Saturday, February 11, 2012

झीनी-झीनी बिनी चदरिया

        सोचता हूँ, कुछ अपने बारे में लिखूं .लिखना मेरा शौक है. क्यों है, मैं नहीं जानता.मगर, लिखने का शौक मुझे बचपन से है.लिखना मुझे अच्छा लगता है. लगता है, लिखते रहूँ...लिखते रहूँ.मैंने पढ़ा है की जिस शख्स में जो कला होती है, प्रकृति वह उससे जल्दी ही छिनती है.सोचता हूँ, वह दिन आने के पहले मैं काफी कुछ लिख लूँ .अपने बारे में,जो कुछ देखता हूँ, उसके बारे में.पहले मैं डायरियों में लिखता था.बाद में रजिस्टर खुले. और अब लेपटॉप मेरे हाथ में है.बच्चें सब कम्पूटर वाले हैं,यह तो होना ही था.बच्चों को मैंने खासा पढ़ा-लिखा दिया है. वे अपने-अपने ज्वाब में लगे हैं.रिटायरमेंट के बाद मैं हूँ और मेरा लेपटॉप है.
      मेरे पिताजी का नाम मंदरु है.उनका जन्म सन 1918 में हुआ था. उनकी तीन बहने थी.मेरे पिताजी के पिताजी का नाम हाड़ू था.मेरे दादाजी के पास पर्याप्त खेती-बाड़ी थी.पिताजी 4 थी पास थे.मुझे लगता है,उस समय की 4 थी कक्षा आज के प्रायमरी के 5 वीं के बराबर हुआ करती थी. क्योंकि, जहाँ तक मैं जानता हूँ,उस ज़माने के लोग अधिकांशत: 4 थी तक ही पढ़े-लिखे थे.दूसरा कारण ये भी हो सकता है कि तब, गावं में 4 थी तक ही स्कूल हो.आजकल जैसे गावं-गावं में स्कूल है, वैसे तब कहाँ हुआ करते थे. 10-15 की. मी. के क्षेत्र में एकाध स्कूल होता था.अकेला पुत्र होने के कारण पिताजी काफी लाड-प्यार से पले थे.
    पिताजी बीडी के ठेकेदार थे.उन्होंने बीडी का कारखाना करीब 30-35 वर्ष चलाया.हमारे घर में यद्यपि खेती-बाड़ी काफी थी, मगर पिताजी,खेती के काम में शायद ही रहते थे.खेती-बाड़ी के कार्य के लिए मेरे फूफा आ जाया करते थे. कभी कलगावं(कटंगी)  वाले फूफा आते थे तो कभी सुकडी(मिरगपुर) वाले.हम दोनों भाई और माँ उनके साथ खेती-बाड़ी के कार्य में हाथ बटाते थे.पिताजी को बीडी-ठेकेदारी के काम से ही फुर्सत नहीं होती थी.वास्तव में, हमारे यहाँ जो बीडी-कारखाना था, उस में आस-पास के 4-5 गावं के बीडी कारीगर बीडी बनाते थे.अर्थात काफी बड़ा कारखाना था.
      मेरे रूटीन कार्य 'डिफाइन' थे.सबेरे उठकर गाय-बैल को जानवरों के कोठे से निकालकर बाहर आँगन में बांधना. कोठे और आँगन से लेकर घर के आस-पास की सफाई करना.यह मेरा रूटीन कार्य था.मुझे याद है,जाड़े के दिनों में, जब सिर पर गोबर और गाय-बैल के मूत्र से सना कचरा (जानवरों की जूठन) लेकर मैं लम्बी बाड़ी की बाऊंड्री में खुदे कुढ़े तक जाता था तब,सिर पर रखे डल्ले (टोकने) से झरता गोबर और मूत्र मेरे चेहरे और तन को भिगो जाता था. मैं अपनी बनियाइन को गोबर-मूत्र के दाग से बचाने के लिए, उसे पहले ही बदन से निकाल कर  रख देता था.पहले, इतने कपड़े मिलते जो कहाँ थे ?
