Monday, December 27, 2010

स्त्री- स्वातंत्र्य की शेष प्रतिज्ञाएँ

स्त्री- स्वातंत्र्य  की शेष प्रतिज्ञाएँ
1. 'पुत्री पराया धन है'- इस धारणा का मैं प्रतिवाद करती हूँ क्योंकि, इसे देश का कानून भी अस्वीकार करता है.
२. पौराणिक मिथकों जैसे 'सीता की अग्नि-परीक्षा' आदि को मैं अपनी पूरी शक्ति के साथ अस्वीकार करती हूँ क्योंकि,यही सड़े आदर्श स्त्री को 'गाय' बनाते हैं.
३.'स्त्री घर की मर्यादा है' को मैं गुलामी का प्रतीक मानती हूँ क्योंकि,यह पुरुष को अमर्यादित रहने की छूट देता है.
४.

Wednesday, November 17, 2010

साधू बाबा जिवलंगदास

         महाराष्ट्र संत-महात्माओं की धरती रही है. यहाँ के संत-महात्माओं ने जाति-पातीं की ऊंच-नीचता और धार्मिक कर्म-कांडों के विरुद्ध जो सामाजिक-चेतना का जन-आन्दोलन चलाया, वह पूरे देश में कश्मीर से कन्याकुमारी स्तुतिय है. सामाजिक चेतना के इन जन-आन्दोलनों में अमरावती के साधू बाबा जिवलंगदास हमेशा याद किये जाते रहेंगे.इतिहास के गर्भ में ऐसे कई महापुरुष होंगे जिन पर इतिहास लिखने वालों की इनायत न हुई हो.साधू बाबा जिवलंगदास शायद ऐसे ही हैं.
      सन 1992 के दौरान जब में अपने पूज्य गुरु महंत बालकदास साहेब के कृतित्व पर 'साक्षात्कार' नामक ग्रन्थ लिख रहा था तो गुरूजी ने अवश्य साधू बाबा का जिक्र किया था. मगर चूँकि उस समय मेरे अध्ययन का केंद्र गुरूजी थे, अत साधू बाबा के बारे में मैं ज्यादा कुछ नहीं जान पाया.आज न तो गुरूजी हैं और न ही साधू बाबा मगर, मुझे लगता है, साधू बाबा के बारे में लिख कर मैं न सिर्फ अपनी गलती सुधार रहा हूँ बल्कि, इतिहास के इन पृष्ठों से लोगों को रूबरु  करा रहा हूँ जो शायद अभी तक अनपलटे हैं.
       एक बात और, इतिहास कोई एक आदमी नहीं लिखता. वास्तव में इतिहास घटनाओं का सिलसिला हैं, जो कई लोगों के द्वारा विभिन्न समय में लिखा जाता है. यह एक लेखन प्रवाह है, जो चलते रहता है. प्रस्तुत लेख के माध्यम से गुजारिश होगी कि जिन पाठकों को साधू बाबा के बारे में अधिक जानकारी हैं, कृपया वे मुझे अप-डेट कर इस कार्य को आगे बढ़ाये.
        साधू बाबा महाराष्ट्र के जिला अमरावती के हैं. आपका जन्म महार जाति के राउरकर परिवार में हुआ था. बाबा  कद-काठी के ऊंचे-तगड़े और आचार-विचार में सदाचारी के थे. उनके हाथ में हमेशा चिमटा और कुबजी तथा पैर में खडाऊं रहते थे. वे पंचीकरण* के सिद्धहस्त योगी  थे.
       साधू बाबा, सामाजिक-चेतना के कार्यों के अलावा जीवन-व्यापन के लिए छोटा-मोटा धंधा किया करते थे.अमरावती और इसके आस-पास कपास की खेती होती है. बाबाजी के पास एक ऊँट था.बाबाजी आस-पास के गांवों से कपास फुटकर में खरीदते और ऊँट की पीठ पर लाद कर दूर तुमसर की कपास मंडी में बेच आते .बाबाजी की एक बहन सुकडी में रहती थी.बाबाजी जब भी कपास लेकर तुमसर मंडी आते, अक्सर अपनी बहन के यहाँ मुकाम करते थे.मगर, यह तो एक माध्यम था. वास्तव में, साधू बाबा अमरावती से तुमसर तक की यात्रा में जगह-जगह संत-महात्माओं के बीच बैठकर सामाजिक-चेतना की अलख जगाते थे.
      साधू  की नजर साधू को तलाश  करती है. शायद, इसी तलाश में सन 1937 के दरमियान साधू बाबा की नजर बपेरा के एक तेजस्वी बालक पर पड़ी जो 12-13 वर्ष की उम्र से ही साधू वेष में रहता था.
       जल्दी ही साधू बाबा की कृपा इस बालक पर हुई.  यही बालक, जो आगे चल कर ' कबीर पंथ के महंत गुरु बालकदास' के नाम से प्रख्यात हुए, को साधू बाबा ने योग्य उत्तराधिकारी जान गुरु परम्परा से प्राप्त रामानंद पंथ की गद्दी सौंप दी और खुद को धन्य समझा. क्योंकि, योग्य उत्तराधिकारी भाग्य से ही मिलता है. यह घटना सन 1941 की है.
.........................................................................................................................................................
*पांच तत्वों के गुण,क्रिया,धर्म आदि विस्तार के अध्ययन को 'पंचीकरण' कहते हैं.

   

Sunday, November 14, 2010

अरे, कौन टेंशन पाले ?

         मेरा एक सहकर्मी मित्र, तन से तो पहलवान है ही, भाषा से भी पहलवान है. एक दिन जयप्रकाश कर्दम द्वारा सम्पादित पुस्तक 'दलित साहित्य १९९९' जिसे पढ़ते-पढ़ते अन्य  कार्य में उलझने से मैंने टेबल पर रख दिया था, मित्र ने उठाया और काफ़ी देर तक उसके पन्ने उलटते-पलटते रहा.
      "सर, इसे पढ़ कर तो खून खौलने लगता है ?"-पन्ने पलटना जारी रखते हुए उसने मेरी ओर देख कर कहा.
 एकाएक जैसे मुझे विश्वास नहीं हुआ. स्तम्भित-सा उसे देखने लगा-
      "तब तुम ऐसा साहित्य पढ़ते क्यूँ नहीं हो ?" मैंने उनके चेहरे पर नजर जमाये पूछा.
       "अरे, कौन टेंशन पाले.मादरचो...  यहाँ अपने घर-परिवार का ही टेंशन क्या कम है." -पहलवान मित्र ने अपने हाथी जैसे शरीर का टेंशन रिलीज करते हुए कहा. (दिनांक ०७.०७.०२/लेखक की डायरी से)

Saturday, November 13, 2010

आर एस एस की सेंध

सहारा न्यूज(म प्र:छति) चैनल में प्रसारित खबर के अनुसार जगदलपुर(बस्तर) के पारम्परिक दशहरा उत्सव में आर एस एस और इससे जुड़े हिंदूवादी संगठनों  द्वारा सेंध लगायी है.
विदित हो कि वहां के आदिवासियों द्वारा परम्परा से मनाये जा रहे दशहरा उत्सव में रावण का वध नहीं किया जाता था. किन्तु , इस बार आर एस एस और इससे जुड़े भाजपा आदि हिंदूवादी संगठनों ने परम्परा से चले आ रहे इस उत्सव में सेंध लगा कर पहली बार रावण के पुतले का वध कराया है.

