सामूहिक निर्णय का अभाव
बीएसपी में सामूहिक निर्णय का अभाव है। यहाँ मेरा आशय इस वक्त बहनजी के नेतृत्व पर ऊँगली उठाना नहीं है, वरन सामूहिक नेतृत्व की महत्ता को रेखांकित करना है। किसी मसले पर निर्णय लेना एक बड़ी चुनौति हुआ करता है, यहाँ तक की किसी व्यक्ति/विचारधारा के जीवन-मरण का प्रश्न इससे जुड़ जाता है। ऐसी स्थिति में आपके द्वारा लिए गए निर्णय बेहद संवेदनशील होने के साथ ही दूरगामी प्रभाव पैदा करने वाले भी होते हैं।
मुझे याद आता है कुछ वर्ष पहले म. प्र चुनाव में फूलसिंह बरैया को हटाने का फैसला। वह फैसला जिन परिस्थितियों में लिया गया, हम उस पर कुछ टिपण्णी न कर इतना जरूर कहना चाहेंगे कि इसके परिणाम बड़े दूरगामी और अनिष्टकारी सिद्ध हुए। लोग, अभी भी उस सदमे से नहीं उबरे हैं। जो आदमी खून-पसीना बहाता है तो उसे अपनी शक्ति का एहसास भी होता है। इसके साथ ही केंद्रीय नेतृत्व को यह डर भी स्वाभाविक है कि वह उसके नेतृत्व को कहीं चुनौति न हो । किन्तु इसके लिए दलित समाज को बलि का बकरा बनाने का क्या तुक है ?
मुझे लगता है कि इस सम्बन्ध में हमें बीजेपी और कांग्रेस से सीख लेनी की जरुरत है। बीजेपी और कांग्रेस में लिए गए निर्णय की जवाबदारी सामूहिक होती है। कम्युनिस्ट पार्टियों में तो सामूहिक नेतृत्व की ही संरचना है। बीजेपी में तो काउंटर चैक करने आरएसएस भी है। हमें सामूहिक नेतृत्व की संस्कृति विकसित करनी होगी। सामूहिक नेतृत्व में दो व्यक्तियों की टकराहट बेमानी हो जाती है।
बीएसपी में सामूहिक निर्णय का अभाव है। यहाँ मेरा आशय इस वक्त बहनजी के नेतृत्व पर ऊँगली उठाना नहीं है, वरन सामूहिक नेतृत्व की महत्ता को रेखांकित करना है। किसी मसले पर निर्णय लेना एक बड़ी चुनौति हुआ करता है, यहाँ तक की किसी व्यक्ति/विचारधारा के जीवन-मरण का प्रश्न इससे जुड़ जाता है। ऐसी स्थिति में आपके द्वारा लिए गए निर्णय बेहद संवेदनशील होने के साथ ही दूरगामी प्रभाव पैदा करने वाले भी होते हैं।
मुझे याद आता है कुछ वर्ष पहले म. प्र चुनाव में फूलसिंह बरैया को हटाने का फैसला। वह फैसला जिन परिस्थितियों में लिया गया, हम उस पर कुछ टिपण्णी न कर इतना जरूर कहना चाहेंगे कि इसके परिणाम बड़े दूरगामी और अनिष्टकारी सिद्ध हुए। लोग, अभी भी उस सदमे से नहीं उबरे हैं। जो आदमी खून-पसीना बहाता है तो उसे अपनी शक्ति का एहसास भी होता है। इसके साथ ही केंद्रीय नेतृत्व को यह डर भी स्वाभाविक है कि वह उसके नेतृत्व को कहीं चुनौति न हो । किन्तु इसके लिए दलित समाज को बलि का बकरा बनाने का क्या तुक है ?
मुझे लगता है कि इस सम्बन्ध में हमें बीजेपी और कांग्रेस से सीख लेनी की जरुरत है। बीजेपी और कांग्रेस में लिए गए निर्णय की जवाबदारी सामूहिक होती है। कम्युनिस्ट पार्टियों में तो सामूहिक नेतृत्व की ही संरचना है। बीजेपी में तो काउंटर चैक करने आरएसएस भी है। हमें सामूहिक नेतृत्व की संस्कृति विकसित करनी होगी। सामूहिक नेतृत्व में दो व्यक्तियों की टकराहट बेमानी हो जाती है।
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