Wednesday, September 18, 2019

विश्वकर्मा पूजा

आज, सुबह-सुबह मैं दूध का पेकेट लेने गया। दुकानदार, दुकान छोड़ अपनी बाईक पानी से धो रहा था। मेरी और देख कर वह मुस्कराया-  "सर, आज विश्वकर्मा पूजा है। "
"ओह ! तुम विश्वकर्मा पूजा करते हो ?"  -मैंने थोड़े आश्चर्य से कहा
"जी, यह हमारा त्यौहार है। परम्परा से चला आ रहा है। "  
"आप नहीं मनाते क्या ?" उसने वही से पूछा। 
"नहीं, हम नहीं मनाते। हमें तो पता ही नहीं है कि विश्वकर्मा कौन है ?" मैंने थोड़े आश्चर्य से उसकी और देखा। 
"सर, हम हिन्दू हैं और हिन्दू;  विश्वकर्मा पूजा करते हैं, इतना ही मैं जानता हूँ। " 

बुद्ध ने कभी उलझाने वाली बात नहीं की

बुद्ध ने कभी उलझाने वाली बात नहीं की।
"कौन स्पर्श करता है ?" बुद्ध से किसी ने पूछा ।
" तुम्हारा प्रश्न ही गलत है कि कौन स्पर्श करता है। बल्कि, तुम्हारा प्रश्न होना था, किससे स्पर्श होता है ? वत्स, अगर तुम ऐसा पूछते, तब मैं कहता- सळायतन पच्चया फस्सो। छह इन्द्रियां और उनके विषय होने से स्पर्श होता है(भदन्त आनंद कोसल्यायन: दर्शन वेद से मार्क्स तक )।

धम्मपद

धम्मपद
बौद्धों का धम्मपद एक सर्व कालिक, सर्वाग्राही ग्रन्थ है। जिस तरह तमाम असहजता के बावजूद कबीर की साखियों को जब तब उद्धरित किया जाता है, ठीक उसी प्रकार धम्मपद की गाथाएं भी उद्धरित की जाती है। इसमें पंथ-सम्प्रदाय और धर्म विशेष का कोई लेना-देना नहीं है।

बौद्धों में तो धम्मपद को, एक पवित्र धर्म-ग्रन्थ का दर्जा प्राप्त है। यह वन्दनीय है, पूजनीय है। कई बुद्ध विहारों में तो श्रद्धा और सम्मान के साथ  'धम्मपदोत्सव'  मनाया जाता है। यह 10 दिन का भी हो सकता है और सम्पूर्ण  वर्षावास का भी। बुद्ध विहारों में इसका संगायन किया जाता है और भंते या धम्म प्रचारक फिर उस पर देशना  करते हैं।

ऐतिहासिक और महत्ता की दृष्टी से देखें तो ति-पिटक ग्रंथों से यह उतना महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ नहीं है। ति-पिटक अर्थात तीन पिटक- 1.  सुत्त पिटक  2.  विनय पिटक और 3.  अभिधम्म पिटक। फिर, सुत्तपिटक में 5 ग्रन्थ हैं- 1. दीघनिकाय  2. मज्झिम निकाय 3. संयुत्त निकाय  4. अंगुत्तर निकाय और 5. खुद्दक निकाय। दीघनिकाय, मज्झिम निकाय, संयुत्त निकाय और अंगुत्तर निकाय तो बड़े विशाल ग्रन्थ हैं और इनके कई भाग-अनुभाग हैं किन्तु पांचवे खुद्दक निकाय एक न होकर इसमें छोटे-बड़े कुल 15 ग्रन्थ हैं-  1. खुद्दक पाठ  2. धम्मपद 3.  उदान 4. इतिवुत्तक 5. सुत्तनिपात 6. विमानवत्थु 7. पेतवत्थु 8. थेरगाथा 9. थेरीगाथा 10. जातक 11. निद्देश 12. पतिसम्मिदा मग्ग 13.  अपदान 14.  बुद्धवंश, 15.चरियापिटक।

 धम्मपद में 423 गाथाएं  26 वर्गों में विभक्त हैं- 1. यमक वग्ग 2. अप्पमाद वग्ग 3. चित्त वग्ग  4. पुप्फ़ वग्ग 5. बाल वग्ग 6. पंडित वग्ग 7. अरहंत वग्ग 8. सहस्स वग्ग 9. पाप वग्ग 10. दंड वग्ग 11. जरा वग्ग 12. अत्त वग्ग 13. लोक वग्ग 14. बुद्ध वग्ग 15. सुख वग्ग 16. पिय वग्ग 17. कोध वग्ग 18. मल वग्ग 19. धम्मट्ठ वग्ग 20. मग्ग वग्ग 21. पकिण्णक वग्ग 22. निरय वग्ग 23. नाग वग्ग 24. तण्हा वग्ग 25. भिक्खु वग्ग 26. ब्राह्मण वग्ग।

धम्मपद, सुभाषित मानी गई कुछ गाथाओं का संग्रह  है, जो ति-पिटक ग्रंथों से ली गई है। ये गाथाएं इतनी सुभाषित और सर्वग्राही हैं कि  राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में,  संसार की सारी सभ्य भाषाओँ में इसके अनुवाद हो चुके हैं(पालि साहित्य का इतिहास)। इस पर टीकाएँ, अनु-टीकाएँ, टीकाओं पर टीकाएँ लब्ध-प्रतिष्ठित देश और विदेश की कई हस्तियों ने की हैं। बाबासाहब अम्बेडकर  ने अपनी अमर कृति 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' में कई स्थानों पर धम्मपद से उद्धरण लिए हैं।

आरम्भ में 4 निकाय थे- दीघ, मज्झिम, संयुत्त और अंगुत्तर निकाय(ति-पिटक, उत्पत्ति और विकास : डॉ सुरेन्द अज्ञात )। प्राचीन अभिलेखों में 'चतु निकायिक'(चार निकायों ) का ही प्रयोग हुआ है। बुद्धघोष भी सुत्त पिटक के चार निकायों को ही स्वीकारते हैं- 'सुत्तन्तरपिटके चतस्सो संगतियो' (निदान कथा :सुमंगलविलासनी)। निस्संदेह,  पांचवा निकाय, जिसे खुद्दक निकाय कहते हैं, बाद का है और बुद्ध वचन के रूप में इसके अंतर्गत आने वाले 15 ग्रंथों की प्रमाणिकता संदेह के परे नहीं है। डॉ भरतसिंह उपाध्याय ने धम्मपद सहित इन 15 ग्रंथों को दूसरे दर्जे का माना है(ति-पिटक में धम्मपद का स्थान, पृ. 38)।

