आळवी प्रवास के दौरान आळवक नामक यक्ष को दमन करने के निमित्त बुद्ध उसी के आवास में ठहरे। बुद्ध का सामना होते ही आळवक अत्यंत कुपित हुआ। किन्तु, जैसे जैसे संवाद बढ़ते गया, आळवक भाव-विभोर होते गया और अंत में तो वह बुद्ध की शरण ही चला गया। यह वाकया जयमंगल अट्ठगाथा में हम इस प्रकार सुनते हैं- मारातिरेकं(मार से भी बढ़-चढ़ कर) अभि-युज्झित (युद्ध करने वाले) सब्ब रत्तिं (सारी रात) 'घोरं(भयानक)-पन-आलवक, मक्खंं(दुष्ट) -थद्ध(कठोर ह्रदय वाले)-यक्खं(यक्ष को)...। आइये, देखें वह संवाद क्या है-
आळवक सुत्त
एवं मे सुत्तं। एकं समयं भगवा आळवियं विहरति।
ऐसा मैंने सुना। एक समय भगवान आळवी में विहार कर रहे थे।
तेन खो समयेन भगवा आळवक-यक्खस्स भवने पवसति।
उस समय भ. आळवक नामक यक्ष के भवन में प्रवेश करते हैं।
अथ खो आळवको यक्खो येन भगवा तेनुपसंकमि।
तब आळवक यक्ष, जहां भगवान थे, गए।
उपसंकित्वा भगवन्तं एतद वोच-
जा कर भगवान को ऐसा कहा-
‘‘निक्खम समणाा"'ति ।"
‘‘समण, बाहर निकल।’’
‘‘साधु आवुसो"ति भगवा निक्खमि।
‘‘आवुस! बहुत अच्छा।’’ -कह भगवान बाहर निकल गए।
‘‘पविस समणा’’‘ति।
समण! भीतर आओ!’’
‘‘साधु आवुसो’’‘ति भगवा पाविसि।
‘‘आवुस! बहुत अच्छा।" -कह कर भगवान भीतर आ गए।
दुतियम्पि, ततियम्पि खो आळवको भगवन्तं एतद वोच-
दूसरी बार, तीसरी बार भी आळवक ने भगवान को ऐसा कहा-
‘‘निक्खम समणा’’‘ति।
‘‘साधु आवुसो’’‘ति भगवा निक्खमि।
‘‘पविस समणा’’‘ति।
‘‘साधु आवुसो’’‘ति भगवा पाविसि।
चतुत्थं‘पि खो आळवको, भगवन्तं एतदवोच- ‘‘निक्खम समणा’’‘ति।
‘‘न खो अहं आवुसो निक्खमिस्सामि। यं ते करणीयं, तं करोही ’’‘ति।
"आवुस! (अब की बार) मैं नहीं निकलूंगा। तुम्हें जो करना है, करो।"
‘‘पञ्ह तं समण पुच्छिस्सामि। सचे मे न ब्याकरिस्ससि, हदयं वा ते फालेस्सामि,
पादेसु वा गहेत्वा पार-गंगाय खिपिस्सामी’’‘ति।
"समण! मैं तुम से प्रश्न पूछंगा। यदि मुझे उत्तर नहीं दिए, तो तुम्हारी छाती चिर दूंगा
अथवा पैर पकड़ कर गंगा के पार फेंक दूंगा।"
‘‘न खो अहं आवुसो पस्सामि लोके, यो मे हदयं वा फालेय्य,
पादेसु वा गहेत्वा पार गंगाय खिपेय्य।"
"आवुस! मैं इस लोक में किसी को नहीं देखता, जो मेरी छाती चीर दें
अथवा पैर पकड़ कर गंगा के पार फेंक दें।
अपि च तं आवुसो, पुच्छ यदा-कंखसी"'ति ।
फिर भी, आवुस! पूछो जो तुम्हें शंका हो।’’
अथ खो आळवको यक्खो भगवन्तं गाथाय अज्झभासि-
इस पर उस आळवक-यक्ख ने भगवान को गाथा में यह कहा-
‘‘किं सु इध वित्तं पुरिसस्स सेट्ठं , किं सु सुचिण्णं सुखं आवहति ।
किं सु हवे साधुतरं रसानं, कथं जीविं जीवितं आहु सेट्ठं?’’
‘‘पुरुष का सर्वोत्तम धन क्या है? क्या अभ्यास सुख लाता है?
रसों में सबसे स्वादिष्ट क्या है? कैसा जीना श्रेष्ठ कहा गया है?’’
