माता
रमाबाई(रमाई) अम्बेडकर :
प्रत्येक महापुरुष की सफलता के पीछे उसकी जीवनसंगिनी का बड़ा हाथ होता है । जीवनसंगिनी का त्याग और सहयोग अगर न हो तो शायद, वह व्यक्ति, महापुरुष ही नहीं बन पाता। आईसाहेब रमाबाई अम्बेडकर इसी तरह के त्याग और समर्पण की प्रतिमूर्ति थी। अक्सर महापुरुष की दमक के सामने उसका घर-परिवार और जीवनसंगिनी सब पीछे छूट जाते हैं क्योंकि, इतिहास लिखने वालों की नजर महापुरुष पर केन्द्रित होती है। यही कारण है कि रमाई के बारे में भी ज्यादा कुछ नहीं लिखा गया है ।
रमाबाई का जन्म महाराष्ट्र के दापोली के निकट वणन्द गावं में 7 फरवरी, 1897 में हुआ था । इनके पिता का नाम भीकू धुत्रे और माँ का नाम रुक्मणी था । महाराष्ट्र में कहीं-कहीं नाम के साथ गावं का नाम भी जोड़ने का चलन है । इस चलन के अनुसार उन्हें भीकू वाणन्दकर के नाम से भी पुकारा जाता था । भीकू वाणन्दकर अपनी कुलीगिरी की आय से परिवार का पालन-पोषण बड़ी मुश्किल से कर पाते थे ।
रमाबाई के बचपन का नाम रामी था। रामी की दो बहने बड़ी बहन गौरा और छोटी का नाम मीरा था तथा एक भाई शंकर जो चारों भाई-बहनों में सबसे छोटा था । बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उसके भाई-बहन अपने मामा और चाचा के साथ बम्बई में भायखला आकर रहने लगे थे ।
रामी का विवाह 9 वर्ष की उम्र में सुबेदार मेजर रामजी मालोजी सकपाल के सुपुत्र भीमराव से वर्ष 1906 में हुआ था। उस समय भीमराव की उम्र उस समय 14 वर्ष थी और वे 10 वीं कक्षा में पढ़ रहे थे। शादी के बाद रामी का नाम रमाबाई हो गया था। शादी के पहले रमा बिलकुल अनपढ़ थी, किन्तु शादी के बाद भीमराव आंबेडकर ने उन्हें साधारण लिखना-पढ़ना सीखा दिया था जिससे वह अपने हस्ताक्षर कर लेती थी। डॉ. अम्बेडकर रमा को 'रमो' कह कर पुकारा करते थे जबकि रमाबाई बाबा साहब को 'साहब' कहा करती थी ।
रमाबाई और भीमराव अम्बेडकर की वर्ष 1924 तक पांच संताने हुई थी। बड़े पुत्र यशवंतराव का जन्म 12 दिसम्बर 1912 में हुआ था। उस समय भीमराव अम्बेडकर परिवार के साथ मुम्बई के पायबावाडी परेल, बी आय टी चाल में रहते थे। जनवरी 1913 में बड़ौदा राज्य सेना में लेफ्टीनेन्ट के रूप में नियुक्ति होने पर डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर बड़ौदा चले आये पर जल्द ही उन्हें अपने पिता रामजी सकपाल की बीमारी के चलते मुंबई वापस लौटना पड़ा, जिनकी मृत्यु रमाबाई की दिन-रात सेवा और चिकित्सा के बाद भी 2 फरवरी 1913 को हो गयी। पिता की मृत्यु के बाद भीमराव उच्च शिक्षा के लिए विदेश गए थे। वे 1914 से 1923 तक करीब 9 वर्ष विदेश में रहे थे।
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर जब अमेरिका में थे, उस समय रमाबाई ने बहुत कठिन दिन व्यतीत किये । पति विदेश में हो और खर्च भी सीमित हों, ऐसी स्थिती में कठिनाईयां आनी एक साधारण सी बात थी। रमाबाई ने यह कठिन समय भी बिना किसी शिकवा-शिकायत के बड़ी धीरता से हंसते हंसते काट लिया। दिसंबर 1940 में बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने जो पुस्तक "थॉट्स ऑफ पाकिस्तान" लिखी व पुस्तक उन्होंने अपनी पत्नी "रमो" को ही भेंट की । भेंट के शब्द इस प्रकार थे-
