जैनि साधु और बुद्ध
बुद्ध और वर्द्धमान महावीर यद्यपि समकालीन थे, किन्तु इन दोनों युग-पुरुषों का सीधा संवाद सम्पूर्ण ति-पिटक में कहीं नहीं नजर आता। हाँ, कहीं-कहीं जरूर बुद्ध, जैन साधुओं की खबर लेते दिखाई पड़ते हैं। प्रस्तुत प्रसंग दिलचस्प है-
तेन खो पन समयेन सम्बुहुला
उस समय कुछ
निगण्ठा(जैन साधु) इसिगिलिपस्से(इसिगिरि के पास)
काळ सिलायं (काल-शिला पर) उब्भट्ठका(खड़े हुए)
आसन पटिक्खिता(छोड़) ओपक्कमिका(उपक्रम करते हुए)
दुक्खा तिब्बा(तीव्र) कटुका वेदना वेदयन्ति।
दुक्ख-पूर्ण, तीव्र और कठोर वेदनाएं सह रहे थे।
अथ खो अहं, महानाम, सायन्ह समयं
तब मैं महानाम, सायं समय
पटिसल्लाना(एकांत वास से) वुट्ठितो
एकांत वास से उठ कर
येन इसिगिलिपस्से काळसिला
जहाँ इसिगिरि के पास काळशिला थी
येन ते निगण्ठा तेनुपसंकमि
जहाँ पर ये निगंठ थे, वहां गया
उपसङ्कमित्वा ते निगण्ठे एतदवोच-
जाकर उन निगंठों से बोला -
"किन्नु(किंं नु) तुम्हे आवुसो, निगण्ठा
क्यों तुम लोग ? आवुस निगंठों !
आसन पटिक्खिताओपक्कमिका
आसन त्याग, उपक्रम करते
दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदयाथ ?
दुक्ख-पूर्ण, तीव्र कठोर वेदनाएं सह रहे हो ?"
एवं वुत्ते, महानाम, ते निगंथा मं एतद वोचुं-
ऐसा कहने पर उन निगंठों ने मुझसे कहा-
"निगंठो, आवुसो, नाथपुत्तो सब्बञ्ञू सब्ब दस्सावी
"निगंथ नाथपुत्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी
अपरिसेसं ञाण दस्सनं पटिजानाति
अपरिशेष(अखिल) ज्ञान-दर्शन को जानते हैं
चरतो च तिट्ठतो च सुतस्स च जागरस्स च
चलते, खड़े, सोते, जागते
सततं समितं ञाण दस्सनं पच्चुपट्ठितं। '
सदा निरंतर उनको ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है।
सो एवमाह-
वे ऐसा कहते हैं-
'अत्थि खो भो निगंथा
निगंठो ! तुम्हारा जो है
पुब्बे पाप कम्म कतं
पहले के किए हुए दुष्कर्मों को
तं इमाय कटुकाय
उसे इस कठोर
दुक्कर कारिकाय निज्जरेथ।
दुष्कर-क्रिया से नाश करो।
मयं पन एत्थ एतरहि
जो इस वक्त यहाँ, हमारे
कायेन वाचाय मनसा संवुता
काय-वचन-मन से संवृत(संवर) हैं
तं आयति पापस्स कम्मस्स अकरणंं
उससे भविष्य के लिए दुष्कर्मों का न करना होगा
इति पुराणानं कम्मानं तपसा ब्यन्तिभावा,
इस प्रकार पुराने कर्मों का तपस्या से अंत होने से
नवानं कम्मानं अकरणा
और नए कर्मों के न करने से
आयति अनवस्सवो
भविष्य में चित्त अन-आस्रव(निर्मल) होगा।
आयति अनवस्सवा कम्मक्खयो
भविष्य में आस्रव न होने से कर्म का क्षय होगा,
कम्मक्खया दुक्खक्खयो
कर्म के क्षय होने से दुक्ख का क्षय होगा
दुक्खक्खया वेदनाक्खयो
दुक्ख के क्षय होने से वेदना का क्षय होगा
वेदनाक्खया सब्बं दुक्खं निज्जिनं भविस्सति
वेदना के क्षय होने से सभी दुःख नष्ट होंगे।'
-तं च अम्हाकं रुच्चति चेव ख़मति।
-हमें यह (विचार) रुचता है, अच्छा लगता है।
तेन च अम्ह अत्तमना।"
इससे हम संतुष्ट हैं।"
एवं वुत्ते, अहं, महानाम, ते निगंठे एतद वोच-
ऐसा कहने पर मैंने महानाम, उन निगंठों से कहा -
"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
अहु येव अम्ह एव मयं पुब्बे; वा नाहु येव अम्हा ?''
