते ?
न च ते भंते,  भगवन्तं अब्भाचिक्खन्ति ?

जीवक! जो यह कहते हैं,
ये ते जीवक, एवं आहंसु
वे मेरे विषय में यथार्थवादी नहीं है
न मे ते वुत्तवादिनो।
मुझ पर दोषारोपण करते हैं।
अब्भाचिखन्ति मं ते
जीवक! मैं तीन प्रकार के
तीहि खो अहं, जीवक, ठानेहि
मांस को अ-भोज्य कहता हूँ -
मंंसं अ-परिभोगन्ति वदामि।
दृष्ट, श्रुत और परिसंकित।
दिट्ठं, सुतं, परिसंकितं।
और भी जीवक! मैं ये तीन प्रकार के
अपि च इमेहि खो अहं, जीवक, तीहि ठानेहि
मांस को भोज्य कहता हूँ -
मंंसं परिभोगन्ति वदामि।
अदृष्ट, अश्रुत और अपरिसंकित।
अदिट्ठं, असुतं अपरिसंकितं।

जीवक कोई भिक्खु किसी गावं, या निगम
इध, जीवक, भिक्खु अञ्ञतरं गामं वा निगमं वा
के पास विहार करता है
उपनिस्साय विहरति।
वह मैत्री-पूर्ण चित्त से विहार करता है
सो मेता सह-गतेन चेतसा विहरति

उसके पास जाकर कोई गृहपति या गृहपति-पुत्र
तमेनंं गहपति वा गहपति पुत्तो
दूसरे दिन के भोजन के लिए आमंत्रण देता है।
उपसंकमित्वा स्वातनाय भत्तेन निमंतेति
इच्छा होने पर, जीवक!
आकंखमानो येव, जीवक
भिक्खु उस निमंत्रण को स्वीकार करता है.
भिक्खु अधिवासेति


वह उस रात के बीतने पर
सो तस्सा रत्तिया अच्चयेन
पूर्वान्ह समय पहन कर पात्र-चीवर ले
पुब्बण्ह समयं निवासेत्वा पत्त चीवरंं आदाय
जहाँ उस गृहपति या गृहपति-पुत्र का
येन तस्स गहपतिस्स वा गहपति पुत्तस्स वा
घर  होता है, वहां जाता है।
निवेसनं तेनुपसंकमति
जाकर बिछे आसान पर बैठता है।
उपसंकमित्वा पञ्ञते आसने निसीदति
उसे वह गृहपति या गृहपति पुत्र
तमेनंं सो गहपति वा गहपति पुत्तो
उत्तम पिण्डपात परोसता है।
पणीतेन पिण्डपातेन परिविसति

उस भिक्खु को यह नहीं होता-
तस्स भिक्खुस्स न एवं होति
अहो, यह गृहपति या गृहपति-पुत्र
साधुवत अयं गहपति वा गहपति पुत्तो
मुझे उत्तम पिण्डपात परोसे।
मं पणीतेन पिण्डपातेन परिविस्सेय्य
वह उस पिण्डपात को अनाशक्त हो
सो तं पिण्डपातेन अन- अज्झापन्नो

निस्तार की बुद्धि से खाता है।
निस्सरण पञ्ञो परिभुञ्जति
तो क्या मानते हो, जीवक!
तं किंं मञ्ञसि, जीवक
क्या वह भिक्खु उस समय
नु खो भिक्खु तस्मिंं समये
पर-पीड़ा (की बात) को सोचता है
पर ब्याबाधाय चिन्तेति ?

नो भंते !
क्यों जीवक !  उस समय वह
किंं जीवक, तस्मिंं समये सो
अ-वर्जित (अनवद्य) आहार ही ग्रहण करता है न ?
अन-वज्जेय आहारं आहारेति नु ?.
आम भंते !
मैंने सुना है भंते ! भगवान 'करणीय मेत्त विहारी' है,
सुतं मे भंते- भगवा करणीय मेेत्ता विहारि.
सो भंते ! मैंने साक्षात देख लिया है।
तं मे  भंते ! इदं सक्खिदिटठो ! (स्रोत- मंझिम निकाय)
-----------------------
अब्भाचिखन्ति- दोषारोपण करना।
अन- अज्झापन्नो- अनाशक्त हो।
परिविसति- भोजन परोसना।
सक्खिदिटठो- साक्षात् देख लिया।