Sunday, April 27, 2014

आओ चले गावं की ओर


छोटू (ऐश्वर्य ) की वेडिंग 18 अप्रेल 2014  सम्पन्न होने के बाद  हम लोग  दल्ली-राजहरा से सीधे सालेबर्डी गए।  तय प्रोग्राम के अनुसार, 19  अप्रेल का नाइट हाल्ट सालेबर्डी था।

अन्य समाजों में नई नवेली दुल्हन और दूल्हे को अपने कुल या पारिवारिक देवी/देवता के पास ले जाने का रिवाज़ है।  मेरे दिमाग में था कि मैं  नई नवेली दुल्हन और दूल्हे को अपने पितृ-स्थान ले चलूं।  हम लोगों ने तो देवी-देवताओं को काफी पहले अलग रख दिया है न ।

घर के बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद नई नवेली दुल्हन और दूल्हे को लेना चाहिए। बड़े-बुजुर्गों का दर्शन प्रेरणादायी होता है। वे जमीन से जुड़े रहने की सीख देते हैं। 


इस बार दामाद बिपिन और बिटिया भी साथ थे। हम उम्र होने से बिटिया-दामाद और बेटा-बहू के बीच गाढ़ी छन रही थी।  उम्र के साथ-साथ विचारों का अंतर मैं साफ-साफ देख रहा था।  विचारों की समानता उम्र का लिहाज नहीं करती , एक बार पुन: यह विचार मुझे दकियानूसी लगा।  मैं अलग होकर भी अलग नहीं रह सकता था।  बेटे और दामाद से भला आप अलग कैसे हो सकते हैं ?
नौकरी या व्यवसाय की वजह से हम लोग गावं से दूर रहते हैं। गाँव जैसे कस्बों में, अलग-थलग बसी कालोनियों में लम्बे समय तक प्रवास करते हैं।  और फिर, हम में से बहुत लोग मेट्रोपोलिटन शहरों में जा कर बसते हैं- जन्म-स्थान से दूर । अपनों से दूर, परिवेश और विचारोँ से दूर।

बच्चें होते हैं, पलते-बढ़ते हैं।  शिक्षा प्राप्त करते हैं- शहर में, मेट्रोपोलिटन नगरों में।  पढ़-लिख कर शादी होने के बाद बच्चों में अपने पितृ-स्थान में जाने की ललक हो, यह जरुरी नहीं है. मुझे इसके लिए आज-कल के बच्चों पर कम उनके माँ-बाप पर तरस अधिक आता है। 

खैर , यह मेरी सोच थी कि गावं जाना चाहिए और यह सोच कार्यान्वित हुई. लड़का, बाप को समझे, यह बड़ी बात है. मुझे फख्र है कि छोटू ने इसे वेटेज़ दिया.

गावं परम्पराओं  चलता है। दरअसल, परम्पराओं का नाम ही गावं है। दामाद घर आए तो आरती सजा कर उनको टीका लगाना है। आँगन में लकड़ी के पाटे पर पैर धोना है। और फिर ,  नई-नवेली दुल्हन-और दूल्हे को सबके पैर पड़ना है । भाई यही हमारी तहज़ीब है। तहज़ीब का नाम गावं है और हमारा देश गावों मे बसा है।  

मगर , इसका क्या किया जाए कि यह तहज़ीब अब गांवों को भी टा टा करने लगीं है।