भगवा-
‘‘सद्धा इध वित्तं पुरिसस्स सेट्ठं, धम्मो सुचिण्णो सुखंं आवहति।
सच्चं हवे साधुतरं रसानं, पञ्ञा जीविं जीवितं आहु सेट्ठंं ।’’
‘‘श्रद्धा पुरुष का सर्वोत्तम धन है? धर्म-अभ्यास सुख लाता है?
सत्य, रसों में सबसे स्वादिष्ट रस है? प्रज्ञा-पूर्वक जीना श्रेष्ठ कहा है। "
आळवक -
कथं सुलभते पञ्ञं, कथं सुविन्दते धनं।
कथं सुकित्तिं पप्पोति, कथं मित्तानि गन्थति?’’
‘‘कैसे (कोई ) प्रज्ञा-लाभ करता है? कैसे धन प्राप्त करता है?
कैसे कीर्ति प्राप्त होती है? कैसे मित्रों को बाँध कर रखता है?’’
भगवा-
‘‘सद्दहानो(श्रद्धा रख) अरहतं च धम्मं(अरहत और धर्म पर)
निब्बान पत्तिया(निर्वाण प्राप्ति के लिए)
सुस्सूसं(शुश्रूषा कर) लभते पञ्ञं(प्रज्ञा लाभ करता है),
अप्पमत्तो(अप्रमत्त) विचक्खणो(विलक्षण पुरुष)
पतिरूपकारी धुरवा(अनुकूल काम करने वाला),
उट्ठाता(उत्साही, परिश्रमी) विन्दते(कमाता है) धनं।
सच्चेन(सत्य से) कित्तिं पप्पोति(प्राप्त करता है),
ददं(देकर) मित्तानि(मित्रों को) गन्थति(बांध लेता है)।’’
आळवक-
‘‘अत्थाय वत मे बुद्धो, वासाय आळवी आगमा।
सो अहं अज्ज पजानामि, यत्थ दिन्न महप्फलं।’’
मेरे कल्याण के लिए बुध्द, आळवी प्रवास करने आएं।
यह मैंने जान लिया कि किसे देने महाफल होता है।
भगवा-
‘‘आवुसो, साधु! साधु!! साधु!!!’’(स्रोत- संयुंत्त निकाय भाग -1: सगाथा वग्गः 10-12ः पृ. 170 )
आळवक सुत्तं निट्ठितं
...............................
सुचिण्णो- सदाचार। पञ्ञा जीविं जीवितं- प्रज्ञापूर्वक जीवन। विन्दति- अनुभव करना।
आवहति- लाता है. आवहन- लाना। सुस्सूसा- शुश्रुषा(श्रवण करने की इच्छा)
आळवक सुत्त
एवं मे सुत्तं। एकं समयं भगवा आळवियं विहरति।
ऐसा मैंने सुना। एक समय भगवान आळवी में विहार कर रहे थे।
तेन खो समयेन भगवा आळवक-यक्खस्स भवने पवसति।
उस समय भ. आळवक नामक यक्ष के भवन में प्रवेश करते हैं।
अथ खो आळवको यक्खो येन भगवा तेनुपसंकमि।
तब आळवक यक्ष, जहां भगवान थे, गए।
उपसंकित्वा भगवन्तं एतद वोच-
जा कर भगवान को ऐसा कहा-
‘‘निक्खम समणाा"'ति ।"
‘‘समण, बाहर निकल।’’
‘‘साधु आवुसो"ति भगवा निक्खमि।
‘‘आवुस! बहुत अच्छा।’’ -कह भगवान बाहर निकल गए।
‘‘पविस समणा’’‘ति।
समण! भीतर आओ!’’