बुद्ध ने न सिर्फ लोक भाषा के अन्यथा संस्कृत में उनके कथन को उद्धरित करने का निषेध किया वरन छंदोबद्ध पद्य-मय रूप से उनके उपदेशों को कहने सचेत किया (संयुत्त निकाय भाग- 1: पृ 308 )। इसी तरह बुद्ध ने अन्य उपदेश में छंदोबद्ध कविताओं व पद्यों को धम्म के लिए बड़ा भावी-भय और उसे नष्ट करने वाला बताया है(अंगुत्तर निकाय भाग- 2: पृ 326)। लेकिन धम्मपद सहित सारा खुद्दक निकाय काव्य-मय है, जिसमें भावुकता, पौराणिकता और हवाई कल्पना का भण्डार है। हम देखते हैं कि हमारे दैनिक जीवन में, आचार-संहिता के नाम पर हों या बुद्ध वंदना के नाम पर अथवा  पूजा-पाठ की परितं गाथाएं;  सारी की सारी छंदों-बद्ध पद्य-मय रचनाएँ  हैं। ब्रह्मा, देवता, यक्ष, राक्षस सारे ब्राह्मणिक कल्पित पात्र स्वर्ग-नरक का भय दिखाते हुए हमारे घर और बुद्ध-विहारों में विराजमान हैं। भंते, मजे से इनका संगायन करते हैं और उपासक-उपसिकाएं परित्राण-पाठ के बाद सत्यनारायण की कथा की तरह हाथ में सूत्र बांध बाहर निकलते हैं !
धम्मपद के सर्वमान्य होने का कारण इसमें 'ब्राहमण महिमा' का बखान है. कोई भी ग्रन्थ जो ब्राह्मण के गुण गाए, 'सर्वमान्य' न होने से कैसे रह सकता ? धम्मपद का  पूरा का पूरा एक परिच्छेद 'ब्राह्मण वग्गो',  'ब्राह्मण श्रेष्ठता' के लिए समर्पित है। इसमें 'ब्राह्मण हत्या' को धिक्कारा गया है-  'धि ब्राह्मणस्स हन्तारं'। प्रतीत होता है, बुद्ध के ब्राह्मण सावक,  'समण-ब्राह्मण' के रूप में  अपनी शाख बचाने सफल हो गए।  
- अ. ला. ऊके  @ amritlalukey.blogspot.com

Tuesday, September 17, 2019

पाप मित्तता(कुसंगति)

Image may contain: 1 person, outdoor and natureपाप मित्तता(कुसंगति)
नाहं भिक्खवे! अञ्ञं एक धम्मम्पि समनुपस्सामि, यो एवं अनत्थाय संवत्तति, यदिदं भिक्खवे पाप-मित्तता. पाप-मित्तता भिक्खवे, महतो अनत्थाय संवत्तति(एकक निपात:अंगुत्तर निकाय)।
नहीं मैं,  भिक्खुओ! दूसरी चीज देखता हूँ, जो इतना अनर्थकारी हो, जैसे कि, भिक्खुओ, कुसंगति।  कुसंगति भिक्खुओ, बहुत ही अनर्थकारी है।
--------------------
नाहं- न अहं। धम्मम्पि- धम्म-अपि। यदिदं- यथा-इदं। 

Monday, September 16, 2019

धार्मिक गुलामी-

धार्मिक गुलामी-
हिन्दू; बुद्ध विहारों में नहीं जाते, वाल्मीकि मंदिरों नहीं जाते, रविदास मंदिरों में नहीं जाते, आदिवासियों के पूजा-स्थल 'पेनगढों' में नहीं जाते जबकि महार, चमार, वाल्मीकि, आदिवासी हिन्दू मंदिरों में जा कर न सिर्फ माथा टेकते हैं, घंटी बजाते हैं बल्कि उनके तीज-त्यौहार भी उतने ही हर्ष-उल्लास से मनाते हैं !

पालि' सीखना आवश्यक है.

'पालि' सीखना आवश्यक है.
भाषा, संस्कृति का हिस्सा है. बोल-भाषा और आचार-विचारों से ही संस्कृति का निर्माण होता है. हमारा देश बहु-भाषी देश है. निस्संदेह यहाँ संस्कृतियाँ अनेक हैं. हर समाज की अपनी भाषा और संस्कृति है.
पालि का सम्बन्ध जितना ति-पिटक से हैं, उससे कहीं अधिक सम्बन्ध बुद्ध की वाणी से है. पालि, बुद्ध की भाषा है. पालि बुद्ध के वचन है. आप पालि सीख कर बुद्ध वचनों को सीखते हैं.
जिस प्रकार, समाज और संस्कृति पर्यायवाची हैं, ठीक उसी प्रकार भाषा और संस्कृति पर्याय वाची है. आप संस्कृति से भाषा को अलग नहीं कर सकते. भाषा है तो संस्कृति है और संस्कृति है तो समाज है. और इसलिए बुद्ध को नष्ट करने के लिए सर्व-प्रथम उसकी भाषा अर्थात उसके ग्रंथों को जलाया गया. महीनों नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, जगद्दल आदि बौद्ध विश्वविद्यालयों के विशाल ग्रंथालय जलते रहे.
पालि हमारी संस्कृति है, हमारी अस्मिता है. यह हमारी संस्कार-भाषा है. सारे बौद्ध संस्कार हमारे पालि में होते हैं और इसलिए, बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा पुनर्स्थापित बुद्ध और उनके धम्म को बचाए रखना है, क्योंकि, तो पालि सीखना आवश्यक है.

पालि को जन-जन तक पहुँचाने की कार्य योजना-
पालि पढ़ाने की दिशा में बच्चों को पालि सीखाना सरल है. सामाजिक उत्थान की दिशा में कार्यरत हमारे लोगों द्वारा स्थान-स्थान पर कोचिंग क्लासेस लगा कर बच्चों को पढ़ाया जाता है. इसमें भाषा के तौर पर, पालि अतिरिक्त रूप से पढाई जा सकती है. प्रो. प्रफुल्ल गढ़पाल जैसे अधिकारी द्वारा वर्ग- 1 से  वर्ग - 5 तक की पुस्तकें तैयार हैं.  संस्कृत से अत्यंत सरल होने से प्रारंभिक स्तर पर  पालि पढ़ाने किसी दक्षता की आवश्यकता नहीं है. स्मरण रहे,  प्रो. गढ़पाल तत्सम्बंध में प्रशिक्षण के लिए बीच-बीच में 10 से 15 दिन के प्रशिक्षण शिविर आयोजित करते रहते हैं.

Sunday, September 15, 2019

पालि सीखें- मम नाम अमतो.

