Monday, September 24, 2018

कर्म और पुनर्जन्म

कर्म और पुनर्जन्म की सैद्धांतिकी पर बुद्धिस्ट कुछ बंटे हुए प्रतीत होते हैं। मोटे तौर पर इन्हे तीन समूह में रखा जा सकता है-  अम्बेडकरवादी, विपस्सनावादी और परम्परागत बुद्धिस्ट । अम्बेडकरवादी बुद्धिस्ट बाबासाहब डॉ अम्बेडकर को अपना मुक्ति दाता और बुद्ध के धम्म को सामाजिक मुक्ति का मार्ग बतलाते हैं जबकि विपस्सनावादी और परम्परागत बुद्धिस्ट अम्बेड़कर को नहीं मानते। वे बुद्ध को मानते हैं। बुद्ध को मानने का उनका तरीका करीब-करीब हिन्दुओं जैसा है।

अम्बेडकरवादी बुद्धिस्ट-
अम्बेडकरवादी बुद्धिस्ट पुनर्जन्म को सिरे से ख़ारिज करते हैं। उनका कहना है कि हमें शुभ/कुशल कर्म इसलिए करना है कि पडोसी खुश रहे, समाज खुश रहे, न कि मरने के बाद 'स्वर्ग' मिले। बुद्ध के द्वारा बतलाए गए मार्ग का अनुशीलन करते हुए वे इसे 'निर्वाण' अर्थात व्यक्तिगत मुक्ति के बनिस्पत सामाजिक मुक्ति का हेतु मानते हैं। दरअसल, बुद्ध का मार्ग सामाजिक मुक्ति के लिए ही है। धम्म का केंद्र आदमी है। धम्म का केंद्र समाज है। बुद्ध के धम्म का अर्थ एक आदमी का दूसरे आदमी के संबंधों से है।

कुशल कर्मों से पुनर्जन्म का कोई सम्बन्ध नहीं-
कुशल कर्मों सेआदमी सुखी और संतुष्ट रहता है, आपके अपने सब सगे-सम्बन्धी निरोग और सुखी रहते हुए सत्पथ की समृद्धि को प्राप्त होते हैं। शुभ कर्मों का फल दान, शील और संयम होता है, इसलिए शुभ कर्मों को बार-बार किया जाना चाहिए। सदाचरण से आदमी शीलवान होता है(बुद्ध और उनका धम्म, पृ  388-93 )।

मरने के बाद क्या होता है ? - इस तरह के प्रश्नों को बुद्ध ने व्यर्थ बताया क्योंकि इस तरह के प्रश्नों से मनुष्य का कुछ भी लाभ नहीं(बुद्ध और उनका धम्म, पृ  403 )।

बुद्ध ने लोगों को यह नहीं कहा कि उनके धम्म का उद्देश्य किसी 'काल्पनिक स्वर्ग' की स्थापना करना है। उनका कहना था कि 'धम्म का राज्य' इस पृथ्वी पर ही है और वह धम्म-पथ पर चल कर ही  प्राप्त किया जा सकता है।  उन्होंने लोगों से कहा कि यदि तुम अपने दुक्ख का अंत करना चाहते हो तो हर किसी को दूसरे के साथ न्याय-संगत, धम्म-संगत व्यवहार करना होगा।  तभी यह पृथ्वी 'धम्म का राज्य' बन सकेगी (बुद्ध और उनका धम्म  पृ  294 )।

वर्तमान दुक्ख को पुनर्जन्म से जोड़ कर देखा जाता है।  कहा जाता है की अमुक व्यक्ति ने पूर्व-जन्म में पाप  किया होगा इसलिए वह अब भोग रहा है। यह सरासर गलत है। बुद्ध ने जिस दुक्ख का निरूपण किया, वह सांसारिक दुक्ख है।  बुद्ध वचनों में इसके अनेक प्रमाण हैं। बौद्ध धर्म अन्य धर्मों की भांति आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध पर आधारित नहीं है। दुक्ख का पारलौकिक अर्थ लगा कर पुनर्जन्म से उसका सम्बन्ध जोड़ना बुद्ध मत के विरुद्ध है(काठमांडू विश्व बौद्ध सम्मलेन में नव. 1956  को डॉ आंबेडकर का भाषण )।

बुद्ध ने पञ्चशील पर जोर दिया। बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग और पारमिताओं पर जोर दिया। बुद्ध ने इन्हें अपने धम्म का आधार इसलिए बनाया क्योंकि यह एक ऐसी जीवन-विधि है कि आदमी सदाचारी बने। बुद्ध ने कहा कि आदमी का आदमी के प्रति जो अनुचित व्यवहार है, वही दुक्ख का कारण है। इसलिए आदमी का सदाचारी होना आवश्यक है। उसके द्वारा कुशल कर्मों का किया जाना आवश्यक है(बुद्ध और उनका धम्म  पृ  294 -95 )।     
देवदह सुत्त(मज्झिम निकाय) में पुनर्जन्म के कर्मों पर विश्वास  करने वाले जैनियों को लताड़ते हुए बुद्ध ने उनकी जम कर खबर ली थी(बुद्ध और उनका धम्म, पृ  295- 96 )। इसी प्रकार 'जन्म जन्मांतर तक चित्त अपरिवर्तित अवस्था में विद्यमान रहता है'  -उनकी देशना को इस प्रकार समझने पर बुद्ध ने भिक्खु साती केवट्ठ पुत्त को जम कर  डांटा था(महातण्हा संखय सुत्त: मज्झिम निकाय)।

