Friday, August 31, 2018

गुम होते प्रश्न

दम घूंटते प्रश्न
आजकल, नित नई कॉलोनियां खड़ी हो रही हैं। बढती आबादी को देखते कॉलोनी डेवलपर, नई-नई साइट्स  लॉन्च करते हैं। हर कोलोनी में अन्य सुविधाओं के आलावा एक मंदिर भी होता है।

पिछले दिनों, अपने कॉलोनी डेवलपर से एक रूटीन मीटिंग के दौरान मैंने सवाल किया - "मैं बुद्धिस्ट हूँ । मैं बुद्ध विहार में ही जाता हूँ।  आप बतलाइए कि  मैं क्या करूँ ?" कॉलोनी डेवलपर सकपका गया।  वह ऐसे प्रश्न के लिए तैयार नहीं था।
"सर, अगर इस तरह मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी मांग करने लगे तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा।  हम मकान बनाएँगे कि  मंदिर, मस्जिद ?"
"मगर, यह स्पेस तो मुझे आपने ही दिया है, ऐसा पूछने का ? आप अगर एक समुदाय का ख्याल रखते हैं तो दूसरे समुदाय का क्यों नहीं ?"
इसी बीच हमारे एक हिन्दू मित्र ने अपनी कलाई में बंधी घडी की ओर इशार किया और मुझे 'एजेंडा' पर आने की गुजारिश की।  दूसरे मित्रों ने भी चट से उसकी हाँ में हाँ मिला दी और मेरा प्रश्न वही दम घूंट कर मर गया।    

Tuesday, August 28, 2018

ति-पिटक ग्रंथों में ब्राह्मणवाद

ति-पिटक ग्रंथों में ब्राह्मणवाद
एक समय, बुद्ध चरिका करते भिक्खु-संघ के साथ कौशल प्रदेश के शाला नामक गाँव में पहुंचे। यह ब्राह्मण बहुल गाँव था। ब्राह्मण-गृहस्थों ने सुना तो वे जहाँ बुद्ध ठहरे थे, वहां गए और उनका कुशल-क्षेम जाना। उनमें से कुछ ने बुद्ध से पूछा-  हे गोतम ! क्या हेतु है, क्या प्रत्यय है, जो कोई प्राणी काया छोड़ मरने के बाद अपाय/दुर्गति, पतन, नरक में उत्पन्न होते हैं ?  हे गोतम ! क्या हेतु है, क्या प्रत्यय है, जो कोई प्राणी काया छोड़ मरने के बाद सुगति, स्वर्गलोक में उत्पन्न होते हैं ?

 बुद्ध ने कहा-  गृहपतियों, अधर्माचरण के कारण कोई प्राणी------नरक में उत्पन्न होते हैं। धर्माचरण के कारण गृह्पतियों,  कोई प्राणी-----सुगति, स्वर्गलोक में उत्पन्न होते हैं(सालेय्यक सुत्त: मज्झिम निकाय)।

 उक्त प्रसंग में बुद्ध जैसे कि उनकी सैद्धांतिकी है, बिलकुल सही उत्तर देते हैं। अधर्माचरण के कारण, और धर्माचरण के कारण। बाद में विस्तार से बतलाने के अनुरोध पर वे अधर्माचरण के सम्बन्ध में कायिक, वाचिक और मानसिक अधर्माचरण की विस्तृत व्याख्या करते हैं। उसी प्रकार धर्माचरण के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार से समझाते हैं। ब्राह्मण-गृहस्थ,  बुद्ध की देशना से संतुष्ट हो उनकी शरणागत होते हैं।

किन्तु , इस प्रसंग में आलोच्य विषय यह नहीं है। बल्कि बुद्ध की देशना में  'स्वर्ग', 'नरक' जैसे ब्राह्मण-बहु-प्रचारित शब्द और 'मरने के बाद प्राणी कहाँ उत्पन्न होता है';  जैसे आम-जन के दिमाग में उथल-पुथल मचाते प्रश्न  हैं।

यहाँ, ध्यान देने की बात हैं कि प्रश्न-कर्ता ब्राह्मण हैं। सीधी-सी बात है, उनकी बोल-भाषा में स्वर्ग, नरक और इस तरह के प्रश्न स्वाभाविक हैं। किन्तु, क्या  बुद्ध ने उसी रौ में उत्तर दिया, जैसे कि कई बार अनजाने में होता है।   दूसरे, यह भी संभव है कि प्रथम संगति के बाद भाणकों  के द्वारा सुनते-सुनाते और चतुर्थ संगति के बाद लिखते-लिखाते कथोपकथन ऐसा गया हो। क्योंकि,  दोनों कार्य करने वाले ब्राह्मण ही थे।

और फिर, बुद्ध के समय इस तरह की बातें थी। वेद प्रश्नांकित हो रहे थे और ब्राह्मण इस पर से ध्यान हटाने, ब्राह्मण-ग्रन्थ और उपनिषद आदि लिख रहे थे । यही कारण है कि बुद्ध को हम जगह-जगह ब्राह्मण को कटघरे में लेते देखते हैं। यद्यपि बुद्ध ने भाषा को संयत रखा। हो सकता है, वजह उनको मिला राज-शाही प्रशिक्षण हो। डांंटोंं भी तो सम्मान से।  वही, ब्राह्मण को हम  'भो' शब्द से बुद्ध को संबोधित करते देखते हैं, जो कटु वर्गीय हीनता से भरा है !

बुद्ध ने 'स्वर्ग' और 'नरक' जैसी चीजों का स्पष्ट खंडन किया है। बुद्ध ने कहा कि मरने के बाद क्या होता है, इससे उसके धम्म का कोई लेना-देना नहीं है। बुद्ध ने कहा कि उसके धम्म का केन्द्र आदमी है।  उनके धम्म का केंद्र समाज है, समाज में उसे कैसे रहना है, इस तरह के सामाजिक संबंधों से है। 'मजहब' अथवा 'रिलीजन' के सर्वथा विरुद्ध 'धम्म' एक सामाजिक वस्तु है।  वह प्रधान रूप से और आवश्यक रूप से सामाजिक है। धम्म का मतलब है सदाचरण, जिसका अर्थ है जीवन के सभी क्षेत्रों में एक आदमी का दूसरे आदमी के प्रति अच्छा व्यवहार(बुद्धा एंड धम्मा, खंड 4 भाग 1, पृ 325)। 

Friday, August 24, 2018

विपस्सना और गोयनकाजी

विपस्सना और गोयनकाजी
मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि विपस्सना के आचार्य गोयनकाजी है। गोयनकाजी के पहले विपस्सना को लोग बहुत कम जानते थे । यह गोयनकाजी थे, जिन्होंने इस पर काम किया। उनका जो भी हेतु हो(यहाँ  व्यक्तिगत प्रॉब्लम पर मैं नहीं जाऊंगा), मगर, यह सच हैं कि उन्होंने इसे अपना बनाया। बात अपना बनाने तक ही सीमित रहती तो क्या बात थी, परन्तु गोयनकाजी ने उसे बुद्ध से जोड़ कर दिया। जाहिर है, अगर वे बुद्ध से न जोड़ते तो उनका इतना प्रचार न होता ?

