Friday, October 20, 2017

विद्वानों की तरह चर्चा (विमंसन पञ्हो)

‘‘भन्ते नागसेन! सल्लपिस्ससि(चर्चा करोगे) मया(मेरे) सद्धिं(साथ)?’’ यवनो राजा मिलिन्दो आह(कहा)।
‘‘‘सचे(यदि) त्वं महाराज! पण्डितवादं(विद्वानों की तरह चर्चा) सल्लपिस्ससि, सल्लपिस्सामि(चर्चा करूंगा)।’’
‘‘सचे पन(किन्तु) राजवादं(राजाओं की तरह) सल्लपिस्ससि, न सल्लपिस्सामि।’’
‘‘कथं(कैसे), भन्ते नागसेन, पण्डिता सल्लपन्ति(चर्चा करते हैं)?’’
पण्डितानं खो, महाराज, सल्लापे(चर्चा में) आवेठनं(लपेटना) करियति(करते है), निब्बठेनं(खोलना) अपि करियति, निग्गहनं(पकड़ना) करियति, पटिकम्मं(प्रति-कर्म )अपि करियति, विस्सासो(विस्वास) अपि करियति, पटिविस्सासोपि(अविश्वास) करियति,  न च तेन(उससे) पण्डिता कुप्पन्ति(कुपित होते हैं)। एवं(इस प्रकार) खो, महाराज, पण्डिता सल्लपन्ति।’’
‘‘कथं पन, भन्ते, राजानो सल्लपन्ति?’
‘‘राजानो खो, महाराज, सल्लापे एकं वत्थुं(वस्तु को) पटिजानन्ति(कहता है)। यो(जो) तं(उस) वत्थु विलोमेति(विलोम में बोलता है), तस्स(उसको) दण्डं आणापेति(आदेश दिया जाता है)। एवं खो, महाराज, राजानो सल्लपन्ति।’’
‘‘पण्डितवादं अहं भन्ते, सल्लपिस्सामि, नो राजवादं। एवं विस्सट्ठो(विश्वास रखें) भदन्तो सल्लपतु(चर्चा करें), मा(मत) भायतु(डरें)।’’
‘‘सुट्ठु(उत्तम है) महाराजा‘ति थेरो अब्भानुमोदि(अनुमोदन किया)।
प्रस्तुति- अ. ला. ऊके 

वासेट्ठ-सुत्त

‘‘कथं बाह्मणो होति?’’ -भारद्वाज माणवो वासेट्ठ माणवं  पुच्छि।
‘‘बाहमण कैसे(कथं) होता है?’’ -भारद्वाज माणवक ने वासेट्ठ माणवक से पूछा।
‘‘मातितो च पितितो च जातिवादेन बाह्मणो होती"ति भारद्वाज माणवो एवं आह।
‘‘माता-पिता के रक्त-संबंध से(जातिवादेन) ‘बाहमण’ पैदा होता है।’’ -भारद्वाज माणवक ने यह कहा(एवं आह)।
‘‘यतो सीलवा च वत-सम्पन्नो होति, एतावत्ता सो बाह्मणो होति’’ति वासेट्ठ माणवो पटि-आह।
‘‘जो सीलवन्त और व्रत-सम्पन्न होता है, वह ‘बाहमण’ होता है।’’ -वासेट्ठ माणवक ने कहा।
अथ खो वासेट्ठो माणवो भारद्वाज माणवं आमन्तेसि- ‘गोतमो साक्य पुत्तो सक्यकुला पब्बजितो इच्छानंगले विहरति।  आयात भो भारद्वाज, समणं गोतमं एतं अत्थं पुच्छिस्साम। यथा समणो गोतमो ब्याकरिस्सति, तथा धारेस्साम।’
तब, वासेट्ठ माणवक ने भारद्वाज माणवक को आमंत्रित किया- ‘श्रमण गौतम साक्य-पुत्र, साक्य-कुल में प्रव्रजित इच्छानंगल उपवन में विहार कर रहे हैं। आओ(आयात) भारद्वाज, श्रमण गौतम से इसका(एतं) अर्थ(अत्थं) पूछेंगे(पुच्छिस्साम)। जैसा(यथा) श्रमण गौतम याख्या करेंगे(व्याकरिस्सति), वैसा धारण कर लेंगे।’
अथ खो वासेट्ठ-भारद्वाज माणवा येन भगवा तेनुपसंकमिंसु। उपसंकमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदनीयं कथं साराणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्त निसीदिंसु।
तब, वासेट्ठ-भारद्वाज माणवक जहां(येन) भगवान थे, गए(तेनुपसंकमिंसु)। पास जाकर(उपसंकमित्वा) भगवान के साथ कुसल-क्षेम पूछा(सम्मोदनीयं कथं साराणीयं) और पूछकर(वीतिसारेत्वा) एक ओर(एकमन्तं) बैठ गए(निसीदिंसु)।
एकमन्त निसिन्नो खो वासेट्ठो माणवो भगवन्तं गाथाय अज्झभासि-
‘‘एक ओर बैठे वासेट्ठ माणवक ने गाथा में कहा-
‘‘जातिवादस्मिं, विवादो अत्थि गोतम।
जातिया बाहमणो होति, उदाहु भवति कम्मना?’’
जन्म के संबंध में(जातिवादस्मिं) विवाद है(अत्थि), गौतम। बाहमण, जन्म से होता है अथवा(उदाहु) कर्म से?
भगवा-
‘‘न जच्चा बाह्मणो होति, न जच्चा होति अबाह्मणो।
कम्मना बाह्मणो होति, कम्मना होति अबाह्मणो।।’’
भगवान-
न जन्म से(जच्चा) बाहमण होता है, न जन्म से अबाहमण होता है। अपितु, कर्म से बाहमण होता है और कर्म से ही अबाहमण होता है।
अभिक्कन्तं भो गोतम! एते मयं भगवन्तं गोतमं सरणं गच्छाम, धम्मं च भिक्खु संघं सरणं गच्छाम।
धन्य(अभिकन्तं) है, गौतम! हम भगवान गौतम की सरण जाते हैं, धम्म और भिक्खु-संघ की सरण जाते हैं(वासेट्ठसुत्त :महावग्गः सुत्तनिपात)। प्रस्तुति- अ. ला. ऊके 