    इस कार्य से फारिग होने के बाद खेत में जाना होता था. वहां सीजन के अनुसार अलग-अलग काम हुआ करते थे. धान-कटाई के समय,धान काटना,रोपा लगाने के समय, रोपा लगाना पड़ता था.और आफ सीजन में बैलों को गावं के तालाब/बोड़ी या नाले धो कर साफ-सफाई करना, जानवरों का पेट भरते तक चरा कर लाना आदि काम करने पड़ते थे. इसके बाद, घर आकर स्नान करते हुए तैयार होकर गावं या दूसरे गावं के स्कूल में जाना पड़ता था.प्रायमरी तक तो हमारे गावं में ही स्कूल था. मिडिल स्कूल मैंने अपने गावं से 4 की. मी. दूरी पर स्थित स्कूल चिखला-बांध से पास किया.इस सम्बन्ध में मुझे एक घटना याद आती है.
         यह मेरे ख्याल से 1964-65 में पड़ा अकाल का समय रहा होगा.हम दोनों भाई  हमारे गावं से 4-5 कि.मी. कि दूरी पर स्थित चिखला-बाँध के मिडिल स्कूल में पड़ते थे.मैं 7 वीं और बड़े भाई 8 वीं में पढ़ रहे थे.उस समय लगातार 2-3 साल तक अकाल पड़ा था.पिताजी ने हम दोनों भाइयों को स्कूल से बंद करा दिया था. शायद, वे सोचते थे की खेती-बाड़ी कर अच्छी फसल पैदा ही जाय और आफ सीजन में बीडी बना कर रोज-मर्रा का खर्च चलाया जाय.पिताजी के इस सोच के पीछे हमारे नजदीक  की रिश्तेदारी का एक परिवार था.
     हमारे गावं के पास की बस्ती दुधारा में मेरे मामा (फूफा) रहते थे.उनका नाम ऊंदरू था.उनके 6 बच्चें थे. पांच भाई और एक बहन.वे बहुत ही गरीब थे. हमारे यहाँ जब बीडी का कारखाना चलता था तब,मामा सपरिवार हमारे घर में ही एक खोली(कमरे) में रहते थे.उनके बच्चें स्कूल न जाकर घर में ही सब बीडी बनाते थे. सभी लोगों के बीडी बनाने से बीडी काफी मात्र में बन जाती थी और इससे उनका बढ़िया गुजर-बसर होता था. बीडी बनाने से उनके पास इतना पैसा आता था की वे उस में से काफी कुछ बचा भी लेते थे.बाद में उन लोगों ने अपने गावं दुधारा जा कर खेती-बाड़ी का काम फिर से शुरू कर दिया था.पांच भाइयों का सम ऐसा था की उनके पास रूपया आते गया.आने वाला समय उनके अनुकूल बनते गया.धीरे-धीरे वे दुधारा के एक जमे हुए समृध्द परिवार के रूप में गिने जाने लगे.मुझे याद है, जब मेरे फूफा भाई हमारे घर आते थे तब,माँ और पिताजी उनका खास मेहमानवाजी करते थे. वे सभी भाई और मेरे मामा (फूफा) भी मेरे पिताजी को विशेष मानते थे.
      ऊंदरू मामा का परिवार पिताजी के आँखों के सामने उदाहरण था.शिक्षा की महत्ता पिताजी को ज्ञात नहीं थी, ऐसा नहीं है.क्योंकि, मेरी बड़ी बहन का विवाह जिससे हुआ था, वे गवर्मेंट ज्वाब में थे.जीजाजी खाद्य विभाग में सहायक खाद्य निरीक्षक थे.और गवर्मेंट ज्वाब क्या होती है, हम जानते थे.मगर, मुझे लगता है की लगातार ३ साल तक पड़े अकाल ने उन्हें मजबूर कर दिया था की जो कुछ घर में खेती से अनाज आता है, उसे बचाए रखा जाय.क्योंकि, अगले साल भी अच्छी वर्षा हो ही, यह कोई निश्चित नहीं था.