Sunday, November 7, 2010

अदब

     पूर्व पदस्थ कार्यालय में मेरी सहकर्मी एक महिला अधिकारी थी. सभी उन्हें उनके नाम से ही जानते थे. इधर कुछ दिनों से उन्होंने अपनी नेम प्लेट बदल ली थी. नेमप्लेट में अब उन्होंने अपने नाम के आगे 'श्रीमति' जोड़ लिया था. मुझे शरारत सूझी.
"मैडम, अगर आप 'श्रीमती' न भी लिखती तो कोई हर्ज नहीं था." -मैंने टोका.
 "इसमें हर्ज भी क्या है." मैडम मुस्कराई. वह मेरी कैफियत जानती थी.
"मैडम, आप अधिकारी है. आफिस में आपका दबदबा है. आपका अपना व्यक्तित्व है, आपकी अपनी पहचान है. 'श्रीमती' जतला कर कार्यालय में भी क्या आप पुरुष सरक्षण को नहीं ढो रही है ?" -मैंने कहा, 
मैडम हडबड़ाई. थोडा संयत होकर बोली- "यह तो हमारी परम्परा है."
हमारे देश की महिलाएं जो अब पढ़-लिख कर डा और इंजिनियर बन गई हैं,वर्षों से चली आ रही परम्पराओं का किस तरह अदब करती है...मैं सोच रहा था.

क्या कभी बदलाव आएगा ?

             बिलासपुर-कटनी रेल्वे रूट पर अनुपपुर,अमलाई,बुढ़ार ८-९ कि मी की दूरी पर पास-पास के स्टेशन हैं. बुढ़ार के बाद शहडोल ३० कि मी है.अनूपपुर तथा बुढ़ार छोटे-मोटे ओद्योगिक नगर हैं जबकि, अमलाई 'ओरियंट पेपर मिल' तथा 'कास्टिक सोडा फेक्टरी' के कारण फेमस है. दुसरे,चचाई जो रेल्वे रूट से हटकर अनुपपुर और अमलाई के बीच  दोनों से  करीब ८-९ की मी दूरी पर स्थित है, थर्मल पावर जनरेशन का बहुत बड़ा केंद्र हैं. और इससे बड़ी बात, ये सभी साऊथ- इस्टर्न कोल बेल्ट में होने के कारण ओद्योगिक क्षेत्र हैं.                
          मैंने अमलाई से ट्रेन पकड़ी थी और गन्तव्य स्टेशन बीरसिंहपुर था. स्टेशनों के  पास-पास होने से कभी-कभी बड़ी कोफ़्त होती है,खास कर जब ट्रेक में स्पीड कम हो.बुढ़ार के बाद अब सीधा शहडोल आना था. मगर, फिर ट्रेन रुकी.मैंने खिड़की के बाहर झाँका.कोई स्टेशन जैसी बात नहीं थी. तभी सिहंपुर का ध्यान आया,जो पिछले ५० वर्षों से बनने की अवस्था में ही चल रहा हैं.हमारे यहाँ स्टेशन बनने में बरसों लगते हैं. मैं दरवाजे के पास वाली बर्थ पर बैठा था. तभी टॉयलेट के तरफ वाले स्पेस से दस-बारह औरतें हडबडाहट में उतरते दिखी. औरतें,जिनमे जवान ज्यादा थी,मटमैले थैले और गठरियाँ सिर पर लादे ट्रेन से उतरी और रेल्वे ट्रेक पार करते हुए गाँव की पगडण्डी की ओर सरपट भागने लगी. दूर घरों से धुंआ उठते हुए कच्चे मकानों वाला गाँव, मैं खिड़की से देख रहा था.
           मगर, ये क्या ? औरतों के सिर पर थैले ओर गठरियों के अलावा चप्पलें भी लटक रही थी. प्रथम दृष्टया ये मुझे बेवकूफी नजर आयी. आखिर, चप्पलें सिर पर लटकाने की क्या जरूरत है ? ठीक है, उतरने की अफरा-तफरी में पैर से निकाल लिया होगा. मगर वे घर ही जा रही थी,ट्रेन से  उतर कर आराम से पहन सकती थी ?
            एकाएक मुझे ३०-३५ वर्ष पहले गाँव में बचपन के दिन याद आये.घर के सभी सदस्यों के बीच 'एसाइन किये गये वर्क' के तहत मेरा काम सबेरे उठ कर  मुंह-अँधेरे में जानवरों को बांधे जाने वाले कोठे से गाय-बैलों को निकाल आंगन में बांध वहां की साफ-सफाई करना था. इस चक्कर में, जानवरों के मूत्र से सना  घास और गोबर बड़े से डल्ले में सिर पर रख कर दूर बाड़ी  के किनारे बने घूरे में फैकना होता था. और ये कार्य मैं, बदन पर पहनी बनियान या शर्ट निकाल कर नंगे-बदन किया करता था फिर चाहे मौसम गर्मी का हो या ठण्ड  का. निश्चित रूप से वैसा उस समय मैं, सिर पर रखे गोबर-मूत्र के रिसाव से अपनी बनियान या शर्ट को गन्दा होने से बचाने के लिए करता था.प्रथम दृष्टया यह दृश्य किसी को भी बेवकूफी नजर आ सकता है.मगर, गाँव में साबुन-सोडा इतनी आसानी से मिलता कहाँ हैं ?

Saturday, October 30, 2010

Contesting more than one constituecies must be stopped

       Political leader are allowed to contest more than one constituencies. This is not fair. It must be stoped. If they wins from both, they have to left one and retains other.Re-election have to done for left one. Is this not a over/additional loading on our country in term of manpower, draining of thousand corers rupees and political nuance ?

