"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जी समग्गा सन्निपतन्ति (आनंद! क्या तूने सुना है कि वज्जी सम्मति के लिए बराबर बैठक करते हैं )? "
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)। "
"यावकीव च आनंद, वज्जी समग्गा सन्निपतन्ति, वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद! जब तक वज्जी सम्मति के लिए निरंतर बैठक करते रहेंगे, तब तक उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)।"
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जी करणीयानि करोन्ति (और आनंद! क्या तूने सुना है कि वज्जी जो करणीय है, करते हैं )?"
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)।"
"यावकीव च आनंद, वज्जी करणीयानि करोन्ति, वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद! जब तक वज्जी जो करणीय है, करते रहेंगे, तब तक उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)।"
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जी अपञ्ञतं न पञ्ञपेन्ति, पञ्ञतं न समुच्छिन्दन्ति(और आनंद! क्या तूने सुना है कि वज्जी अप्रज्ञप्त को प्रज्ञप्त नहीं करते, प्रज्ञप्त का उच्छेद नहीं करते) ?"
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)। "
"यावकीव च आनंद! वज्जी अपञ्ञतं न पञ्ञपेन्ति, पञ्ञतं न समुच्छिन्दन्ति, वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(जब तक वज्जी अप्रज्ञप्त को प्रज्ञप्त नहीं करते, प्रज्ञप्त का उच्छेद नहीं करते रहेंगे, उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)।"
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, ये ते वज्जीनं महल्लका, ते सक्करोन्ति, गरु करोन्ति (आनंद! क्या तूने सुना है कि जो वृद्ध हैं, वज्जी उनका सत्कार करते हैं )?"
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)। "
"यावकीव च आनंद! वज्जी ये ते वज्जीनं महल्लका, ते सक्करोन्ती, गरु करोंति (वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद! जब तक जो वृद्ध हैं, जिनकी बात मानने योग्य है, वज्जी उनका सत्कार करते हैं, उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं।"
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जी या ता कुलित्थियो कुलकुमारियो, ता न ओक्कस्स पसय्ह वासेन्ति
(और आनंद! क्या सुना है, जो कुल स्त्रियाँ हैं, कुमारियाँ हैं , वज्जी उन्हें छिनकर जबरदस्ती नहीं बसाते)?"
""सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)। "
" यावकीव च आनंद, सुत्तं, वज्जी या ता कुलित्थियो कुल कुमारियो, ता न ओक्कस्स पसय्ह वासेस्सनति वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद! जब तक वज्जी अपनी स्त्रियों का, कुमारियों का सम्मान करते रहेंगे, तब तक वज्जियों की वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)। "
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जी यानि तानि वज्जीनं चेतियानी अब्भन्तरानि च एवं बाहिरानि च, तानि सक्कारोन्ति, मानेन्ति, पूजेन्ति (और आनंद! क्या तूने सुना है, वज्जियों के नगर के भीतर या बाहर जो चेत्य हैं, क्या वज्जी उनका सत्कार करते हैं, उन्हें पूजते हैं )?"
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते! सुना है)। "
यावकीव च आनंद, वज्जी यानि तानि वज्जीन चेतियानी अब्भंतरानि च एव बाहिरानि च, तानि सक्करोन्ति, मानेन्ति, पूजेन्ति, वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि (आनंद! जब तक वज्जी ऐसा करते रहेंगे, उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)। "
" किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जीनं अरहन्तानं, पूजनीयानं सक्कारोन्ति, मानेन्ति, पूजेन्ति(और आनंद ! क्या तूने सुना है, वज्जी लोग अर्हतों की, पूज्यों की रक्षा करते हैं) ?"
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते! सुना है)। "
यावकीव च आनंद, वज्जी अरहन्तानं, पूजनीयानं सक्कारोन्ति, मानेन्ति, पूजेन्ति, वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद ! जब तक वज्जी अर्हतों की, पूज्यों की रक्षा करते हैं, उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)। "
( स्रोत- महापरिनिब्बानसुत्त : दीघनिकाय : सुत्त पिटक) ।
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किन्ति - किं इति।
यावकीव (याव-कीव) - जब तक। (याव- जब तक। कीव- कितना ?)
-कीव चिरं- कितने समय से ? कीव दीघं- कितना बड़ा ?
