अट्ठङग उपोसथ-सीलं
1. पाणातिपाता वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि ।। 1।।
मैं पाणा-इति-पाता(प्राणी-हिंसा) से विरति(विरत रहने) की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ .
2. अदिन्नादाना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 2।।
मैं जो दिया गया न हो(अदिन्न) को न लेने (अ-दाना) की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ .
3. असाधुचरिया1 वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 3।।
मैं असाधु- आचरण (चर्या) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ।
4. मुसावादा वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 4।।
मैं झूठ(मूसा) वचन(वादा) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ .
5. सुरा मेरय मज्जप्पमादट्ठाना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 5।।
मैं सुरा, मेरय, मज्ज(मद्य) और प्रमाद उत्पन्न होने के स्थान (प्रमाद-ट्ठाना) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ .
6. विकाल-भोजना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 6।।
मैं विकाल(दोपहर 12 बजे से के बाद) भोजन से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
7. नच्च-गीत वादित-विसूकदस्सन माला-गंध-विलेपन-धारण-मण्डन-विभूसनट्ठाना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 7।।
नाच-गाना, बजाना, विसूकदस्सन(अशोभनीय खेल-तमाशे देखना), माला, सुगंध, विलेपन, मण्डन- विभूसनट्ठाना(सिंगार आदि स्थान) से विरत रहने की मैं शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ।
8. उच्चासयन-महासयना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 8।।
मैं ऊंचे, महासयना(विलासिता-पूर्ण सयन) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ।
भन्ते- तिसरणेन सह अट्ठङग समन्नागतं उपोसथ-सीलं धम्मं साधुकं सुरक्खितं कत्वा अप्पमादेन सम्पादेहि।
ति-सरण के साथ (ति-सरणेन सह) आठ अंगों से(अट्ठङग) युक्त (समन्नागतं) उपोसथ सील-धम्म को साधुकं(भलि-भांति) सुरक्खितं कत्वा(सुरक्षित कर) अ-पमादेन(अ-प्रमाद के साथ) सम्पादेहि(सम्पादन करो)।
उपासक/उपासिका- आम, भंते!
अभ्यास
अट्ठङग- आठ अंग। समन्नागतं- युक्त। असाधुचरिया- असाधु-आचरण।
विकाल भोजन- दोपहर 12 बजे के बाद किया जाने वाला भोजन।
नच्च-गीत वादित- नाच-गाना बजाना। विसूकदस्सन- अ-शोभनीय(वि-सूक) खेल-तमाशे देखना। माला-गंध- माला, सुगन्ध।विभूसनट्ठाना- आभूषण आदि धारण करने के स्थान। महासयना- विलासिता-पूर्ण सयन । समादियामि- मैं अंगीकार करता हू।
..................................
1. मूलपाट- अब्रह्मचरिया। देवी, देवता, स्वर्ग, नरक, ईस्वर, ब्रह्मा, श्री, ओंकार आदि अबौद्ध संस्कृति के शब्द हैं। यथा प्रयास इनका स्थानापन्न आवश्यक है।
उक्त आठ शील बौद्ध उपासक/उपासिका अथवा सामणेर/ सामणेरी उपोसथ के समय पालन करते हैं। महावग्ग(अंगुत्तर निकाय) के उपोसथ सुत्त में बुद्ध ने मिगारमाता(विसाखा) को उपोसथ की महिमा बतलाते हुए इन आठ शीलों को सही अर्थों में पालन करने कहा है। दोनों पक्ष की अष्टमी, अमावस की चतुर्दशी और शुक्लपक्ष की पूर्णिमा; ये चार दिन उपोसथ के दिन माने जाते हैं।
-अ ला ऊके @amritlalukey.blogspot.com
1. पाणातिपाता वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि ।। 1।।
मैं पाणा-इति-पाता(प्राणी-हिंसा) से विरति(विरत रहने) की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ .
2. अदिन्नादाना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 2।।
मैं जो दिया गया न हो(अदिन्न) को न लेने (अ-दाना) की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ .
3. असाधुचरिया1 वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 3।।
मैं असाधु- आचरण (चर्या) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ।
4. मुसावादा वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 4।।
मैं झूठ(मूसा) वचन(वादा) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ .
5. सुरा मेरय मज्जप्पमादट्ठाना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 5।।
मैं सुरा, मेरय, मज्ज(मद्य) और प्रमाद उत्पन्न होने के स्थान (प्रमाद-ट्ठाना) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ .
6. विकाल-भोजना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 6।।
मैं विकाल(दोपहर 12 बजे से के बाद) भोजन से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
7. नच्च-गीत वादित-विसूकदस्सन माला-गंध-विलेपन-धारण-मण्डन-विभूसनट्ठाना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 7।।
नाच-गाना, बजाना, विसूकदस्सन(अशोभनीय खेल-तमाशे देखना), माला, सुगंध, विलेपन, मण्डन- विभूसनट्ठाना(सिंगार आदि स्थान) से विरत रहने की मैं शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ।
8. उच्चासयन-महासयना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 8।।
मैं ऊंचे, महासयना(विलासिता-पूर्ण सयन) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ।
भन्ते- तिसरणेन सह अट्ठङग समन्नागतं उपोसथ-सीलं धम्मं साधुकं सुरक्खितं कत्वा अप्पमादेन सम्पादेहि।
ति-सरण के साथ (ति-सरणेन सह) आठ अंगों से(अट्ठङग) युक्त (समन्नागतं) उपोसथ सील-धम्म को साधुकं(भलि-भांति) सुरक्खितं कत्वा(सुरक्षित कर) अ-पमादेन(अ-प्रमाद के साथ) सम्पादेहि(सम्पादन करो)।
उपासक/उपासिका- आम, भंते!
अभ्यास
अट्ठङग- आठ अंग। समन्नागतं- युक्त। असाधुचरिया- असाधु-आचरण।
विकाल भोजन- दोपहर 12 बजे के बाद किया जाने वाला भोजन।
नच्च-गीत वादित- नाच-गाना बजाना। विसूकदस्सन- अ-शोभनीय(वि-सूक) खेल-तमाशे देखना। माला-गंध- माला, सुगन्ध।विभूसनट्ठाना- आभूषण आदि धारण करने के स्थान। महासयना- विलासिता-पूर्ण सयन । समादियामि- मैं अंगीकार करता हू।
..................................
1. मूलपाट- अब्रह्मचरिया। देवी, देवता, स्वर्ग, नरक, ईस्वर, ब्रह्मा, श्री, ओंकार आदि अबौद्ध संस्कृति के शब्द हैं। यथा प्रयास इनका स्थानापन्न आवश्यक है।
उक्त आठ शील बौद्ध उपासक/उपासिका अथवा सामणेर/ सामणेरी उपोसथ के समय पालन करते हैं। महावग्ग(अंगुत्तर निकाय) के उपोसथ सुत्त में बुद्ध ने मिगारमाता(विसाखा) को उपोसथ की महिमा बतलाते हुए इन आठ शीलों को सही अर्थों में पालन करने कहा है। दोनों पक्ष की अष्टमी, अमावस की चतुर्दशी और शुक्लपक्ष की पूर्णिमा; ये चार दिन उपोसथ के दिन माने जाते हैं।
-अ ला ऊके @amritlalukey.blogspot.com
No comments:
Post a Comment