मैं यह पुस्तक "रमो को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में जब कि हमारा कोई सहायक न था, अतीव सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरुप भेंट करता हूं.." उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट है कि माता रमाई ने बाबा साहब डॉ. आंबेडकर का किस प्रकार संकट के दिनों में साथ दिया और बाबा साहब के दिल में उनके लिए कितना सत्कार और प्रेम था।
बाबा साहब डॉ. अम्बडेकर जब अमेरिका गए तो माता रमाई गर्भवती थी । उन्होंने एक लड़के (रमेश) को जन्म दिया, परंतु वह बाल्यावस्था में ही चल बसा । बाबासाहब के लौटने के बाद एक अन्य लड़का गंगाधर उत्पन्न हुआ. परंतु उसका भी बाल्यकाल ढाई साल की अल्पायु में ही देहावसान हो गया । गंगाधर के मृत्यु की ह्रदय विदारक घटना का जिक्र करते हुए एक बार बाबा साहब ने अपने मित्र को बतलाया था कि ठीक से इलाज न हो पाने से जब गंगाधर की मृत्यु हुई तो उसकी मृत देह को ढकने के लिए गली के लोगों ने नया कपड़ा लाने को कहा, मगर उनके पास उतने पैसे नहीं थे । तब रमा ने अपनी साड़ी से कपड़ा फाड़कर दिया था। वही मृत देह को ओढ़ाकर लोग शमशान घाट ले गए और पार्थिव शरीर को दफना आए थे। उनका इकलौता बेटा(यशवंत) ही था । परंतु उसका भी स्वास्थ्य खराब रहता था । माता रमाई यशवंत की बीमारी के कारण पर्याप्त चिंतातूर रहती थी, परंतु फिर भी वह इस बात का पूरा ध्यान रखती थी, कि बाबासाहब डॉ. आंबेडकर के कार्यों में कोई विघ्न न आए और उनकी पढ़ाई में बाधा न उत्पन्न हो। माता रमाई अपने पति के प्रयत्न से कुछ लिखना पढ़ना भी सीख गई थी । साधारणतः महापुरुषों के जीवन में यह एक सुखद बात होती रही है कि उन्हें जीवन साथी बहुत ही साधारण और अच्छे मिलते रहे। बाबासाहब भी ऐसे ही भाग्यशाली महापुरुषों में से एक थे, जिन्हें रमाबाई जैसी बहुत ही नेक और आज्ञाकारी जीवन साथी मिली ।
इस मध्य बाबा साहब अम्बेडकर के सबसे छोटे बच्चे ने जन्म लिया, उसका नाम राजरत्न रखा गया । वह अपने इस पुत्र से बहुत लाड़-प्यार करते थे। राजरत्न के पहले माता रमाई ने एक कन्या को जन्म दिया, जो बाल्यकाल में ही चल बसी थी । माता रमाई का स्वास्थ्य खराब रहने लगा, इसलिए उन्हें दोनों लड़कों यशवंत और राजरत्न सहित वायु परिवर्तन के लिए धारवाड भेज दिया गया । लेकिन सबसे छोटा पुत्र राजरत्न की भी मृत्यु 19 जुलाई 1926 को हो गई। बाबासाहब की ओर से अपने मित्र श्री दत्तोबा पवार को 16 अगस्त 1926 को लिखा पत्र बहुत दर्द भरा है । उसमें एक पिता का अपनी संतान के वियोग का दुःख स्पष्ट दिखाई देता है -
"हम चार सुन्दर रुपवान और शुभ बच्चे दफन कर चुके हैं । इन में से तीन पुत्र थे और एक पुत्री । यदि वे जीवित रहते तो भविष्य उनका होता । उनकी मृत्यु का विचार करके हृदय बैठ जाता है । हम बस अब जीवन ही व्यतित कर रहे है । जिस प्रकार सिर से बादल निकल जाता है, उसी प्रकार हमारे दिन झटपट बीतते जा रहे हैं । बच्चों के निधन से हमारे जीवन का आनंद ही जाता रहा और जिस प्रकार बाईबल में लिखा है, "तुम धरती का आनंद हो । यदि वह धरती को त्याग जाय तो फिर धरती आनंदपूर्ण कैसे रहेगी ?" मैं अपने परिक्त जीवन में बार-बार ऐसा ही अनुभव करता हूँ । पुत्रों की मृत्यु से मेरा जीवन बस ऐसे ही रह गया है, जैसे तृण कांटों से भरा हुआ कोई उपवन । बस अब मेरा मन इतना भर आया है कि और अधिक नहीं लिख सकता..."