-कीव दुरे- कितनी दुरी से ? कीव बहूंं - कितना अधिक आदि।
पसह्य- छीन कर। पसहति(दबाना, मर्दन करना) का भूतका. रूप ।
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)। "
"यावकीव च आनंद, वज्जी समग्गा सन्निपतन्ति, वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद! जब तक वज्जी सम्मति के लिए निरंतर बैठक करते रहेंगे, तब तक उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)।"
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जी करणीयानि करोन्ति (और आनंद! क्या तूने सुना है कि वज्जी जो करणीय है, करते हैं )?"
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)।"
"यावकीव च आनंद, वज्जी करणीयानि करोन्ति, वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद! जब तक वज्जी जो करणीय है, करते रहेंगे, तब तक उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)।"
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जी अपञ्ञतं न पञ्ञपेन्ति, पञ्ञतं न समुच्छिन्दन्ति(और आनंद! क्या तूने सुना है कि वज्जी अप्रज्ञप्त को प्रज्ञप्त नहीं करते, प्रज्ञप्त का उच्छेद नहीं करते) ?"
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)। "
"यावकीव च आनंद! वज्जी अपञ्ञतं न पञ्ञपेन्ति, पञ्ञतं न समुच्छिन्दन्ति, वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(जब तक वज्जी अप्रज्ञप्त को प्रज्ञप्त नहीं करते, प्रज्ञप्त का उच्छेद नहीं करते रहेंगे, उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)।"
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, ये ते वज्जीनं महल्लका, ते सक्करोन्ति, गरु करोन्ति (आनंद! क्या तूने सुना है कि जो वृद्ध हैं, वज्जी उनका सत्कार करते हैं )?"
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)। "
"यावकीव च आनंद! वज्जी ये ते वज्जीनं महल्लका, ते सक्करोन्ती, गरु करोंति (वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद! जब तक जो वृद्ध हैं, जिनकी बात मानने योग्य है, वज्जी उनका सत्कार करते हैं, उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं।"
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जी या ता कुलित्थियो कुलकुमारियो, ता न ओक्कस्स पसय्ह वासेन्ति
(और आनंद! क्या सुना है, जो कुल स्त्रियाँ हैं, कुमारियाँ हैं , वज्जी उन्हें छिनकर जबरदस्ती नहीं बसाते)?"
""सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)। "
" यावकीव च आनंद, सुत्तं, वज्जी या ता कुलित्थियो कुल कुमारियो, ता न ओक्कस्स पसय्ह वासेस्सनति वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद! जब तक वज्जी अपनी स्त्रियों का, कुमारियों का सम्मान करते रहेंगे, तब तक वज्जियों की वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)। "
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जी यानि तानि वज्जीनं चेतियानी अब्भन्तरानि च एवं बाहिरानि च, तानि सक्कारोन्ति, मानेन्ति, पूजेन्ति (और आनंद! क्या तूने सुना है, वज्जियों के नगर के भीतर या बाहर जो चेत्य हैं, क्या वज्जी उनका सत्कार करते हैं, उन्हें पूजते हैं )?"
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते! सुना है)। "
यावकीव च आनंद, वज्जी यानि तानि वज्जीन चेतियानी अब्भंतरानि च एव बाहिरानि च, तानि सक्करोन्ति, मानेन्ति, पूजेन्ति, वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि (आनंद! जब तक वज्जी ऐसा करते रहेंगे, उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)। "
" किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जीनं अरहन्तानं, पूजनीयानं सक्कारोन्ति, मानेन्ति, पूजेन्ति(और आनंद ! क्या तूने सुना है, वज्जी लोग अर्हतों की, पूज्यों की रक्षा करते हैं) ?"
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते! सुना है)। "
यावकीव च आनंद, वज्जी अरहन्तानं, पूजनीयानं सक्कारोन्ति, मानेन्ति, पूजेन्ति, वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद ! जब तक वज्जी अर्हतों की, पूज्यों की रक्षा करते हैं, उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)। "
( स्रोत- महापरिनिब्बानसुत्त : दीघनिकाय : सुत्त पिटक) ।
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किन्ति - किं इति।
यावकीव (याव-कीव) - जब तक। (याव- जब तक। कीव- कितना ?)
-कीव चिरं- कितने समय से ? कीव दीघं- कितना बड़ा ?
-कीव दुरे- कितनी दुरी से ? कीव बहूंं - कितना अधिक आदि।
पसह्य- छीन कर। पसहति(दबाना, मर्दन करना) का भूतका. रूप ।