        खैर,हम दोनों भाई स्कूल से बंद हो गए थे.स्कूल न जाना हम दोनों भाइयों के लिए बेहद तकलीफदेह था. मगर हम कर भी क्या सकते थे ? हुआ ये की इसी बीच मेरी बूढी दादी(पिताजी की माँ) का देहांत हो गया.दादी के अन्तिम संस्कार में सब रिश्तेदार जमा हुए. जब अधिकांश रिश्तेदार चले गए तब,शेष बचे रिश्तेदारों के बीच घरेलु चर्चा में हम दोनों भाइयों ने अपना रोना रोया की हमारा स्कूल छुट गया है. ऊंदरू मामा ने इस बात का नोटिश लिया. मामा ने पिताजी को समझाया की ठेकेदार, (पिताजी को लम्बे समय तक बीडी-ठेकेदारी करने से लोग इसी नाम से पुकारते थे) आपको इन्हें स्कूल भेजना चाहिए.पिताजी, ऊंदरू मामा की बात को काऊंटर नहीं कर सके.उन्हें हामी भरनी पड़ी. मगर उन्होंने एक शर्त रखी. उन्होंने कहा की अभी वार्षिक परीक्षा को तीन महीने हैं.दोनों भाई कल से स्कूल जाय और पढ़ाई करे.वार्षिक परीक्षा में जो पास हो जाय, वह आगे अपनी पढ़ाई जारी  रखे और जो पास न हो वह घर में रहे.आखिर,घर में भी तो काम करने वाला कोई हो ? पिताजी की बात सुन कर सब चुप हो गए.
        अगले दिन से हम दोनों भाई स्कूल जाने लगे.निश्चित रूप से बड़े भाई पढने में मुझ से तेज थे. क्योंकि, मुझे याद है,घर में मैं उनकी कापियां देख कर कक्षा में न समझ में आने वाले प्रश्न हल करता था. हम दोनों एक क्लास आगे-पीछे थे.मगर, वार्षिक परीक्षा में मैं पास हो गया और बड़े भाई पास न हो सके. मुझे यह रहस्य आज तक समझ नहीं आया.
       बात बीडी के कारखाने की चल रही थी. करीब 8-9 बजे मुझे घर-घर जाकर  बीडी-कारीगरों को बताना पड़ता था की वे तैयार बीडी कारखाने में पहुंचाए.फिर,यह बताने जाना पड़ता था की बीडी के पत्ते लेने वे कारखाना आये.इसके बाद तम्बाखू  लेने आये.यह काम का मेरा अनवरत सिलसिला था. कई बार मुझे पिताजी से पिटाई भी पड़ी थी. कारीगर अक्सर तैयार बीडी पहुँचाने में या तम्बाखू लेने के लिए आने में देरी करते थे. पिताजी के पूछने पर वे कह देते थे की कोई बताने ही नहीं आया.पिताजी बड़े सख्त स्वभाव के थे.कारीगर उनके गुस्से से कांपते थे.वे बीडी चैक करने के दौरान बीडी के कट्टों से भरी टोकरी सम्बंधित कारीगर के मुंह पर फैंक देते थे.तब, कच्ची बीडी को पकाने (पक्की बीडी बनाने) का स्टॉक नाका डोंगरी हुआ करता था.बीडी ठेकेदार कारीगरों से बीडी लेकर हारे (बड़ा-सा टोकरा) में उस स्टॉक में पहुंचाते थे.बताते हैं की बीडी स्टॉक में बीडी गिनने वाला मुंशी, बीडी-ठेकेदारों की आई हुई बीडी चैक करने के दौरान हारे-के हारे फैक देते थे.इसलिए बीडी-ठेकेदार,कारीगरों से सख्ती बरतते थे.