Tuesday, October 17, 2017

Save Pali

क्या आप जानते हैं-
कि सारा ति-पिटक पालि-भाषा में है।
-कि बुद्ध-पूजा और ति-रत्न वन्दना, जो पालि में है, प्रत्येक बुद्धिस्ट प्रतिदिन अनिवार्य तौर पर करता है।
-कि धर्मान्तरण के बाद भारत में बुद्धिस्टों की संख्या करोड़ों तक पहुंच गई है।
-कि बुद्ध-विहार, जो गांव और शहर में करोड़ों की संख्या में हैं, बुद्ध-पूजा पालि में ही होती है।
-कि लद्दाख आदि क्षेत्रों में बसने वाले पारम्परिक बौद्धों की दैनिक बुद्ध वन्दना पालि में ही होती है।
-कि भारत के बाहर बुद्धिस्ट देशों में प्रतिदिन बुद्ध वन्दना पालि में ही होती है, भले ही लिपि अलग हो।
-कि भारत के बाहर गैर-बुद्धिस्ट देशों में बसे करोड़ों बुद्धिस्ट प्रतिदिन बुद्ध वन्दना पालि-भाषा में करते हैं, लिपि जो भी हो।

-कि भाषा,  समाज की पहचान होती है, उसकी अस्मिता होती है।
-कि भाषा, समाज को एक खास दर्जा देती है, उसे एक मुकाम हासिल कराती है।
-कि लोगों को, अपनी भाषा पर गर्व होता है।
-कि पालि, बुद्ध की भाषा है। सारे बुद्ध वचन पालि में है। पालि बुद्धवाणी है। बाबासाहेब के अनुसार, बुद्ध हमारे आदर्श है। चूंकि बुद्धवचन पालि में है, इसलिए पालि हमारी भाषा है। पालि हमारी अस्मिता का प्रतीक है।

मगर, अजीब बात है कि पालि, हम बोल नहीं सकते?
-कि प्रतिदिन बुद्ध वन्दना हम पालि में करते हैं। धम्म वन्दना पालि में करते हैं। संघ वन्दना पालि में करते हैं। परित्राण-पाठ और अन्य सुत्तों का पठन-पाठन हम पालि में करते हैं। किन्तु, पालि हम बोल नहीं सकते!

-सम्राट अशोक के जितने भी शिला-लेख मिले हैं, सभी पालि में हैं। चाहे कश्मीर हो या कन्याकुमारी, कलकत्ता या मुम्बई। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि तब सारे भारत में, और इसके आस-पास के क्षेत्रों में, जहां तक सम्राट अशोक का साम्राज्य था, पालि जन-भाषा थी? लोक-भाषा थी। तभी तो अशोक अपने शिला-लेखों में धम्म-प्रचार का काम पालि में करते हैं?

