दलित समाज के लोग, यूँ तो बाबा साहेब के अनुयायी होने का दम्भ भरते हैं. डा. आंबेडकर के जाति-विहीन समाज को बनाने की वकालत करते हैं.किन्तु, ये ही लोग न सिर्फ जातिगत नामों को धारण करते हैं वरन, बच्चों की शादी भी अपने ही जाति में करना पसंद करते हैं ?
जाति-विहीन समाज की स्थापना, नि:संदेह हमारा लक्ष्य होना चाहिए. क्योकि, जाति-विहीन समाज से ही प्रबुध्द भारत का निर्माण हो सकता है. मगर, 'दलित वायस' के सम्पादक वी.टी. राज शेखर कुछ अलग ही विचार रखते हैं. आपके अनुसार जाति, वास्तव में वह नहीं है, जो ब्राह्मण कहता है. बल्कि, 'जाति' आपकी इथनिक आईडेनटीटी ( ethnic identity ) है . यह आईडेनटीटी बतलाती है कि आप किस इथनिक ग्रुप को बिलोंग ( Belong ) करते हैं.आप किस संस्कृति और कल्चर को बिलोंग करते हैं. आपका टोटेम क्या है.आपके वंश और कुल-देवता क्या है. आपके सामाजिक और पारिवारिक विश्वास का आधार क्या है ?
जाति, जिस रूप में हम आप देखते हैं. यह थोपी हुई घृणा है. इस घृणा को ब्राह्मणों ने 'बाँटो और राज करो' की नीयत से उन लोगों पर थोपा जिन्होंने अन्तिम दम तक उनका विरोध किया.यह बुध्द के सामाजिक क्रांति पर ब्राह्मणों की प्रति-क्रांति है.
जाति, मूल रूप में वह नहीं है, जो आज दिखाई देती है.जातियों में जो उंच-नीच की घृणा दिखाई देती है, ब्राह्मणों ने बड़ी सूझ-बुझ और चालाकी से अपने विरोधियों पर थोपा. ताकि, दलित जाति की आने वाली पीढियां भी उनका विरोध करने का फिर कभी सोच न कर सके. वे हमेशा-हमेशा आपस में ही बंटे रहे. निश्चित रूप में उंच-नीच की जातिगत मानसिकता दलितों को न सिर्फ आपस में बांटती है बल्कि, उन्हें एक होने के लिए रोकती भी है.
नि:संदेह, डा.आंबेडकर जाति, जिस घृणा के रूप में आज वह विदमान है, को ख़त्म करने की बात करते हैं. क्योकि, सामाजिक एकीकरण में यह सबसे बड़ी बाधा है.उंच-नीच की जातीय-मानसिकता के चलते लोगों को, दलित समाज के रूप में एक करना असम्भव है और बिना एकता के दलित समाज के राजनैतिक अधिकारों की प्राप्ति सम्भव नहीं है और यही कारण है कि बाबा साहेब डा. आंबेडकर ने बौध्द-धर्मान्तरण किया.
निश्चित रूप में डा. आंबेडकर के बौध्द-धर्मान्तरण के पीछे दलितों की एकता ही लक्ष्य था. समाज को बांध कर रखना उनका हेतु था ? मगर, डा. आंबेडकर के अनुयायियों ने क्या उनका अनुशरण किया ? दलित समाज के महार जातियों ने बड़ी संख्या में डा. आंबेडकर का अनुशरण किया. शुरू-शुरू में दलित समाज की चमार जातियों ने भी बौध्द-धर्मान्तरण किया. मगर, बाद के आने वाले दिनों में ये सिलसिला थम गया.दलित समाज में महार और चमार जातियों की संख्या काफी है.कई राज्यों में इनकी संख्या इतनी है कि इन जातियों को साथ लिए बगैर सत्ता की कुर्सी पर पहुंचना मुश्किल है. शायद, चमार जाति के लोगों ने सी एंड वाच ( see and watch ) की नीति अपनाई.
कांसीराम साहब ने चमारों की इस नीति पर गौर किया. तब उन्होंने 'राजनीती सब तालों की चाबी है, के सूत्र पर चलने का निश्चय किया. बाबा साहेब डा. आंबेडकर का रास्ता उनके सामने था. मगर, लोग झिझक रहे थे.उन्होंने बड़ी सूझ-बुझ से तब, समाज को राजनैतिक रूप से जोड़ने का फैसला लिया.आज, उ.प्र. आपके सामने है. चमार जाति के लोग हाथ की मुट्ठी बंधी अँगुलियों के तरह बहनजी के साथ है.
मान्य. कांसीराम के इस एक्सपेरिमेंट ( experiment ) का खुलासा, दलित वायस के सम्पादक वी.टी.राज शेखर जाति को 'कांटे से कांटा' निकालने में उपयोग किये जाने बात काफी पहले ही कर चुके थे. वी.टी.राज शेखर की इस थ्योरी के अनुसार, अपना वर्चस्व कायम करने के उद्देश्य से जिस तरह ब्राह्मणों ने समाज को ऊंची-नीच की जातियों में बांटा था, ठीक उसी तरह निचली जातियों को, जो इसके परिणाम की भुक्तभोगी है, अपना हक़ और हकूक हासिल करने के लिए अब इसी 'जाति' को एक बांडिंग( Bonding ) की तरह उपयोग में लाना चाहिए.
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