चारों बच्चों की मृत्यु का कारण धना-भाव था, क्योंकि डॉ. अम्बेडकर स्वतन्त्र जीविकोपार्जन के काम की तलाश में मारे मारे फिर रहे थे । जिसके कारण घर की माली हालत बहुत खराब थी, जब पेट ही पूरा नहीं भर रहा हो तो बच्चों की बीमारी के इलाज के लिए पैसे कहाँ से लाते? बाबा साहब के सबसे बड़े पुत्र यशवंतराव ही जीवित रहे थे। वह भी हमेशा बीमार सा रहते थे। रमाबाई को और बच्चों की चाह थी मगर, अब और बच्चा होने से डाक्टर के अनुसार, उन्हें टीबी होने का खतरा था । इस तारतम्य में डाक्टर ने बाबा साहब को सावधानी बरतने की सलाह दी थी।
भीमराव अम्बेडकर हमेशा ज्ञानार्जन में रत रहते थे। ज्ञानार्जन की तड़प उनमें इतनी थी। रमा इस बात का ध्यान रखती थी कि पति के काम में कोई बाधा न हो। वह पति के स्वास्थ्य और सुविधा का पूरा ध्यान रखती थी । बाबा साहब पढ़ते समय प्राय: अन्दर से दरवाजा बंद का देते थे। रमा कई बार जोर जोर से दरवाजा खटखटाती परन्तु दरवाजा नहीं खुलता तब, थक हार कर वह लौट जाती। इस चक्कर में कई बार भूखे ही रह जाती थी । पति भूखा हो और वह भोजन कर ले, उन्हें मंजूर नहीं था । डाक्टर की सलाह अनुसार बाबा साहब भी रमा से दूरी बना कर ही रहते थे । कई बार घर नहीं आते थे, आफिस में ही रहते थे ।
रमा की घर-गृहस्थी के शुरू का जीवन लम्बी आर्थिक तंगी का रहा था । तंगी की हालत ये थी कि दिन भर मजदूरी करने के बाद शाम को वह घर से तीन-चार किमी दूर जाकर गोबर बिन कर लाती थी। गोबर से वह कंडे थापती और फिर उसे वह बेच आती। पास-पड़ोस की स्त्रियां टोकती कि बैरिस्टर की पत्नी होते हुए भी वह सिर पर गोबर ढोती है। इस पर रमा कहती, 'घर का काम करने में लज्जा की क्या बात है ?'
रमा एक सीधी-सादी और कर्तव्यपरायण स्त्री थीं। पति और परिवार की सेवा करना वह अपना धर्म समझती थी। चाहे जो भी विपत्ति हो, किसी से सहायता लेना उन्हें गंवारा नहीं था। ऐसे कई मौके आए जब परिचितों ने उन्हें मदद की पेशकश की । किन्तु, रमा ने लेने से इंकार कर दिया । रमाताई संतोष, सहयोग और सहनशीलता की मूर्ति थी । डॉ. भीमराव अम्बेडकर प्रायः घर से बाहर रहते थे। वे जो कुछ कमाते थे, उसे वे रमा को सौप देते और जब आवश्यकता होती, उतना मांग लेते थे। रमाताई घर का खर्च चला कर कुछ पैसा जमा भी करती थी। क्योंकि, उन्हें मालूम था कि बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर को उच्च शिक्षा के लिए पैसे की जरूरत होती है। बाबा साहब की पक्की नौकरी न होने से उन्हें काफी दिक्कत होती थी।
जहाँ तक डॉ. अम्बेडकर के सामाजिक आंदोलनों में सहभागिता की बात है, रमाताई ने ऐसे कई आन्दोलनों और सत्याग्रहों में शिरकत की थी। वैसे भी डॉं अम्बेडकर के आन्दोलनों में महिलाएं जम कर भाग लेती थी। दलित समाज के लोग रमाताई को 'आई साहेब' और डॉ. अम्बेडकर को 'बाबा साहब' कह कर पुकारा करते थे। अम्बेडकर के राजनीतिक आंदोलन में रमाबाई की बढ़ती रूचि को 1920 की मनगांव परिषद के बारे में उनकी जिज्ञासा से, साहू महाराज के कार्यों में उनके सवालों में, 1927 के महाड़ सत्याग्रह में भाग लेने में उनकी उत्सुकता से(हालांकि अम्बेडकर के सुझाव के विपरीत उन्होंने स्त्रियों का नेतृत्व नहीं किया बल्कि भोजन व्यवस्था संभाली) तथा मुम्बई के जे.जे. अस्पताल में स्त्रियों की सभा को संबोधित करने से मापा जा सकता है। 1920 में लंदन जाने के पहले अम्बेडकर ने श्राद्व के कार्यक्रम का आयोजन किया(पिता की बरसी पर) और हिन्दू कर्मकांडों की परम्परा तोड़ने के लिये ब्राह्मण भोज न कराकर वंचित जाति के लिये स्थापित छात्रावास से चालीस छात्रों को भोज के लिये आमंत्रित किया। रमाबाई ने परंपरागत मिठाईयां परोसने की योजना बनाई थी। लेकिन अम्बेडकर ने तर्क दिया कि इन छात्रों को मांस व मछली परोसी जानी चाहिए, जो उन्हें छात्रावास के भोजन में नहीं मिल पाती हैं। रमाबाई पहले तो इस तर्क से बहुत क्षुब्ध हुई और श्राद्व की रीतियों में पूरनपोली की बजाय मांस-भोज पर प्रश्न उठाने लगीं किन्तु बाद में उन्होंने अम्बेडकर के कहे अनुसार ही किया।