-बुद्ध के समय भले ही पालि, मगध और इसके आस-पास के क्षेत्रा में बोली जाती रही हो, किन्तु सम्राट अशोक के काल में यह सारे वृहत्त भारत में बोली जाती थी।
इतिहास खंगालते हुए बाबासाहेब ने बतलाया है कि, हम पुराने बौद्ध ही हैं। धर्मान्तरण से हम कोई नया धर्म नहीं अपना रहे हैं।
निस्संदेह, तब पालि, हमारी भाषा थी। हम पालि में बात करते थे। ऐसी सरल और सुबोध भाषा का लोप भारत से क्यो हुआ? किसने किया? क्यों किया?

क्या आपको पता है-
-कि केन्द्र सरकार के अनुसार, पालि ‘मृत-भाषा’ है?
-कि केन्द्र शासन ने पालि को यूपीएससी (UPSC) से हटा दिया है?
-कि इसका कारण सरकार ने पालि के बोलने वालों का नगण्य होना बताया है?
-कि ‘भारतीय संस्कृति के संरक्षण’ के नाम पर भी सरकार पालि को संरक्षण देने तैयार नहीं है।
-कि बीते 2013 में हमारे कुछ लोगों द्वारा फेसबुक पर चलायी गई एक मुहीम  'Save Pali'  धीरे-धीरे शांत होकर अब विस्मृत हो गई।
-अ. ला. उके
भ. बुद्धदत्त पालि पसिक्खण, संवद्धन पतिट्ठान

पालि गाथा

पालि भासा, पालि भासा।
पालि मम, पिय भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि किय, सरला भासा!

पालि भासा, पालि भासा।
पालि बुद्ध-वचनस्स भासा।।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि ति-पिटकस्स, भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि किय सरला भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पाणसमा मम, पिय भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
बुद्ध-काले, लोक-भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
असोक-काले, रट्ठ-भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि बहु, पुरातन भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि अतीव, सरला भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
सम्भासनं, करणीयं भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
थोकं-थोकं, वदनीयं भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि बहु रमणीया भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि मम संखारानं  भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि मम हदयस्स भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि कियति, मधुरा भासा!!
-अ. ला. ऊके
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1. रट्ठ- राष्ट्र । 2. थोकं-थोकं- थोड़ी-थोड़ी।       3. संखारानं- संस्कारों की। 4. कियति- कितनी!

हमें, पालि क्यों सीखना चाहिए?

