जब कोई घटना घटती है और सरकार की जाँच एजेंसियां सवालों के घेरे में होती है तब, जनता को शांत करने सरकारे अक्सर आयोग गठित कर देती है.आयोग छान-बिन करता है और सरकार को रिपोर्ट देता है.अगर रिपोर्ट सरकार के अनुकूल नहीं हुई तो सरकार, रिपोर्ट को मानने से इंकार कर देती है. और तब वह दूसरा जाँच आयोग बैठाल देती है.ये सिलसिला चलते रहता है.इस बीच सरकारे भी बदल जाती है.अगली सरकार फिर आयोग बैठाल देती है.
आयोग कई तरह के होते हैं.कुछ आयोग तत्कालिक होते हैं. कुछ आयोग पर्मेंट नेचर के होते हैं, जैसे मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग,पिछड़ा वर्ग आयोग,सूचना आयोग,सफाई कामगार आयोग,बाल अधिकार संरक्षण आयोग,किसान आयोग वगैरा,वगैरा.सरकार, जब जिसकी आवश्यकता समझती है, आयोग बना देती है. आयोग काम करते हैं. कैसे काम करते हैं ? यह एक अलग विषय है.
अभी पिछले दिनों, दैनिक भाष्कर में इसी की सुध लेता एक बड़ा मजेदार लेख 'प्रदेश की इस संस्थाओं की सुध कौन लेगा' प्रकाशित हुआ है. आईये देखे, लेख में क्या कुछ लिखा है.
सोमदत्त शास्त्री भोपाल से लिखते हैं, प्रदेश में मानवाधिकार आयोग,बाल संरक्षण आयोग, पिछड़ा वर्ग आयोग में अरसे से अध्यक्ष नहीं है.सूचना आयोग में न पर्याप्त स्टाफ है न सूचना आयुक्तों की नियुक्ति हो पाई है.सफाई कामगार आयोग बगैर सचिव के काम कर रहा है.यही हाल बाल संरक्षण आयोग का है.कई आयोगों में सदस्यों के पद खाली हैं.जाहिर है,मुख्यमंत्री संवैधानिक संस्थाओं का हितैषी होने का चाहे जितना दंभ भरे,ऐसी अधिकांश संस्थाएं सरकारी लापरवाही का शिकार हैं.
प्रदेश के बीस से अधिक आयोग में से अधिकांश आयोग दिखाने का दांत बन कर रह गए हैं.इनमे लोकायुक्त को भी जोड़ ले तब बेबसी की बड़ी निराशाजनक तस्वीर उभरती है.राज्य में सूचना आयोग को गठित हुए छः साल हो चुके हैं लेकिन न तो वहां पर्याप्त संख्यां में सूचना आयुक्त पदस्थ हुए हैं, न पूरा स्टाफ है.मुख्य सूचना आयुक्त स्टाफ मांगते-मांगते थक चुके हैं.राज्य महिला आयोग पर गौर फरमाने के लिए राज्य सरकार के पास फुर्सत नहीं है.म.प्र. राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग में न अध्यक्ष है, न सदस्य . केवल सचिव फुर्सत के लम्हे गुजारते नजर आते हैं.आयोग के पास कोइ काम भी नहीं है.निर्धन वर्ग कल्याण आयोग के अध्यक्ष उधार के दफ्तर में कार्यभार ग्रहण करने के बाद से वे बैठने की जगह तलाश रहे हैं.
एक है किसान आयोग.किसानों की हालत सुधारने इसे 2006 में गठित किया गया था जिसे दिस.2010 में बंद कर दिया गया.इस पुरे चार साल में किसानो की हालत तो नहीं सुधरी मगर हाँ, आयोग पर कुल 1 करोड़ 30 लाख रूपये खर्च हुए.पुरे चार साल आयोग के अध्यक्ष अधिकारों, अधिकारियों और स्टाफ का रोना रोते रहे. आखिरी दिनों में उन्होंने घर से ही दफ्तर चलाना शुरू कर दिया था.अप्रैल 11 में मुख्यमंत्री ने फिर इसे जीवित कर 'कृषि विकास परिषद् ' गठित करने की बात कही.इस पर किसान संघ के अध्यक्ष का कहना था कि आयोग बने तो अधिकार सम्पन्न हो वर्ना आयोग बनाना निरर्थक है.
इसी तरह का दूसरा मनवाधिकार आयोग है. सरकार ने इस आयोग का पूर्ण कालिक अध्यक्ष बनाना उचित नहीं समझा.पिछले दो सालों से इसका कामकाज कार्यकारी अध्यक्ष देख रहे हैं.मनवाधिकार आयोग अनुशंसाए तो करता है मगर, सरकार माने तब न ? सरकार के पास आयोग की अनुशंसाए मानने या न मानने का अधिकार है.आयोग ऐसी स्थिति में उन मामलों को विधिक सेवा प्राधिकरण को भेज देता है.वहां 90 मामले भेजे जा चुके हैं और दस गुना मामले सरकारी दया के इंतजार में हैं.
एक और आयोग है,बाल अधिकार संरक्षण आयोग.यह पिछले चार महीने से अध्यक्ष की राह निहार रहा है.सचिव पद की हालत यह है कि कोई अफसर पूर्णकालिक रूप से आना नहीं चाहता. जो भी आता है, अतिरिक्त प्रभार लेकर आता है.जुगाड़ लगाता है और चलता बनता है.पिछले तीन महीनों में ही तीन प्रभारी सचिवों ने यह दफ्तर देख लिया.
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