Friday, October 29, 2010

अमीरों के कब्ज़े में हमारी न्याय व्यवस्था

 एक नवीनतम दिलचस्प फैसला-
स्थान- यूनियन कार्बाइड,  भोपाल
समय- ३ दिस १९८४ 
दुर्घटना- जहरीली गैस का रिसाव
परिणाम- -३५,००० लोगों की मौत
             -प्रभावितों की संख्या ५,००,००० और अपाहिज १,२०,०००
             -अपार जन-धन की हानि 
             -दुर्घटना के २५ साल बाद, आज भी करोड़ों रु प्रभावित लोगों के इलाज पर खर्च 
फैसले में लगा वक्त - २० साल और
फैसला- दोषियों को मात्र २-२ वर्ष  की सजा तथा २-२ लाख रु का जुर्माना
कुछ और दिलचस्प फैसलें-
1.  २० रूपये लुटने वाले को सात साल की सजा   नई दिल्ली: अतिरिक्त सेशन जज वी के बंसल ने जाकिर और जितेन्द्र  को सजा सुनाते हुए कहा कि केवल २० रुपये का मामला होने के कारण अपराध की गम्भीरता कम नहीं हो जाती. दोनों ने चौकीदार को लुटते समय उसके पास से सब कुछ छीन लिया . हालाकि उसके पर्स में केवल २० रुपये थे. दोनों पर २-२ हजार रुपये का जुर्माना भी किया गया (स्रोत- दैनिक भास्कर जबलपुर २ जन ११).
2. ४७ करोड़ रूपये के बैंक घोटालेबाज को १ वर्ष कैद की सजा . बैंक घोटालेबाज केतन पारिख,हितेन दलाल एवं अन्य ने बैंक से  ४७ करोड़ रूपये की धोकाधडी कर उसे शेयरों में निवेश कर दिया था.इन दो अभियुक्तों को एक-एक वर्ष की तथा एक अन्य को उसका बुढ़ापा देखते हुए ६ महीने कैद की सजा मुंबई की एक विशेष अदालत द्वारा दी गई थी( वही,अंक १४ मई ०८)
. १० रूपये की भी गडबडी पर श्रमिक को सेवा से हटाया जा सकता है- उच्चत्तम न्यायालय के एक निर्णय  के अनुसार  प्रबन्धन को अधिकार है कि यदि कोई श्रमिक १0 रूपये की भी गडबडी करे तो उसे सेवा से हटाया जा सकता है. क्योंकि, उसने प्रबन्धन का विश्वास खो दिया है( वही).
 तस्वीर का दूसरा पहलू-
            देश का संविधान (अनुच्छेद  ७) कानून के समान संरक्षण की बात करता है. अर्थात कोई कानून के ऊपर नहीं है और इसकी रक्षा के लिए न्यायपालिका को पूरी तरह स्वतंत्र बनाया गया है. अब, अगर ऐसे में हम कहें कि हमारी न्याय व्यवस्था अमीरों के कब्ज़े में हैं तो  इस में बुरा क्या है ? 





.