कर्म का बौद्ध सिद्धांत कहता है कि मनुष्य के आनुवंशिक सम्बन्ध नहीं, बल्कि उसका परिवेश महत्वपूर्ण होता है। कोई भी मनुष्य अपने श्रम और सम्यक प्रयासों के बल पर अपने वर्तमान जीवन को बदल सकता है।
अंगुत्तर निकाय में बुद्ध कहते हैं-   हे भिक्खुओं, यदि कोई यह कहे कि मनुष्य अपने पूर्वजन्म के अनुसार फल भोगना होता है तो उस स्थिति में दुक्ख के समग्र निरोध के लिए कोई अवसर उपलब्ध होता है। किन्तु यदि कोई यह कहे कि कि मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार फल भोगता है तो दुक्ख के समग्र निरोध के लिए उसे अवसर उपलब्ध होते हैं(डी  सी अहीर: प्राक्कथन: बुद्ध और उनका धम्म: सम्यक प्रका.)

क्या बुद्ध का 'कर्म' सिद्धांत 'ब्राह्मणी कर्म' के सिद्धांत के समान है ? बुद्ध का कर्म का सिद्धांत- शाब्दिक समानता कितनी ही हो, ब्राह्मणी कर्म के सिद्धांत से सर्वथा भिन्न है। हिन्दू कर्म के सिद्धांत के अनुसार जब कोई कर्म करता है, तो उसका प्रभाव उसकी आत्मा पर पड़ता है। वह उससे संस्कारित हो जाती है। चूँकि बुद्ध ने 'आत्मा' को ही नकार दिया है, इसलिए कर्म के बौद्ध सिद्धांत के बारे में यह बात सच नहीं(बुद्ध और उनका धम्म पृ  344-45 )।

क्या बुद्ध मानते थे कि पूर्व कर्म का भविष्य के जन्म पर प्रभाव पड़ता है ? बुद्ध के कर्म के सिद्धांत का सम्बन्ध मात्र कर्म से था और वह भी वर्तमान जन्म के कर्म से(वही, पृ  346 )।

गैर-अम्बेडकरवादी/विपस्सना वादी बुद्धिस्ट-
दूसरी ओर, गैर-अम्बेडकरवादी/विपस्सना वादी बुद्धिस्ट हिन्दुओं के पुनर्जन्म को कुछेक  'अगर-मगर' के जस- का तस मानते हैं। बोधिसत्व की पुनर्जन्म वाली संकल्पना को वे स्वीकारते हैं। यहाँ तक कि स्वर्ग लोक(तुषित लोक) सहित अट्ठविसति बुद्ध के अवतारों को भी वे महायानियों की तरह मानते हैं।

'कर्म' और 'पुनर्जन्म' पर बुद्ध-
बुद्ध ने 'कर्म' और 'पुनर्जन्म' के बारे में अपना स्पष्ट मत व्यक्त किया। बुद्ध के अनुसार चार भौतिक पथार्थ हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। प्रश्न है कि जब शरीर का मरण होता है तो इन चार महा भूतों का क्या होता है ? बुद्ध ने कहा कि आकाश में जो सामान भौतिक पदार्थ सामूहिक रूप से विद्यमान हैं, वे उनमें मिल जाते हैं। बुद्ध का पुनर्जन्म से यही अभिप्राय था।  इन भौतिक पदार्थों के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे उसी शरीर के हो जिसका मरण हो चुका है। वे नाना मृत-शरीरों के भौतिक अंश हो सकते हैं। (बुद्ध और उनका धम्म पृ  337 )।

"ऐसी कितनी चीजें हैं जिनके मुक्त होने पर ही शरीर मरा हुआ समझा जा कर सूखे काठ की तरह फेंक दिया जाता है ?" -महाकोट्ठित-सारिपुत्त संवाद में सारिपुत्त जवाब देते हैं -  "उष्णता और विज्ञानं। " इस संवाद को आगे बढ़ाते हुए बाबासाहब डॉ अम्बेडकर कहते है, मृत्यु के दो अर्थ हैं-  एक ओर  इसका अर्थ है कि नई शक्ति की उत्पत्ति रुक जाना, दूसरी ओर इसका अर्थ है, शक्ति का शरीर से निकल कर विश्व में जो शक्ति-पुंज संचरण कर रहा है, उसमें मिल जाना(वही, पृ  339)। शक्ति कभी 'शून्य' में परिणित नहीं होती। बुद्ध नाम(रूप) की पुनरुत्पत्ति में  विश्वास रखते थे, आत्मा के पुनर्जन्म में नहीं। बाबासाहब डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि इस तरह बुद्ध का मत वर्तमान विज्ञान के सर्वथा अनुकूल है। केवल इसी अर्थ में कहा जा सकता है कि बुद्ध पुनर्जन्म में विश्वास करते थे(पृ  340)।