जब, बाबा साहब दादर के मकान राजगृह जो रेलवे लाईन के निकट था, में रहते थे । एक बार बाबा साहब के एक मित्र ने पूछ लिया कि उन्होंने अपने रहने के लिए स्थान रेलवे लाइन के इतना निकट क्यों चुना ? क्या इससे आपके ध्यान में विघ्न नहीं पहुँचता और पढ़ाई मे बाधा नहीं पहुचती ? इस पर बाबा साहब कुछ कहते इसके पहले ही पास खड़ी रमा ने जवाब दिया, ' क्यों बेकार की बात करते हैं ? बड़ी मुश्किल से तो हमने यह बसेरा बनाया है । इसे भी आप मन से उतार रहे हो ? जब 'साहब' पढ़ने बैठते हैं तो उन्हें आंधी-तुफान, भूख-प्यास किसी चीज की कोई सुध नहीं होती तो रेल के इंजन की आवाज कहाँ सुनाई देती होगी ?' रमाताई की इस हाजिर जवाबी को डॉ. अम्बेडकर और उनके मित्र देखते रह गए थे।
राजगृह की भव्यता और बाबा साहब की चारों ओर फैलती कीर्ति भी रमाताई की बिगड़ती तबियत में कोई सुधार न ला पायी। उलटे, वह पति की व्यस्तता और सुरक्षा के लिए बेहद चिंतित दिखी। कभी-कभी वे उन लोगों को डांट लगाती जो 'साहब' को उनके आराम के क्षणों में मिलने आते थे। रमाताई अपनी इस बीमारी की हालत में भी, डॉ. अम्बेडकर की सुख-सुविधाओं का पूरा ध्यान रखती थीं। उन्हें अपने स्वाथ्य की उतनी चिंता नहीं होती थी जितनी कि पति को घर में आराम पहुँचाने की ।
दूसरी ओर, डॉ. अम्बेडकर अपने कार्यों में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण रमाबाई और घर पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाते थे। एक दिन उनके पारिवारिक मित्र उपशाम गुरूजी से रमाताई ने अपना दुखड़ा कह सुनाया -'गुरूजी , मैं कई महीनों से बीमार हूँ। डॉ. साहब को मेरा हाल-चाल पूछने की फुर्सत नहीं है, वे हाई कोर्ट जाते समय केवल दरवाजे के पास खड़े होकर मेरे स्वास्थ्य के सम्बन्ध में पूछते हैं और वही से चले जाते हैं। क्या यही पति का कर्त्तव्य है ? पत्नी की भी कुछ आशाएं होती है। उनके ऐसे व्यवहार से मेरा मन बड़ा दुखी होता है। आप ही बताइएं, इस प्रकार मेरा स्वास्थ्य कैसे ठीक रह सकता है ?' उपशाम गुरूजी ने राजगृह की ऊपरी मंजिल पर अपने कमरे में अध्ययनरत बाबा साहब को जब यह बात बतलाई तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। पुस्तक से ध्यान हटाते हुए बाबा साहब ने कहा 'उपशाम, रमो के इलाज के लिए मैंने अच्छे डॉक्टरों और दवा की व्यवस्था की है। दवा आदि देने के लिए उनके पास उनका लड़का, मेरा भतीजा और उनका अपना भाई भी है। फिर भी वह चाहती है कि मैं उनके पास बैठा रहूँ । यह कैसे सम्भव है? मेरी पत्नी की बीमारी के अलावा इस देश के सात करोड़ अछूत हैं जो उनसे भी ज्यादा सदियों से बीमार हैं । वे अनाथ और असहाय हैं, उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है । मुझे रमा के साथ-साथ इन सात करोड़ अछूतों की भी चिंता है? रमा को इस बात का ध्यान होना चाहिए? यह कहते कहते बाबा साहब का गला भर आया था।