ध्यानस्थ बुद्ध पहले से ही हमारे दिलो-दिमाग में विराजमान हैं। विपस्सना की ध्यान-साधना हमारे ह्रदय में बड़ी जल्दी बैठ गई। आज, विपस्सना के क्षेत्र में लोग बुद्ध को कम, गोयनकाजी को ज्यादा जानते हैं। दरअसल, बुद्ध का क्षेत्र यह है ही नहीं। विपस्सना को बुद्ध से जोड़ना वैसे ही है, जैसे बुद्ध को सर्वज्ञ कहना। बुद्ध ने इस तरह खुद को सर्वज्ञ कहे जाने, निखिल ज्ञान-दर्शन का ज्ञाता होने के प्रचार का कड़े शब्दों में खंडन किया (तेविज्जवच्छ गोत्त सुत्त: मज्झिम निकाय)। इसी प्रकार यह कहना कि ध्यान/तप-साधना से सिद्धार्थ, सम्यक-सम्बुद्ध हुए, बुद्ध को, उनके व्यक्तित्व और दर्शन को समझने में सम्यक दृष्टि का अभाव ही कहा जा सकता है। कुछ इसी तरह के कृत्यों के लिए निगंठनाथ पुत्तोंं को बुद्ध ने कड़ी-फटकार लगाईं थी(चूलदुक्खंध  सुत्त: मझिम निकाय)।

बुद्ध का मार्ग विपस्सना का मार्ग नहीं है। बुद्ध का मार्ग ध्यान का मार्ग तो कतई नहीं है। ध्यानी संघर्ष में नहीं पड़ते। ध्यानी संघर्ष से बचते हैं। बुद्ध संघर्ष में पड़े। बुद्ध जबरदस्त संघर्ष में पड़े। यह समाधान खोजने का संघर्ष  ही था, जो बुद्ध के अभिनिष्क्रमण का सबब बना। यह करुणा और मैत्री को स्थापित करने का ही संघर्ष था जब सिद्धार्थ अढ़ गए कि वे घायल पक्षी को हिंसक देवदत्त के हवाले नहीं करेंगे। वे चाहते तो संघर्ष से बच सकते थे। वे चाहते तो पतली गली से निकल सकते थे, जैसे कि विपस्सना वाले करते हैं। किन्तु तब, वे सम्यक सम्बुद्ध नहीं होते। जीवन,  संघर्ष है(बुद्धा एंड धम्मा: खंड 3 भाग 5, पृ 318)। हमें अपनी अस्मिता के लिए लड़ते हुए अपने समाज से दूर क्यों भागना चाहिए ? ध्यान-साधना अथवा किसी एकान्तिक जगह महीनों बंद रहना, आए दिनों अपने समाज पर हो रहे अत्याचारों और सवर्ण हिन्दुओं द्वारा हमारी माँ-बहनों से किए जा रहे बलात्कारों को नजर-अंदाज करना है। बुद्ध का धम्म सामाजिक मसलों के लिए है। 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' का हर-एक शब्द अपनी हर अर्थ-व्यंजनाओं के साथ यह बात अपनी पूरी ताकत से प्रतिध्वनित करता है। 

बुद्ध को ध्यान की मुद्रा में दिखाना बाद की कल्पना हैं। जो आदमी 40 वर्षों तक निरंतर चलते रहा, उसे ध्यानस्थ मुद्रा में कैसे दिखाया जा सकता है ?  बाबासाहब डॉ अम्बेडकर को बुद्ध की यह मुद्रा कतई पसंद नहीं थी । वे उन्हें  निरन्तर चरिका करते हुए देखते थे। और यही सत्य है।  ध्यानस्थ मुद्रा चाहे बुद्ध की ही क्यों न हो, वह परिवर्तन का हेतु नहीं हो सकती। हमें परिवर्तन चाहिए। बुद्ध परिवर्तन के प्रतीक थे। परिवर्तन प्रकृति का स्वभाव है। स्थायित्व जड़ता का प्रतीक है।  ध्यानस्थ मुद्रा जड़ता का प्रतीक है।  ध्यानस्थ मुद्रा ऋषि-मुनियों के लिए आम जन की कल्पना है। बुद्ध को भी इसी मानसिकता के चलते 'मुनिन्द्र' (मुनि-इंद्र) कहा गया!  बुद्ध काल में सदैव मौन धारण करने वाले मुनि रहा करते थे। यह तपश्चर्या बुद्ध को पसंद नहीं थी (भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन,पृ. 116   )। दरअसल, ध्यान महायान की संकल्पना है। दूर नहीं, आप बुद्धगया स्थित तिब्बत, चाइना, वियतनाम, जापानी आदि बौद्ध-मठों में जाइए। वहां आपको महायान चिंतन का अविश्वनीय रूप दिखेगा। हम बाबासाहब के अनुयायी, जब इन बुद्धिस्ट मठों में जाते हैं, अजीब-सा अनुभव करते हैं(यहाँ, मुझे इससे अधिक कहने में संयत होना चाहिए)।

बहरहाल, बुद्ध वैसे नहीं है, जैसे आपको दिखाया जाता है। यह तो बाबासाहब डॉ अम्बेडकर की अनुकम्पा है, जिन्होंने 'बुद्धा एंड धम्मा' लिख कर बुद्ध को उनके सही व्यक्तित्व के परिप्रेक्ष्य में पढ़ने की दृष्टि दी। वरना, तिब्बतियों की तरह हम घुटनों के बल रेंगते ही रह जाते। यह 'बुद्धा एंड  धम्मा'  है, जो कर्म और पुनर्जन्म के मुद्दे को मानवीय गरिमा के साथ व्याख्यायित करता है। भदन्त आनंद कौसल्यायन तो यही कहते रह गए कि अगर हिन्दुओं की 'आत्मा' में बौद्धों का 'क्षण-प्रति-क्षण होने वाला परिवर्तन' स्वीकार कर लिया जाए तो दोनों के कर्म-सिद्धांत में कोई फर्क नहीं रह जाता(दर्शन, वेद से मार्क्स तक)। यह 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' में बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर के द्वारा विश्लेषित 'बुद्ध का कर्म सिद्धांत' (खंड 4 : भाग- 2 ) की असंगत व्याख्या है। प्रसंग-वश बतला दूँ कि मैं अपने वरिष्ठों पर टिपण्णी दांतों पर जीभ रख कर ही करता हूँ। उदाहरण के लिए, विपस्सना -चार्य जगदीश चंद्रजी का उतना ही सम्मान करता हूँ जितना कोई अपने वरिष्ठ का करता है। भदन्त आनंद कौसल्यायन अथवा राहुलजी को प्रश्नगत करने की तो बात ही क्या ?  दरअसल, यह उस समाज की पीड़ा है, जिससे मैं पैदा हुआ, पला, बढ़ा।