मम नाम अमतो.
मम पितुस्स नाम मंदरु उके.
मम मातुया नाम मेनावन्ति.
अहं भोपाल नगरे निवसामि.
रित्त ठानं पूरणीयं-
मम नाम -------------.
मम पितुस्स नाम ---------------.
मम मातुया नाम ----------------.
अहं ------------- नगरे निवसामि.
पाठक आवुस आर. पी. सिंग-
मम नाम -रवीन्द्र पाल सिंह।
मम पितुस्स नाम -स्मृतिसेस स्री पृथ्वी सिंह सागर।
मम मातुया नाम -स्मृतिसेस स्रीमति प्रेमवती।
अहं -हरिद्वार-नगरे/गामे निवसामि।
सही उत्तर
रवीन्द्रपाल सिंह मम नाम।
पृथ्वीसिंह सागर मम पितुस्स नाम।
प्रेमवती मम मातुया नाम।
अहं हरिद्वार नगरे निवसामि।
टिप 1. पालि में नाम 'सिद्धत्थो,गोतमो, विवेको, जयो, यसो और महिलाओं के नाम विशाखा, यसोधरा, गोतमी, मल्लिका जैसे होते हैं. उदाहरण के लिए अगर मुझे अपना पूरा नाम बतलाना है तो मैं 'अहं अमतो' अथवा 'मम नाम अमतो' न कह कर 'अमृतलाल उके मम नाम' कहूँगा. परिचय के समय पिताजी जीवित है या नहीं, बताना आवश्यक नहीं है. अगर बतलाना आवश्यक हो तो 'स्मृतिशेष' के स्थान पर 'परिनिब्बुत' शब्द लिखें. दूसरे, 'श्रीमान/श्रीमान' पालि संस्कृति के शब्द नहीं है. बौद्ध संस्कृति में इसके लिए 'आवुस'/'उपासक' अथवा 'आवुसा'/'उपासिका' पालि शब्द आते हैं

मम नाम अमतो/विशाखा ।
मम पितुस्स नाम मंदरु उके।
मम मातुया नाम मेनावन्ति।
अहं भोपाल नगरे निवसामि।

प्रश्न-
1. अपने से छोटों से-
त्वं नाम किं? 
त्वं पितुस्स नाम किं?
त्वं मातुया नाम किं?
त्वं कुत्थ वससि ?

2. सम अथवा बड़ों से-
भवन्तस्स नाम किं ?
भवन्तस्स पितुस्स नाम किं ?
भवन्तस्स मातुया नाम किं?
भवं कुत्थ वसति ?

3. महिलाओं से-
भोतिया नाम किं? 
भोतिया पितुस्स नाम किं?
भोतिया मातुया नाम किं?
भोति कुत्थ वसति? 
--------------------------
त्वं- तुम्हारा।  भवन्तस्स- महोदय का। भोतिया- महोदया का।   
 टिप- पालि में नाम 'सिद्धत्थो,गोतमो, विवेको, जयो, यसो और महिलाओं के नाम विशाखा, यसोधरा, गोतमी, मल्लिका जैसे होते हैं. उदाहरण के लिए अगर मुझे अपना पूरा नाम बतलाना है तो मैं 'अहं अमतो' अथवा 'मम नाम अमतो' न कह कर 'अमृतलाल उके मम नाम' कहूँगा. परिचय के समय पिताजी जीवित है या नहीं, बताना आवश्यक नहीं है. अगर बतलाना आवश्यक हो तो 'स्मृतिशेष' के स्थान पर 'परिनिब्बुत' शब्द लिखें. दूसरे, 'श्रीमान/श्रीमान' पालि संस्कृति के शब्द नहीं है. बौद्ध संस्कृति में इसके लिए 'आवुस'/'उपासक' अथवा 'आवुसा'/'उपासिका' पालि शब्द आते हैं              

Saturday, September 14, 2019

कस्सको

कस्सको
कस्सको गामे वसति।
कस्सको खेतं जोतेति।
कस्सको बीजं वपति।
कस्सको धञ्ञं रोपेति।
कस्सको धञ्ञानि घरं आनेति।

एकवचन
कस्सको गामे वसति।
कस्सको खेतं जोतेति।
कस्सको बीजं वपति।
कस्सको धञ्ञं रोपेति।
कस्सको धञ्ञानि घरं आनेति।

अनेक वचन
कस्सका गामे वसन्ति।
कस्सका खेतं जोतेन्ति।
कस्सका बीजं वपन्ति।
कस्सका धञ्ञं रोपेन्ति।
कस्सका धञ्ञानि घरं आनेन्ति।

भारते भगवा धम्मस्स धजा आरोहिस्सति.

भारते भगवा धम्मस्स धजा आरोहिस्सति.
यदि गामे-गामे, नगरे-नगरे सोगत बालक-बालिकायो भगवा धम्म-धजा धारेन्ति, तरहि नूनं सीघं येव सम्पूण्णं भारते भगवा धम्मस्स धजा आरोहिस्सति. यदि गामे-गामे, नगरे-नगरे, धम्म उपासिका च उपासका भगवा धम्मं आचरेन्ति, तरहि नूनं सीघं येव सम्पूण्णं भारते भगवा धम्मस्स धजा आरोहिस्सति. यदि गामे-गामे, नगरे-नगरे भगवता सावका चरन्ति, भगवा धम्म पकासेन्ति, तरहि नूनं सीघं येव सम्पूण्णं भारते भगवा धम्मस्स धजा आरोहिस्सति. यदि गामे-गामे, नगरे-नगरे बुद्ध विहारेसु पालि सिक्खणं भविस्सति, तरहि नूनं सीघं येव सम्पूण्णं भारते भगवा धम्मस्स धजा आरोहिस्सति. यदि गामे-गामे, नगरे-नगरे जना बुद्धं सरणं गच्छन्ति, तरहि नूनं सीघं येव सम्पूण्णं भारते भगवा धम्मस्स धजा आरोहिस्सति. यदि भगिनी मायावती भगवा सरणं गच्छति, तरहि नूनं सीघं येव सम्पूण्णं भारते भगवा धम्मस्स धजा आरोहिस्सति.

Thursday, September 12, 2019

नाना विविधानि पञ्हानि

पयोगा- को, का, किं, क़तर, कतम, कति, किदिस, किव, 
किवतिक, किवंत, कित्तक, कदा, कधा, कहं, कथं, कच्चि, 
कीवं, कित्तावता, कुतो, कुहिं, कुत्थ। 

तं किं मञ्ञसि ?
तुम क्या सोचते हो ?

किं त्वं इमं धम्म-विनयं अजानिस्ससि?
क्या तुम यह धम्म-विनय नहीं जानोगे  ?