      उस क्षेत्र में मेरे पिताजी और 15-20 की.मी.के दूरी पर स्थित मानेगावं(कटंगी) के लक्षमण ठेकेदार माने हुए ठेकेदार जाने जाते थे.बाद में फिर कुछ और बीडी-ठेकेदार अपने काम से जाना जाने लगे. इन में किन्हीं(भोरगढ़) के गिरधारी बोरकर खास थे. वे मेरे मामा(फूफा) थे. मेरी एक बुआ उन्हें ब्याही गई थी. काफी वर्ष बीडी-कारखाना चलाने के बाद फिर पिताजी ने इस धंधे को तिलांजलि दे दी.वे लम्बे समय से यह धंधा करने से उकता गए थे.
          गिरधारी मामा हम भाई-बहनों को बहुत चाहते थे. उनकी कोई संतान नहीं थी.मेरी फुआ का नाम शांति था.उसे बाद में दमा कि बीमारी हो गई थी.हम अक्सर उनके यहाँ (किन्ही)जाते थे.वे वैद्य भी थे.सामाजिक क्षेत्र में उनका बड़ा योगदान था.दूर-दूर के लोग उनको जानते थे.उनके एक भतीजे थे. भतीजे का नाम लालदास बोरकर था. लालदास भी बीडी के ठेकेदार थे. सामाजिक क्षेत्र के कोई भी कार्य वे मिल-जुल कर करते थे.
            बीडी-कारीगरों से सम्बंधित एक दिलचस्प बात माँ ने मुझे बताया था. हमारे समाज में बच्चों के नाम कुछ इस तरह से रखे जाते थे-राम्या,सोम्या, हाड्या, कड्या,चमरया,जुगारया,धवन्या,होकट्या,जन्या,हगरया आदि.इस तरह के नाम रखने के पीछे लाजिक ये था की सवर्ण हिन्दू , हमारे लोगों को इस तरह उतार कर पुकारा करते थे.अगर किसी का नाम सुधड़ होता तब, हमारे लोगों को पीता जाता था. यहाँ तक की हत्या कर दी जाती थी. यह सदियों से चला आ रहा था.लिहाजा, हमारे समाज के लोगों ने बाद में उसी तरह नाम रखना शुरू कर दिया था.
          बीडी-कारखाने में पिताजी को सब कारीगरों के नाम लिखना पड़ता था.ये नाम बीडी कम्पनी के रिकार्ड में भी दर्ज होते थे. पिताजी को ये नाम अच्छे नहीं लगते थे.तब, पिताजी ने कारीगरों से पूछा की अगर उनके नाम वे सुधारकर लिखे या पुराने नामों से मिलते-जुलते अच्छे नाम लिखे तो उनको आपत्ति तो नहीं होगी ? कारीगर जो कुछ होशियार थे, उनको ठेकेदार का यह प्रयास अच्छा लगा. किसी ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं की. हाँ, ये जरुर कहा की ठेकेदार, अगर हिन्दू आपत्ति करे तो ? इस पर पिताजी ने कहा की वह उनको समझाने की कोशिश करेंगे.बहरहाल, पिताजी ने सम्बन्धित कारीगर से पूछ कर उनके सुधड़ नाम रजिस्टर में दर्ज किये.माँ की बात सुन कर मुझे बीरसिंहपुर पाली में 'परिवर्तन मिशन स्कूल' चलाने  के दौरान वहां के मजदूरों के बच्चों को लेकर कुछ इसी तरह किया गया काम याद आया.अनजाने में ही कितना सामजस्य था, पिताजी और मेरे द्वारा किये गए कार्य में.
         मुझे ध्यान है,हमारे घर में एक लोटा हुआ करता था जिस पर ' मन्दरया' लिखा था. यद्यपि मांज-मांज कर लोटा और नाम काफी घिस गया था परन्तु, फिर भी नाम पढ़ा जा सकता था. हम भाई-बहन अक्सर उस लोटे को और उस पर खुदे हुए नाम को पढ़ हंसी-मजाक करते थे.फिर भी, यदा-कदा गावं के किसी ऊंची जाति के बुढऊं से पिताजी को इसी नाम से बुलाते सूना जा सकता था.यद्यपि, अधिकांश लोग पिताजी को 'ठेकेदार' के नाम से ही पुकारते थे.
