Thursday, September 6, 2018

धम्म ग्रंथों में 'देवता' -

धम्म ग्रंथों में 'देवता' -
पिछले रविवार अशोक बुद्ध विहार भोपाल में एक उपासक के प्रश्न पर कि बुद्ध-वंदना की गाथाओं में  'देवता' क्या  हैं, 'पारिवारिक धम्म संगोष्ठी' के एक प्रमुख कार्यकर्त्ता ने कह दिया कि संघ-वंदना में जो 'अट्ठ-पुरिस पुग्गला' है, वही 'देव' या  'देवता' हैं। मुझे उनकी व्याख्या प्रश्न से पिण्ड छुड़ाने की लगी।

यह सच है कि विनय पिटक, सुत्त पिटक, अभिधम्म पिटक आदि धम्म-ग्रंथों में बुद्ध का अभिनन्दन करते 'देवता' मिल जाएंगे, अपनी शंकाओं का समाधान करते  'देवता'  मिल जाएंगे। यहाँ तक कि दैनिक  बुद्ध वंदना सुत्त-गाथाओं में हमें आशीर्वाद देते 'देवता' मिल जाएंगे।

आप अगर बुद्धिस्ट है तो आपको इस कथित 'देवता' से रुबरुं होना ही पड़ेगा, उनका आशीर्वाद लेना ही पड़ेगा। आप कितना ही 'ब्राह्मणवाद' से घृणा करते रहे, 'देवता' की शरण में गए बगैर आप रह नहीं सकते। भले ही बाबासाहब डॉ आंबेडकर द्वारा प्रदत्त 22 प्रतिज्ञाओं को दिन में दस बार दुहराते रहे कि मैं किसी देवी/देवता को नहीं मानूंगा ' आपको "भवतु सब्ब मंगलं, रक्खन्तु सब्ब 'देवता' कहना ही पड़ेगा !

यही 'ब्राह्मणवाद' है। मैं ब्राह्मणों की 'दिव्य-दृष्टि' से अभिभूत हूँ। ब्राह्मण, बुद्ध को हरा नहीं सकें, उनसे पार पा न सकें तो एक बहुत ही खतरनाक रास्ता अपनाया। यह खतरनाक रास्ता था, उस दर्शन में घुस कर उसे अपना बनाना और धीरे-धीरे उसकी रगों में ब्राह्मणवाद का जहर घोल देना । यह युक्ति ऐसी है कि इस में संदेह की गुंजाईश नहीं होती । और फिर, इसके असफल होने की संभावना भी नहीं होती। बाबासाहब ने 'हू वेयर शुद्राज' और रिडल्स ऑफ़ हिंदुइज्म' में  इस पर काफी कुछ लिखा है और पहचान कर इसे 'अतिवाद को अतिवाद से मारने' की स्ट्रेटेजी(युक्ति) कहा है ।

 यह ऐतिहासिक तथ्य है कि धम्म-ग्रंथो में आए देवी-देवता महायानी संकल्पना है। बौद्ध धर्म की महायानी विधारधारा, दरअसल हीनयान विधारधारा को ब्राह्मणवाद में तब्दील करने की साजिश है। सनद रहे, बाबासाहब बौद्ध धर्म की हीनयान विचारधारा से प्रभावित थे। दलितों को ब्राह्मणवाद से मुक्ति  चाहिए थी। हमें स्वर्ग-नरक से कोई लेना-देना नहीं था। मरने के बाद हमारा क्या होगा, से ज्यादा जरुरी था;  ब्राह्मणवाद से पीड़ित जानवरों से बदतर जिंदगी से मुक्ति। और इसलिए, जब हमारे मसीहा ने देखा कि दलित बिना धर्म के रह नहीं सकते और अगर रह भी गए तो ब्राह्मण उन्हें जीने नहीं देंगे और यह भी कि किसी नए धर्म की खोज संभव नहीं है अर्थात जो धर्म हैं, उन्हीं में से चुनना है, तो उन्हें बुद्ध का धम्म ही तुलनात्मक रूप से ठीक जंचा।

बौद्ध महायान परम्परा से बाबासाहब खूब परिचित थे। और इसलिए उन्होंने हमें 'बुद्धा एंड धम्मा' देकर 'आसमान से गिरे और खजूर में अटके' वाली सम्भावना को ख़त्म करते हुए महायानी विचारधारा से   संक्रमणित हुए सद्धम्म को ब्राह्मणवाद से बचा लिया। यद्यपि उनका स्वास्थ्य यह ऐतिहासिक चुनौतीपूर्ण कार्य करने की उन्हें कतई अनुमति नहीं दे रहा था, तब भी मुंह फाडे ब्राह्मणवाद से दलितों को बचाने उनका यह प्रयास आवश्यक था।

महायानी परम्परा-
महायानी बौद्ध परम्परा में प्रज्ञापारमितासूत्र, सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र, ललितविस्तर,लंकावतार सूत्र, गण्डव्यूहसूत्र, तथागत गुह्यसूत्र आदि विशाल साहित्य है। यह सारा साहित्य संस्कृत में है।

 सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र-
इस में 'सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र' बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यद्यपि सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र की रचना भारत में हुई थी किन्तु यह ग्रन्थ भारत से लुप्त हो गया था। लेकिन भारत के बाहर के देशों में जहाँ जहाँ महायानी बौद्ध धर्म का प्रचार और प्रसार हुआ, वहां वहां इस ग्रन्थ को बहुत ही सम्मान प्राप्त हुआ। इस ग्रन्थ को महायानी बौद्धों में 'बुद्ध वचन' का स्थान और महत्त्व प्राप्त है। नेपाल, तिब्बत, चीन, जापान, मंगोलिया, भूटान, ताइवान आदि देशों में यह पूज्यनीय ग्रन्थ है। उसी प्रकार भारत के हिमालयीन  पर्वतीय क्षेत्रों में बसे महायानी बौद्धों में भी इस ग्रन्थ को पूज्यनीय माना जाता है(प्रस्तावना: सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र: डॉ. विमलकीर्ति )।

चीनी भाषा में सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र का पहला अनुवाद ईस्वी 223 में हुआ था। भदन्तचार्य बसुबंधु ने 5 सदी में इस पर टीका लिखी थी। जापान के राजपुत्र ने इसका अनुवाद 6 सदी किया था। बड़ी जल्दी यह ग्रन्थ वहां घर-घर पूजा जाने लगा। यहाँ महायानी बौद्ध परम्परा के कई सम्प्रदाय हैं जिस में निचिरेन बौद्ध सम्प्रदाय अति प्रसिद्द है।  बीसवीं सदी में इसी निचिरेन बौद्ध संप्रदाय के प्रसिद्द आचार्य फ्यूजी गुरूजी हुए जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध और दूसरे विश्व युद्ध को भयानकता को देखते हुए जापान में, भारत में और भारत के बाहर कई देशों में विश्व शान्ति स्तूपों का निर्माण करके, करवा करके संसार के लोगों को बुद्ध के शांति सदेश देने का महान काम किया है।  फ्यूजी गुरूजी के इन कार्यों के मूल में इस सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र की ही प्रेरणा रही है(वही)।

सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र में बुद्ध को अलौकिक और लोकोत्तर में वर्णन-
सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र में बुद्ध को, जो ऐतिहासिक महापुरुष है, अलौकिक और लोकोत्तर पुरुष वर्णन किया गया है। इस में बोधिसत्व जीवन का और बुद्धत्व की प्राप्ति के महत्त्व का वर्णन किया गया है(वही)।

'अट्ठ पुरिस पुग्गला' और 'देवता' भिन्न भिन्न- 
अब मूल प्रश्न  'अट्ठ पुरिस पुग्गला' पर आते हैं। सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र के पहले ही अध्याय 'निदान परिवर्त' में
 'अट्ठ पुरिस पुग्गला' और 'देवता' को अलग-अलग श्रेणी में दर्शाया गया है- 'उस समय उन्होंने सोचा कि चार श्रेणियों वाले शिष्य, भिक्खु, भिक्खुणियां, उपासक, उपासिका और अनेक देवता, नाग, यक्ष, गन्धर्व, असुर, गरुड़, किन्नर, महासर्प,मनुष्य,  अमनुष्य आदि के मन में यह विचार आया कि भगवान  बुद्ध को उनके द्वारा प्रदर्शित महाचमत्कार के बारे में क्यों न पूछा जाए'(निदान परिवर्त: पृ. 16 )? यहाँ, 'चार श्रेणियों वाले शिष्य' निस्संदेह अट्ठ पुरिस पुग्गला' हैं। और भी इसके आलावा अनेक प्रसंग ग्रन्थ में हैं, जहाँ चार श्रेणियों वाले शिष्य' और 'देवता' को अलग-अलग दर्शाया गया है।

 'अट्ठ-पुरिस पुग्गला' क्या है ?
दरअसल,  'अट्ठ पुरिस पुग्गला' ध्यान-साधकों के प्रकार हैं। साधकों की यह अवधारणा महायानी बौद्ध-परम्परा में मिलती है (देखें- ‘पुग्गलपञ्ञतिः अभिधम्मपिटक)। महायान से ही लोकोत्तर, अनेक बुध्द, बोधिसत्व आदि की अवधारणा विकसित हुई और पूजा-पाठ आदि का महत्व बढ़ा।

पुग्गल भेद-
सोतापन्न- जो स्रोतापत्ति मार्ग की भावना करके सक्काय दिट्ठि(दृष्टि), विचिकिच्छा, सीलब्बत परामास(शीलव्रत-परामर्श) का प्रहाण करके अपाय-उत्पत्ति की संभावना समाप्त कर देता है और जिसका देवलोक या मनुष्य लोक में अधिक से अधिक सात बार जन्म होता है। सकदागामी- सकृतागामी मार्ग की भावना कर राग, द्वेष, मोह को क्षीण करने वाला। यह एक बार ही इस लोक में आता है। अनागामी- यह अनागामी मार्ग की भावना कर कामराग तथा व्यापाद का सर्वथा नाश करने वाला। यह फिर इस लोक में नहीं आता, केवल शुद्धावास देवलोक में ही जन्म ग्रहण करता है। अर्हत - अर्हत मार्ग की भावना कर क्लेशों का सर्वथा नाश करने वाला(भदन्त आनंद कौसल्यायन: अभिधम्मसंगहो,  पृ. 119- 120 )।