अहू पन ते निगण्ठेन सद्धिं कोचिदेव कथा-सल्लापो ?
क्या तुमने निगंठ के साथ कोई संवाद किया था ?

इच्छेयाथ नो तुम्हे मारिसा, निमि राजनं दट्ठुं ?
मित्र,  क्या तुम, राजा निमि को देखना चाहते हो ?

को नु खो  हेतु, को पच्चयो भगवतो सितस्स पातुकम्माय ?
क्या कारण है, क्या हेतु है भगवान के मुस्कराने का ?

किं भवं रट्ठपालो, ञात्वा वा, दिस्वा वा, सुत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जितो ?
महोदय रट्ठपाल, क्या जान, देख या सुनकर प्रव्रज्जित हुए ? 

कतमो सो परमो वण्णो ?
कौन-सा वंश/कुल उत्तम है ?

कथं च अरिय सावको सील सम्पन्नो होति ?
अरिय सावक कैसे शील-संपन्न होते हैं ?

कच्चि आवुसो, भगवा आरोगो च बलवा च ?
आवुस,  भगवा व्याधि मुक्त और स्वस्थ है न ?

कित्तावता नु खो गोतम, ब्राह्मणो होति,  कतमे च पन ब्राह्मणा कारका धम्मा ?
किस प्रकार हे, गोतम,  ब्राह्मण होता है और ब्राह्मण के कारक तत्व कितने होते हैं ?
....................
मारिस- संबोधन विशेष, मित्रवर. प्रियबंधु। 

Wednesday, September 11, 2019

बाबासाहब आम्बेडकरो

बाबासाहब आम्बेडकरो

ते अत्थवेत्ता, विधिवेत्ता।
भारत देसस्स निम्माता।

ते संविधानस्स सिप्पकारो।
दलिद्दानं दुक्ख परिहरो।

ते भगवा धम्मो पतिट्ठापको।
पञ्ञावन्त, सीलवन्तो ।

ते जुतिधरो, धम्माधिकारी।
चंद- सूरियो विय पभासकरी।

पणमामि, तं नमस्सामि।
वन्दामि, अहं वन्दामि।

मम पिय गंथो

मम पिय गंथो
‘बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’ मम पिय गंथो।
अयं बहु पसिद्धो गंथो।
बाबासाहब अम्बेडकरो अस्स लेखको।
गंथो आग्लं भासायं अत्थि।
भदन्त आनन्द कोसल्यायन तस्स हिन्दियं अनुवादं अकरि।
गंथे भगवा बुद्धस्स जीवन-चरितं च दस्सनं सन्ति।

बाबासाहेब अम्बेडकरो

बाबासाहेब अम्बेडकरो

बाबासाहेब अम्बेडकरस्स सम्पुण्ण-नामं किं ?
बाबासाहेब अम्बेडकरस्स सम्पूण्ण-नामं भिमरावो रामजी अम्बेडकरो।

बाबासाहेब अम्बेडकरो कस्मिं ठाने जातो?
बाबासाहेब अम्बेडकरो मज्झपदेसस्स महू गामे जातो?

बाबासाहेब अम्बेडकरो कस्मिं दिनंकं जातो?
भिमरावो अट्ठारससत एकनवुतिमे वस्से एप्पिल मासस्स
चतुद्दसमे दिने जातो।

बाबासाहब अम्बेडकरस्स बालपने नाम किं ?
बाबासाहब अम्बेडकरस्स बालपने नाम भिमरावो ?

भीमराववस्स पितुस्स नाम किं?
भीमरावस्स पितुस्स नाम आवुस रामजी सकपालो।

तस्स मातुया नाम किं ?
तस्स मातुया नाम अवुसा भीमाताई ।

भीमाय पितु को?
भीमाय पितु सूबेदार मेजर मुरवाड़करो।

को बालक भीमरावस्स अय्यको/पितामहो ?
हवालदार मालोजी सकपालो तस्स अय्यको/पितामहो।

बालक भीमरावस्स पितु रामजी सकपालो केन पदेन सुसोभितो?
बालक भीमरावस्स पितु रामजी सकपालो सेना व्यूहे सूबेदार पदेन सुसोभितो?

बालक भीमरावस्स पितुच्छा नाम किं ?
भीमरावस्स पितुच्छा(बुआ) नाम आवुसा मीराताई।

सूबेदार रामजी सकपालो कस्मिं विज्झालये अज्झापेति ?
सूबेदार रामजी सकपालो एकस्मिं आंग्ल सेनिक विज्झालये अज्झापेति?

अज्झापको सूबेदार रामजी सकपालो कस्मिं विसये पारंगतो आसि,
अपि च केन-केन विसये अज्झापेतुं सक्कोति ?

अज्झापको सूबेदार  रामजी सकपालो मराठी विसये पारंगतो आसि
अपि च आंग्ल भासा अज्झापेतुं सक्कोति।

सूबेदार रामजी सकपालस्स घरे कस्स मानितं पूजितं आसि? 
रामजी सकपालस्स परिवारो कबीरपंथी आसि।

आवुस बलरामो को आसि?
आवुस बलरामो बालक भीमरावस्स जेट्ठ भाता आसि।

आवुस आनन्दरावो को?
आवुस आनन्दरावो अपि च बालक भीमरावस्स जेट्ठ भाता?

किं बालक भीमरावस्स भगिनी एव अत्थि वा  ?
आम! मंजुला च तुलसी नामेन बालक भीमरावस्स द्वे जेटठा भगिनियो सन्ति।

बालक भीमरावो सूबेदार रामजी सकपालस्स कतमे सन्तानो अत्थि ?
आम! बालक भीमरावो सूबेदार रामजी सकपालस्स चतुद्दसमे सन्तानो अत्थि?

बालक भीमरावो आरभे कस्मिं विज्झालये पवेसं पाविसि?
सतारा ठितं सासकीय महाविज्झालये बालक भीमरावो आरभे पवेसं पाविसि?

तेन समये तस्स नाम किं लिखितं आसि?
पवेसं समये तस्स नाम ‘भीवा रामजी अम्बावडेकरो’ लिखितं आसि।

अम्बावडेकरो अत्थं किं ?
अम्बावडेकरो बालक भीमरावस्स पेतक-गामं नाम आसि।
अनुक्कमेन....