रमाताई काफी लम्बे समय तक बीमार रही और अंततः 27 मई 1935 को जब बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर कोर्ट से लौटे, तो रमाबाई ने इशारे से बाबा साहब को अपने पास बुलाया और हाथों में हाथ लेकर कहा कि देखो आप मुझे वचन दो कि मेरे निधन के बाद आप हताश नहीं होंगे, हमारे बच्चे तो जिन्दा नहीं रह सके, समाज ही अपना बच्चा है; मुझे वचन दो कि आप उन्हें ब्राह्मणी व्यवस्था से आज़ाद करेंगे, ऐसा कहकर माता रमाबाई ने डॉ. अम्बेडकर को अकेला छोड़ इस दुनिया से विदा हो गई। रमाताई की मृत्यु से डॉ. अम्बेडकर को गहरा आघात लगा । वे बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोये थे ।
प्रत्येक महापुरुष की सफलता के पीछे उसकी जीवनसंगिनी का बड़ा हाथ होता है । जीवनसंगिनी का त्याग और सहयोग अगर न हो तो शायद, वह व्यक्ति, महापुरुष ही नहीं बन पाता। आईसाहेब रमाबाई अम्बेडकर इसी तरह के त्याग और समर्पण की प्रतिमूर्ति थी। अक्सर महापुरुष की दमक के सामने उसका घर-परिवार और जीवनसंगिनी सब पीछे छूट जाते हैं क्योंकि, इतिहास लिखने वालों की नजर महापुरुष पर केन्द्रित होती है। यही कारण है कि रमाई के बारे में भी ज्यादा कुछ नहीं लिखा गया है ।
रमाबाई का जन्म महाराष्ट्र के दापोली के निकट वणन्द गावं में 7 फरवरी, 1897 में हुआ था । इनके पिता का नाम भीकू धुत्रे और माँ का नाम रुक्मणी था । महाराष्ट्र में कहीं-कहीं नाम के साथ गावं का नाम भी जोड़ने का चलन है । इस चलन के अनुसार उन्हें भीकू वाणन्दकर के नाम से भी पुकारा जाता था । भीकू वाणन्दकर अपनी कुलीगिरी की आय से परिवार का पालन-पोषण बड़ी मुश्किल से कर पाते थे ।
रमाबाई के बचपन का नाम रामी था। रामी की दो बहने बड़ी बहन गौरा और छोटी का नाम मीरा था तथा एक भाई शंकर जो चारों भाई-बहनों में सबसे छोटा था । बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उसके भाई-बहन अपने मामा और चाचा के साथ बम्बई में भायखला आकर रहने लगे थे ।
रामी का विवाह 9 वर्ष की उम्र में सुबेदार मेजर रामजी मालोजी सकपाल के सुपुत्र भीमराव से वर्ष 1906 में हुआ था। उस समय भीमराव की उम्र उस समय 14 वर्ष थी और वे 10 वीं कक्षा में पढ़ रहे थे। शादी के बाद रामी का नाम रमाबाई हो गया था। शादी के पहले रमा बिलकुल अनपढ़ थी, किन्तु शादी के बाद भीमराव आंबेडकर ने उन्हें साधारण लिखना-पढ़ना सीखा दिया था जिससे वह अपने हस्ताक्षर कर लेती थी। डॉ. अम्बेडकर रमा को 'रमो' कह कर पुकारा करते थे जबकि रमाबाई बाबा साहब को 'साहब' कहा करती थी ।
रमाबाई और भीमराव अम्बेडकर की वर्ष 1924 तक पांच संताने हुई थी। बड़े पुत्र यशवंतराव का जन्म 12 दिसम्बर 1912 में हुआ था। उस समय भीमराव अम्बेडकर परिवार के साथ मुम्बई के पायबावाडी परेल, बी आय टी चाल में रहते थे। जनवरी 1913 में बड़ौदा राज्य सेना में लेफ्टीनेन्ट के रूप में नियुक्ति होने पर डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर बड़ौदा चले आये पर जल्द ही उन्हें अपने पिता रामजी सकपाल की बीमारी के चलते मुंबई वापस लौटना पड़ा, जिनकी मृत्यु रमाबाई की दिन-रात सेवा और चिकित्सा के बाद भी 2 फरवरी 1913 को हो गयी। पिता की मृत्यु के बाद भीमराव उच्च शिक्षा के लिए विदेश गए थे। वे 1914 से 1923 तक करीब 9 वर्ष विदेश में रहे थे।
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर जब अमेरिका में थे, उस समय रमाबाई ने बहुत कठिन दिन व्यतीत किये । पति विदेश में हो और खर्च भी सीमित हों, ऐसी स्थिती में कठिनाईयां आनी एक साधारण सी बात थी। रमाबाई ने यह कठिन समय भी बिना किसी शिकवा-शिकायत के बड़ी धीरता से हंसते हंसते काट लिया। दिसंबर 1940 में बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने जो पुस्तक "थॉट्स ऑफ पाकिस्तान" लिखी व पुस्तक उन्होंने अपनी पत्नी "रमो" को ही भेंट की । भेंट के शब्द इस प्रकार थे-