Thursday, October 28, 2010

ममता तपोभूमि -एक खोज परक रिपोर्ट

तपस्वनी के आसन की ओर जाने का रास्ता 
          ममता तपोभूमि
विगत  दिनों अपने गृह जिला बालाघाट (म.प्र ) जाने के दौरान मुझे एक ऐसे स्थान पर जाने का अवसर मिला जिसके बारे में मैंने  पिछले कई वर्षों से काफ़ी-कुछ सुन रखा था.
           ममता ! 'ममता' नाम है उस लड़की का जिसके बारे में तरह-तरह की खबरें मैं पिछले 18-19  वर्षों से सुन रहा था. यह कि वह रात के घोर अँधेरे में लगभग 12  बजे के आस-पास घर से गायब हो गयी थी. यह की उस का नाम 'ममता' है. यह की उसके पिता का नाम पूनाराम मेश्राम है . यह कि यह घटना ग्राम नांदी-मोन्ह्गांव (कटंगी के पास )की है. यह कि यह एक गरीब परिवार की घटना है.
        यह की लड़की ममता एकाएक घर छोड़ कर चली गयी थी. अब, लोग परेशान. परिवार और सगे-सम्बन्धी परेशान. 12 वी कक्षा में पढने वाली लड़की भला रात के अँधेरे में कैसे जा सकती है ?  क्या वह अकेले ही गायब हुई या उसके साथ कोई और था ?  वह क्यों गायब हुई ? आखिर, उसके माँ-बाप क्या कर रहे थे ? क्या वह नार्मल थी या किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त थी ? ...ऐसे सैकड़ों और हजारों प्रश्न थे जिनका उत्तर घर-परिवार और गाँव  के लोग खोज रहे थे.
          जो लोग देख आये थे, उनके द्वारा मालूम हुआ कि  यह लड़की ममता एकाएक घर छोड़ कर निर्जन जंगल में जाकर पहाड़ की गुफा में बैठ गयी थी जो उसके निवास स्थान से करीब 11-12  की. मी. की दूरी पर स्थित है. यह की लड़की बकायदा होशों-हवाश में है. यह की उसे कोई बीमारी नहीं है और की उसका स्वास्थ्य ठीक-ठाक है.
पहाड़ और चट्टानें
    जैसे की उसके माँ-बाप, नाते-रिश्तेदार उससे पूछ आये थे, देख आये थे, के अनुसार  उसे रात में स्वप्न आया था. स्वप्न में कोई साधू धवल वस्त्रों में दिखा.साधू ने उससे पूछा कि वह क्या चाहती है ? जवाब में उसने  कहा कि वह 12 वी क्लास पढ़ी है और गरीबी के कारण आगे पढ़ नहीं पायेगी, ऐसी स्थिति में उसे भक्ति चाहिए. तब साधू आशीर्वाद देकर अंतर्धान हो गया और  फिर, उसने अपने आप को जंगल में पीपल के पेड़ के नीचे पाया. उसे होश नहीं है कि वह वहां कैसे आयी. बस, जब उसे होश आया तो उसने अपने आप को इस निर्जन जंगल में पहाड़ की गुफा में खड़े पाया. उसे समझ नहीं आ रहा था की वह क्या करे ? एक दिन बीत गया, दो दिन बीत गए, तीन दिन ..चार दिन..सातवे दिन उसे एक औरत नज़र आई जो शायद, बगल के गाँव से जलाऊँ लकड़ियाँ इकठ्ठा करने आई थी. उसने उसे आवाज दी. उसने कहा कि वह 7  दिनों  से भूखी-प्यासी है. तब उस औरत ने उसे अपने पास का पानी पिलाया. उसे लगा की वह ठीक-ठाक है. तब वह उस पहाड़ की गुफा में बैठ ध्यानस्त हो गयी. उसे लगा की गुफा ठीक है.निर्जन वन उसके अनुकूल है. जंगल के जानवर, पशु-पक्षी के बीच वह निश्चिन्त है. बाद में गाँव के लोग आना शुरू हुए.
        10-12 साल पहिले जब मैं अपने गृह नगर गया था, तो पता चला था कि वहां पर काफ़ी लोग झुण्ड के झुण्ड जाते हैं  और अपने-अपने हिसाब से इस घटना को देखते हैं. कोई पूजा-अर्चना करता है तो कोई आशीर्वाद मांगता है. कई एक ऐसे भी थे  जो उसे पागल बतला रहे थे.हमारे गुरु बालकदास साहेबजी ने मुझे बतलाया था की उनका वहां प्रवचन हो चुका है और कि वह जगह काफी अच्छी है,शांत है... तपोभूमि है. उनका प्रवचन जो 'ममता, तू न गयी मेरे मनते...' भजन पर था, उस तपस्वी लड़की ने बड़े ध्यान से सुना था. यह कि वह कम बोलती है,इंटरेक्ट कम करती है.
           इस बार जब बालाघाट गया तो जिज्ञासा थी ही. मैंने वहां जाने के लिए हर संभव कोशिश करने की ठान ली. सौभाग्यवश मुझे साथ भी अच्छा मिला. 24 अक्टू 10 को हमने अपने गृह ग्राम सालेबर्डी जो रामपायली-गर्राचौकी-बोनकट्टा रोड पर रामपायली से 8-9 की. मी. की दूरी पर है, से वहां के लिए प्रस्थान किया. दिन के बारह-एक बजे का समय होगा.हम 9-10 लोग बड़ी-सी फोर-व्हीलर गाड़ी में थे. गर्राचौकी के 3 की. मी. पहिले ही हथोंड़ा गाँव के लिए डायवर्शन है. साथ में जानकार लोग हमने रख लिया था जो वहां दो-तीन दफा हो आये थे. ग्राम हथोडा से 3 की. मी. कपूरबिहरी नामक गाँव निकलते ही जंगल शुरू होता है.कपूरबिहरी के लोगों ने बतलाया कि रास्ता दुर्गम है और कि आगे, नाले में पानी है. अक्टू माह बरसात ख़त्म होने का समय होता है.नतीजन, हमें गाड़ी लौटानी पड़ी.
           आगे पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि बोनकट्टा के पास हरदोली नामक गाँव से वहां पर जाया जा सकता है.बोनकट्टा, मोहनदास-हरगोविन्ददास बीडी स्टॉक के लिए फेमस है. हम पूछते-पूछते हरदोली पार कर जंगल में घुसे. लोगों के आने-जाने से जो रास्ते जंगल में बनते हैं, बरसात में वे अपनी पहचान खो देते हैं. हालाकि बरसात ख़त्म हो चुकी थी, मगर वे रास्ते, अभी इससे उबर नहीं पाए थे.जंगल में हमें कई स्थानों पर अपनी गाड़ी  रोकनी और मोड़नी पड़ी. रास्ते के अभाव में आगे बढ़ना खतरनाक हो सकता है, का परामर्श साथ गाड़ी में बैठने वाले दे रहे थे. मगर, मेरा मानना था कि अवसर बार-बार नहीं आते. मौके का फायदा जरूर उठाया जाना चाहिए.
          अब पीपल का पेड़ जो काफ़ी ऊँचा है, दिखने लगा था.मगर आगे बढना अब एक  नाले के कारण मुश्किल था. हमने गाड़ी वहीँ पार्क की और जैसे कि गाँव के लोग जो दूर जंगल- खेतों  में काम करने जाते हैं,  बीच-बीच में हम उनसे पूछ रहे थे, के अनुसार हम वह नाला पार कर एक पहाड़ पर पहुंचे.
पहाड़, खासा ऊँचा नहीं है. पहाड़ के तीन ओर खेत हैं जिनमें खड़े धान की फसल लहरा रही थी. पहाड़ के एक ओर झील है, जिसमें काफ़ी पानी भरा था. जल्दी ही हमें एक साफ कराया गया रास्ता नजर आया. जैसे ही रास्ते को फालो-अप करते हुए ऊपर  चढ़े, एक लडके ने हमें अभिवादन किया और अपने साथ आने का इशारा किया. हम ऊपर बढ़े.एक नियत स्थान पर उसने हमें जूते-चप्पल उतार कर रखने का अनुरोध किया. फिर आगे बढ़ने पर एक जगह उसने हम लोगों को हाथ-पैर धोकर फ्रेस होने को कहा. हम 9-10 लोग थे. मैं साथ ही साथ इधर-उधर का मुआयना  भी कर रहा था. मैंने देखा की हाथ-पैर धोने के लिए बकायदा हैण्ड -पम्प और लम्बा-चौड़ा बाथ-रूम था.
दर्शनार्थियों के ठहरने हेतु आवास
एक ओर दर्शनार्थियों के ठहरने हेतु आवास थे, जैसे की उस लडके ने बताया. मोटे तौर पर वे सारी सुविधाएँ नजर आ रही थी जो एक   विकसित आश्रम में होनी चाहिए और जहाँ पर लोग आते-जाते रहते हैं. मेरी बायीं ओर ऊपर एक आश्रम, जो एकदम शांत नजर आ रहा था, ..वह तपस्वनी का निवास है, लडके ने जिज्ञासा शांत किया. जैसे कि पहले बतलाया जा चुका है, सामने पानी की झील जो काफ़ी लम्बी-चौड़ी है,बहुत ही मनोरम दृश्य प्रस्तुत कर रही थी.जल्दी ही उस लडके ने हमें अपने पीछे आने का इशारा किया. हम साथ हो लिए. ऊपर घूम कर चढ़ते हुए हम एक विशाल चट्टान जो सीधी न होकर हलकी-सी छुकी हुई है, के सामने पहुंचे.
    मैंने देखा उस चट्टान से लग कर एक आसन लगा है और उस पर वह तपस्वनी भगवान बुध्द की लेती हुई मुद्रा में विराजमान है. उस लडके ने तब उस तपस्वनी को माथा टेक कर प्रणाम किया.शायद, वह हम लोगों को फालो-अप करने के लिए था. हमारे साथ के सभी लोगों ने वैसा ही किया. वह तपस्वनी उसी मुद्रा में लेटी रही.चेहरे के हाव-भाव में अपेक्षित चेंज, मैंने नोट नहीं किया था. उम्र 34-35 के करीब लग रही थी.कलर साफ और बाल खुले हुए ही थे. चेहरा ओज-पूर्ण और संसारिक विकारों से दूर लगा.साथ में एक और तपस्वी कुर्सी में विराजमान थे.मैंने उन्हीं से मुखातिब होना ठीक समझा. मैंने तपस्वनी की ओर इशारा कर पूछा कि क्या वे बात नहीं करती ?
"करती है." -बावजूद, तपस्वनी के चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया मैंने नोट नहीं की.
"नहीं."
"शायद, टी वी/चैनल में कोई न्यूज नहीं चाहते होंगे ?"
"टी वी चैनल में आ कर क्या होगा ?" -तपस्वनी मेरी जिज्ञासा को सुन रही थी मगर, इस सब के लिए ही शायद वह  तपस्वी था. तपस्वनी के लिए ये बातें बेमतलब थी.
"प्रचार से क्या होता है ?  अगर प्रचार हेतु  रहता तो इस वीरान जंगल के क्या मायने हैं ?" -तपस्वी तौल-तौल कर बोलते हुए जैसे मुझे निरुत्तर कर रहा था.
"यहाँ, आने के लिए रास्ता अभी खुल नहीं पाया है. हमें काफ़ी दूर अपनी गाड़ी रखनी पड़ी. हम लोग इस तरफ से आये हैं " -मैंने विषय से हटना चाहा.
"नहीं, उस तरफ से गाड़ियाँ तो आती हैं.-तपस्वी ने समाधान किया.
       दरअसल, वहां का नैशार्गिक शांत और गंभीर माहौल जिसे तपस्वनी का कम बात करना और गहराई प्रदान कर रहा था, मैं भरसक प्रयास कर रहा था कि वह बना रहे. घना जंगल, जंगल में पहाड़, पहाड़ में ऊँचे-ऊँचे पेड़, बड़ी-बड़ी काले पत्थरों की चट्टानें, नीचे पानी की झील वास्तव में तपस्वनी के मन-मुद्रा के साथ एक खास वैचारिक सामंजस्य जोड़ रहे थे.मैं सोच रहा था कि न मालूम कितनी परतें हैं मनुष्य की और, जानने, समझने के लिए. क्या ये कोई 'सर्च' है जैसे की सिद्धार्थ गौतम निकले थे घर-परिवार छोड़ कर तलाश में अपनी..जग की ? या वर्ध्दमान महावीर  निकले थे खोजने खुद को..दुनिया को ?  मुझे लगा, दूर खड़े धान से भरे लम्बे-लम्बे खेत यहाँ ऊग रही इस वैचारिक उर्वरता के साक्षी बन रहे हैं.
"तपोभूमि जैसा लगता है, यहाँ."  -मैंने वैचारिक तन्द्रा भंग की.
"अच्छा !" तपस्वी ने आश्चर्य व्यक्त किया. इसी बीच हमारे साथ के एक सज्जन ने माथा टेक अभिवादन किया-  "माताजी, मैं बहुत परेशानी में हूँ ."
लेखक
       हम सब लोग एकाएक साँस रोक कर उस तपस्वनी की ओर देखने लगे."कैसे. क्या परेशानी ?"  -तपस्वनी  ने जिज्ञासा से पूछा. मैंने नोट किया तपस्वनी ने हलकी-सी भाव-भंगिमा बदली थी. "मेरे लड़के के गले से आवाज बहुत कम निकलती है. काफ़ी इलाज करता हूँ  मगर, फायदा हो ही नहीं रहा है ?"
"..................... ."
       मैं तपस्वनी के चेहरे पर नजरे गड़ाएं था. उनके चेहरे पर कुछ भाव तो पैदा हुए मगर, वे शायद शब्दों में ढल न  सके. कुछ ही पलों में चेहरा एक तपस्वनी के चहरे की तरह सपाट था. जैसे ये बीमारी और इस तरह के दुःख-दर्द उसके लिए नए नहीं थे.
"गले और सिर में मिटटी का लेप करें...."  कुर्सी पर बैठे तपस्वी ने सलाह दी.
"...लम्बे समय तक करने से आराम होगा." -तपस्वी ने आगे कहा. मुझे लगा, तपस्वी की सलाह में लाग-लम्पट नहीं था,जैसे अक्सर 'बाबाओं' में होता है.