चाहे सिद्धार्थ के जन्म और बचपन की अदभुत बाल-विलक्षणता के चमत्कार हो(अच्छरिय अब्भुत सुत्त:मज्झिम निकाय- 123/खुद्दक पाठ), महाअभिनिष्क्रमण के समय (पब्बज्जा सुत्त: सुत्त निपात) अथवा सम्बोधि प्राप्ति के समय 'मार' से  सम्बंधित किंवदंतियां, अथवा प्रथम धम्मोपदेश (धम्मचक्कपवत्तन सुत्त ) या महापरिनिर्वाण की घटनाओं (महापरिनिब्बान  सुत्त) का काव्यात्मक विवरण में बौद्ध-कवियों के बौद्धिक-उड़ान के दर्शन तो होते हैं किन्तु इससे आम-जन में बुद्ध का मानवीय रूप लुप्त हो जाता है। लोगों को उन में 'देवीय-गुण' देखने को विवश होना पड़ता है। और यही तो 'ब्राह्मणवाद' है। बारहवीं शताब्दी में एक और कवि जयदेव ने अपनी कृति 'दशावतार' में बुद्ध को विष्णु का अवतार बना दिया(राहुल सांकृत्यायन: पालि साहित्य का इतिहास, पृ 3 )।

सनद रहे, जब सिद्धार्थ 'नए प्रकाश की खोज में(बुद्धा एंड धम्मा, पृ. 105)' निकलते हैं तो आलार-काळाम और उद्दक रामपुत्त से ध्यान-साधना के तमाम गुरु सीखते हैं(अरिय परियेसन सुत्त : मज्झिम निकाय )। किन्तु वे उन्हें अन-उपयोगी जान आगे बढ़ जाते हैं(धर्मानंद कोसंबी :भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन, पृ. 145)। यह सच हैं कि बोधि-वृक्ष के नीचे बैठ वे उन तमाम समाधानों पर गौर करते हैं जिस के लिए उन्होंने गृह-त्याग किया था। इन समाधानों में ध्यान/तप साधना भी सम्मिलित थी। किन्तु इससे उन्हें समाधान मिला हो, 'बुद्धा एंड धम्मा' अथवा ति-पिटक ग्रंथों से प्रतिध्वनित नहीं होता। बड़ी अजीब-सी बात है कि गोयनकाजी ने इस ध्यान-साधना को तो पकड़ा किन्तु उससे आगे वाली सीढि जिसमें बुद्ध,  अस्थि-पंजर नजर आते हैं, छोड़ दिया। शायद यह उन्हें 'आराम-दायक' न लगा हो ?

बाबासाहब डॉ अम्बेडकर के शब्दों में, 'लगता है कि यह सारा का सारा(बाद के) बौद्ध धम्म में प्रक्षिप्त कर दिया गया है या कि किसी ऐसे द्वारा जो बौद्ध धम्म को हिन्दू धर्म सदृश्य ही बनाना चाहता था, या किसी ऐसे द्वारा जो यथार्थ बुद्ध धम्म से अपरिचित था('बुद्धा एंड धम्मा': पृ  351)।

कमोबेश सिंहल द्वीप को सांस्कृतिक रूप से भारत के करीब माना जाता है। आप में से कई लोग सिंहल द्वीप गए होंगे। आपका क्या अनुभव है। एक अम्बेडकराइट के रूप में आपकी क्या फिलिंग होती है। बुद्ध के दांत की पूजा अथवा समन्तकूट पर्वत पर अंकित बुद्ध के  'पाद-चरण पूजा'  क्या अर्थ रखते हैं ? हम दीपावली के दिन दिए न जलाने की बात करते हैं, परित्राण-पाठ के दिन भंतेजी से धागा न बंधवाने की बात करते हैं, सिंहलद्वीप के इतिहास ग्रन्थ 'महावंस' में लिखित इस कथा पर कैसे विश्वास कर सकते हैं कि यक्ष-दमन और नाग-दमन के लिए बुद्ध तीन बार सिंहलद्वीप आए थे(सम्पादकीय: महावंस ) ?

बात, अकेले 'महावंस' या 'दीपवंस' की नहीं है, पूरा ति-पिटक इस तरह की कथा-कहानियों से भरा पड़ा है। 'ललित विस्तर' हो या अश्वघोष रचित 'बुद्धचरित",  बुद्ध को मनुष्यों द्वारा तो ठीक है, 'देवताओं द्वारा पूजित' ( सत्था देव-मनुस्सानं बुद्धो भगवा'ति ) बताया गया है। ये कल्पनाओं के आकाश में उड़ने वाले कवि और लेखक बुद्ध को नर और नारियों द्वारा पूजित भी कह सकते थे। किन्तु उन्हें अपने आराध्य देव को ब्राह्मणों के देवताओं द्वारा भी पूजवाना था। पूजा के इस भाव का तात्कालिक मकसद तो अपने आराध्य 'देव' को श्रेष्ठ बताना है, मगर, इसके दूरगामी परिणाम बड़े घातक हुए । हम तमाम ना-नुकर के बाद भी जो 'बुद्ध पूजा' अथवा 'चेत्य-पूजा' करते हैं, वह इसी का परिणाम है ?  सनद रहे, गोयनकाजी विपस्सना भी इन्हीं देशों से लाए थे। और यह भी सही है कि बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने महायानी विचारधारा और संस्कृति को नकार दिया था। हमें इस दिशा में बहुत ही सचेत और सावधान रहने की जरुरत है। 'सम्यक दृष्टि' पहले हैं, 'विचिकिच्छा' बाद में।

बुद्ध का भिक्खु-संघ एक आदर्श समाज-व्यवस्था का हेतु है। शायद, वे ऐसी स्थापना करना चाहते थे। समाज को दिखाने के लिए बुद्ध ने उसे समाज से अलग रखा। किन्तु धीरे-धीरे कुछ समण-परिव्राजकों की देखा-सीखी वह आबादी से दूर एकान्तिक जगह में रहने लगा। और बस, यही से वह ब्राह्मणों के उलट, अपने समाज से कटता गया। 'बुद्धा एंड धम्मा ' में बाबासाहब ने इसकी विस्तृत व्याख्या की है। हमें समाज से क्यों अलग रहना है ? भिक्खु हो या धम्म-प्रचारक जितना संघर्षरत होगा, समाज के कमजोर तबके को बल मिलेगा, उर्जा प्राप्त होगी।  सामाजिक मसलों को दूर रखना समाज से गद्दारी ही कही जाएगी। अथवा कहीं ऐसा तो नहीं, यह ब्राह्मणिक चाल' बांटो और राज करो' की नीति का अंग हो, कि दलित समाज का एक तबका जिंदगी भर लड़ता-मरता रहे, और कतिपय समृद्ध तबका शुन्यगार में बैठ ध्यान-साधना में लीन, यह तमाशा देखता रहे !     