मैं यह पुस्तक "रमो को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में जब कि हमारा कोई सहायक न था, अतीव सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरुप भेंट करता हूं.." उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट है कि माता रमाई ने बाबा साहब डॉ. आंबेडकर का किस प्रकार संकट के दिनों में साथ दिया और बाबा साहब के दिल में उनके लिए कितना सत्कार और प्रेम था।
बाबा साहब डॉ. अम्बडेकर जब अमेरिका गए तो माता रमाई गर्भवती थी । उन्होंने एक लड़के (रमेश) को जन्म दिया, परंतु वह बाल्यावस्था में ही चल बसा । बाबासाहब के लौटने के बाद एक अन्य लड़का गंगाधर उत्पन्न हुआ. परंतु उसका भी बाल्यकाल ढाई साल की अल्पायु में ही देहावसान हो गया । गंगाधर के मृत्यु की ह्रदय विदारक घटना का जिक्र करते हुए एक बार बाबा साहब ने अपने मित्र को बतलाया था कि ठीक से इलाज न हो पाने से जब गंगाधर की मृत्यु हुई तो उसकी मृत देह को ढकने के लिए गली के लोगों ने नया कपड़ा लाने को कहा, मगर उनके पास उतने पैसे नहीं थे । तब रमा ने अपनी साड़ी से कपड़ा फाड़कर दिया था। वही मृत देह को ओढ़ाकर लोग शमशान घाट ले गए और पार्थिव शरीर को दफना आए थे। उनका इकलौता बेटा(यशवंत) ही था । परंतु उसका भी स्वास्थ्य खराब रहता था । माता रमाई यशवंत की बीमारी के कारण पर्याप्त चिंतातूर रहती थी, परंतु फिर भी वह इस बात का पूरा ध्यान रखती थी, कि बाबासाहब डॉ. आंबेडकर के कार्यों में कोई विघ्न न आए और उनकी पढ़ाई में बाधा न उत्पन्न हो। माता रमाई अपने पति के प्रयत्न से कुछ लिखना पढ़ना भी सीख गई थी । साधारणतः महापुरुषों के जीवन में यह एक सुखद बात होती रही है कि उन्हें जीवन साथी बहुत ही साधारण और अच्छे मिलते रहे। बाबासाहब भी ऐसे ही भाग्यशाली महापुरुषों में से एक थे, जिन्हें रमाबाई जैसी बहुत ही नेक और आज्ञाकारी जीवन साथी मिली ।
इस मध्य बाबा साहब अम्बेडकर के सबसे छोटे बच्चे ने जन्म लिया, उसका नाम राजरत्न रखा गया । वह अपने इस पुत्र से बहुत लाड़-प्यार करते थे। राजरत्न के पहले माता रमाई ने एक कन्या को जन्म दिया, जो बाल्यकाल में ही चल बसी थी । माता रमाई का स्वास्थ्य खराब रहने लगा, इसलिए उन्हें दोनों लड़कों यशवंत और राजरत्न सहित वायु परिवर्तन के लिए धारवाड भेज दिया गया । लेकिन सबसे छोटा पुत्र राजरत्न की भी मृत्यु 19 जुलाई 1926 को हो गई। बाबासाहब की ओर से अपने मित्र श्री दत्तोबा पवार को 16 अगस्त 1926 को लिखा पत्र बहुत दर्द भरा है । उसमें एक पिता का अपनी संतान के वियोग का दुःख स्पष्ट दिखाई देता है -
"हम चार सुन्दर रुपवान और शुभ बच्चे दफन कर चुके हैं । इन में से तीन पुत्र थे और एक पुत्री । यदि वे जीवित रहते तो भविष्य उनका होता । उनकी मृत्यु का विचार करके हृदय बैठ जाता है । हम बस अब जीवन ही व्यतित कर रहे है । जिस प्रकार सिर से बादल निकल जाता है, उसी प्रकार हमारे दिन झटपट बीतते जा रहे हैं । बच्चों के निधन से हमारे जीवन का आनंद ही जाता रहा और जिस प्रकार बाईबल में लिखा है, "तुम धरती का आनंद हो । यदि वह धरती को त्याग जाय तो फिर धरती आनंदपूर्ण कैसे रहेगी ?" मैं अपने परिक्त जीवन में बार-बार ऐसा ही अनुभव करता हूँ । पुत्रों की मृत्यु से मेरा जीवन बस ऐसे ही रह गया है, जैसे तृण कांटों से भरा हुआ कोई उपवन । बस अब मेरा मन इतना भर आया है कि और अधिक नहीं लिख सकता..."