मेरे ख्याल से करीब आधा घंटा हो गया होगा. कुछ तो तपस्वी से जानने और उससे अधिक तपस्वनी को जानने की उत्कंठा में, उनसे न पूछे गए प्रश्नों के उत्तरों में. ऐसा होता है कि आप के पास ठेर सारे प्रश्न होते हैं,आप को परेशान करते हैं मगर, जब मौका आता है 'अथारिटी' से पूछने का तो सारे प्रश्न 'फ्रीज' हो जाते हैं,या तो उनके उत्तर अपने-आप मिलने लगते हैं ! हो सकता है यह उस अथारिटी  के 'ओरे' का कमाल हो या आपके अपने उस समय के 'ओरे' का जो एक खास परिस्थिति और मन स्थिति में खुद-ब-खुद 'अथारिटी' हो जाता है.आखिर, मनुष्य ही तो हैं जो बुद्ध या महावीर बन जाता हैं !
    बहरहाल, मुझे लगा कि अब और अधिक बैठना उचित नहीं होगा, मैंने खड़े हो कर हाथ जोड़ विदा ली और कहा-"जी हम अब चलते हैं,क्योंकि शाम के करीब 5 बज रहे हैं और जाने में रात हो सकती है ." तपस्वनी एकाएक उठ कर बैठ गयी और बकायदा विदा करने की मुद्रा में उन्होंने सिर हिलाया.
      हम लोग उस दिन आ तो गए थे मगर, जिज्ञासा शांत नहीं हुई थी.मुझे लग रहा था अभी और खोज करने की जरुरत है.इसी बीच मार्च 11 में फिर उस क्षेत्र में जाना हुआ. इस बार मैंने ममता के बारे में और जानकारी जुटाने की सोची.हम सीधे उनके पेत्रक गावं नवेगावं पहुंचे.वहां ममता के काका रामचंद्र मेश्राम से मुलाकात हुई.वे हमारे रिश्तेदार निकले. रामचंद्र जी से जो जानकारी मिली, वह इस प्रकार है-
ममता के गावं जा कर जानकारी लेते लेखक
        ममता अपने माँ-बाप की पांचवी संतान है.उसके दो भाई हाऊसिदास और ज्ञानदास है. हाऊसिदास की अभी हाल ही असामयिक मौत हुई थी.ज्ञानदास वर्तमान में बालाघाट में रहता है.दोनों भाई  10 वी तक पढ़े हैं.ममता की दो और बहने हैं. ममता पढने-लिखने के साथ साथ घर के काम-धंधे में बड़ी होशियार थी.वह प्रतिदिन 2000  बीडी बड़े आराम से बनाती थी.वह कुछ साधू प्रवृति की जरुर थी.14-15 वर्ष की उम्र से ही वह कहने लगी थी की वह यहाँ नहीं रहेगी.पूछने पर कहती थी कि या तो वह नौकरी करगी या विक्तु बाबा जैसे किसी निर्जन स्थान में विरक्त-सी रहेगी.
ममता के काका रामचन्द्र मेश्राम
    रामचंद्र जी ने आगे बतलाया, जब पता चला कि वह जंगल में है तो वे भी उससे मिलने गए थे. यह पूछने पर कि वह अँधेरी, निर्जन रात में  कैसे अकेली चली गई ? ममता ने बताया था कि उसे नहीं मालूम, वह कैसे घर से निकली. हाँ, इतना ध्यान है कि रास्ते में रोड पर बस की हेड-लाईट देख कर वह एक पेड़ की ओट में हो गई थी.रामचंद्र के यह पूछने पर कि वह इसी स्थान में क्यों आई ? ममता ने कहा था कि जिस जगह बाबा ने बताया, वह जाकर बैठ गई. यह पूछने पर कि ममता ने गृह-त्याग कब किया था ? रामचंद्र ने सन 1991 की पांड-पूर्णिमा बताया था.

