Wednesday, July 4, 2018

जीवक सुत्त(म. नि.)

मांस-भक्षण
जीवक सुत्त
ऐसा मैंने सुना,
एवं में सुत्तं,
एक समय भगवान् राजगृह में
एकं समयं भगवा राजगहे
जीवक कोमार भृत्य के
जीवकस्स कोमार भच्चस्स
अम्बवन में विहार करते थे।
विहरति अम्बवने
तब जीवक कोमार भृत्य
अथ जीवको कोमार भच्चको
जहाँ भगवान थे, वहां गया
येन भगवा, तेनुपसंकमि
जाकर भगवन को अभिवादन कर
उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा
एक ओर बैठ गया।
एकमंतं निसीदि.
एक ओर बैठे जीवक ने
एकमंतं निसिन्नो खो सो जीवको
भगवान से ऐसा कहा-
भगवन्तं एतदवोच-

भंते! मैंने सुना है,
सुतं मे तं भंते!
'समण गोतम के उद्देश्य से
समण गोतमं उद्दिस्स
(लोग) जीव मारते हैं।
(जना) पाणंं हञ्ञन्ति
समण गोतम, जानते हुए
तं समणो गोतमो जानंं
उद्देश्य से बनाये
उद्दिस्स कतंं
मांस को खाते हैं'
मंंसंं परिभुञ्जन्ति
भंते ! जो यह कहते हैं
ये ते भंते ! एवं आहंसु,
क्या वे भंते, यथार्थ वादी हैं ?
कच्चि  ते, भंते ! वुत्त वादिनो ?
क्या वे नहीं, भंते ! भगवन पर दोषारोपण लगाते ?
न च ते भंते,  भगवन्तं अब्भाचिक्खन्ति ?

जीवक! जो यह कहते हैं,
ये ते जीवक, एवं आहंसु
वे मेरे विषय में यथार्थवादी नहीं है
न मे ते वुत्तवादिनो।
मुझ पर दोषारोपण करते हैं।
अब्भाचिखन्ति मं ते
जीवक! मैं तीन प्रकार के
तीहि खो अहं, जीवक, ठानेहि
मांस को अ-भोज्य कहता हूँ -
मंंसं अ-परिभोगन्ति वदामि।
दृष्ट, श्रुत और परिसंकित।
दिट्ठं, सुतं, परिसंकितं।
और भी जीवक! मैं ये तीन प्रकार के
अपि च इमेहि खो अहं, जीवक, तीहि ठानेहि
मांस को भोज्य कहता हूँ -
मंंसं परिभोगन्ति वदामि।
अदृष्ट, अश्रुत और अपरिसंकित।
अदिट्ठं, असुतं अपरिसंकितं।

जीवक कोई भिक्खु किसी गावं, या निगम
इध, जीवक, भिक्खु अञ्ञतरं गामं वा निगमं वा
के पास विहार करता है
उपनिस्साय विहरति।
वह मैत्री-पूर्ण चित्त से विहार करता है
सो मेता सह-गतेन चेतसा विहरति

उसके पास जाकर कोई गृहपति या गृहपति-पुत्र
तमेनंं गहपति वा गहपति पुत्तो
दूसरे दिन के भोजन के लिए आमंत्रण देता है।
उपसंकमित्वा स्वातनाय भत्तेन निमंतेति
इच्छा होने पर, जीवक!
आकंखमानो येव, जीवक
भिक्खु उस निमंत्रण को स्वीकार करता है.
भिक्खु अधिवासेति


वह उस रात के बीतने पर
सो तस्सा रत्तिया अच्चयेन
पूर्वान्ह समय पहन कर पात्र-चीवर ले
पुब्बण्ह समयं निवासेत्वा पत्त चीवरंं आदाय
जहाँ उस गृहपति या गृहपति-पुत्र का
येन तस्स गहपतिस्स वा गहपति पुत्तस्स वा
घर  होता है, वहां जाता है।
निवेसनं तेनुपसंकमति
जाकर बिछे आसान पर बैठता है।
उपसंकमित्वा पञ्ञते आसने निसीदति
उसे वह गृहपति या गृहपति पुत्र
तमेनंं सो गहपति वा गहपति पुत्तो
उत्तम पिण्डपात परोसता है।
पणीतेन पिण्डपातेन परिविसति

उस भिक्खु को यह नहीं होता-
तस्स भिक्खुस्स न एवं होति
अहो, यह गृहपति या गृहपति-पुत्र
साधुवत अयं गहपति वा गहपति पुत्तो
मुझे उत्तम पिण्डपात परोसे।
मं पणीतेन पिण्डपातेन परिविस्सेय्य
वह उस पिण्डपात को अनाशक्त हो
सो तं पिण्डपातेन अन- अज्झापन्नो

निस्तार की बुद्धि से खाता है।
निस्सरण पञ्ञो परिभुञ्जति
तो क्या मानते हो, जीवक!
तं किंं मञ्ञसि, जीवक
क्या वह भिक्खु उस समय
नु खो भिक्खु तस्मिंं समये
पर-पीड़ा (की बात) को सोचता है
पर ब्याबाधाय चिन्तेति ?

नो भंते !
क्यों जीवक !  उस समय वह
किंं जीवक, तस्मिंं समये सो
अ-वर्जित (अनवद्य) आहार ही ग्रहण करता है न ?
अन-वज्जेय आहारं आहारेति नु ?.
आम भंते !
मैंने सुना है भंते ! भगवान 'करणीय मेत्त विहारी' है,
सुतं मे भंते- भगवा करणीय मेेत्ता विहारि.
सो भंते ! मैंने साक्षात देख लिया है।
तं मे  भंते ! इदं सक्खिदिटठो ! (स्रोत- मंझिम निकाय)
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अब्भाचिखन्ति- दोषारोपण करना।
अन- अज्झापन्नो- अनाशक्त हो।
परिविसति- भोजन परोसना।
सक्खिदिटठो- साक्षात् देख लिया।   

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