हम ही पहले थे; अथवा हम नहीं थे ?''
''नो हि इदं आवुसो।''
''नहीं आवुस।''
"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
अकरम्हा येव मयं पुब्बे पाप कम्मं; वा नाकरम्हा।"
हम ने ही पूर्व में दुष्कर्म किए हैं; अथवा नहीं किए हैं।"
"नो हि इदं आवुसो।"
"नहीं आवुस।"
"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
एवरूपं वा एवरूपं वा पापकम्मं अकरम्हा ?"
अमुक अमुक दुष्कर्म किए हैं ?"
"नो हि इदं आवुसो।"
"नहीं आवुस।"
"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
एतकं वा दुक्खं निज्जिण्णं ?
इतना दुःख नाश हो गया ?
एतकं वा दुक्खं निज्जीरेतब्बं?
इतना दुक्ख नाश करना है?
एतकम्हि वा दुक्खे निज्जिण्णे
इतना दुःख नाश होने पर
सब्ब दुक्ख निज्जिण्णं भविस्सति?"
सब दुःख नाश हो जाएगा?"
"नो हि इदं आवुसो।"
"नहीं आवुस।"
"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
दिट्ठेव धम्मे अकुसलानं धम्मानं पहाणं
इसी जन्म में अकुशल धर्मों का प्रहाण(विनाश)
कुसलानं धम्मानं उपसम्पदं ?"
और कुशल धर्मों का लाभ(होना) है ?"
"नो हि इदं आवुसो।"
"नहीं आवुस।"
एवं वुत्ते भगवा
भगवान के ऐसा कहने पर
अत्तमनो महानामो सक्को भगवतो भासितं अभिनन्दति।
संतुष्ट होकर महानाम शाक्य ने भगवान का अभिनन्दन करता है ।
चुल दुक्ख्क्खंध सुत्त निट्ठितं।
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गिज्झकूटे पब्बते- गृध्रकूट पर्वत पर।
सम्बुहुला- कुछ
सल्लीयति- एकांत वास करना। सल्लीन - एकांत वास
खित्त - फैका हुआ
ब्यन्ति/व्यन्ति-भाव- अंत।
निज्जिण्णं- निजीर्ण अर्थात अंत, नाश।
बुद्ध और वर्द्धमान महावीर यद्यपि समकालीन थे, किन्तु इन दोनों युग-पुरुषों का सीधा संवाद सम्पूर्ण ति-पिटक में कहीं नहीं नजर आता। हाँ, कहीं-कहीं जरूर बुद्ध, जैन साधुओं की खबर लेते दिखाई पड़ते हैं। प्रस्तुत प्रसंग दिलचस्प है-
तेन खो पन समयेन सम्बुहुला
उस समय कुछ
निगण्ठा(जैन साधु) इसिगिलिपस्से(इसिगिरि के पास)
काळ सिलायं (काल-शिला पर) उब्भट्ठका(खड़े हुए)
आसन पटिक्खिता(छोड़) ओपक्कमिका(उपक्रम करते हुए)
दुक्खा तिब्बा(तीव्र) कटुका वेदना वेदयन्ति।
दुक्ख-पूर्ण, तीव्र और कठोर वेदनाएं सह रहे थे।
अथ खो अहं, महानाम, सायन्ह समयं
तब मैं महानाम, सायं समय
पटिसल्लाना(एकांत वास से) वुट्ठितो
एकांत वास से उठ कर
येन इसिगिलिपस्से काळसिला
जहाँ इसिगिरि के पास काळशिला थी
येन ते निगण्ठा तेनुपसंकमि
जहाँ पर ये निगंठ थे, वहां गया
उपसङ्कमित्वा ते निगण्ठे एतदवोच-
जाकर उन निगंठों से बोला -
"किन्नु(किंं नु) तुम्हे आवुसो, निगण्ठा
क्यों तुम लोग ? आवुस निगंठों !
आसन पटिक्खिताओपक्कमिका
आसन त्याग, उपक्रम करते
दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदयाथ ?
दुक्ख-पूर्ण, तीव्र कठोर वेदनाएं सह रहे हो ?"