Wednesday, October 27, 2010

भगवा आतंकवाद

 दुनिया के सभी देशों में चाहे वे कितने ही सभ्य हो , वहां पर रहने वाले विभिन्न धर्म/सम्प्रदाय और संस्कृतियों  के बीच सांस्कृतिक  संघर्ष होता रहता है. वास्तव में, यह सांस्कृतिक  संघर्ष, वहां के बहुसंख्यक के द्वारा अल्पसंख्यकों के विरूद्ध वर्चस्व की लड़ाई है. यह सांस्कृतिक संघर्ष 'सर्वाईव आफ द फिटेस्ट (survive of the fittest ) से गवर्न होता है. मगर, इस प्राकृतिक नियम की अपनी कुछ परिणतियाँ  भी हैं. अच्छी भी, बुरी भी. बुरी इस तरह की यह सर्वाईव (survive )  करने के लिए अल्पसंख्यकों को,  बहुसंख्यकों के विरूद्ध हथियार उठाने बाध्य करती है.
       सवाल यह है कि इसका हल क्या है ?  देश के संविधान सभा की प्रोसिडिंग में इसका हल पहले ही कर दिया गया है. विभाजन के दौरान जब देश का संविधान बना तो डॉ आम्बेडकर ने चेतावनी भरे लहजे में कहा था - देश की संसद, जिसमे निश्चित रूप से हिन्दू  बहुसंख्यक हैं, को  यह बतलाने की जरूरत नहीं है कि उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिए क्या-क्या किया है,कौन -कौनसी  सुविधाएँ दी है और उनके हित में कौन- कौन से कानून बनाये हैं. बल्कि, अल्पसंख्यकों को यह लगना  चाहिए कि बहुसंख्यक हिन्दुओं ने उन्हें  क्या दिया है,कौन-कौन-सी सुविधाएँ दे रखी हैं और उनके हित में कौन- कौन से कानून बनाये हैं.जब देश के अल्पसंख्यक खुद-ब-खुद यह बतलाने लगेंगे तभी यह देश शक्तिशाली हो सकता है और विश्व में तीसरी शक्ति बन सकता है.
       सवाल यह है कि हो क्या हो रहा है ? क्या बहुसंख्यक हिन्दू  , संख्या या शक्ति से  अल्पसंख्यकों की आवाज को दबा सकते हैं ? आप कुछ लोगों को कुछ समय के लिए दबा सकते हैं, उनकी आवाज़ बंद कर सकते हैं. मगर आप उनकी आवाज़ हमेशा-हमेशा के लिए बंद नहीं कर सकते, सिवाय उनको मिटाने के.
    अल्पसंख्यक वैसे भी डरे रहते हैं. उनमे बहुसंख्यकों की संख्या और शक्ति का भय हमेशा समाया रहता है. अच्छा है, बहुसंख्यक उदारवादी दृष्टीकोण अपनाये. दूसरी ओर, अल्पसंख्यक भी इस उदारवादी दृष्टीकोण को बहुसंख्यकों की मज़बूरी न समझे.
    दुनिया में ऐसे बहुतेरे देश हैं जो धर्म विशेष के आधार पर अस्तित्व में आये हैं. मगर धीरे-धीरे व्यवसाय व् अन्य कारणों से लोगों के इधर-उधर जाने के कारण चाहे-अनचाहे  धर्म और संस्कृतियों का मिश्रण हुआ. धर्म और संस्कृतियों के इस मिश्रण को रोकना ना मुमकिन है. आज मानव, अपनी उन्नत सभ्यता की बात करता है. शिक्षा और विज्ञान के  उंच्च मानवीय मूल्यों की वकालत करता है. अतः अच्छा है कि प्रत्येक समुदाय चाहे वह अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक, अपनी संख्या और शक्ति का इस्तेमाल सह-अस्तित्व और सामंजस्य के लिए करे बजाय अस्तित्व की लड़ाई में अपव्यव करने के.

Tuesday, October 19, 2010

दलितों को अब, नौकरी नहीं व्यवसाय में जाना चाहिए.

आज, पूरी दुनिया हमारे देश को एक बड़े बाजार और अवसर के रूप में देख रही है। ज़ाहीर है, इसका लाभ देश के अमीरों के साथ-साथ इस देश के दलितों को भी उठाना चाहिए । अब समय आ गया है कि दलित समाज के लोग इसे एक अवसर के रूप में देखे । दलित समाज के उन नौकरी पेशा लोगों को जिनकी एक-दो पीढियां बीत चुकी हैं, अब बिजनेस में उतरना चाहिए। क्योंकि, नौकरी में ज्यादा गुंजाईश नहीं है। नौकरी में आप परिवार पाल सकते हैं, बच्चों को पढ़ा सकते हैं और मकान बना सकते हैं। इससे ज्यादा नौकरी के मथ्थे कुछ नहीं किया जा सकता।
मगर, क्या इतना ही किया जाना चाहिए है ? निश्चित ही आज, देश का दलित इससे आगे जाना चाहेगा. निश्चित ही वह समृद्ध भारत का हिस्सेदार होना चाहेगा। आप व्यवसाय में जाकर दस लोगों को नौकरी दे सकते हैं।
आज हमारे देश में दलित समाज के कुछ लोग ने, भले ही वे उँगलियों में गिनने लायक हो, खासा नाम कमाया है। मसलन, कामायनी ट्यूब्स की मालकिन कल्पना सरोज, एपीए इन्फ्रास्ट्रक्चर पाली के सर्वेसर्वा संजय क्षीर सागर, प्रसिद्ध व्यवसायी सुनील खोब्रागड़े, आगरा के हेरिटेज अस्पताल के संचालक हरिकृष्ण पिप्पल, जीटी पेस्ट कंट्रोल प्राइवेट कम्पनी के मालिक राजेन्द्र गायकवाड़ , एवरेस्ट स्पून पाइप इंडस्ट्री (महा ) के नामदेव जगताप, महाराष्ट्र के ही चीनी मिल मालिक स्वप्निल भिन्गारदेवे, यूनाइटेड इंटरनेशनल के अविनाश काम्बले आदि ने अपने दम पर अपना व्यवसाय खड़ा किया हैं (स्रोत: दैनिक भास्कर जबलपुर १७ अक्टू १०) । फिक्की, एसोचेम, सीआइआइ की तर्ज पर जिस तरह पुणे के मिलिंद काम्बले ने 'हम कर सकते हैं ' - की थीम पर दलित इन्डियन चेम्बर्स आफ कामर्स ( डिक्की) की स्थापना कर दलित छोटे व्यावसायिकों को प्रमोट किया , इसी तरह के और भी व्यावसायिक मंच खड़े कर निश्चित रूप से दलित आज तेजी से बढ़ते समृद्ध भारत में अपनी व्यावसायिक भागीदारी सुनिश्चित कर सकते हैं।

