Sunday, September 23, 2018

ॐ पद्मे हूँ

ॐ पद्मे हूँ
गायत्री जिस 'ब्रह्म' का गायन करती है, कठोपनिषद में(दूसरी वल्लरी  16 ) ॐ  को उसी का पर्याय माना गया है। उपनिषदों में कहीं 'ब्रह्म' आत्मा में घुलमिल जाता है, कहीं आत्मा 'ब्रह्म' में।  इन दोनों के घोल को सम्मिलित रूप से 'आत्म-तत्व' कहा जा सकता है।  इसी 'आत्म-तत्व' की व्याख्या है- अक्षरों और मात्राओं में उस 'आत्म-तत्व' का वर्णन किया जाए तो उसे ओंकार कहते है। अक्षर और मात्रा में कोई खास भेद नहीं है। अक्षर ही मात्रा है और मात्रा ही अक्षर है। वे अक्षर व  मात्राएँ 'अकार', 'उकार' तथा 'मकार' हैं।

'अकार' प्रथम मात्रा है।  यह जीवात्मा' तथा 'ब्रह्म' के स्वप्न स्थान की, जिसका 'तेजस' शरीर कहा गया है, प्रतिनिधि है। 'उकार' द्वितीय मात्रा है। यह जीवात्मा' तथा 'ब्रह्म' के जाग्रत स्थान की, जिसका 'वैश्वानर' शरीर कहा गया है, प्रतिनिधि है। 'मकार' तृतीय मात्रा है। यह जीवात्मा' तथा 'ब्रह्म' के सुषुप्त  स्थान की, जिस को  'प्राज्ञ' शरीर कहा गया है, प्रतिनिधि है।

माण्डुक उपनिषद(8, 10, 11, 12 ) के अनुसार, मात्रा रहित ओंकार चतुर्थ है। जैसे शरीर की जागृत अवस्था तथा सुषुप्ता अवस्था में से निकल कर जीवात्मा अपने चतुर्थ रूप में आ जाता है-  वैसे अ, उ, म तीन मात्राओं से प्रथम ओंकार का अमात्र रूप भी है। वह रूप व्यवहार में नहीं आता। वह शिव है, अद्वैत है, वहां संसार के प्रपंच का उपशमन हो जाता है।  जो ओंकार के इस रूप को जानता है, वह बाहर न भटक कर आत्म-ज्ञान द्वारा अन्तरात्मा में प्रवेश कर जाता है(आनंद कौसल्यायन : दर्शन, वेद से मार्क्स, पृ  42  )।



ॐ यानि ओम, जिसे 'ओंकार' या 'प्रणव' भी कहा जाता है। ॐ  है तो ढाई अक्षर का शब्द किन्तु  इसमें ब्रम्हांड समाया, बताया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि ब्रह्माण्ड में भौतिक पदार्थों के अस्तित्व में आने के पहले जो प्राकृतिक अनुगूँज थी, वह ॐ की ध्वनि थी।

हिन्दू,  ॐ को संस्कृत का शब्द बताते हैं। वे इसके तीन हिज्जे करते हैं - अ, उ, म। 'अ' ध्वनि गले के पीछे से मुंह खोलते ही निकलती है। मुंह खोलने पर  'उ  की ध्वनि निकलती है और बंद करने पर  'म' मुंह के बंद होने की स्थिति में निकलती है। इसलिए 'अ' को ब्रह्मा(निर्माता), 'उ' को विष्णु(परिरक्षक) और 'म' को शिव(विध्वंशक) से दर्शाया जाता है।

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