सामाजिक मुद्दों पर विपस्सना से जुड़े लोगों की चुप्पी बेहद डरावनी है, जो समूह सामाजिक क्षेत्र में कार्यरत है, उन्हें हतोत्साहित करने वाली है। इधर, बदलते राजनैतिक परिवेश हम देखते हैं कि हिन्दू-अतिवादियों के बढ़ते आतंक का मुकाबला करने जहाँ क्रिश्चियन और मुस्लिम बुद्धिजीवी गोलबंद हो रहे हैं, वहीँ  हमारे समाज के बुद्धिजीवी पतली गली से निकलने का रास्ता तलाश रहे हैं ! समाज से भागने की यह प्रवृति भयानक है। जिस समाज में आप पैदा हुए, उससे मुहं चुराने की यह प्रवृति समाज को नपुंशक बनाती है।

कुछ लोग यह कहते पाएं जाते हैं कि विपस्सना से आप चीजों को, समस्याओं को भली-भांति समझते हैं, उनका विश्लेषण करते हैं, उनकी गहराई तक पहुंचते हैं। अगर यह बात है तो समस्याओं से भागने की क्या जरुरत है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि विश्लेषण करते-करते आप को एहसास हो जाता है कि 'यह तो अंतहीन सिलसिला है, इनसे संघर्ष करते-करते जिंदगी खप जाएगी। और इसलिए बेहतर है, उस पर डिस्कशन ही नहीं किया जाए, उसे जाति-बिरादरी से बाहर कर दिया जाए । काश, कि बाबासाहब अम्बेडकर ऐसा सोचते ? बाबासाहब को होश नहीं  रहता था कि रमाबाई कहाँ हैं, यशवंत और रामरतन कहाँ हैं ? और इसलिए साथियों,  हम यहाँ हैं। और इसलिए हम सफ़ेद-झक सफारी सूट पहन बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमते हैं ! यह उनका अथक प्रयास है। मगर, हम !  क्या हम इतने हरामी है ?

बुद्ध समस्याओं से कभी नहीं भागे। बुद्ध ने समस्याओं का डट कर सामना किया। चाहे बोधि प्राप्ति के बाद यशोधरा से मिलना हो या पुत्र राहुल से। बुद्ध ने कभी मुहं नहीं चुराया। ये वे पल थे, जब वे डगमगा सकते थे । सिद्धार्थ चाहते तो विलासिता का जीवन जी सकते थे। मगर, वे  भागने वालों में से नहीं थे। विपस्सना वालों को राहुल सांकृत्यायन का लेख 'भागो, नहीं दुनिया को बदलो' पढ़ना चाहिए। राहुलजी जाति के ब्राह्मण थे। और यही कारण है कि खुल कर वे बाबासाहब अम्बेडकर के साथ खड़े नहीं हुए।  तो भी धम्म के अध्ययन ने उन्हें इतना 'ईमानदार' बना दिया कि वे सामाजिक मुद्दों पर मैदान में कूदने तनिक भी नहीं हिचकते थे ।

दलित वायस के संपादक वी टी राजशेखर के शब्दों में-  'Vipassana is the Brahmanic poison to kill Buddhism'  अर्थात विपस्सना एक बार फिर, बुद्धिज़्म को दफ़न करने का ब्राह्मणिक षडयंत्र है। वी टी राजशेखर को बुद्धिज़्म से कोई लेना-देना नहीं था। वे इस देश के दलित जातियों के शुभ-चिंतक थे। उनकी इस चेतावनी को हलके से नहीं लिया जा सकता। उन्होंने विपस्सना पर काफी शोध और बोध किया था। विज्ञानाचार्य अनिल रंगारी के इस बात में दम है कि गोयनकाजी अथवा उनके समर्थकों ने तब, उनके किसी आरोप का खंडन किया हो ।

वैसे, इस सम्बन्ध में विपस्सनावालों के साथ भिक्खुओं का गठ-जोड़ कम्प- कम्पाने वाला है। मैं उन भिक्खुओं की बात नहीं कर रहा हूँ जो अम्बेडकर मुव्हमेंट के साथ चलते हैं।  मैं उन भिक्खुओं की बात कर रहा हूँ जो गोयनकाजी को आराध्य मानते हैं। और इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता।  बल्कि, इसके लिए खुद गोयनकाजी दोषी है। आप कभी मुंबई के अन्तर्राष्ट्रीय विपस्सना केंद में गए होंगे तो आपने गौर किया होगा 'शुन्यगार भवन' के धुप्प अँधेरे में बुद्ध नहीं, गोयनकाजी विराजमान है ! बुद्ध हो भी नहीं सकते। बुद्ध का विपस्सना से क्या काम ? सम्बोधि प्राप्ति के पूर्व, सारे प्रयोग कर, बुद्ध ने ध्यान-साधना की तमाम सीढियां आलार-कालाम और उद्दक राम्पुत्त के चेलों को ससम्मान लौटा दिया था।

यह कहना कि जो बिना विपस्सना किए इस पर बात करते हैं, वे बाल-बुद्धि हैं, ठीक वैसे ही है जैसे कन-फुंकवा गुरु लोगों को लालच देते हैं- पहले कान-फुंकवा तब 'रहस्य' बताऊंगा। यह वैसे ही है, जैसे यह कहना कि पहले   सायनाइड खाओ, तब उस के गुण-दोष पर बात करो। शंकराचार्य को 'प्रच्छन्न बौद्ध'  कहा जाता है, किन्तु इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उन्हें धम्म की उपसम्पदा मिली हो। अशोक के धम्म-शिलालेखों को पढ़ने वाले  जेम्स प्रिंसेप बुद्धिस्ट नहीं थे। बंगाल एसियाटिक सोसायटी की पत्रिका में  पालि-ग्रंथों को सर्वप्रथम प्रकाशित करने वाले सिंहलद्वीप सर्विस सेवा के प्रमुख जार्ज टर्नूर बुद्धिस्ट नहीं थे। सन 1882 में स्थापित 'पालि टेक्स सोसायटी'  प्रकाशन संस्था के मार्फ़त सम्पूर्ण ति-पिटक को दुनिया के सामने रखने वाले टी. डब्ल्यु रीस डेविड्स बुद्धिस्ट नहीं थे(1. पालि साहित्य का इतिहास: राहुल सांकृत्यायन।  2. बौद्ध धर्म का इतिहास और साहित्य : रीस डेविड्स)। और फिर, किसी 'कला' को अपनी जागीर समझने का क्या तुक है ? बाबा रामदेव 'योगा' सिखाते हैं, दिल्ली के रामलीला मैदान सहित देश के कोने-कोने  में  शिविर लगाते हैं, किन्तु इसका उल्लेख नहीं मिलता कि उन्होंने किसी विपस्सना शिविर में 90-90 दिन गुजारे हो ? -अ ला उके           

Wednesday, August 22, 2018

विपस्सना

विपस्सना
विपस्सना का अर्थ है, खुद को देखना। खाते-पीते, सोते-जागते सतत खुद को देखते रहना कि जो मैं देख रहा हूँ, वह कितना सही है अथवा जो मैं सोच रहा हूँ, वह कितना जायज है अथवा जो मैं कार्य कर रहा हूँ, उसमें किसी का अहित तो नहीं है। धम्म के सन्दर्भ में हम बात करें तो यही अष्टांग मार्ग है अर्थात सम्यक दृष्टी, सम्यक संकल्प, सम्यक वाचा, सम्यक कर्मान्त, सम्यक आजाविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। और यही कारण है कि विपस्सना को बुद्ध से जोड़ा जाता है।

किन्तु इसके लिए एकांतिक स्थान की क्या दरकार है ? जंगलों में शिविर लगा कर 10-10, 15-15 दिन बिताने  की क्या आवश्यकता है ? क्या इससे यह साबित नहीं होता कि यह निट्ठलों की दुकानें हैं ? जिसका भरा पेट है, जिसे काम नहीं है, उनके मन बहलाने का साधन है ?