Sunday, October 17, 2010

हिन्दुओं में बकरे की बलि पर प्रतिबंध तो मुसलमानों में क्यों नहीं ?

दैनिक भास्कर जबलपुर (म प्र ) १६ अक्टू १० में प्रकाशित एक खबर के अनुसार, छतीसगढ़ में बलि प्रथा पर एक नई बहस सांसद दिलीपसिंह जूदेव द्वारा शुरू की गई है।
हुआ ये की पिछले दिनों भाजपा के ही एक विधायक युद्धवीरसिंह जूदेव ने चंद्रहासिनी देवी के मंदिर में बकरे की बलि दी। अब, विपक्ष को बैठे-बिठाए मुद्दा मिल गया। जाहिर है, हाय- तौबा तो मचना था। और हुआ भी यही। अब बड़े भाई सांसद दिलीपसिंह जूदेव कैसे पीछे रहते ? श्री जूदेव ने कहा कि ऐसा प्रचारित किया जा रहा है कि युद्धवीरसिंह बलि प्रथा की शुरुआत कर रहे हैं। जबकि, वास्तव में यह बलि प्रथा हजारों साल पुरानी है। हम अपनी आस्था के साथ बलि चढाते हैं। हम अपनी यह सदियों पुरानी परम्परा कैसे बंद कर दे ? यह तो उसी तरह की बात हुई कि होली पर पानी मत बहाओं। दीपावली पर पटाखें मत फोड़ों। श्री जूदेव ने आगे कहा कि परम्परा के साथ की जाने वाली बलि पर एतराज करने वालों को यह भी मांग करनी चाहिए कि बकरीद पर बकरे की क़ुरबानी बंद कर दो ?
बिलकुल सही फरमाते हैं जूदेवजी। पाठकों को याद होगा की सिखों के कृपाण पर देश में एक लम्बी बहस छिड़ी थी। इसी तरह, नंग-धडंग जैन मुनियों के प्रदर्शन पर भी लोगों ने सवाल उठाए थे। मगर, सवाल धार्मिक परम्पराओं का है। अब धार्मिक परम्पराओं में नैतिक मूल्यों का क्या ?
वास्तव में धार्मिक परम्पराओं का 'रिव्यू' होते रहना चाहिए। धार्मिक परम्पराओं को जड़ नहीं होना चाहिए। अगर समय गतिशील है, तो धार्मिक परम्पराओं को गतिशील होना चाहिए। जड़ता मनुष्य का स्वभाव नही है । धर्म मनुष्य के लिए है, न की मनुष्य धर्म के लिए। मनुष्य प्रकृति का अंग है। प्रकृति परिवर्तनशील है। जाहीर है, धर्म में परिवर्तन अवश्यसंभाव्य है।और नहीं, तो धर्म में जड़ता इसी तरह की सड़ांध पैदा करेगी। फिर,चाहे जो धर्म हो।
एक दूसरी बात, हमें किसी और की ओर ऊँगली दिखाने की बजाय पहले, खुद अपनी ओर क्यूँ नहीं देखना चाहिए ?

Friday, October 15, 2010

हम और हमारी परम्पराएँ

दैनिक भास्कर जबलपुर (म प्र) १५ अक्टू १० में प्रकाशित एक खबर के अनुसार, नवरात्र अष्टमी के दिन देश की धार्मिक नगरी उज्जैन में दो हजार वर्षों से चली आ रही पुरानी परम्परा के तहत तीन दर्जन से अधिक देवी-देवताओं के मन्दिरों में माता मन्दिर से लेकर भैरव मन्दिर तक २६ कि मी लम्बी शराब की धार से तांत्रिक पूजा की जाती है । महाकालेश्वर मंदिर के समीप स्थित २४ खम्बा माता मन्दिर से शुरू होने वाली यह शासकीय नगर पूजा जिले के कलेक्टर सहित अन्य उंच्च अधिकारीयों द्वारा जनता की सुख-शांति, समृधि, आपसी सद-भाव तथा किसी अनिष्ट, महामारी और प्राकृतिक आपदा के निवारणार्थ की जाती है। ताम्बे के कलश में छिद्र के माध्यम से शराब की धार से २६ की मी की यह नगर पूजा सुबह से रात्रि तक चलती है ।

Monday, October 11, 2010

सामाजिक जिम्मेदारियों से दूर देश के बढ़ते धन कुबेर

एक सर्वे के अनुसार, देश में धन कुबेरों की संख्या में जबर्दस्त इजाफा हो रहा है। मगर दूसरी ओर, एक औसत भारतीय की आज भी सालाना आय रु. ५०००० रु से अधिक नहीं है । अब ऐसे में, नक्सलवादी पैदा नहीं होंगे तो और क्या होगा ? पूँजी को कुछ ही घरों में जमा करने वाली व्यवस्था कहाँ तक जायज हैं ?

Saturday, October 9, 2010

परिवर्तन की विवशता

दलित चेतना के चलते गाँव में परिवर्तन मिशन स्कूल पिछले दो वर्षों से चल रहा था। नया शिक्षहा-सत्र प्रारम्भ होते ही बच्चे अगली कक्ष्हा में प्रवेश ले रहे थे।
'जय भीम गुरूजी।"
"जयभीम।" - शिक्ष्हक ने बच्चे का अभिवादन स्वीकार किया।
"और आनंद, अकेले आये हो ? तुम्हारे पिताजी कहाँ हैं ?" - शिक्ष्हक ने ओपचारिकता वश पूछा।
"जी, दारू पीकर पड़े है।" बच्चे ने सकुचाते हुए जवाब दिया।