माता पूजनीया

माता वन्दनीया
Image may contain: 2 peopleमाता पूजनीया, माता वंदनीया। ता जननीया । ता पठविया, ता धरणीया। माता पुत्त/पुत्ती जनेति, पालेति पोसेति। यदा-कदा रोसेति, ताळेति, कटु वचनं भासेति, अथ ते पुत्त, पुत्ती हिताय सुखाय च। सन्तान हिताय, माता अनेका दुक्खा सहति। यं किंचि पुत्त/पुत्ती पत्थेति, तं सब्ब देति। पुत्त/पुत्तिया अपि मातुया रक्खणं करणीयं। यथोचित आदरभावो पालनीयं। ता सब्बत्था पूजनीया। ता सब्बत्था वन्दनीया। माता यथा नियं पुत्तं, आयुसा एक पुत्त अनुरक्खे. एवं अपि सब्ब भूतेसु, मानसं भावये अपरिणामं.

Monday, September 9, 2019

भीमस्तुति

उस दिन,  भंते जी बता रहे दे रहे थे-
बुद्ध विहारों में  'भीम स्तुति' का संगायन नहीं करना चाहिए।  फिर, स्वयं ही बताने लगे कि बुद्ध विहार ध्यान का केंद्र है और बाबासाहब अम्बेडकर एक राजनीतिक पुरुष हैं और इसलिए,  बुद्ध विहार में बाबासाहब अम्बेडकर की स्तुति उचित नहीं है !  'दिव्य प्रभ रत्न तू, साधु वरदान तू'  भीम गाथा में कई शब्द ऐसे हैं, जो भगवान बुद्ध के धर्म की मर्यादा के अनुकूल नहीं है !

अगले रविवार को जब मैं बुद्ध विहार गया तो देख कर आश्चर्यचकित रह गया कि साप्ताहिक बुद्ध वंदना के संगायन में भीम-स्तुति नहीं थी। मैंने जानना चाहा तो बुद्ध विहार समिति पदाधिकारियों ने भंतेजी तरफ संकेत किया। मैंने भंतेजी से पूछा कि बाबासाहब के प्रति उनकी यह सोच का आधार क्या है ? इस पर  भंते जी ने कहा कि उन्होंने अपने विचार रखे थे।

बेशक, बुद्ध हमारे आदर्श हैं, मार्गदाता हैं किन्तु वे हमारे मुक्तिदाता नहीं है। हमारे मुक्तिदाता बाबासाहब अम्बेडकर है। अगर बाबासाहब अम्बेडकर न होते तो हम, जो आज हैं,  न होते। हम आज भी सारे मानवीय अधिकारों से वंचित होते, मरे जानवरों को ढो रहे होते।  शिक्षा के दरवाजे हमारे लिए बाबासाहब अम्बेडकर ने खोले।  सम्मान के साथ जीना बाबासाहब अम्बेडकर ने सिखाया । और बुद्ध का मार्ग भी हमें बाबासाहब अम्बेडकर ने दिखाया। बुद्ध हमारे शास्ता हैं तो अम्बेडकर हमारे गुरु है। बुद्ध अगर दीपक है तो बाबासाहब आंबेडकर हमारी आँख है।

अगर बाबासाहब अम्बेडकर न होते तो बुद्ध भी न होते। बुद्ध को कौन जानता था उनकी इस मातृ-भूमि में ? यह बाबासाहब अम्बेडकर थे जिन्होंने बुद्ध को हमें जनाया। हमारे लिए बाबासाहब अम्बेडकर पहले हैं, बाद में बुद्ध।

बेशक,  बुद्ध के धम्म का केंद्र  मानवता है।  किन्तु इसकी जरुरत हमें नहीं,  हमारे शोषकों को अधिक है । क्यों हमारे शोषक बौद्ध भिक्खुओं के मार्फ़त बुद्ध और अम्बेडकर में भेद पैदा कर रहे हैं ? अब इसमें कोई छिपी बात नहीं है कि बौद्ध भिक्खुओं को बाकायदा प्रशिक्षित किया जा रहा है, बाबासाहब आंबेडकर के विरुद्द । आखिर कौन देता है, इन भिक्खुओं को इस तरह का विभेदकारी प्रशिक्षण ?  सनद रहे, ध्यान और आत्म-संयम के नाम पर देश में फैले ढेरों विपस्सना केन्द्रों में भिक्खुओं को चुन-चुन कर प्रशिक्षण दिया जाता है। क्या बुद्ध और अम्बेडकर के बीच विभेद के बीज यहाँ बोये जाते हैं ? 

भीम स्तुति में  बाबा साहब के प्रति किसी कवि की अतिरेक श्रद्धा पच नहीं रही है तो बुद्ध-वंदना और परित्राण पाठ में 'यक्खा देवा च ब्रह्मनो' में यक्ष, देव और ब्रह्मा का आव्हान कैसे पच रहा है ?  ब्रह्मा की स्तुति कैसे पच रही है। 'भवतु सब्ब मंगल, रक्खन्तु सब्ब देवता' में कौन-से देवता से रक्षा की कामना की जाती है ? 'अट्ठङग उपोसथ शील' में  'ब्रह्मचरिया वेरमणी' के क्या मायने है ? धम्म की वाणी में क्या यह साधुचरिया/बुद्धचरिया या विशुद्धचरिया वेरमणी नहीं हो सकती ? 

सत्य

सत्य परास्त होता है, क्योंकि वह झूठ नहीं बोलता. फिर भी, सत्य अनुकरणीय है, क्योंकि झूठ का परीक्षण इसी से होता है.
-बोधिचर्यावतार

वेदों की प्राचीनता

सनातनी पारंपरिक और वामपंथी ब्राह्मण वेदों को सबसे प्राचीन, लगभग 3500 वर्ष पुराने मानते हैं। क्या वेद दुनिया का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है ?

नवीनत्तम खोजों से यह स्थापित हो चूका है कि बेबीलोन, सीरिया, मिस्र या ईरान की संस्कृति वैदिक संस्कृति से बहुत अधिक पुरानी है। 'एपिक ऑफ़ गिलगमेश', 'पैपिरस पांडुलिपियाँ' या 'डेड सी स्क्रोल्स' लगभग 3000-3500 वर्ष पुराने दुनिया के सबसे प्राचीन आलेख पुरातत्ववेत्ताओं को प्राप्त हुए हैं (पृ 57)। ये आलेख मिस्र,  रसशाम्र और असीरियाई इलाकों में मिले हैं।
पिछले कुछ दशकों से सवर्ण वामपंथी वैदिक समाज की प्राचीनता के पूर्वाग्रह और मोह में मोहनजोदड़ो- हड़प्पा को वैदिक साबित करने की कवायद में लगे हैं। लन्दन के ब्रिटिश संग्रहालय में असीरियाई कीलाक्षर लिखित पकाई मिटटी की पट्टिकाएं हैं इनमें से अनेक सुमेर संस्कृति के समय की हैं(पृ 60 )।