यह सच है कि  इधर, हमारे समाज में अन्य समृद्ध समाजों की नक़ल पर अपेक्षाकृत समृद्ध तबका पैदा हो गया है। वह भी बाबासाहब डॉ अम्बेडकर के अथक प्रयासों से प्राप्त आरक्षण के बदौलत। उनके पास पर्याप्त पैसा है। उनके पास समय भी है। वे चाहते हैं कि किसी एकांतिक स्थान में,  शहर से दूर जंगलों की आबोहवा में 10 -15 दिन नि:शब्द, शोरगुल से दूर रहें।

मुझे मेरे कई शुभ-चिंतकों ने सलाह दी कि मैं 10-15 दिन के विपस्सना का कोर्स कर लूँ। दरअसल, लोग आपको कमतर नजर से देखने लगते हैं।  वे चाहते हैं कि 3-4 दिन का ही सही, विपस्सना का कोर्स कर आप उनके साथ बतियाने और बैठने लायक हो जाए। किन्तु मुझे फुर्सत ही नहीं मिलती ?

बुद्ध का धम्म एकान्तिक नहीं है और न उसके लिए 'सतिपट्ठान' का कोर्स करने की जरुरत है। बुद्ध का धम्म 'चरथ भिक्खवे चारिकं  बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय है। बुद्ध आगे कहते हैं, 'मा एकेन द्वे अगमिथ'। भिक्खुओं, कभी भी एक साथ दो, एक रास्ते से मत जाना। एक भिक्खु को बुद्ध ने इसी बात पर डांट लगाईं। वह किसी ' ध्यान-साधना' के लिए जंगल में जाने की बात कर रहा था।  आज के सन्दर्भ में बात करें तो भदन्त जगदीश काश्यप को यही सलाह राहुल सांकृत्यायन ने दी थी। और नतीजन,  भंतेजी ने जो कार्य किए,  धम्म प्रसार में मील के पत्थर हैं।

बुद्ध का धम्म सामाजिक मुक्ति के लिए है। हमारा दुक्ख भेदभाव है, छुआछुत है, जातिवाद है, अशिक्षा है, आए दिनों  हमारी मा-बहनों से होता बलात्कार है। जो लोग इन दुक्खों से मुक्त हैं, वे बेशक विपस्सना में जा कर घंटों बैठ सकते हैं।  एक मित्र गर्व से बतला रहे थे कि उन्होंने इगतपुरी जा कर तीन महीने का कोर्स किया है। मुझे मित्र पर नहीं उन संस्थानों पर दया आती है जो क्रांति की आग को बुझाने का काम करते हैं ।

गोयनकाजी और बहुत ही कम समय में तीव्र गति से फैले उनके संस्थान विपस्सना के क्षेत्र में शोध करने के बजाय बुद्ध के क्रांतिकारी विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य करते तो समाज का बेहतर भला होता। सच पूछा जाए तो इन संस्थानों ने हमारे लोगों को क्रांति करने से रोक दिया है, क्रांति की धार को बोथरी कर दिया है।  बाबासाहब डॉ अम्बेडकर का 'एजुकेट, एजिटेट, ऑर्गेनाइज' का लहू जो हमारी रगों में दौड़ रहा था, दलित वायस के सम्पादक वी.टी. राजशेखर के शब्दों में, उसे 'फ्रिज' कर दिया है।

मेरा यह सीधा सवाल विपस्सना के आचार्यों से हैं। आप धम्म का पाठ पढ़ाते हैं, उन्हें 'एजुकेट' करते हैं ।  अनिवार्य तौर पर  'एजुकेट' के बाद उसे 'एजिटेट' होना चाहिए। क्या वह होता है ? अगर वह 'एजिटेट' नहीं होता, तो आप निस्संदेह, धम्म की गलत व्याख्या कर रहे हैं। बेशक, बुद्ध  शांति का मार्ग है। मगर, हमें अपनी माँ-बहनों के आबरू की कीमत पर शांति नहीं चाहिए। आज, आए दिनों हमारी माँ-बहनों से बलात्कार होता है। आप ये खबरें पढ़कर विपस्सना के लिए किसी एकांतिक स्थान में नहीं बैठ सकते ?                 

Monday, August 20, 2018

ब्राह्मणवाद

ब्राह्मणवाद, दरअसल एक मानसिकता है, जो अपने वर्गीय हित के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। पिछले दिनों एक टीवी डिबेट में विश्व हिन्दू परिषद के प्रवक्ता खुले आम कह रहे थे कि गऊ माता की रक्षा के लिए उनके लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं ! यही ब्राह्मणवाद है।

यही वह ब्राह्मणवाद है जिसे बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने जम कर लताड़ा है। यह वह ब्राह्मणवाद है जिसकी 'कास्ट इन इण्डिया', 'रिडल्स ऑफ हिंदुइज्म', 'हू वेयर शुद्राज' आदि कई अपने लेख और शोध-प्रबंधों में अच्छी खबर ली है। हालांकि, उन्होंने साफ कहा कि किसी ब्राह्मण अथवा जाति से उनका कोई लेना-देना नहीं है, यद्यपि शिक्षा के ठेकेदार होने के नाते उनकी आलोचना के लिए वे सीधे जिम्मेदार हैं।

बाबासाहब डॉ अम्बेडकर के पहले, बुद्ध ने ब्राह्मणवाद की तीखी आलोचना की थी । वासेट्ठ सुत्त, अम्बट्ठ सुत्त, अस्सलायान सुत्त, एसुकारित सुत्त, ब्रह्मजाल सुत्त गोया सारा ति-पिटक ब्राह्मणवाद की आलोचना से भरा पड़ा है। और यही कारण है कि डॉ अम्बेडकर ने बुद्ध के इस सामाजिक आंदोलन को ब्राह्मणवाद के विरुद्ध खुला युद्ध  कहा।

मगर यह जबरदस्त विरोधाभास है कि बुद्ध के अनेक प्रमुख शिष्य ब्राह्मण थे। सारिपुत्त मोग्गलायन हो या महाकाश्यप,  भिक्खु-संघ के नियंता थे। जबकि बुद्ध की देशना ब्राह्मणों के विरुद्ध थी।  बुद्ध का सारा दर्शन उनके वेद, उपनिषद और ब्राह्मण-ग्रंथों की जड़ें खोद रहा था।

सनद रहे, बुद्ध से भी घोर आलोचक ब्राह्मणवाद के आगे चलकर कबीर हुए। बुद्ध ने तो अपनी आलोचना में हद दर्जे की शालीनता बरती। उन्होंने हमेशा ब्राह्मण को समण के साथ रखा। किन्तु कबीर ने तो उसे सीधे ' पांडेजी निपुण कसाई' कहा। किन्तु तब भी कबीर गद्दी के आचार्य जहाँ भी आप देखेंगे, ब्राह्मण ही मिलेंगे ?