हमें  पालि क्यों सीखना चाहिए?
क्योंकि, पालि बुद्ध की भाषा है। क्योंकि, पालि धम्म की भाषा है।
क्योंकि, पालि हमें एकता के सूत्र में बांधती है। क्योंकि, पालि हमें धम्म का पाठ पढ़ाती है। क्योंकि, पालि हम में धम्म का एहसास है।
पालि, हमें इसलिए सीखना चाहिए-
क्योंकि, पाली ति-पिटक की भाषा है। सारे बौद्ध-ग्रंथ पालि में हैं। पालि जाने बिना ति-पिटक पढ़ा नहीं जा सकता। पढ़े बिना इसमें शोध व चिंतन किया नहीं जा सकता। क्या आज हमारे युवाओं को ति-पिटक ग्रंथों पर शोध नहीं करना चाहिए?
अगर गीता और मानस पर नए-नए शोध प्रबन्ध लिखे जाते हैं तो ति-पिटक ग्रंथों पर शोध-प्रबन्ध क्यों नहीं लिखे जाना चाहिए? शोध-प्रबन्ध लिखने से धम्म के नए-नए आयाम खुलेंगे। हमारे पथ-प्रदर्शक बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने पालि सीखकर ही तो ‘बुद्धा एण्ड धम्मा’ लिखा था। पालि पढ़े बिना क्या ऐसा कालजयी ग्रंथ लिखना संभव था? 
क्योंकि, अशोक-काल में पालि लोक-भाषा थी। क्योंकि, अशोक-काल में पालि राष्ट्र-भाषा थी। क्या यह जानने की आवश्यकता नहीं है कि अशोक के समय पालि राष्ट्र-भाषा क्यों थी?
क्योंकि, अशोक बुद्ध की तरह धम्म का प्रचार पालि में चाहते थे। क्योंकि, धम्म ही पालि है। क्योंकि, पालि ही धम्म है। और इसलिए अशोक ने पालि को राष्ट्र-भाषा के रूप में स्वीकार किया।   
क्योंकि, अशोक ने सारे शिला-लेख पालि में हैं। क्योंकि, जब अशोक स्वयं अपने सिला-लेखों में लिखवाता है कि यह ‘धम्म-लिपि’ है तो फिर ‘यह ‘ब्राहमी-लिपि’ क्यों और कैसे हो गई?
बुद्ध-वचनों के अर्थ का अनर्थ ब्राहमण अपने वर्ग-हित के लिए किस प्रकार करते हैं, अशोक अच्छी तरह जानते थे। उसे स्वयं हजारों भिक्खुओं के प्राण-दंड का, अनजाने में भागीदार होना पड़ा था।
क्या बुद्ध की देशना ऐसी हो सकती है कि एक तरफ तो वह ‘आत्मा’ को नकार दे और दूसरी तरफ पुनर्जन्म भी मान ले? इतिहास गवाह है कि इस तरह की दो मुंही बातें ब्राहमण अपने ‘भगवानों’ से कराते रहे हैं।
  अशोक के शिला-लेख में साफ-साफ लिखा है कि यह धम्म-लिपि है। फिर, यह ‘ब्राहमी-लिपि’ कब और कैसे हो गई? क्या हमारे लोगों को यह जानने की आवश्यकता नहीं है? और अगर हमारे लोग, पालि नहीं सीखेंगे तो ऐसा होना ही है।
अशोक के शिला-लेखों को पढ़ते हमें आना चाहिए। हमें पढ़ते इसलिए भी आना चाहिए क्योंकि, इन शिला-लेखों में बुद्ध-वचन हैं। अंग्रेजों ने क्या पढ़ा, अथवा हमें क्या पढ़ाना चाहा, क्या हमें इसकी जांच नहीं करनी चाहिए? और, बिना पाली सीखें यह कैसे संभव है?
धम्म प्रचार का कार्य अशोक पालि में करता है। राजकीय मुद्रा का एक बड़ा भाग वह पालि के प्रचार-प्रसार पर खर्च करता है। क्यों ? 
पालि हमें इसलिए भी सीखनी चाहिए क्योंकि, पालि हमारे संस्कारों  की भाषा है। पालि हमारे आचार और विचारों की भाषा है। हमारे यहां, बच्चे को होश में आते ही उसे जो संस्कार दिए जाते हैं, वे पालि में होते हैं।
क्योंकि, हमारे घरों में, बुद्ध विहारों में बुद्ध-वन्दना पालि में होती है। बोधि-पूजा, चैत्य-पूजा आदि की सारी गाथाएं पालि में हैं। दैनिक सुत्त-पठन पालि में होता है।
अगर हिन्दी, मराठी अथवा अंग्रेजी की तरह पालि भी हम पढ़ना-लिखना सीख लें तो-
1. पालि जानने वालों की संख्या में इजाफा होगा। लोकतंत्र में सारी योजनाएं संख्या के आधार पर होती है।
-सरकार, पालि के विकास पर ध्यान देगी।
-पालि, तीसरी भाषा के रूप में स्कूल-कालेजों में पढ़ायी जा सकेगी।
-पालि में रोजगार के अवसर खुलेंगे।
2. बुद्ध-वन्दना की गाथाएं और सुत्त हम ठीक से समझ पाएंगे।
-हमारी विरासत, ति-पिटक ग्रंथों की ओर लोगों का ध्यान जाएगा।
-इन के अनुवाद और पठन-पाठन पर शोध-परक काम होगा।
-लोग अपनी-अपनी प्रादेशिक भाषाओं में इनका अनुवाद करेंगे।
3. भारत को बौद्धमय बनाने में मदद मिलेगी।
पालि सीखने के लिए क्या करना चाहिए?
अपने घर की दीवार पर लिख लेना चाहिए कि ‘पालि हमें सीखना है’।
@amritlalukey.blogspot.com