बेबीलोन भारत की ब्राहमण संस्कृति से बहुत ज्यादा प्राचीन है। मिस्री संस्कृति के विशेषज्ञ  जी. मास्पेरो ने उन्नीसवी सदी के अंत में इजिप्ट के प्राचीनत्तम साहित्य का अध्ययन किया था। मास्पेरो ने प्राचीन पत्र, कविताओं और एक उपन्यास या प्राचीन कथाकृति के अंश अपनी किताब 'न्यू लाइट ऑन एशियंट इजिप्ट' में उध्दृत किये हैं(पृ 61)।

निश्चय ही अब्राहमीय ब्राह्मण पश्चिम एशिया में मिस्र से लेकर कैस्पियन सागर और असीरिया क्षेत्र से गुजरते हुए युद्धों की अशांति से संत्रस्त होकर भारत आएt, उनकी किताबों में उक्त समूचे इलाके के लेखन और मिथकों की छायाएं मौजूद रहनी स्वाभाविक है(पृ 61)।

आर्यों के भारत में आने के पूर्व सिन्धु-उपत्यका में असीरिया(मेसोपोटामिया) की समसामयिक एक सभी जाति रहती थी जिसका सामंत शाही समाज अफगानिस्तान में दाखिल होने वाले आर्यों के पितृ-सत्तात्मक समाज से कहीं अधिक उन्नत अवस्था में था(दर्शन दिग्दर्शन  पृ 381: राहुल संकृत्यायन पृ 380 )।
असभ्य लड़ाकू जर्मनों ने जैसे सभ्य संस्कृत रोमनों और उनके विशाल साम्राज्य को ईसा की चौथी शताब्दी में परस्त कर दिया, उसी तरह सर जान मार्शल के अनुसार, इन आर्यों ने सिन्धु-उपत्यका के नागरिकों को परस्त कर वहां अपना प्रभुत्व 18 00 ई.पू  के आस-पास जमाया। यूरोपीय इतिहासकारों के अनुसार, यह वही समय है पश्चिम में भी हिंदी-यूरोपीय जाति की दूसरी शाखा यूनानियों ने यूनान में वहां के भूमध्य जातीय निवासियों को हराकर प्रभुत्व स्थापित किया(वही)।

मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाइयों से जो 'सिन्धु-सभ्यता' उभर कर आयी है, उससे  पता चलता है कि मेसोपोटामिया के नागरिक जीवन की भांति सिन्धुवासी भी सभ्य समाज के नागरिक जीवन को बिता रहे थे। वह कृषि, शिल्प, वाणिज्य के अभ्यस्त व्यवसायी थे। ताम्र और पीतल युग में रहते हुए भी उन्होंने काफी उन्नति की थी। उनका एक सांगोपांग धर्म था। एक तरह की चित्रलिपि थी। यद्यपि चित्रलिपि में जो मुद्राएँ और दूसरी लेख-सामग्री मिली हैं, अभी वह पढ़ी नहीं जा सकी है, लेकिन दूसरी परीक्षाओं से मालूम होता है कि सिन्धु-सभ्यता असुर और काल्दी(Chaldean) सभ्यता की समसामयिक ही नहीं उनकी भगिनी-सभ्यता थी और उसी तरह के धर्म का ख्याल उसमें था। वहां लिंग और दूसरे देव-चिन्ह या देव-मूर्तियाँ पूजी जाती थी(वही, पृ 381 )। 

वैदिक समाज में स्त्री

वैदिक समाज में स्त्री
वैदिक ऋचा ओं के लगभग 300 ऋषि हैं पर इनमें गिनी-चुनी ही महिलायें हैं- जुहू, शची, घोषा, लोमशा, लोपामुद्रा और विश्वा पारा। इन सुधि महिलाओं के होते हुए भी वैदिक-ग्रंथों में स्त्री यौन सुख, पुत्रोत्पादन और दासकर्म के निमित्त समझी जाती थी। ऋग्वेद मंडल 10 के सूक्त 95 के मन्त्र 15 में उर्वशी नामक एक स्त्री के ही मुख से स्त्री को भेड़िया जैसी बताया गया है(मुद्रा राक्षस : धर्म-ग्रंथों का पुनर्पाठ , पृ 47 )।

वैदिक समाज में स्त्रियाँ घरों में कूटने-पीसने का ही काम करती थी।  मंडल 9 सूक्त 112 मन्त्र 3 में स्त्री को 'सोम कूटने-पीसने वाली' कहा गया है। मंडल 1 सूक्त 28 में स्त्री को मूसल चलाती, सील बट्टे से पीसती, ओखली में कूटती, मथानी पेय मथती बताया गया है(वही, पृ 48)।

मंडल 1, सूक्त 122 मन्त्र 2 में स्त्री को पति द्वारा पुकारे जाने पर शीघ्र उपस्थित होने वाली दासी सदृश्य कहा गया है। मंडल 1 सूक्त 32 मन्त्र 9 में बड़ी बर्बरता से इंद्र के द्वारा पुत्र की रक्षा करती माँ का वध बछड़े के साथ गाय जैसे गया है(वही, पृ 48 )।

अर्थवेद अध्याय 3 सूक्त 25 मन्त्र 5-6 में बानगी देखें- कुशा से पीटता हुआ, हे स्त्री ! मैं तुम्हें माता-पिता के घर से लाता हूँ, ताकि तू मेरी आज्ञा माने।  अध्याय 6 सूक्त 102 के मन्त्र 1-2 में कहा गया है- हे देवता ! शिक्षित घोड़े का मालिक खूंटे से रस्सी खोल कर घोड़ी को अपनी तरफ खींचता है, उसी प्रकार स्त्री मेरी और खिंची रहे। इससे पहले सूक्त का अंत इस प्रकार होता है- तुम बैल की तरह अपनी पत्नी के पास जाओ। इसी अध्याय के सूक्त 77 में स्त्री को घोड़े की तरह रस्सी से घर में बांध कर रखने को कहा गया है(वही, पृ 49)।

ऋग्वेद में; मंडल 1 सूक्त 69,  अनु. 117 सूक्त 116,  मंडल 5 सूक्त 30 मन्त्र 9,  मंडल 6 सूक्त 26, मंडल 10, सूक्त 65 आदि में  इंद्र से रमणीय स्त्रियों, कन्याओं  को दिलाने की प्रार्थनाएं हैं । संस्कृत में विवाह के लिए शब्द 'परिणय' या परिणयन है। परिणयन का अर्थ है, लूट कर या उठा कर ये जाना। निस्संदेह, वैदिक समुदाय के धर्म-ग्रंथों में स्त्री की स्थिति बेहद अपमान-जनक रही है। उन्हें यज्ञ ही नहीं शिक्षा का भी अधिकार नहीं था(मुद्रा राक्षस : धर्म-ग्रंथों का पुनर्पाठ , पृ 50)। 

Sunday, September 8, 2019

प्रेम और दया

प्रेम और दया
एक दिन बुद्ध वेलुवन जा रहे थे। मार्ग में उन्होंने एक ब्राह्मण को देखा जो नहा-धोकर मन्त्र पढ़ते हुए अच्छत(चावलों के दाने) धरती और आकाश की ओर बिखेर रहा था। बुद्ध के पूछने पर उसने बताया-
"मैं देवों और पितरों को अच्छत चढ़ा रहा हूँ ताकि वे मेरा कल्याण कर सकें।"
" तो ब्राह्मण ! तुम उस हेतु अपने चारों ओर प्रेम और दया क्यों नहीं बिखेरते ?