        बीडी-ठेकेदारी के साथ पिताजी समाज के लिए भी उतने ही सजग और सतर्क थे.बीडी-ठेकेदार होने के कारण गावं का पटेल, समाज से सम्बन्धित किसी मुद्दे पर पिताजी को खास तरजीह देता था.हमारे समाज के आदमी से सम्बन्धित किसी विवाद पर वह  हवालदार से पिताजी को अपने बाड़े में बुलाता था.
         तब, गावं में तीन-चार लोग ऐसे थे जिनका बड़ा दबदबा और सम्मान था.एक तो मेरे पिताजी थे.पिताजी को लोग  'ठेकेदार' के नाम से ही पुकारते थे.दूसरे थे-नत्थूलाल चौधरी. आप वैद्य थे.हम इन्हें 'डाक्टर काकाजी' कह कर पुकारते थे.आप जाति के पंवार थे.आप 4-5 भाई थे. डाक्टर काकाजी के पिताजी भी वैद्य थे. वे घर से सम्पन थे. एक तीसरे 'टेलर काकाजी' थे. आप भी जाति के पंवार हैं. हमारे गावं में पंवार जाति के लोग काफी है. वे सभी खेती-बाड़ी से मजबूत हैं.टेलर काकाजी ने लम्बे समय तक कपड़े सिलने का काम किया है.टेलर काकाजी कीर्तन करते थे.वे रामानंदी पंथ के थे. उनके गुरु का नाम तुलसीनाथ महाराज था.टेलर काकाजी काफी ऊंचा सुनते थे.एक और 'सरपंच काकाजी' हैं. आपका नाम रूपचंद परते हैं. आप गोंड जाति के हैं.आप लम्बे अरसे तक गावं के सरपंच रहे हैं शायद, इसीलिए सरपंच काकाजी नाम जुबान के बस गया. हमारे गावं में गोंड जाति के लोग भी काफी हैं. मगर,सरपंच काकाजी को छोड़ कर बाकी सब दो जून की रोटी वाले है.गावं में पंवार जाति के लोग खेती-बाड़ी का काम करते हैं जबकि,गोंड जाति के अधिकांश लोग मजदूरी पर निर्भर रहते हैं.
       डाक्टर काकाजी, टेलर काकाजी और पिताजी स्कूल के सहपाठी हैं.इनकी दोस्ती घनी थी. गावं या पर-गावं के किसी मसले पर ये तिकड़ी की सोच मायने रखती थी.हमारे घर में अक्सर इनकी बैठके होती थी. माँ को कभी-कभी रात-रात भर इनके लिए चाय बनानी पड़ती थी.
        माँ बिलकुल पढ़ी-लिखी नहीं थी.मगर बीडी-ठेकेदारी का वह सारा हिसाब रखती थी.मजदूरों का सारा पैसा माँ के संदूक में होता था.वह नोटों को गिन-गिन कर रखती थी और मांगने पर पिताजी को उतनी रकम देती थी.बीडी-कारखाना और कपडे की दूकान के अलावा पिताजी कोई काम नहीं करते थे या यों कहे, उन्हें फुरसत नहीं होती थी.खेती-बाड़ी का सारा काम माँ मजदूरों के हाथ से कराती थी.
           पिताजी को मैंने काफी सख्त देखा था.वह तेज मिजाज के थे.पिताजी जब बीडी-कारखाने से उठते थे तब कुए के पास स्नान के लिए गुन-गुना गरम पानी होना आवश्यक था. स्नान के पत्थर के पास खूंटी में धोती माँ पहले ही ले जाकर रख देती थी.खाना खाने के लिए बैठने का आड्नी-पाटा ( भोजन की थाली रखने के लिए लोहे के तीन पैर का छोटा-सा स्टूल और लकड़ी का पाटा) तैयार होना आवश्यक था. भोजन की थाली में जरा भी कुछ कम हुआ की पिताजी पूरी थाली फैंक देते थे.