कबीर हो या बुद्ध, ब्राह्मणों ने इनसे निपटने का अनोखा रास्ता अपनाया। और वह है, इनके मठ अथवा विहार में आसीन हो कर, उनके मूल वचनो/उपदेशों में ब्राह्मणवाद घुसेड़ना। वरना, भदन्त आनंद कौसल्यायन को क्या गरज थी, डॉ अम्बेडकर की कृति 'बुद्धा एंड धम्मा' को 'भगवान बुद्ध और उनका धम्म' कहने की ? भदन्तजी यही नहीं रुके, उन्होंने बुद्ध के अनात्मवाद दर्शन में 'ब्राह्मणवादी पुनर्जन्म' को भी घुसेड़ दिया(दर्शन- वेद से मार्क्स तक)। बाबासाहब डॉ अम्बेडकर लाख कहते रहे कि 'इसकी कम-से-कम सम्भाबना है(बुद्धा एंड  हिज धम्मा)'  भंतेजी, राहुल सांकृत्यायन के सुर(दर्शन-दिग्ग दर्शन) में सुर मिलाते रहे।

Saturday, August 18, 2018

परित्राण-पाठ

हमारे यहाँ धार्मिक पर्व पर परित्राण-पाठ करने की परम्परा है। चाहे अवसर ख़ुशी का हो या ग़म का, भंतेजी द्वारा परित्राण-पाठ कराया जाता है। यह आवश्यक नहीं कि परित्राण-पाठ भंतेजी द्वारा ही हो, कोई भी धम्माचार्य या पारंगत उपासक/उपासिका कर सकती है। यह सोहलियत अथवा छूट दो कारणों से होती है। प्रथम तो भंतेजी की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं हो पाती।  कारण, समाज में उतने भिक्खु ही नहीं हैं। और दूसरे, कुछ को लोगों को भिक्खु के प्रति दुराग्रह हैं। उनका आरोप हैं की भंतेजी को जो दान दिया जाता है, वे उसे किसी धम्म-कार्य में लगाने की बजाए घर ले जाते हैं।

यह एक अलग विषय है कि धम्म दीक्षा लेने को 50 वर्ष से अधिक हो चुके, किन्तु अभी तक हम पर्याप्त भिक्खु पैदा नहीं कर सकें। जबकि, हमारी जनसँख्या में भारी इजाफा हुआ है। सीधी-सी बात है, भिक्खुओं के प्रति हमारी सोच ठीक नहीं है।

खैर, हम चर्चा परित्राण-पाठ की कर रहे थे। परित्राण के दिन पारिवारिक सम्बन्धियों और इष्ट-मित्रों को आमंत्रित किया जाता है। निस्संदेह, लोग आते भी हैं। मेरे एक मित्र हैं। एक दिन उन्होंने परित्राण-पाठ की सार्थकता पर टिपण्णी कर दी। मेरे एक दूसरे मित्र भड़क उठे। उनका कहना था कि परित्राण-पाठ हमारे समाज की परम्परा है। मुझे बीच-बचाव का रास्ता अपनाना पड़ा।

यह ठीक है कि परित्राण-पाठ से कुछ हो या न हो, इस बहाने सगे -सम्बन्धी और समाज के साथ मिल-बैठने का एक वातावरण बनता है। सामान्यतया, दिन भर से थक हार कर लोग टीवी पर रिलेक्स होते हैं। अगर आपके यहाँ कोई कार्य-क्रम है और आप लोगों को आमंत्रित करते हैं तो कई बहाने मिल जाते हैं, इष्ट-मित्रों को आपसे क्षमा मांगने। किन्तु अगर आपने खबर पहुंचाई है कि आपके यहाँ परित्राण-पाठ है तो फिर आप निश्चिन्त हो सकते है, उनकी उपस्थिति के लिए। कम-से-कम महिलाऐं तो आएगी ही। यह ठीक वैसा ही है जैसे पड़ोस में  सत्यनारायण की कथा हो रही हो ! 

Thursday, August 16, 2018

बौद्ध-ग्रंथों में ब्रह्मा, स्वर्ग, देवता और राक्षस

बौद्ध-ग्रंथों में ब्रह्मा, स्वर्ग, देवता और राक्षस
बौद्ध-ग्रंथों में ब्रह्म, देवता, इंद्र, स्वर्ग आदि शब्दों की भरमार हैं।  ऐसे कम ही लोग होंगे जिन्हें ये शब्द न चुभे हो, गले की फांश न बने हो। ऐसा नहीं है कि ये शब्द किसी वैदिक अथवा ब्राह्मण-ग्रंथों के कथोप-कथन को उद्धृत करने आए हो। दिक्कत ये है की ये शब्द धम्म-ग्रंथों में बुद्ध के उपदेशों में आए हैं। 

आप यह प्रश्न कर राहत की साँस ले सकते हैं कि सुत्त पिटक आदि ग्रंथों को पढ़ता कौन है ?  'बुद्धा एंड हिज धम्मा' ही पर्याप्त है, धम्म को जानने के लिए । धम्म-अध्येयताओं की बात छोड़िये, मुझ जैसा सामान्य उपासक भी जब घर में बुद्ध वंदना करता है तब कई बार झुंझला जाता है। अजीब-सी कोफ़्त होती है, जब हम 'इंद्र आदि देवताओं' की अभ्यर्थना करते हैं, 'ब्राह्मण' का गुण गान करते हैं-

निम्न गाथाएँ कुछ नमूना भर हैं, अपनी बात रखने की। किन्तु दरअसल, सारा ति-पिटक ऐसे शब्द और शब्द व्यंजनाओं से भरा पड़ा है।
देखें बुद्ध, धम्म, संघ वंदना में, यथा-
पुरिस-दम्म सारथि सत्था, देव' मनुस्सानं बुद्धो भगवा'ति। अथवा
भंते जी के द्वारा कहे आशीर्वचन-
"भवतु सब्ब मंगलं, रक्खन्तु सब्ब 'देवता'
सब्ब बुद्धानुभावेन, सदा सोत्थि भवन्तु ते।"    अथवा
इद्धिमन्तो च ये 'देवता', वसंता इध सासने।
ते'पि तुय्हं अनुरक्खन्तु, आरोग्य सुखेन च।।  अथवा
महामंगल सुत्त की यह गाथा देखें-
बहू 'देवा' मनुस्सा च, मंगलानि अचिन्तयुं।
आकंखमाना सोत्थानं, ब्रूहि मंगलं उत्तमं।। अथवा
रतन सुत्त की यह गाथा देखें-
कोटि सत  सहस्ससु, चक्क वालेसु 'देवता'।
येसानं पटिग्गण्हन्ति, यं च वेसालिया पुरे।।
महामंगल गाथा में-
सक्कत्वा बुद्ध रतनं, ओसधं उत्तमं वरं।
हितं 'देव'-मनुस्सानं, बुद्ध तेजेन सोत्थिना।।

