प्रो. पी. लक्ष्मी नरसू
1. लेखक से मेरी भेट कभी नहीं हुई. डॉ. पट्टाभिसितारामैय्या, जो प्रो. नरसू के मित्र थे, से ही मुझे उनके बारे में जानकारी प्राप्त हुई. प्रो. पी लक्ष्मी नरसू डायनामिक्स के प्रतिष्ठित प्रोफ़ेसर थे. इसके अलावा वे एक बड़े समाज सुधारक थे. प्रो. नरसू ने जाति-पांति की प्रथा के विरुद्ध अपनी पूरी ताकत से संघर्ष किया. हिन्दू धर्म में इस कुप्रथा के फलस्वरूप जो अत्याचार होता था, उसके खिलाफ विद्रोह का झंडा खड़ा किया था.
वे बौद्ध धर्म के बड़े प्रशंसक थे और इसी विषय पर सप्ताह-दर-सप्ताह व्याख्यान दिया करते थे. अपने विद्द्यार्थियों में बड़े प्रिय थे. उनका व्यक्तिगत स्वाभिमान और राष्ट्राभिमान दोनों उच्च कोटि के थे.
पिछले कुछ समय से लोग बौद्ध धर्म के बारे में किसी अच्छे ग्रन्थ की जानकारी चाहते थे. उनकी इच्छा पूर्ति के लिए मुझे प्रो. नरसू के इस ग्रन्थ की सिफारिश करने में कुछ भी हिचकिचाहट नहीं है. मैं सोचता हूँ की अभी तक बौद्ध धर्म के सम्बन्ध में जितने भी ग्रन्थ लिखे गए हैं, उनमें यह ग्रन्थ सर्व श्रेष्ठ है('दी इसेन्स ऑफ़ बुद्धिज्म' के तृतीय संस्करण प्रकाशन: डॉ अम्बेडकर).
2. प्रो. नरसू मद्रास में डायनेमिक्स के जाने-माने विद्वान थे. आपके साथ ही सी. अयोध्यादास जी भी काम करते थे. प्रो. नरसू और सी. अयोध्यादास ने साउथ बुद्धिस्ट एसोसियन' की स्थापना की थी और इसके माध्यम से 1910 में भारत सरकार से बौद्धों की अलग से जनगणना कराई. उस समय 18000 बौद्ध मद्रास राज्य में थे.
3. मद्रास शहर में उस समय महाबोधि नाम की एक बौद्ध संस्था थी. उस संस्था के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर लक्ष्मी नरसू नायडू व सचिव सिंगारावेलू थे.
मद्रास में परिहार (पराया) अति शुद्र जाति के बहुत से लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार लिया था. इन नव बौद्धों के नेता पंडित अयोधीदास थे. इन लोगों ने रायपेट में एक घर किराये से ले लिया और उसमें बौद्ध आश्रम की स्थापना की थी. मैं उसमें पालि सुत्त कहा करता था और सिंगारावेलू उसका तमिल में अनुवाद करते थे.
प्रो. नरसू प्रत्येक शुक्रवार को सायं के समय बौद्ध आश्रम आते थे. आप महाविद्यालय के वाचनालय से कुछ पुस्तके मेरे वचन के लिए लाते थे. किसी विषय का तुलनात्मक अध्ययन किस प्रकार करना चाहिए, यह मैंने पहली बार प्रो. नरसू से सीखा था. प्रो. नरसू का व्यवहार बहुत ही अच्छा था. उनमें किसी भी प्रकार का बुरा व्यसन नहीं था. वे एक खुले दिल के व्यक्ति थे. मद्रास राज्य के समाज सुधारकों में उनकी गणना होती थी(धर्मानन्द कोसम्बी; आत्मचरित्र आणि चरित्र: जगन्नाथ सदाशिव सुखठणकर).
No comments:
Post a Comment