Saturday, September 22, 2018

धम्म से 'कचड़ा' निकालना जरुरी है

धम्म से 'कचड़ा' निकालना जरुरी है
धर्म की आवश्यकता पर बल देते हुए बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने कहा है कि समाज को अपनी एकता बनाए रखने के लिए या तो कानून का आश्रय लेना पड़ेगा या फिर नैतिकता का। दोनों के बिना समाज टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। सभी समाजों में कानून का हस्तक्षेप बहुत कम होता है। विघटनकारी तत्वों को नियंत्रण में रखना  कानून का उद्देश्य है, लेकिन बहुसंख्य लोगों को अपना सामाजिक जीवन बिताने के लिए नैतिक संबंधों, मौलिक सिद्धांतों और नैतिकता के अनुमोदन पर छोड़ दिया जाता है और छोड़ देना पड़ता है।  इसलिए धर्म को नैतिकता के अर्थों में प्रत्येक समाज के शासता के रूप में बना रहना चाहिए('बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य': डॉ भीमराव अम्बेडकर )।

दूसरे, धर्म को विज्ञान के अनुकूल होनी चाहिए। यदि धर्म विज्ञान की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है तो यह मजाक या हंसी का विषय हो सकता है। इस प्रकार जीवन के सिद्धांत के रूप में उसका महत्त्व बिलकुल समाप्त हो सकता है और समय आने पर वह समाज से लुप्त भी हो सकता है।  अन्य शब्दों में धर्म को यदि वास्तव में कार्य करना है तो उसे बुद्धि या तर्क पर आधारित होना चाहिए जिसका दूसरा नाम विज्ञान ही है(वही)।

तीसरे, डॉ अम्बेडकर ने कहा कि किसी धर्म के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है कि उसमें नैतिकता हो। उस नैतिकता को जीवन के मूलभूत सिद्धांतों स्वतंत्रता, समानता तथा भातृत्व को मानना चाहिए।  कोई धर्म जब इन सामाजिक सिद्धांतों को मान्यता नहीं देगा, उसका भविष्य अंधकारमय ही बना रहेगा(वही)।

चौथे, दलित-पीड़ितों के हित चिंतक डॉ अम्बेडकर ने कहा कि धर्म को निर्धनता का अनुमोदन नहीं करना चाहिए। जिन लोगों के पास धन है, उनके द्वारा परित्याग करना बहुत अच्छी बात है। यह शुभ अवस्था हो सकती है, लेकिन निर्धनता की अवस्था कभी भी शुभ नहीं हो सकती। निर्धनता को शुभ अवस्था घोषित करना, धर्म को भृष्ट करने के समान है, बुरे तथा अपराध को बढ़ावा देना है और इस संसार को नरक के समान बनाना है(वही)।

कौन-सा धर्म इन आवश्यकताओं को पूरा करता है ? यह सवाल उठाते हुए डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि इस बात को याद रखना चाहिए कि महात्माओं के दिन लद गए और संसार में कोई नया धर्म जन्म नहीं ले सकता। संसार को मौजूदा धर्मों में से ही किसी एक को चुनना होगा। इसलिए प्रश्न को मौजूदा धर्मों तक ही सीमित रखना पड़ेगा(वही)।

हो सकता है, मौजूदा धर्मों में से कोई उपरोक्त माप-दंडों में से एक पर पूरा उतरे और कोई दो पर।  प्रश्न यह यह कि क्या कोई ऐसा धर्म है जो इन तमाम माप-दंडों पर पूरा उतरे ? बाबासाहब इसका उत्तर देते हुए कहते हैं- जहाँ तक मेरी जानकारी है, केवल एक ही ऐसा धर्म है जो इन तमाम माप-दंडों पर पूरा उतरता है और वह है बुद्ध का धर्म।  दूसरे शब्दों में, बुद्ध का  धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसे संसार अपना सकता है। यदि नए संसार; यह ध्यान रहे कि यह संसार पुराने संसार से बहुत भिन्न है, को कोई धर्म जरुर अपनाना चाहिए और, आने वाले संसार के लिए पुराने संसार की अपेक्षा धर्म की कहीं अधिक जरुरत है, तो यह केवल बुद्ध का धर्म ही हो सकता है(वही))।

भारत में बुद्ध के धर्म की बहाली के मुद्दे पर आश्वस्त होते हुए डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि हिन्दुओं का एक वर्ग जान चुका है कि उनके धर्म में कुछ कमी है। बात केवल यह है कि इसकी खुल कर निंदा करने तैयार नहीं। यह व्यवहार समझ में आता है। धर्म किसी व्यक्ति के सामाजिक उत्तराधिकार का एक अंग है। किसी का जीवन, शान और गौरव इससे बंधे होते हैं। अपने धर्म का त्याग करना किसी के लिए सहज नहीं(वही )।

डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि हिन्दू,  अपने धर्म का त्याग करने की बजाए उससे बच निकलने की खोज में रहते हैं। कुछ तो इस ख्याल से अपनी ढाढस बांध लेते हैं कि सभी धर्मों के कुछ न कुछ  गलत है। इसलिए अपने धर्म के बारे में परेशानी कैसी(वही)?

