कन्यादान
दलित समाज के लोग जो अभी हिन्दू संस्कृति और संस्कारों से अलग नहीं हो पाएं हैं, विवाह के अवसर पर 'कन्यादान' की रस्म करते पाएं जाते हैं.'कन्यादान' और उसका महिमागान अनैतिक और असामाजिक है. यह पितृत्व प्रधान समाज की लोप हो रही संस्कृति का हिस्सा है.
कन्या कोई गाय नहीं जिसे विवाह के अवसर पर दान किया जाए. हम विवाह में पारम्परिक रस्म के तौर उसे दान देकर स्वभावत समाज के सामने:वर के हाथों 'उपभोग की वस्तु' साबित करते हैं. यह सामाजिक कबूलनामा उसे ताउम्र खुद को दान की वस्तु समझने का अहसास दिलाता है, दासी के रूप में प्रस्तुत करने बाध्य करता है.
'कन्यादान' की रस्म हिन्दुओं के अलावा मुस्लिम, क्रश्चियन बौद्धों आदि समुदायों में नहीं होती. यह हिन्दुओं और सिर्फ हिन्दुओं में होती है.
दलित समाज के लोग जो अभी हिन्दू संस्कृति और संस्कारों से अलग नहीं हो पाएं हैं, विवाह के अवसर पर 'कन्यादान' की रस्म करते पाएं जाते हैं.'कन्यादान' और उसका महिमागान अनैतिक और असामाजिक है. यह पितृत्व प्रधान समाज की लोप हो रही संस्कृति का हिस्सा है.
कन्या कोई गाय नहीं जिसे विवाह के अवसर पर दान किया जाए. हम विवाह में पारम्परिक रस्म के तौर उसे दान देकर स्वभावत समाज के सामने:वर के हाथों 'उपभोग की वस्तु' साबित करते हैं. यह सामाजिक कबूलनामा उसे ताउम्र खुद को दान की वस्तु समझने का अहसास दिलाता है, दासी के रूप में प्रस्तुत करने बाध्य करता है.
'कन्यादान' की रस्म हिन्दुओं के अलावा मुस्लिम, क्रश्चियन बौद्धों आदि समुदायों में नहीं होती. यह हिन्दुओं और सिर्फ हिन्दुओं में होती है.
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