Wednesday, October 6, 2010

राम एक आस्था-पुरुष, न की इतिहास पुरुष

दैनिक भास्कर ६ अक्टू जबलपुर के लेख "अयोध्या के आगे" में डॉ वेदप्रताप वैदिक लिखते हैं-
राम कोई इतिहास पुरुष तो थे नहीं । वे इतिहास के आर-पार रहे है। वे आस्था-पुरुष है । स्मृति-पुरुष है, भाव -पुरुष हैं । ऐसी आस्था, ऐसी स्मृति और ऐसा भाव जो करोड़ों लोगों के ह्रदय में सदा-सनातन से, अविरल और अविछिन्न रहा है । यह भाव ऐसा है जो सिर्फ हिन्दुओं में ही नहीं पाया जाता है, मुसलमानों, ईसाईयों ,यहूदियों, काले -गोरों सब में पाया जाता है । यह भाव, तर्क और बुद्धि से परे होता है ।
निश्चित ही राम एक आस्था-पुरुष है , भाव-पुरुष है न की इतिहास-पुरुष जैसे की वैदिकजी लिखते हैं। मगर, दूसरी ओर राम को इतिहास-पुरुष मानने वाले भी कम नहीं हैं ? विश्वविद्यालयों में ढेरों थीसिस मिल जायेंगे, राम को इतिहास-पुरुष सिद्ध करने के लिए। न्यूज़ चेनल वाले भी लोगों के दिल-दिमाग में ठूसते रहते हैं कि राम इतिहास-पुरुष हैं.
दुसरे, राम आस्था-पुरुष हैं । मगर, सिर्फ वैदिकजी जैसे ब्राह्मणों के और पुरे ब्रह्मण वर्ग के। राम, ब्राह्मण वर्ग के आलावा अन्य वर्ग/जातियों के आस्था का विषय नहीं हो सकते। सवाल ये है की राम के क्या आदर्श हैं ? सीता की अग्नि-परिक्षहा लेकर और शम्बूक का वध कर राम कोनसे आदर्श स्थापित करते हैं ? क्या ये आदर्श कम से कम हिन्दू नारियों के लिए आस्था का विषय है ? क्या इन आदर्शों पर इस देश के दलित-आदिवासियों को आस्था है ? राम, वैदिकजी के आस्था-पुरुष हो सकते हैं, उच्च जाति हिन्दुओं के आस्था-पुरुष हो सकते है जिनके लिए मानस में लिखा है- पुजिय विप्र शील गुन हीना, शूद्र न गुन ग्यान प्रवीना'। मगर हिन्दू नारी, जो आज भी अग्नि-परीक्षहा देने को बाध्य हो , राम को आदर्श क्यों माने ? ढोल गवांर शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी 'मानस' को क्यों माने ? इस देश का आदिवासी, जो आज भी आदिम शैली में जंगलों में रहने अभिशप्त है, कथित रामराज्य को आदर्श क्यों माने ? ऊँच-नीच की घृणा और जातिगत श्रेष्ठता की वकालत करने वाले 'रामराज्य' को दलित क्यों माने ?

Tuesday, October 5, 2010

जुलुशो में हथियारों का प्रदर्शन धार्मिक उन्माद पैदा करता है.

दैनिक भास्कर जबलपुर ५ अग. १० की खबर के अनुसार, हाईकोर्ट के चीफ जस्टिक की अध्क्षता वाली युगलपीठ ने पुलिस से पूछा है कि विगत २ सित. को जन्माष्टमी पर्व पर निकाली गई रैली में कथित रूप से हथियारों का प्रदर्शन किये जाने के मामले पर अब तक क्या करवाई की गई ? तत्सम्बंध में दायर अपील में इसी कोर्ट की एकलपीठ के उस आदेश को चुनौती दी गई है जिसमे इसी मुद्दे पर दायर याचिका पर विगत २२ सित को हस्तछेप करने से इंकार कर दिया गया था।
आये दिनों देखा जाता है की आर एस एस , विश्व हिन्दू परिषद् , बजरंगदल आदि संगठनों द्वारा निकाले गए जुलुशो में हथियारों का प्रदर्शन किया जाता है और पुलिस तमाशाबीन बनी रहती है । इस देश में भाजपा प्रमुख राजनीतिक दल है। कई राज्यों में उसकी सरकारे है। केंद्र में वह रह चुकी है। क्या एक राष्ट्रीय पार्टी को इस पर चितन नहीं करना चाहिए ? निश्चित रूप से जुलुशो में हथियारों का प्रदर्शन धार्मिक उन्माद के साथ जनमानस में भय का वातावरण पैदा करता है। देखे, उक्त अपील पर पुलिस क्या जवाब देती है ।

Saturday, September 25, 2010

मंदिर-मस्जिद

सवाल-क्या मंदिर-मस्जिद अलग-अलग हैं ?
जवाब- हाँ , दोनों अलग अलग है.
- क्यों ?
-क्योंकि, मंदिर में बुत होता है जबकि मस्जिद में नहीं।
-मगर इससे क्या होता है ? इबादत तो दोनों जगह होती है।
-सवाल इबादत का नहीं, इबादत करने वाले का है। मंदिर में हिन्दू करता है जबकि मस्जिद में मुस्लिम।
-ये हिन्दू-मुस्लिम क्या है ?
-ये हिंदुस्तान की दो कोमें हैं।
-ये दो क्यों हैं ?
-क्योंकि, एक नहीं हैं।
-तो एक कि जगह चार होते, दो ही क्यों ?
-चार है न..... हिन्दू मुस्लिम,सिख, ईसाई। और चार ही क्यों, पांच हैं, दस हैं, पचास हैं......

पुल क्यों बनाये जाते हैं ?

पुल क्यों बनाये जाते हैं ?
ताकि बस या ट्रक किसी नदी/नाले में न गिरे।

सवर्णों की कुतिया

पिछले दिनों 'म.प्र सहारा चेनल' से एक खबर प्रसारित हुई-

भिंड जिले के सवर्णों ने एक दलित परिवार पर 1500 रु का जुरमाना ठोंक दिया। हुआ यह की गाँव के सवर्णों की एक कुतिया घूमते घुमते दलित मोहल्ले में चली गई। दलित महिला ने मानवीय स्वभाववश बची हुई झूठन कुतिया के आगे डाल दी। पर यह बात गाँव के सवर्णों को हजम नहीं हुई।

-इस तरह की ढेरों खबरें आये दिनों आती रहती हैं। हम आप पढ़ते हैं और अपने-अपने काम में लग जाते हैं। सोचता हूँ , कम से कम दलित समाज के पढ़े-लिखे लोगों को तो इसके विरुद्ध पूरी ताकत के साथ आवाज उठाना चाहिए. यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे इस तबके के नवजवानों को जो रामराज्य और इस तरह के अन्य काल्पनिक विषयों पर बड़ी-बड़ी थीसिस लिखते हैं, अपनी इन माँ-बहनों की दशा पर क्या शोध नहीं करना चाहिए ?