अब 'ब्रह्म' का गुणगान देखे-
'ब्रह्म' चरिया वेरमणी, सिक्खा पदं समादियामि। अथवा
सब्बेसु चक्कवालेसु, यक्खा 'देवा' च 'ब्रह्मुनो'।
यं अम्हे हि कतं पुञ्ञेन, सब्ब संपत्ति साधकं।।  अथवा
करणीय मेत्तं सुत्त में-
एतं सतिं अधिट्ठेय्य, 'ब्रह्म' मेत्तं विहार इध आहु।
स्वर्ग की प्रशंसा देखें-
आयु आरोग्य संपत्ति, 'सग्ग' संपत्ति येव च।
ततो निब्बान संपत्ति, इमिना ते समिज्झतु।।
आव्हान सुत्त में 'राक्षसों' से रक्षा-
अच्छ, तच्छ, सुकर, महिस, यक्ख, 'रक्खस'-आदि हि नाना भयतो वा नाना रोगतो वा---
अभी मैंने 'आटानाटिय सुत्त' की बात ही नहीं की है, जिसमें भूत-प्रेतों को भगाने की गाथाएं हैं। इस पर चिंतन और मुल्यांकन विद्वत पाठकों पर छोड़ दिया है। किन्तु , क्या कभी हमने इस पर गौर किया हैं कि जो कुछ हम  पाठ करते हैं अथवा भंतेजी कहते हैं,  उसका अर्थ क्या हैं ? और इन गाथाओं में वर्णित ये 'देवता' कौन है ? दरअसल, हम धार्मिक  संस्कारों में, क्रिया-कलापों में यंत्रवत काम करते हैं।

जैसे एक हिंदू के घर में होश आते से ही संस्कार देना शुरू हो जाता है, ये हनुमानजी हैं। इनके आगे नत-मस्तक होना है और इसीलिए बच्चा पढ़-लिख कर जब प्रोफ़ेसर/डाक्टर  बनता है तो सड़क पर अचानक ठिठक कर हनुमानजी को देख छाती पर क्रास बनाता है। यह बचपन के संस्कार ही हैं कि हम सोचने की जहमत नहीं उठाते कि  भंतेजी बोल क्या रहे हैं ? और अगर किसी ने टोकने की जुर्रत की तो हमें लगता है कि वह सिरफिरा है !

सवाल है,  धम्म-गाथाओं में उल्लेखित देवता क्या वही देवता हैं जो वेद और ब्राह्मण-ग्रंथों में वर्णित हैं ? बुद्ध कहते हैं कि वेद और उनमें वर्णित देवता इस योग्य ही नहीं कि उनसे कुछ सीखा अथवा ग्रहण भी किया जा सके। 'वेद, मन्त्रों अर्थात ऋचाओं या स्तुतियों का संग्रह है। इन ऋचाओं का उच्चारण करने वालों को ऋषि कहते हैं। मन्त्र 'देवताओं' को सम्बोधन करके की गई प्रार्थनाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं है जैसे इंद्र, वरुण, अग्नि, सोम, ईशान, प्रजापति, ब्रह्म, यम आदि(बुद्ध और उनका धम्म: डॉ बी आर अम्बेडकर, पृ. 121) । प्रार्थनाएं अकसर शत्रुओं से रक्षा वा शत्रुओं के विरूद्ध सहायता प्राप्त करने के लिए है धन प्राप्ति के लिए है, भक्तों को भोजन, मांस और सुरा की भेंट स्वीकार करने के लिए है(वही)। लेकिन उन मन्त्रों में उन्हें ऐसा कुछ दिखाई नहीं दिया जो मानव के नैतिक उत्थान में सहायक हो। इसलिए बुद्ध ने वेदों को इस योग्य नहीं समझा कि उनसे कुछ सीखा अथवा ग्रहण भी किया जा सके(वही, पृ. 123)।

उपनिषदों में वर्णित 'ब्रह्म'-
बुद्ध ने पाया कि सभी उपनिषद वेदों को अपौरुषेय न मानने के समर्थक थे। ब्राह्मणी दर्शन की प्रधान-स्थापनाओं- जैसे यज्ञ और उसके फल, श्राद्ध और ब्राह्मण पुरोहितों को दिए जाने वाले दानों के महात्य्म को अस्वीकार करने में एकमत थे(वही, पृ. 132) । किन्तु यह कोई उपनिषदों का मुख्य विषय न था। उनकी चर्चा का मुख्य विषय है, ब्रह्म और आत्मा। ब्रह्म ही वह सर्व व्यापक तत्व है जो विश्व को बांधे हुए है और आदमी की मुक्ति भी इसी बात में है कि उसके आत्मा को इस बात का बोध हो जाए कि वह 'ब्रह्म' है। प्रश्न पैदा हुआ कि क्या 'ब्रह्म' एक वास्तविकता है ? उपनिषदों की सारी स्थापना इसी एक प्रश्न के उत्तर पर निर्भर करती है। बुद्ध को 'ब्रह्म' की वास्तविकता का कोई प्रमाण नहीं मिला।  इसलिए उन्होंने उपनिषदों की स्थापना को अस्वीकार कर दिया(वही)। ईश्वर को सृष्टि-कर्त्ता और 'ब्रह्म' को विश्व का मूलाधार तत्व मानने का बुद्ध ने सर्वथा त्याग किया(पृ. 137)। उन्होंने इस सिद्धांत का खंडन किया किया कि किसी ईश्वर ने आदमी का निर्माण किया है अथवा वह किसी 'ब्रह्म' के शरीर का अंश है(वही, पृ. 138)।

बावीस प्रतिज्ञाओं का अंतर्विरोध-
और एक तीसरी बात, धम्म दीक्षा के अवसर पर डॉ बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा दी गई 22 प्रतिज्ञाओं में जब हम ब्रह्मा, विष्णु, महेश और राम, कृष्ण को ईश्वर न मानने की प्रतिज्ञा करते हैं, गौरी, गणपति आदि किसी भी देवी-देवता को नकारते हैं तब उक्त गाथाओं में आए ये 'देवता' और  'ब्रह्मा' कौन हैं, जिनकी हम अभ्यर्थना करते हैं ?

यह सुस्थापित तथ्य है कि ति-पिटक ग्रंथों में चीवरधारी ब्राह्मणों ने ब्राह्मणवाद को घुसेड़ा और यह उनके लिए बहुत ही स्वाभाविक था। यह भी सही है कि संगीतियां होती रही किन्तु उठते सवालों को दबाने वाले भी तो वे ही थे। ब्राह्मण सब कर सकता है बस, अपना स्वार्थ नहीं छोड़ सकता। ब्राह्मणवाद के पोषण की कीमत पर ब्राह्मण, भिक्खु बन सकता है, दिगम्बरी साधु बन सकता है और तो और कबीर पंथी महंत भी बन सकता है, जिसने उसे भरे बाजार में गरियाया। और यही कारण है कि सभी गद्दियों पर ब्राह्मण विराजमान है। हम मजे से उनके गुण गाते हैं और ऐसा करते हुए खुद को गौरान्वित महसूस करते हैं।

अपने उद्बबोधन मैं अकसर स्वर्ग का अर्थ निर्वाण, देवता का अर्थ सत्पुरुष और ब्रह्म का अर्थ विशुद्ध करता हूँ।  किन्तु कब ? कब तक हम खुद को बरगलाते  रहेंगे ?  