चारों बच्चों की मृत्यु का कारण धना-भाव था, क्योंकि डॉ. अम्बेडकर स्वतन्त्र जीविकोपार्जन के काम की तलाश में मारे मारे फिर रहे थे । जिसके कारण घर की माली हालत बहुत खराब थी, जब पेट ही पूरा नहीं भर रहा हो तो बच्चों की बीमारी के इलाज के लिए पैसे कहाँ से लाते? बाबा साहब के सबसे बड़े पुत्र यशवंतराव ही जीवित रहे थे। वह भी हमेशा बीमार सा रहते थे। रमाबाई को और बच्चों की चाह थी मगर, अब और बच्चा होने से डाक्टर के अनुसार, उन्हें टीबी होने का खतरा था । इस तारतम्य में डाक्टर ने बाबा साहब को सावधानी बरतने की सलाह दी थी।
भीमराव अम्बेडकर हमेशा ज्ञानार्जन में रत रहते थे। ज्ञानार्जन की तड़प उनमें इतनी थी। रमा इस बात का ध्यान रखती थी कि पति के काम में कोई बाधा न हो। वह पति के स्वास्थ्य और सुविधा का पूरा ध्यान रखती थी । बाबा साहब पढ़ते समय प्राय: अन्दर से दरवाजा बंद का देते थे। रमा कई बार जोर जोर से दरवाजा खटखटाती परन्तु दरवाजा नहीं खुलता तब, थक हार कर वह लौट जाती। इस चक्कर में कई बार भूखे ही रह जाती थी । पति भूखा हो और वह भोजन कर ले, उन्हें मंजूर नहीं था । डाक्टर की सलाह अनुसार बाबा साहब भी रमा से दूरी बना कर ही रहते थे । कई बार घर नहीं आते थे, आफिस में ही रहते थे ।
रमा की घर-गृहस्थी के शुरू का जीवन लम्बी आर्थिक तंगी का रहा था । तंगी की हालत ये थी कि दिन भर मजदूरी करने के बाद शाम को वह घर से तीन-चार किमी दूर जाकर गोबर बिन कर लाती थी। गोबर से वह कंडे थापती और फिर उसे वह बेच आती। पास-पड़ोस की स्त्रियां टोकती कि बैरिस्टर की पत्नी होते हुए भी वह सिर पर गोबर ढोती है। इस पर रमा कहती, 'घर का काम करने में लज्जा की क्या बात है ?'
रमा एक सीधी-सादी और कर्तव्यपरायण स्त्री थीं। पति और परिवार की सेवा करना वह अपना धर्म समझती थी। चाहे जो भी विपत्ति हो, किसी से सहायता लेना उन्हें गंवारा नहीं था। ऐसे कई मौके आए जब परिचितों ने उन्हें मदद की पेशकश की । किन्तु, रमा ने लेने से इंकार कर दिया । रमाताई संतोष, सहयोग और सहनशीलता की मूर्ति थी । डॉ. भीमराव अम्बेडकर प्रायः घर से बाहर रहते थे। वे जो कुछ कमाते थे, उसे वे रमा को सौप देते और जब आवश्यकता होती, उतना मांग लेते थे। रमाताई घर का खर्च चला कर कुछ पैसा जमा भी करती थी। क्योंकि, उन्हें मालूम था कि बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर को उच्च शिक्षा के लिए पैसे की जरूरत होती है। बाबा साहब की पक्की नौकरी न होने से उन्हें काफी दिक्कत होती थी।
जहाँ तक डॉ. अम्बेडकर के सामाजिक आंदोलनों में सहभागिता की बात है, रमाताई ने ऐसे कई आन्दोलनों और सत्याग्रहों में शिरकत की थी। वैसे भी डॉं अम्बेडकर के आन्दोलनों में महिलाएं जम कर भाग लेती थी। दलित समाज के लोग रमाताई को 'आई साहेब' और डॉ. अम्बेडकर को 'बाबा साहब' कह कर पुकारा करते थे। अम्बेडकर के राजनीतिक आंदोलन में रमाबाई की बढ़ती रूचि को 1920 की मनगांव परिषद के बारे में उनकी जिज्ञासा से, साहू महाराज के कार्यों में उनके सवालों में, 1927 के महाड़ सत्याग्रह में भाग लेने में उनकी उत्सुकता से(हालांकि अम्बेडकर के सुझाव के विपरीत उन्होंने स्त्रियों का नेतृत्व नहीं किया बल्कि भोजन व्यवस्था संभाली) तथा मुम्बई के जे.जे. अस्पताल में स्त्रियों की सभा को संबोधित करने से मापा जा सकता है। 1920 में लंदन जाने के पहले अम्बेडकर ने श्राद्व के कार्यक्रम का आयोजन किया(पिता की बरसी पर) और हिन्दू कर्मकांडों की परम्परा तोड़ने के लिये ब्राह्मण भोज न कराकर वंचित जाति के लिये स्थापित छात्रावास से चालीस छात्रों को भोज के लिये आमंत्रित किया। रमाबाई ने परंपरागत मिठाईयां परोसने की योजना बनाई थी। लेकिन अम्बेडकर ने तर्क दिया कि इन छात्रों को मांस व मछली परोसी जानी चाहिए, जो उन्हें छात्रावास के भोजन में नहीं मिल पाती हैं। रमाबाई पहले तो इस तर्क से बहुत क्षुब्ध हुई और श्राद्व की रीतियों में पूरनपोली की बजाय मांस-भोज पर प्रश्न उठाने लगीं किन्तु बाद में उन्होंने अम्बेडकर के कहे अनुसार ही किया।