हम बुद्धिष्ट हैं। हमारे मसीहा और उद्धारक बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने बुद्ध की तरफ  हाथ उठा कर बतलाया कि यह तुम्हारे जीवन का तरीका है । इसके लिए उन्होंने सभी धर्मों का निरंतर 25 वर्षों तक गंभीर अध्ययन किया। बाबासाहब ने पाया कि बुद्ध का मार्ग हमें वह सब देता है, जिसकी हमें जरुरत  है। यथा- धार्मिक जड़ता से मुक्ति, समता, बौद्धिक स्वतंत्रता और बंधुता। सदियों की गुलामी से छुटकारा पाने हमें यही तो चाहिए था।

हमें धार्मिक अंधविश्वास से मुक्ति चाहिए थी, क्योंकि हमारी अवनति का यही सबसे बड़ा कारण था। देवी-देवता, पुनर्जन्म की थोथी कल्पना और स्वर्ग-नरक के भय ने हमारे आँख खोल कर देखने के तमाम रास्ते बंद कर दिए थे। हमें रोशनी की तलाश थी। बुद्ध का मार्ग 'अत्त दीपो भव' का सन्देश लेकर आया था।। जाति-पाँति की गैर- बराबरी से उठा कर बुद्ध ने हमें समता का रास्ता दिखाया। धार्मिक जड़ता से मुक्ति हमारा हेतु था। सामाजिक सड़ांध से बाहर निकलना लक्ष्य था।

किन्तु क्या हम सामाजिक मुक्ति के पथ पर अग्रसर है ? क्या हमने बुद्ध को सामाजिक मुक्तिदाता के रूप में लिया है ? क्या हम धार्मिक जड़ता से निकले ?  क्या हमारे मुक्तिदाता बाबासाहब डॉ अम्बेडकर हमें किन्हीं देवताओं की छात्र-छाया में रखना चाहते थे ? बुद्ध वंदना में 'पुरिस-दम्म सारथि, सत्था 'देव' मनुस्सानं बुद्धो भगवा'ति' में यह 'देव' कौन है ?  आशीर्वचन के रूप में भंतेजी द्वारा कही गयी गाथा  'भवतु सब्ब मंगलं, रक्खन्तु सब्ब देवता' में ये कौन-से  'देवता'  हैं जिनसे रक्षा की हम दिन-रात गुहार करते हैं ? 'सब्बेसु चक्कवालेसु, यक्खा 'देवा' च 'ब्रह्मुनो'। यं अम्हे हि कतं पुञ्ञेन, सब्ब संपत्ति साधकं' में ये कौन-से 'यक्ष',  'देव' और 'ब्रह्मा' हैं, जिनको हम अपने द्वारा किए गए पुण्यों में भागीदार बनाना चाहते हैं ?

 हम, कब तक हमारे घरों में संपन्न 'परित्राण पाठ' के प्रारंभ में   'समन्ता चक्क वालेसु, अत्रागच्छन्तु 'देवता', सद्धम्म मुनिराजस्स, सुणन्तु सग्ग मोक्खदं'  भंतेजी द्वारा  'देवताओं' को आव्हान कराते रहेंगे और  'अच्छ, तच्छ, सुकर, महिस, यक्ख, रक्खस' आदि गाथाओं से सूअर भालू तो ठीक है, किन्तु यक्ष और राक्षसों से अपनी रक्षा की भीख माँगते रहेंगे ?

अट्ठावीस बुद्ध-
अट्ठवीसति परित्त में  'तण्हंकरो महावीरो,  मेघंकरो महायसो। सरणकरो लोकहितो,  दीपंकरो जुतिन्धरो' आदि   जिन 28 बुद्धों की हम महिमा का वर्णन करते हैं, वे कब और कहाँ  पैदा हुए ? क्या हमने 'अवतारवाद' मान लिया हैं। कब, कैसे  ?  और अगर ये ठीक है तो फिर यह जैन और हिन्दुओं के अवतारवाद से किस तरह भिन्न हैं। स्मरण रहे, खुद्दक निकाय के 'बुद्धवंश' में 24 बुद्धों का वर्णन हैं(बौद्ध धर्म; एक अध्ययन: पृ 310-11 : डॉ अवधेशसिंह )। सिंहलद्वीप के इतिहास ग्रन्थ  'महावंश' में 28 बुद्धों का स्मरण और उनकी वंदना की गई है।