‘‘साधु आवुसो’’‘ति भगवा पाविसि।
‘‘आवुस! बहुत अच्छा।" -कह कर भगवान भीतर आ गए।
दुतियम्पि, ततियम्पि खो आळवको भगवन्तं एतद वोच-
दूसरी बार, तीसरी बार भी आळवक ने भगवान को ऐसा कहा-
‘‘निक्खम समणा’’‘ति।
‘‘साधु आवुसो’’‘ति भगवा निक्खमि।
‘‘पविस समणा’’‘ति।
‘‘साधु आवुसो’’‘ति भगवा पाविसि।
चतुत्थं‘पि खो आळवको, भगवन्तं एतदवोच- ‘‘निक्खम समणा’’‘ति।
‘‘न खो अहं आवुसो निक्खमिस्सामि। यं ते करणीयं, तं करोही ’’‘ति।
"आवुस! (अब की बार) मैं नहीं निकलूंगा। तुम्हें जो करना है, करो।"
‘‘पञ्ह तं समण पुच्छिस्सामि। सचे मे न ब्याकरिस्ससि, हदयं वा ते फालेस्सामि,
पादेसु वा गहेत्वा पार-गंगाय खिपिस्सामी’’‘ति।
"समण! मैं तुम से प्रश्न पूछंगा। यदि मुझे उत्तर नहीं दिए, तो तुम्हारी छाती चिर दूंगा
अथवा पैर पकड़ कर गंगा के पार फेंक दूंगा।"
‘‘न खो अहं आवुसो पस्सामि लोके, यो मे हदयं वा फालेय्य,
पादेसु वा गहेत्वा पार गंगाय खिपेय्य।"
"आवुस! मैं इस लोक में किसी को नहीं देखता, जो मेरी छाती चीर दें
अथवा पैर पकड़ कर गंगा के पार फेंक दें।
अपि च तं आवुसो, पुच्छ यदा-कंखसी"'ति ।
फिर भी, आवुस! पूछो जो तुम्हें शंका हो।’’
अथ खो आळवको यक्खो भगवन्तं गाथाय अज्झभासि-
इस पर उस आळवक-यक्ख ने भगवान को गाथा में यह कहा-
‘‘किं सु इध वित्तं पुरिसस्स सेट्ठं , किं सु सुचिण्णं सुखं आवहति ।
किं सु हवे साधुतरं रसानं, कथं जीविं जीवितं आहु सेट्ठं?’’
‘‘पुरुष का सर्वोत्तम धन क्या है? क्या अभ्यास सुख लाता है?
रसों में सबसे स्वादिष्ट क्या है? कैसा जीना श्रेष्ठ कहा गया है?’’
भगवा-
‘‘सद्धा इध वित्तं पुरिसस्स सेट्ठं, धम्मो सुचिण्णो सुखंं आवहति।
सच्चं हवे साधुतरं रसानं, पञ्ञा जीविं जीवितं आहु सेट्ठंं ।’’
‘‘श्रद्धा पुरुष का सर्वोत्तम धन है? धर्म-अभ्यास सुख लाता है?
सत्य, रसों में सबसे स्वादिष्ट रस है? प्रज्ञा-पूर्वक जीना श्रेष्ठ कहा है। "
आळवक -
कथं सुलभते पञ्ञं, कथं सुविन्दते धनं।
कथं सुकित्तिं पप्पोति, कथं मित्तानि गन्थति?’’
‘‘कैसे (कोई ) प्रज्ञा-लाभ करता है? कैसे धन प्राप्त करता है?
कैसे कीर्ति प्राप्त होती है? कैसे मित्रों को बाँध कर रखता है?’’
भगवा-
‘‘सद्दहानो(श्रद्धा रख) अरहतं च धम्मं(अरहत और धर्म पर)
निब्बान पत्तिया(निर्वाण प्राप्ति के लिए)
सुस्सूसं(शुश्रूषा कर) लभते पञ्ञं(प्रज्ञा लाभ करता है),
अप्पमत्तो(अप्रमत्त) विचक्खणो(विलक्षण पुरुष)
पतिरूपकारी धुरवा(अनुकूल काम करने वाला),
उट्ठाता(उत्साही, परिश्रमी) विन्दते(कमाता है) धनं।
सच्चेन(सत्य से) कित्तिं पप्पोति(प्राप्त करता है),
ददं(देकर) मित्तानि(मित्रों को) गन्थति(बांध लेता है)।’’
आळवक-
‘‘अत्थाय वत मे बुद्धो, वासाय आळवी आगमा।
सो अहं अज्ज पजानामि, यत्थ दिन्न महप्फलं।’’
मेरे कल्याण के लिए बुध्द, आळवी प्रवास करने आएं।
यह मैंने जान लिया कि किसे देने महाफल होता है।
भगवा-
‘‘आवुसो, साधु! साधु!! साधु!!!’’(स्रोत- संयुंत्त निकाय भाग -1: सगाथा वग्गः 10-12ः पृ. 170 )
आळवक सुत्तं निट्ठितं
...............................
सुचिण्णो- सदाचार। पञ्ञा जीविं जीवितं- प्रज्ञापूर्वक जीवन। विन्दति- अनुभव करना।
आवहति- लाता है. आवहन- लाना। सुस्सूसा- शुश्रुषा(श्रवण करने की इच्छा)