Thursday, September 5, 2019

माधुरिय सुत्त (म.नि. 2.4.4 )

ऐसा मैंने सुना-  एक  समय आयु. महाकात्यायन मथुरा में वृदावन में विहार कर रहे थे।
एवं मे सुत्तं-  एकं समयं आयस्मा महाकच्चानो मधुरायं विहरति गुंदावने।
मथुरा के राजा अवंतिपुत्र ने सुना-  समण कच्यायन मथुरा के बृन्दावन में विहार कर रहे हैं।
अस्सोसि खो राजा माधुरो अवन्तिपुत्तो- समण खलु, भो कच्चानो  मधुरायं विहरति गुण्दावने।
तब मथुरा का राजा अवंतिपुत्र एक बड़े राजा के अनुकूल आयु. महाकच्चायन के दर्शनार्थ निकला।
अथ खो राजा माधुरो अवंतिपुत्तो मधुराय निय्यासि महच्च राजानुभावेन आयस्मंतं महाकच्चानं दस्सानाय।
जितना यान का रास्ता था, उतना यान से जाकर,
यावतिका यानस्स भूमि यानेन गंत्वा
फिर यान से उतर पैदल ही जहाँ आयु. महाकच्चायन थे, गया।
याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकोव येन आयस्मा महाकच्चानो तेनुपसंकमि
वहां जाकर आयु. कच्चायन के साथ कुशल क्षेम पूछ कर एक और बैठ गया।
उपसंकमित्वा आयस्मता महाकच्चानेन संध्दि सम्मोदनीयं कथं वितिसारेत्वा एकमंतं निसीदि
एक ओर बैठे राजा माधुरो अवंतिपुत्र ने आयु. महाकच्चायन से यह कहा-
एकमंतं निसिन्नो खो राजा अवंतिपुत्तो आयस्मंतं महाकच्चानं एतद वोच-
"भो कच्चायन ! ब्राहण कहते हैं, ब्राहमण ही श्रेष्ठ हैं, और वर्ण हीन हैं ? ब्राह्मण ही शुद्ध हैं, अ-ब्राह्मण नहीं;  आप क्या सोचते हैं  ?"
"ब्राह्मणा, भो कच्चान एवं आहंसु- ब्राह्मणो एव सेट्ठो, हीनो अञ्ञो वण्णो, ब्राह्मणा येव सुज्झन्ति नो अ-ब्राह्मणा; भवं किं मञ्ञति ?"
"तो क्या मानते हो महाराज, क्षत्रिय यदि प्राणी हिंसक हो, मिथ्याचारी हो, मृषावादी हो, चुगली करने वाला, कटुवचन बोलने वाला , बकवाद करने वाला हो, लोभी, द्वेषी, मिथ्या-दृष्टि वाला हो तो उसकी दुर्गति होगी या नहीं ?
तं किं मञ्ञसि, महाराज, इधस्स खत्तियो पाणातिपाती, अदिन्नादायी, कामेसु मिच्छाचारी, मुसावादी पिसुणवाचो, फरुसवाचो, सम्फप्पलापी, अभिज्झालु, व्यापन्नचित्तो, मिच्छा दिट्ठि सम्पन्नो; तं दुग्गतिं भवेय्य वा ?
"तो क्या मानते हो महाराज, ब्राह्मण यदि प्राणी हिंसक हो, मिथ्याचारी हो, मृषावादी हो, चुगली करने वाला, कटुवचन बोलने वाला , बकवाद करने वाला हो, लोभी, द्वेषी, मिथ्या-दृष्टि वाला हो तो उसकी दुर्गति होगी या नहीं ?
तं किं मञ्ञसि, महाराज, इधस्स ब्राह्मणो अपि पाणातिपाती, अदिन्नादायी, कामेसु मिच्छाचारी, मुसावादी पिसुणवाचो, फरुसवाचो, सम्फप्पलापी, अभिज्झालु, व्यापन्नचित्तो, मिच्छा दिट्ठि सम्पन्नो; तं दुग्गतिं भवेय्य वा ?
"तो क्या मानते हो महाराज, वैश्य, शूद्र भी यदि प्राणी हिंसक हो, मिथ्याचारी हो, मृषावादी हो, चुगली करने वाला, कटुवचन बोलने वाला, बकवाद करने वाला हो, लोभी, द्वेषी, मिथ्या-दृष्टि वाला हो तो उसकी दुर्गति होगी या नहीं ?
तं किं मञ्ञसि, महाराज, इधस्स वेस्सो, सुद्दो अपि पाणातिपाती, अदिन्नादायी, कामेसु मिच्छाचारी, मुसावादी पिसुणवाचो, फरुसवाचो, सम्फप्पलापी, अभिज्झालु, व्यापन्नचित्तो, मिच्छा दिट्ठि सम्पन्नो; तं दुग्गतिं भवेय्य वा ?
"हे कच्चायन,  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी यदि प्राणी हिंसक हो, मिथ्याचारी हो, मृषावादी हो, चुगली करने वाला, कटुवचन बोलने वाला , बकवाद करने वाला हो, लोभी, द्वेषी, मिथ्या-दृष्टि वाला हो तो उसकी दुर्गति होगी। ऐसा मुझे लगता है, अरहतों से भी ऐसा सुना है।"
"भो कच्चानो, ब्राह्मणो, खत्तियो, वेस्सो सुद्दो अपि पाणातिपाती  अदिन्नादायी कामेसु मिच्छाचारी मुसावादी पिसुणवाचो फरुसवाचो सम्फप्पलापी अभिज्झालु व्यापन्न चित्तो मिच्छा दिट्ठि सम्पन्नो; तं दुग्गतिं भविस्सति। एवं मे एत्थ होति, एवं च मे एतं अरहतं सुतं।"
"साधु, साधु, महाराज ! साधुवाद है इसके लिए महाराज। ऐसा हो रहा है और तुमने ठीक ही अर्हतों से सुना है।"
"साधु, साधु, महाराज!  साधु खो ते एतं  महाराज। एवं होति, साधु च पन ते एतं अरहतं सुतं।"
"तो क्या मानते हो महाराज! ऐसा होने पर चारों वर्ण सम होते हैं या नहीं ? यहाँ तुम्हें कैसा लगता है ?"
"तं किं मञ्ञसि महाराज! यदि एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा सम समा होन्ति नो वा ? कथं वा ते एत्थ होति?"
"अवश्य,  हे कच्चायन ! ऐसा होने पर चारों वर्ण सम होते हैं। यहाँ मैं कोई भेद नहीं देखता। "
"अद्धा खो भो कच्चान, एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा सम समा होन्ति। नेसं एत्थ किन्चि नाना कारणं समनुपस्सामि।"
"इस प्रकार महाराज, तुम्हें समझना चाहिए कि लोक में यह हल्ला भर ही है कि ब्राह्मण श्रेष्ठ वर्ण है, अन्य हीन  वर्ण है ।"
"इमिना पि खो महाराज, परियायेन वेदितब्बं यथा घोसो येव सो लोकस्मिं- ब्राह्मणो सेट्ठो, हीनो अञ्ञो वण्णो(माधुरिय सुत्त: म.नि. 2.4.4 )।"
-----------------
निय्याति- बाहर जाना।  पत्तिकोव - पैदल ही। 