बुद्ध-भूमि महाविहार : नागपुर



बुद्ध-भूमि महाविहार
बोद्ध-पसिक्खणं संट्ठानं।

 ता नागपुर नगरे सुपतिट्ठिता।

 भदन्त आनन्द कोसल्यायण तस्सा निमाण-कत्ता।
बहु सामणेर-बालका इध पठन्ति, पाठेन्ति।

-अ. ला. ऊके
भ. बुद्धदत्त पालि पसिक्खण, संवद्धन पतिट्ठान

कथा दुब्बलेन बलेन च

एकस्मिं वने एको सीहो आसि ।
तस्मिं वने पन एको ससो अपि आसि ।
एकं  दिनं सीहो ससम्हा आह- ‘‘अहं तुवं खादामि।’’
ससो वदति- ‘‘सीहो राजा, मा मं खाद।’’
सीहो- ‘‘कथं?’’
ससो- ‘‘महाराज! अस्मिं वने अञञो  सीहो अपि अत्थि। सो मं खादतुं इच्छति।’’
सीहो- ‘‘कुत्थो वसति सो दुग्गतो ?’’
ससो- ‘‘महाराज! सो सन्तिके एकस्मिं उदपाने वसति।’’
सीहो- ‘‘तं दस्सतु  ।’’
ससो- महाराज! मम पिठं-पिठं आगच्छतु  ।’’
‘‘पस्स महाराज!’’ -ससो एकं उदपानं सन्तिके ठितं आह।
‘‘को रे दुग्गतो?’’ -उदपाने अञञो सीहो दिस्वा मिगराजा सींहनादं नदित्वा अगज्जि।
अञञस्स सीहस्स अपि पटिनदित्वा, मिगराजा उदपाने पक्खन्दि।
-अ. ला. ऊके
भ. बुद्धदत्त पालि पसिक्खण, संवद्धन पतिट्ठान
........................................
कुत्थ- कहां। आह- कहा। उदपान- कुआ      सन्तिके-पास के            ठितं- खड़ा हो
अवोच- बोला।           नदति- गर्जना अञञ- अन्य।      पक्खन्दति- कूदना।

दरार

लघुकथाः दरार
तब मैं जीजाजी के साथ रहता था। उस समय उनके परिवार में मेरी बर्ड़ी बहन और बड़ी बिटिया थी। जीजाजी, सरकारी नौकरी में सहायक खाद्य -निरीक्षक थे। तब उनकी पोसि्ंटग बालाघाट थी।
जिसकी किस्मत खुलती है, उसे ही गांव से शहर आने का मौका नसीब होता है। तब, मैं हाई-स्कूल में पढ़ रहा था। पढ़ाई के लिए मुझे बालाघाट मेरी बड़ी बहन लायी थी। जीजाजी की उदारता न होती तो बेशक, मैं उनके यहां टिक न पाता। तब इस परिवार में, जीजाजी का एक छोटा भाई भी रहता था। इसका नाम देवराज था। देवराज मेरे से एकाध साल छोटा होगा। मेरी उससे अच्छी पटती थी।
एक खाद्य-निरीक्षक के अन्डर में जिले की कई राईस-मिलें और खाद्य-दुकानें हुआ करती हैं। निरीक्षण के लिए जीजाजी जब-तब जाते और रात-बरात पीकर घर आते थे। वे या तो बिना भोजन किए चुपचाप सो जाते या बहन से मार-पीट करते।
पीकर आना और घरवाली से मार-पीट करना भारतीय समाज में आम बात है। यह ‘सीन’ कभी-कभी असहनीय भी हो जाता है। इससे निपटने महिलाएं या तो किसी ‘देवी’ का उपवास करती है या घुट-घुट कर जल-मरती है। मेरी बहन सन्तोषी माता का व्रत रखती थी।
ऐसा ही एक ‘व्रत-उद्यापन’ का दिन था। उपवास में सारा दिन चला गया था। शाम को बहन का उपवास खत्म होना था। जीजाजी का कोई पता नहीं था। समय काटने बहन पड़ोसन से, उन्हीं के आंगन में खड़ी हो बतिया रही थी।
रात करीब 10.30 बजे जीजाजी आए। बहन को आभास हो गया था किन्तु, वह बतियाते रही। शायद, अपनी झल्लाहट दूर कर रही थी। इस बीच जीजाजी मुझसे 2.3 बार पूछ चूके थे।
थोड़ी ही देर में बहन आई और किचन में चली गई। वह थाली लगाने लगी। इसी बीच, जीजाजी ने सिर के बाल पकड़ा और बहन को मारना-पीटना शुरू कर किया। वह पूछ रहे थे कि उसने आने में आधा घंटा क्यों लगया?
जीजाजी बूरी तरह पीट रहे थे। मुझे सहन नहीं हुआ। मैं घर के पीछे बाड़ी तरफ चला गया। किन्तु, देवराज, जो वहीं था, ने खड़े हो जीजाजी का हाथ पकड़ लिया। शायद जीजाजी को इस ‘सीन’ की अपेक्षा नहीं थी। हम सब, बिना भोजन किए चुपचाप सो गए।
सबेरे, जीजाजी ने हम दोनों को बुलाया और घर से निकल जाने का आदेश दिया। एकाध साल बाद मैं पुनः जीजाजी के यहां रहने लगा था किन्तु देवराज; उनके रिश्तों में आई दरार फिर कभी भर न सकी।
- अ. ला. उके