Wednesday, August 15, 2018

हमें चाहिए आजादी

आजादी के इस पर्व पर
हमें चाहिए आजादी
आजादी भई, आजादी,
हमें चाहिए आजादी। 1। 

बोलने की आजादी
सड़क पर चलने की आजादी
कुंए से पानी खींचने की आजादी
घोड़े पर चढ़ने की आजादी।
आजादी भई, आजादी,
हमें चाहिए आजादी।।

ब्राह्मणवाद से आजादी
मनुवाद  से आजादी
कर्मवाद से आजादी
धर्मवाद  से आजादी।
आजादी भई. आजादी,
हमें चाहिए आजादी।।

उंच-नीच से आजादी
धार्मिक भेदभाव से आजादी
घृणा और विद्वेष से आजादी
नकारात्मक विचारों से आजादी।
आजादी भई. आजादी,
हमें चाहिए आजादी।।

अंध-श्रद्धा से आजादी
अंध-भक्ति से आजादी
कु-प्रथा से आजादी
अंधी राष्ट्र-भक्ति से आजादी।
आजादी भई. आजादी,
हमें चाहिए आजादी।।

जंगली भेड़ियों से आजादी
गंडा और ताबीज से आजादी
दरगाह और आश्रमों से आजादी
मुल्ला और बाबाओं से आजादी।
आजादी भई. आजादी
हमें चाहिए आजादी।।

कट्ठ्मुल्ला-पन  से आजादी
धार्मिक-जड़ता से आजादी
सड़ी-गली परम्पराओं से आजादी
चतुर्वर्ण व्यवस्था से आजादी
आजादी भई. आजादी,
हमें चाहिए आजादी।।

घर के बंद दीवारों से आजादी
पाँव में पड़ी बेड़ियों से आजादी
घूंघट और चुड़ियों से आजादी
बिंदी और सिन्दूर से आजादी।
आजादी भई. आजादी,
हमें चाहिए आजादी।।

अशिक्षा से आजादी
कुपोषण से आजादी
भूख से मरने से आजादी
बाढ़ में बहने से आजादी।
आजादी भई. आजादी,
हमें चाहिए आजादी।।


सर खुला रखने की आजादी
मूंछ बढ़ाने की आजादी
बाईक पर चलने की आजादी
अच्छे कपडे पहनने की आजादी
आजादी भई. आजादी,
हमें चाहिए आजादी।।

गू-मूत उठाने की आजादी
मैला ढोने  की आजादी
खटर साफ करने की आजादी
मरे जानवर उठाने की आजादी
आजादी भई. आजादी,
हमें चाहिए आजादी।।

Negative Sentence in Pali

नकारात्मक (Negative) वाक्य-
१. 'न' का प्रयोग कर-
न अत्थि मे धनं (मेरे पास धन नहीं है )।

'न ' पर जोर देने के लिए  नपि/ नहि ,  'न'एव'/ न पन, न खो  का प्रयोग कर-
न हि वेरेन वेरानि समन्तति इध कुदाचनं(वैर से वैर इस संसार में कभी शांत नहीं होता।)।
-नत्थि सोको कुतो भयं(शोक नहीं तो भय कहाँ)?
नो हि एतं भंते(नहीं, ऐसा नहीं है भंते)।


२. 'अ' अथवा 'अन' जोड़ कर-
अ-कालो  खो तव भगवन्तं दस्सनाय(समय नहीं है यह तुम्हारे लिए भगवान के दर्शन का)।
छाया अन-पायिनि(छाया, न पीछा छोड़ने वाली)।

निषेधात्मक (Prohibitive) वाक्य-
इसके लिए  'मा' का प्रयोग होता है -
मा सद्दं अकत्थ(शब्द/आवाज मत करो)।
मा वोच फरुसं कञ्चि(कभी कठोर शब्द न कहें)।
मा ते कामगुणे भमस्सु चित्तं(काम-भोग की और चित्त मत जाने दो)।   

मारने वाले से बचाने वाला बड़ा

एक बार सिद्धार्थ अपने पिता के खेतों पर गया।  विश्राम के समय वह एक वृक्ष के नीचे लेटा हुआ प्राकृतिक शान्ति और सौंदर्य का आनंद ले रहा था। उसी समय आकाश से एक पक्षी ठीक उसके सामने आ गिरा।  पक्षी को एक तीर चुभा था। सिद्धार्थ ने तीर निकाला और उसके जख्म पर पट्टी बांधी।  तभी उसका ममेरा भाई देवदत्त वहां आ पहुंचा।
"क्या तुमने घायल पक्षी को देखा है ?"
"हाँ।" - सिद्धार्थ ने कहा और वह पक्षी दिखाया जो अब कुछ स्वस्थ हो चला था।
"वह मेरा शिकार है, मुझे दिया जाए।" देवदत्त ने मांग की।
"नहीं, यह तुम्हें नहीं दिया जा सकता।  -सिद्धार्थ ने कहा ।
दोनों में काफी विवाद हुआ। देवदत्त का कहना था कि शिकार के नियमों  के अनुसार जो पक्षी को मारता है, वही उसका मालिक होता है। इसलिए वही उसका मालिक है।
सिद्धार्थ का कहना था कि यह आधार ही सर्वथा गलत है। जो किसी की रक्षा करता है, वही उसका स्वामी हो सकता है।  हत्यारा कैसे किसी का स्वामी हो सकता है ? 

Tuesday, August 14, 2018

क्या राष्ट्र का संरक्षण, बिना कटे-मरे नहीं हो सकता ?

क्या राष्ट्र का संरक्षण, बिना कटे-मरे नहीं हो सकता ?
"तुम भूल गए हो की तुम एक क्षत्रिय कुमार हो।  लड़ना तुम्हारा धर्म है। शिकार के माध्यम से ही युद्ध-विद्या में निष्णात हुआ जा सकता है। क्योंकि शिकार करके ही तुम ठीक-ठीक निशाना लगाना सीख सकते हो। शिकार भूमि ही युद्ध भूमि का अभ्यास क्षेत्र है।" -शिकारियों के दल में जाने से इंकार करने पर महाप्रजापति ने डांटते हुए सिद्धार्थ को कहा।
"पर माँ ! एक क्षत्रिय को क्यों लड़ना चाहिए ?"
"क्योंकि यह उसका धर्म है। "
"किन्तु माँ ! यह तो बता कि आदमी का आदमी को मारना एक आदमी का ही 'धर्म' कैसे हो सकता है ?"  -बारह वर्ष के सिद्धार्थ ने तर्क दिया ।
"यह सब तर्क एक सन्यासी को योग्य है। लेकिन क्षत्रिय का तो 'धर्म' लड़ना है।  यदि क्षत्रिय भी नहीं लड़ेगा तो राष्ट्र का संरक्षण कौन करेगा ?"
"लेकिन माँ ! यदि सब क्षत्रिय एक दूसरे को प्रेम करें तो क्या बिना कटे-मरे राष्ट्र का संरक्षण कर ही नहीं सकते ?' गौतमी निरूत्तर हो जाती(स्रोत- बुद्ध और उनका धम्म: डॉ. बी. आर. अम्बेडकर)।
प्रस्तुति - अ ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com