         बरसात में माँ को दूध पिलाने के लिए दिन में दो बार-तीन बार घर आना पड़ता था.पहले से खेत में गए घर के सदस्यों और मजदूरों के लिए माँ सिदोरी (खाना) बना कर लाती थी. सिदोरी लाने में जरा भी देरी हुई की पिताजी तुतारी (बैलों को हांकने/मारने के लिए लम्बी छड़ी)लेकर धुरे (मेंढ़) पर खड़े हो जाते थे.
      हम बच्चों के प्रति भी पिताजी काफी सख्त थे.किसी बात पर गुस्सा होकर हम लोगों को पिटाई पड़ती तब माँ या दादी-माँ बीच में आ जाती थी.जब कभी हम को पिताजी मारते या डाँटते तब घर में सन्नाटा छ जाता था.मुझे याद है, बचपन में मुझे संदूक के अन्दर रखे थे.मैं भी अन्य भाई-बहनों से जरा ज्यादा ही उपद्रवी था.कुछ बातें मेरे अन्दर अलग से ही थी.पिताजी मुझे 'बह्या' (झक्की ) कह कर पुकारते थे.निश्चित रूप में मुझ में इस तरह के गुण थे.माँ बतलाती थी की मेरे गर्भस्थ होने के पहले उसने कुल-देवता से आशीर्वाद माँगा था.क्योंकि, मेरे बड़े भाई, जो तीन बहनों के बाद हुए थे, काफी बीमार रहते थे.
             हमारे यहाँ कपडे का बड़ा दूकान होता था. पिताजी कपड़ों की बड़ी-बड़ी गांठे बालाघाट के किसी मारवाड़ी के दूकान से लाते थे.फिर उन्हें दूकान में रखा जाता था.पिताजी तब दूकान में बैठ कर गज से नाप-नाप कर कपड़ा ग्राहकों को देते थे.बड़े साहब (मारवती उके) के साथ बाद में पिताजी ने किराने का काफी बड़ा दूकान लगाया था. यह दूकान बड़े साहब के घर में चलता था.शायद, हमारे घर में जगह की कमी थी. क्योंकि, बीडी के कारखाने के लिए ही काफी जगह एंगेज होती थी.कपडे का दूकान तो हमारे घर काफी साल रहा मगर मुझे लगता है, किराने का दुकान 3-4 साल से ज्यादा नहीं चल पाया.
      जैसे की मैं बतला रहा था, मेरे जीजाजी एक अच्छी सरकारी नौकरी में थे. सहायक खाद्य-निरीक्षक को पेमेंट के अलावा खासी इनकम होती है.खाद्य-दुकाने और धान पिसने की मिलें चैक करना उनके अधिकार क्षेत्र में होता है.खाद्य-दुकानों में और राईस मीलों में कई तरह के रिकार्ड रखने पड़ते हैं. सरकारी नियम-कायदें इस तरह होते हैं की कोई चाहने पर भी हिसाब-किताब ठीक-ठाक नहीं रख सकता.जाहिर है,इन राईस मिल मालिकों और दुकानदारों को चेकिंग में आये सरकारी अफसरों को मेनेज करना होता है.
        मिडिल स्कूल पास करने के बाद मेरी बड़ी बहन ने मुझे अपने पास बुला लिया. तब, जीजाजी बालाघाट में पदस्थ थे. मैंने बालाघाट के गवर्नमेंट मल्टी-परपज हायर सेकेंडरी स्कूल में एडमिशन ले लिया. 9th और 10th मैंने यहीं से पास किया. पढ़ाई में मैं ठीक था. 6th क्लास से ही मेरी पोसिशन कक्षा में 1st या 2nd होती थी.मगर,गावं से बालाघाट जैसे जिला हेड-क्वार्टर में स्थित स्कूल में मुझे मेरी स्थिति कुछ ठीक नहीं लगी. तो भी क्लास में अंगुली पर गिने जाने वाले लडकों में मेरी पोजीशन रहती थी.एक जानकी नाम का लड़का था.उससे मेरा तगड़ा कम्पीटीशन था.