'क्या वही मरा हुआ आदमी जन्म ग्रहण करता है ?' इसकी बुद्ध के अनुसार कम-से-कम संभावना है। यदि मृत आदमी के देह के सभी भौतिक अंश पुन: नए सिरे से मिलकर नए शरीर का निर्माण कर सकें, तभी यह मानना संभव है की उसी आदमी का पुनर्जन्म हुआ। यदि भिन्न-भिन्न मृत शरीरों के अंशों के मेल से एक नया शरीर बना तो यह पुनर्जन्म तो हुआ, लेकिन यह उसी आदमी का पुनर्जन्म नहीं हुआ(पृ  340 )।   

 गलतफहमी के कारण-
'कर्म' और 'पुनर्जन्म' की थ्योरी चूँकि 'ब्राह्मणी धर्म' की रीढ़ है, इसलिए उसकी अनेकों बार गलत रिपोर्टिंग हुई। चूँकि बुद्ध की तत्सम्बन्धी यह नई थ्योरी को सुनने वाले चीवरधारी ब्राह्मण ही थे, इसलिए इसमें जमकर 'खिचड़ी' पकाई गई(बुद्धा एंड  हिज धम्मा, पृ 357)। 

भदन्त आनंद कौसल्यायन की 'खिचड़ी'-
आज की तारीख में, बुद्ध के पुनर्जन्म सम्बन्धी सिद्धांत को हिन्दू पुनर्जन्म के चश्मे से देखने का प्रयास भदन्त आनंद कौसल्यायन ने किया। चूँकि बाबासाहब डॉ अम्बेडकर कृत  'बुद्धा एंड हिज धम्मा' का हिंदी अनुवाद करने का प्रथम अवसर भदन्तजी को मिला अतएव भदन्तजी जो कुछ कहते गए, बाबासाहब के अनुयायी उसे दिल-दिमाग से मानते रहे।

भदन्तजी कहते हैं-  बौद्ध नाम-रूप मात्र को मानते हैं। चित्त और शरीर को, उनका कहना है कि प्रत्येक वस्तु क्षण-क्षण परिवर्तित होते हुए भी स्थित रहती है।  वह जैसी की तैसी तो नहीं रहती, किन्तु किसी न किसी रूप में बनी ही रहती है।  चित्त, विज्ञान या मन ये तीनों पर्याय हैं। भौतिक पदार्थों की तरह बौद्ध चित्त को भी क्षण-क्षण में परिवर्तनशील मानते हुए उसके किसी न किसी रूप में बने रहने को स्वीकार करते हैं, जैसे नदी का स्रोत या दीपक की लौ। नैरात्मवादी होने पर भी पुनर्जन्म वादी बौद्धों का कहना है यदि पुनर्जन्म को ही अस्वीकार कर दिया जाए तो आदमी के द्वारा किए गए कुशलाकुशल कर्मों का कुछ भी महत्त्व नहीं रहता। तब जीवन का अंत मरण ही है और मरणान्तर पुनर्जीवन है ही नहीं, तब कुशल कर्म किए तब क्या और अकुशल कर्म किए तब क्या (भदन्त आनंद कौसल्यायन: वेद से मार्क्स तक पृ 88)?

डॉ अम्बेडकर और 'कर्म' तथा 'पुनर्जन्म'-
हिन्दू कर्म के सिद्धांत को बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने अस्वीकार कर दिया। हिन्दू कर्म सिद्धांत 'आत्मा' के आवागमन पर आधारित है। आज कोई व्यक्ति जिस स्थिति में है, वह इसलिए है कि उसने पिछले जन्म में वैसे ही कर्म कर्म होंगे। डॉ अम्बेडकर इसे बदले पर आधारित सिद्धांत मानते हैं क्योंकि निर्धन या अमीर परिवार में जन्म लेना, लंगड़ा, लूला होना आदि पिछले जन्मों के कर्मों का फल है। हिन्दू कर्म का सिद्धांत, इस दृष्टी से, समानता तथा सामाजिकता पर आधारित नहीं है। डॉ अम्बेडकर ने लिखा है' इसका एक मात्र उद्देश्य जिसके बारे में कोई सोच सकता है, समाज और राज्य को उस उत्तरदायित्व से मुक्त करना है जो उन्हें निर्धनों और निम्न श्रेणियों के लोगों के साथ निभाना है, अन्यथा इस प्रकार का अन्याय पूर्ण तथा असमान सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं किया गया होता(डॉ. डी. आर. जाटव: डॉ अम्बेडकर का नैतिक दर्शन, पृ 119)।

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