जब, बाबा साहब दादर के मकान राजगृह जो रेलवे लाईन के निकट था, में रहते थे । एक बार बाबा साहब के एक मित्र ने पूछ लिया कि उन्होंने अपने रहने के लिए स्थान रेलवे लाइन के इतना निकट क्यों चुना ? क्या इससे आपके ध्यान में विघ्न नहीं पहुँचता और पढ़ाई मे बाधा नहीं पहुचती ? इस पर बाबा साहब कुछ कहते इसके पहले ही पास खड़ी रमा ने जवाब दिया, ' क्यों बेकार की बात करते हैं ? बड़ी मुश्किल से तो हमने यह बसेरा बनाया है । इसे भी आप मन से उतार रहे हो ? जब 'साहब' पढ़ने बैठते हैं तो उन्हें आंधी-तुफान, भूख-प्यास किसी चीज की कोई सुध नहीं होती तो रेल के इंजन की आवाज कहाँ सुनाई देती होगी ?' रमाताई की इस हाजिर जवाबी को डॉ. अम्बेडकर और उनके मित्र देखते रह गए थे।
राजगृह की भव्यता और बाबा साहब की चारों ओर फैलती कीर्ति भी रमाताई की बिगड़ती तबियत में कोई सुधार न ला पायी। उलटे, वह पति की व्यस्तता और सुरक्षा के लिए बेहद चिंतित दिखी। कभी-कभी वे उन लोगों को डांट लगाती जो 'साहब' को उनके आराम के क्षणों में मिलने आते थे। रमाताई अपनी इस बीमारी की हालत में भी, डॉ. अम्बेडकर की सुख-सुविधाओं का पूरा ध्यान रखती थीं। उन्हें अपने स्वाथ्य की उतनी चिंता नहीं होती थी जितनी कि पति को घर में आराम पहुँचाने की ।
दूसरी ओर, डॉ. अम्बेडकर अपने कार्यों में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण रमाबाई और घर पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाते थे। एक दिन उनके पारिवारिक मित्र उपशाम गुरूजी से रमाताई ने अपना दुखड़ा कह सुनाया -'गुरूजी , मैं कई महीनों से बीमार हूँ। डॉ. साहब को मेरा हाल-चाल पूछने की फुर्सत नहीं है, वे हाई कोर्ट जाते समय केवल दरवाजे के पास खड़े होकर मेरे स्वास्थ्य के सम्बन्ध में पूछते हैं और वही से चले जाते हैं। क्या यही पति का कर्त्तव्य है ? पत्नी की भी कुछ आशाएं होती है। उनके ऐसे व्यवहार से मेरा मन बड़ा दुखी होता है। आप ही बताइएं, इस प्रकार मेरा स्वास्थ्य कैसे ठीक रह सकता है ?' उपशाम गुरूजी ने राजगृह की ऊपरी मंजिल पर अपने कमरे में अध्ययनरत बाबा साहब को जब यह बात बतलाई तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। पुस्तक से ध्यान हटाते हुए बाबा साहब ने कहा 'उपशाम, रमो के इलाज के लिए मैंने अच्छे डॉक्टरों और दवा की व्यवस्था की है। दवा आदि देने के लिए उनके पास उनका लड़का, मेरा भतीजा और उनका अपना भाई भी है। फिर भी वह चाहती है कि मैं उनके पास बैठा रहूँ । यह कैसे सम्भव है? मेरी पत्नी की बीमारी के अलावा इस देश के सात करोड़ अछूत हैं जो उनसे भी ज्यादा सदियों से बीमार हैं । वे अनाथ और असहाय हैं, उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है । मुझे रमा के साथ-साथ इन सात करोड़ अछूतों की भी चिंता है? रमा को इस बात का ध्यान होना चाहिए? यह कहते कहते बाबा साहब का गला भर आया था।
रमाताई काफी लम्बे समय तक बीमार रही और अंततः 27 मई 1935 को जब बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर कोर्ट से लौटे, तो रमाबाई ने इशारे से बाबा साहब को अपने पास बुलाया और हाथों में हाथ लेकर कहा कि देखो आप मुझे वचन दो कि मेरे निधन के बाद आप हताश नहीं होंगे, हमारे बच्चे तो जिन्दा नहीं रह सके, समाज ही अपना बच्चा है; मुझे वचन दो कि आप उन्हें ब्राह्मणी व्यवस्था से आज़ाद करेंगे, ऐसा कहकर माता रमाबाई ने डॉ. अम्बेडकर को अकेला छोड़ इस दुनिया से विदा हो गई। रमाताई की मृत्यु से डॉ. अम्बेडकर को गहरा आघात लगा । वे बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोये थे ।
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