       इसी बीच, बालाघाट पालेटेक्निक से एक लेक्चरार ने हमारे स्कूल में आकर टेक्नीकल इंजीनियरिंग की आने वाले दिनों में महत्ता पर लेक्चर दिया. स्कूल के हमारे लेक्चरार और प्रिंसिपल साहब बड़े प्रभावित हुए.उन्होंने भी इसी शहर में स्थित पालेटेक्निक में एडमिशन लेने के लिए हम लोगों को उत्साहित किया.उन्होंने बतलाया की अगर कोई 10th के बाद ही एडमिशन लेना चाहता है तो उन्हें एडमिशन मिल जाएगा.मुझे भी कई साथियों ने पाले टेक्निक ज्वाइन करने की सलाह दी. मुझे बड़ा विचित्र लगता था जब मैं देखता था की पालेटेक्निक जाने वाले,लकड़ी का एक बड़ा-सा बोर्ड हाथ में टाँगे कालेज जाया करते थे.
        खैर, मैंने 10th के बाद पालेटेक्निक ज्वाइन कर लिया.पिताजी को पालेटेक्निक का आइडिया नहीं था.तब, पढने वाले अधिकांश बच्चें बी.ए./एम्.ए. करते थे.पिताजी पटवारी, मास्टर, ग्राम-सेवक जानते थे.पालेटेक्निक  कर मैं क्या बनूंगा, उन्हें इसका अंदाजा नहीं था.
       पालेटेक्निक में इंग्लिश मीडियम में पढ़ाई होती है. गावं के माहौल में प्रायमरी और मिडिल तक पढ़ाई करने तथा 10th पास होने के कारण इंग्लिश मेरी कमजोर थी.पालेटेक्निक के लेक्चरार भी इस बात को जानते थे.लिहाजा,दिक्कत जो होना था, हुई. मगर, किसी तरह का ऋणात्मक प्रभाव इसका मेरे ऊपर नहीं हुआ.एक-दो लेक्चरार, इंग्लिश में लेक्चर देते थे मगर, बाकि, हिंदी का भी उपयोग करते थे.एक सब्जेक्ट 'वर्कशॉप  टेक्नोलोजी' मुझे पल्ले ही नहीं पड़ा.वह थ्योरीटिकल सब्जेक्ट था और तिस पर मेकेनिकल.मेरा सब्जेक्ट 'इलेक्ट्रिकल' था.शुरू में मैंने 'मेकेनिकल' ही लिया था.  प्रथम-वर्ष में 'मेकेनिकल' वालों के 'वर्कशॉप' का ज्वाब कुछ अजीब होता है.एक लोहे के टुकडे को 'वाइस' में फंसा कर उसकी चारों सर्फेस मिलाना होता है.घंटों और दिनों के इस बोरियत भरे ज्वाब ने 'मेकेनिकल' सब्जेक्ट के प्रति मेरे इंटरेस्ट को हिला कर रख दिया.मैंने तुरंत दरख्वास्त की और अपना सब्जेक्ट बदल लिया.शुरू में ऐसा आप कर सकते हैं मगर, बाद में नहीं.
       पालेटेक्निक में मैं 'एवरेज' रहा.वास्तव में,'इंग्लिश मीडियम' मेरी परफार्मेंस को बरकरार रखने में काफी बाधक साबित हुआ.बेहतर है, बच्चों को शुरू से ही 'इंग्लिश मीडियम' में ही पढाया जाये.