ब्रह्म की नपुसंकता
'ब्रह्म' को कबीर ने  "'ब्रह्म' शब्द तो नपुंसक वर्णु" कह कर 'बीजक' में इसका उपहास किया है। बुद्ध, कबीर से एक कदम पीछे नहीं रहे। बुद्ध ने  'जनपद कल्याणी' अर्थात 'नगरवधू' कह  महा उपहास किया है। किन्तु धम्म ग्रंथों में  जगह-जगह उसका गुण गान किया गया है, महत्ता दिखायी गई है। यथा- अष्ट शीलों में देखे-  "'ब्रह्मचरिया' वेरमणी, सिक्खा पदं समादियामि" अथवा  'करणीयमेत्तं सुत्त' में- "'एतं सतिं अधिट्ठेय्य, 'ब्रह्ममेत्तं' विहार इध आहु" या  "'सब्बेसु चक्कवालेसु, यक्खा 'देवा' च 'ब्रह्मुनो'। यं अम्हे हि कतं पुञ्ञेन, सब्ब संपत्ति साधकं" आदि।

दीघनिकाय, ति-पिटक के सुत्त पिटक के पांच निकायों में बुद्धवचन के रूप में प्रथम निकाय है। इसके प्रथम स्थान से ही इस ग्रन्थ की महत्ता स्वयं सिद्ध है। इसके 14 वें 'महापदानसुत्त' में पूर्व-जन्म सम्बन्धी धार्मिक-कथा के माध्यम से 'विपस्सी आदि पुराने छह बुद्धों' का चमत्कारी वर्णन जिस तरह बुद्ध में मुख से कहलवाया गया हैं, वह दीघनिकाय के विश्वनीयता पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। इसी प्रकार, 17 वें  'महासुदस्सनसुत्त' में चक्रवर्ती राजा के रूप में बुद्ध के जन्म का रहस्यमयी वर्णन है।

 विनय पिटक के 'महावग्ग' में इस तरह का वर्णन एक बार नजरअंदाज भी किया जा सकता है क्योंकि कहा जाता है कि 'विभंग' अर्थात भिक्खु-भिक्खुनियों के नियमों  के अतिरिक्त इस के दूसरे भाग अर्थात 'खंधक'  में आयी सारी बातें बाद की है(राहुल सांकृत्यायन: पालि साहित्य का इतिहास पृ 152)। किन्तु दीघनिकाय में बुद्ध के जन्म का ऐसा वर्णन संदेह पैदा करता है। दीघनिकाय, जो सबसे अधिक विश्वनीय और प्राचीन समझा जाता है, की हालत यह है। इसी से अन्य ति-पिटक ग्रंथों का अंदाजा सहजता से लगाया जा सकता है !

बुद्धवचनों के रूप में इस तरह स्थापित कथनों को कटघरे में खड़ा करने का साहस हमें 'अंगुत्तरनिकाय' का 'केसपुत्तिय सुत्त' देता है जिस में बुद्ध स्वयं किसी भी कथन को, चाहे उनका अपना कथन ही क्यों न हो, तौल कर ग्रहण करने का उपदेश देते हैं। बुद्ध ने जिस तरह किसी 'ईश्वर' की सत्ता को नकारा है,  पुनर्जन्म और भाग्य को पलटा है, 'ईश्वर' और  'आत्मा' के  अमरत्व  के स्थान पर प्रकृति की  'अनित्यता' को स्थापित किया है, बुद्ध के आधारभूत सिद्धांतों को पकड़ने हमें किसी 'अगर-मगर' की जरुरत नहीं होती। 

यह सत्य है कि हमारे मुक्तिदाता ने हमें बुद्ध का मार्ग दिया किन्तु साथ ही हमें उन बातों से सावधान भी किया   जिन्होंने समय के साथ-साथ बुद्ध वचनों को संक्रमणित कर दिया, जिनसे छुटकारा पाने हमने बुद्ध का मार्ग अपनाया था। और यही कारण है कि हमारे मुक्तिदाता ने हर कदम पर हमें इसमें न फंसने से सचेत किया है। किन्तु क्या हम अपने मुक्तिदाता की चेतावनी से सावधान हैं ? क्या हम 'देवी-देवताओं' को पहचान पा रहे हैं ? क्या हम पुन पुनर्जन्म के पचड़े में नहीं फंस रहे हैं ? और क्या हम स्वर्ग-नरक से अलग हो रहे हैं ?
-अ ला ऊके  मो. 9630826117/ @amritlalukey.blogspot.com
  

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