अभिधम्मपिटक - यह आसानी से न समझ आने वाला दार्शनिक ग्रन्थ है। भदन्त आनंद कौसल्यायन के शब्दों में,  'और फिर, वह दर्शन ही क्या, जो इतना सरल हो जाए कि आसानी से समझ में आ जाए (दर्शन, वेद से मार्क्स तक, पृ. 3) ! प्रथम और द्वितीय संगीतियों के वर्णन में धम्म तथा विनय के ही संगायन की चर्चा है। इससे यह स्पष्ट तया ज्ञात होता है कि पहले दो ही पिटक थे और अभिधम्मपिटक पीछे का है। अभिधम्मपिटक पर टिका चौथी सदी में आचार्य वसुबन्धु ने सर्वास्तिवाद के लिए किया था ( पालि  साहित्य का इतिहास, पृ. 167 : राहुल सांकृत्यायन)।।
अभिधम्मपिटक के अंतर्गत पुग्गल पञ्ञति, विभंग, धम्मसंगनि, धातुकथा, यमक, पट्ठान, कथावत्थु आदि ग्रन्थ रखे हैं। इसका एक ग्रन्थ कथावत्थु तो तृतीय संगीति के प्रधान मोग्गलिपुत्त तिस्स ने स्थिरवादी-विरोधी निकायों के खंडन के लिए लिखा था(वही)।

पुग्गल पञ्ञति-   पुग्गल(पुद्ग़ल)  का अर्थ होता है व्यक्ति, और व्यक्ति की प्रज्ञप्ति(पञ्ञति) करना इस ग्रन्थ का विषय है। इसमें व्यक्तियों का नाना प्रकार से वर्गीकरण किया गया है और यह एक-एक प्रकार के व्यक्तियों से प्रारम्भ करके दस-दस प्रकार के व्यक्तियों के निर्देश तक चला गया है।  सर्व प्रथम प्रश्न किया गया है और बाद में उसी का उत्तर दिया गया है(पालि  साहित्य का इतिहास, पृ  174)। यथा-
प्रश्न- कौन सा व्यक्ति उस बदल के सामान है, जो गरजता है, पर बरसता नहीं ?
उत्तर- जो कहता बहुत है, पर करता कुछ नहीं।
प्रश्न- कौन सा व्यक्ति उस चूहे के समान है, जो अपना बिल तो खोद कर तैयार करता है, किन्तु उसमें रहता नहीं ?
उत्तर- जो व्यक्ति, सुत्त, गाथा, उड़ान, जातक आदि ग्रंथों के अभ्यास में रत तो रहता है, किन्तु चार आर्य सत्यों का साक्षात्कार नहीं करता, वही व्यक्ति उक्त चूहे के सामान है; आदि।

और, मैं यह फिर स्पष्ट कर दूँ की धम्म-ग्रन्थ चाहे महायानी ही क्यों न हो, मैं उन्हें उतना ही सम्मान देता हूँ जितना कि 'बुद्धा एंड  धम्मा'। मेरा आग्रह सिर्फ यह है कि हमारे लोग, धम्म की विवेचना में  'सम्यक दृष्टि' अपनाएं। कोई भी बात, चाहे ति-पिटक ग्रन्थ हो, या 'बुद्धा एंड धम्मा' श्रद्धातिरेक से न पढ़े। गलती, ग्रंथों के  पीढ़ी-दर-पीढ़ी होते अनुवाद से भी हो सकती है अथवा अनुवाद-कर्ता के अभि-संस्कृतिक संस्कारों से।

विश्व परिवर्तनशील है, तो समाज भी उसका हिस्सा है। सांस्कृतिक मूल्य बदलते रहते हैं और यह विकास की अंतहीन प्रक्रिया है। हमें दिमाग को खुला रखना है। जड़ता, सड़ने की प्रक्रिया है। धम्म-ग्रंथों में परिवर्तन होते रहे हैं। बौद्ध संगीतियाँ इसीलिए हुई थी। असंगत शब्दों को मुर्दों की मानिंद ढोते रहना, बंदरी के तरह अपने मरे बच्चे को छाती से चिपकाए रखना है। हमने अपने सद्य प्रकाशित ग्रन्थ 'धम्म परित्तं' में इस तरह के  'ब्रह्म',  'देवता' आदि अबौद्ध शब्दों की न सिर्फ विवेचना की है अपितु निराकरण भी सुझाया है।  यथा-  भवतु सब्ब मंगलं, रक्खन्तु सब्ब अरहता। सब्ब बुद्धानुभावेन, सदा सोत्थि  भवन्तु ते। 
  

No comments:

Post a Comment