एवं वुत्ते, महानाम, ते निगंथा मं एतद वोचुं-
ऐसा कहने पर उन निगंठों ने मुझसे कहा-
"निगंठो, आवुसो, नाथपुत्तो सब्बञ्ञू सब्ब दस्सावी
"निगंथ नाथपुत्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी
अपरिसेसं ञाण दस्सनं पटिजानाति
अपरिशेष(अखिल) ज्ञान-दर्शन को जानते हैं
चरतो च तिट्ठतो च सुतस्स च जागरस्स च
चलते, खड़े, सोते, जागते
सततं समितं ञाण दस्सनं पच्चुपट्ठितं। '
सदा निरंतर उनको ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है।
सो एवमाह-
वे ऐसा कहते हैं-
'अत्थि खो भो निगंथा
निगंठो ! तुम्हारा जो है
पुब्बे पाप कम्म कतं
पहले के किए हुए दुष्कर्मों को
तं इमाय कटुकाय
उसे इस कठोर
दुक्कर कारिकाय निज्जरेथ।
दुष्कर-क्रिया से नाश करो।
मयं पन एत्थ एतरहि
जो इस वक्त यहाँ, हमारे
कायेन वाचाय मनसा संवुता
काय-वचन-मन से संवृत(संवर) हैं
तं आयति पापस्स कम्मस्स अकरणंं
उससे भविष्य के लिए दुष्कर्मों का न करना होगा
इति पुराणानं कम्मानं तपसा ब्यन्तिभावा,
इस प्रकार पुराने कर्मों का तपस्या से अंत होने से
नवानं कम्मानं अकरणा
और नए कर्मों के न करने से
आयति अनवस्सवो
भविष्य में चित्त अन-आस्रव(निर्मल) होगा।
आयति अनवस्सवा कम्मक्खयो
भविष्य में आस्रव न होने से कर्म का क्षय होगा,
कम्मक्खया दुक्खक्खयो
कर्म के क्षय होने से दुक्ख का क्षय होगा
दुक्खक्खया वेदनाक्खयो
दुक्ख के क्षय होने से वेदना का क्षय होगा
वेदनाक्खया सब्बं दुक्खं निज्जिनं भविस्सति
वेदना के क्षय होने से सभी दुःख नष्ट होंगे।'
-तं च अम्हाकं रुच्चति चेव ख़मति।
-हमें यह (विचार) रुचता है, अच्छा लगता है।
तेन च अम्ह अत्तमना।"
इससे हम संतुष्ट हैं।"
एवं वुत्ते, अहं, महानाम, ते निगंठे एतद वोच-
ऐसा कहने पर मैंने महानाम, उन निगंठों से कहा -
"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
अहु येव अम्ह एव मयं पुब्बे; वा नाहु येव अम्हा ?''
हम ही पहले थे; अथवा हम नहीं थे ?''
''नो हि इदं आवुसो।''
''नहीं आवुस।''
"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
अकरम्हा येव मयं पुब्बे पाप कम्मं; वा नाकरम्हा।"
हम ने ही पूर्व में दुष्कर्म किए हैं; अथवा नहीं किए हैं।"
"नो हि इदं आवुसो।"
"नहीं आवुस।"
"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
एवरूपं वा एवरूपं वा पापकम्मं अकरम्हा ?"
अमुक अमुक दुष्कर्म किए हैं ?"
"नो हि इदं आवुसो।"
"नहीं आवुस।"
"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
एतकं वा दुक्खं निज्जिण्णं ?
इतना दुःख नाश हो गया ?
एतकं वा दुक्खं निज्जीरेतब्बं?
इतना दुक्ख नाश करना है?
एतकम्हि वा दुक्खे निज्जिण्णे
इतना दुःख नाश होने पर
सब्ब दुक्ख निज्जिण्णं भविस्सति?"
सब दुःख नाश हो जाएगा?"
"नो हि इदं आवुसो।"
"नहीं आवुस।"
"किं पन तुम्हे, आवुसो निगंथा जानाथ-
"क्या तुम आवुस निगंठों, जानते हो-
दिट्ठेव धम्मे अकुसलानं धम्मानं पहाणं
इसी जन्म में अकुशल धर्मों का प्रहाण(विनाश)
कुसलानं धम्मानं उपसम्पदं ?"
और कुशल धर्मों का लाभ(होना) है ?"
"नो हि इदं आवुसो।"
"नहीं आवुस।"
एवं वुत्ते भगवा
भगवान के ऐसा कहने पर
अत्तमनो महानामो सक्को भगवतो भासितं अभिनन्दति।
संतुष्ट होकर महानाम शाक्य ने भगवान का अभिनन्दन करता है ।
चुल दुक्ख्क्खंध सुत्त निट्ठितं।
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गिज्झकूटे पब्बते- गृध्रकूट पर्वत पर।
सम्बुहुला- कुछ
सल्लीयति- एकांत वास करना। सल्लीन - एकांत वास
खित्त - फैका हुआ
ब्यन्ति/व्यन्ति-भाव- अंत।
निज्जिण्णं- निजीर्ण अर्थात अंत, नाश।
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