      पालेटेक्निक में मैं जिस कमरे में रह कर पढ़ाई करता था, उसके ऊपर के कमरे में मकान मालिक की लड़की के साथ अन्य दो लड़कियाँ रहती थी.मकान मालिक की लड़की बेहद खुबसूरत थी. वह गावं के पटेल/साहूकार की एकमात्र संतान थी.वह काफी सुख-सुविधा में पली-बढ़ी थी.जैसे की इस उम्र में होता है, मैं उसकी तरफ आकर्षित हुआ था.मगर, वह मेरी और आकर्षित हुई हो, ऐसा नहीं लगा.इसी बीच, बाकि दो लड़कियों में से एक ने मेरा ध्यान खिंचा. वह सांवली मगर, सामान्य थी.वह प्राय: गम-सुम रहा करती थी.वह किसी बात पर रोती तो उसके आँखों से खून बहने लगता था.मुझे उसका गम-सुम रहना, उसकी आँखों से खून निकलना अजीब-सी कसमसाहट पैदा करता था.
      पालेटेक्निक के अन्तिम वर्ष की परीक्षा देने के बाद मैं अपने गावं आ गया.मेरे दो सब्जेक्ट रुके थे. एक था 'इलेक्ट्रिकल ड्राइंग' और दूसरा सब्जेक्ट वही, वर्कशॉप टेकनोलोजी'.यह सन 1974-75 का दौर था.सन 1974-75
में भी भारी अकाल पड़ा था.मैं परीक्षा की फ़ीस जमा नहीं कर पा रहा था.काफी दिन घर में ही रहा मगर, मेरा मन नहीं लग रहा था.इसी बीच गोंदिया से 'टेलीफोन आपरेटर' की मैंने एक साल की ट्रेनिंग ली थी.अंतत: 1976-77 में फ़ीस जमा कर परीक्षा दिया और पास हो गया. उस समय पालेटेक्निक से ही 'म.प्र. इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड' ने उन  विद्यार्थियों के नाम मंगाए थे जो अन्तिम वर्ष की परीक्षा में सम्मिलित हुए थे.मंडल को विद्युत् पैदा करने के लिए पावर-हाऊस में तकनिकी ज्ञान रखने वाले डिग्री या डिप्लोमाधारी लड़कों की जरुरत थी.उस समय, डिग्री/डिप्लोमाधारी बच्चें मिलते कहाँ थे ? गावं-देहात के लोगों को उसका शऊर ही नहीं था.
           जन. 1977 में मुझे 'म.प्र.इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड' से इंटरव्यू का  काल-लेटर मिला.पालेटेक्निक में नागवंशी सर हुआ करते थे. वे मुझे बहुत चाहते थे, यद्यपि,वे सिविल ट्रेड के लेक्चरार थे.मुझे लगता है, पालेटेक्निक में  करेसपंड़ेंश(पत्र-व्यवहार) का कार्य उनके पास होगा. नागवंशी सर ने मुझे घर पर बुलाया.नास्ता कराने के बाद उन्होंने विस्तार से बतलाया कि जबलपुर जाने के लिए ब्राड-गेज ट्रेन में बैठना होगा. ब्राड-गेज ट्रेन काफी स्पीड में चलती है. यह कि मुझे दरवाजे के पास नहीं बैठना है.मिसेज नागवंशी ने भी मुझे बड़ी बहन की तरह काफी हिदायतें दी.आज भी मुझे उनका चेहरा और प्यार याद आता है.
         फर. 77 में मुझे बालको (भारत अल्मुनियम कंपनी) से भी काल-लेटर मिला.मार्च 77 के अन्तिम सप्ताह में मुझे दोनों जगह से डयूटी ज्वाइन करने का निमंत्रण मिला.मुझे समझ नहीं आ रहा था कि किसे छोडू और किसे पकडूँ.मैंने पिताजी से राय ली.पिताजी ने पूछा- पहले कौन-सा लेटर मिला? उनका कहना था कि जहाँ से पहले बुलावा आया है वहां जाना ठीक होगा. पिताजी कि बात मानते हुए मैंने 7 अप्रेल 1977 को म.प्र.विद्युत् मंडल की नौकरी ज्वाइन की.
         

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