'ललितविस्तर' एक ब्राह्मण ग्रन्थ

'ललितविस्तर' एक ब्राह्मण ग्रन्थ 
बुद्धचरित के लिए आदि ग्रन्थ ललितविस्तर माना जाता है। यह पहली सदी का ग्रन्थ है. जैसे कि 'ब्राह्मणी ग्रंथों' के साथ होता है, इसके रचियता का भी पता नहीं है। लेखक का पता न होने से उसे 'ईश्वर कृत' मानने में सोहलीयत होती है! फिर आपको, उसमें लिखी बातों पर जनता में यकीन कराने 'किसी थर्ड डिग्री' की आवश्यकता नहीं होती। 

ललितविस्तर, एक काव्य-ग्रन्थ है। यह संस्कृत में लिखा गया है। यद्यपि यह सभी अहर्ताएं पूरी करता है, परन्तु, चूँकि इसमें बुद्धचरित है, इसलिए यह 'महाकाव्य' नहीं हो सकता। बुद्ध, ब्राह्मणवाद के विरुद्ध जो थे ? तमाम मान-सम्मान प्रतिष्ठानों के ठेकेदार ब्राह्मण, भला वे अपने विरोधी के द्वारा लिखे ग्रन्थ को 'महाकाव्य' का सम्मान क्यों देने लगे ? फिर चाहे, नशे की पिनक में उलुल-जलुल कथा-कहानियां लिखने वाले उनके अपने स्व-जातीय ब्राह्मण ही क्यों न हों ? अपने वर्गीय-हितों के विरुद्ध वे ऐसा 'पाप' कैसे कर सकते हैं ?

ललितविस्तर के रचनाकार का भले ही पता न हो, किन्तु इतना तो तय है, वह ब्राह्मण ही है। क्योंकि बुद्ध के जन्म बारे में, जिसे विष्णु का अवतार कहा गया हो, एक ब्राह्मण ही लिख सकता है कि जिस काल में ब्राह्मण बढे-चढ़े होते हैं तो ब्राह्मण कुल में, क्षत्रिय बढे-चढ़े होते हैं तो क्षत्रीय कुल के अलावा अन्यत्र किसी हीन/चाण्डाल कुल में जन्म नहीं ले सकते(कुलशुद्धि परवर्त:ललित विस्तर) ? 

Tuesday, September 3, 2019

नंदक सुत्त

एक समय भगवान बुद्ध सावत्थी में अनाथपिण्डीक से जेतवनाराम में विहार कर रहे थे। उस समय उपस्थानशाला में बैठे हुए आयु. नंदक भिक्खुओं को धार्मिक प्रवचन से शिक्षित कर रहे थे।
एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिंडीकस्स आरामे। तेन खो पन समयेन आयस्मा नन्दको उपट्ठान सालायं भिक्खूनं धम्मिया कथाय संदस्सेति।
उस समय भगवान संध्या हो जाने पर एकांत सेवन से उठ जहाँ उपस्थानशाला थी, पहुंचे। वहां पहुँच कर नंदक के प्रवचन के समाप्त होने तक बाहर बरामदे में ही खड़े रहे।
अथ खो भगवा सायण्ह समये पटिसल्लाना वुट्ठितो येन उपट्ठानसाला तेनुपसंकमि।  उपसंकमित्वा बहि द्वारं कोट्ठके अट्ठासि कथा परियोसानं आगमयमानो।
जब भगवान ने जाना कि धार्मिक प्रवचन समाप्त हो गया तो वे जोर से खांसे और उन्होंने कुण्डी (सांकल) ख़ट खटायी। भिक्खुओं ने भगवान के लिए प्रवेश द्वार खोला।
अथ खो भगवा कथा परियोसानं विदित्वा उक्कासेत्वा अग्गळं आकोटेसि। विवरिन्सु खो ते भिक्खू भगवतो द्वारं।
तब भगवान उपस्थान शाला में प्रविष्ट हुए और बिछे आसन पर बैठे। बैठ चुकने पर भगवान ने आयु.  नंदक को यह कहा- "नंदक! तुमने भिक्खुओं को बड़ा लम्बा उपदेश दे दिया। धार्मिक प्रवचन की समाप्ति की प्रतीक्षा में द्वार के बाहर खड़े-खड़े मेरी पीठ दुखने लग गई।"
अथ खो भगवा उपट्ठान सालं पविसित्वा पञ्ञतासने निसीदि। निसज्ज खो भगवा आयस्मंतं नंदकं एतद वोच- "दीघो खो त्यायं, नंदक, धम्म परियायो भिक्खूनं पटिभासि। अपि मे पिट्ठि  आगिलायति बहि द्वार कोट्ठके  ठितस्स कथा परियोसानं  आगमयमानस्स।
ऐसा कहे जाने पर आयु. नंदक को लज्जा अनुभव हुई और वह दुक्ख प्रगट करते हुए बोले- "भंते! हम नहीं जानते थे कि भगवान बाहर बरामदे में खड़े हैं।  भंते यदि हम यह जानते कि आप बरामंदे में खड़े हैं, तो प्रवचन इतना लम्बा न होता।"
एवं वुत्ते आयस्मा नन्दको सारज्जमान रूपो भगवन्तं एतद वोच- "न खो पन मयं, भंते! जानाम, भगवा बहिद्वारं कोट्ठके ठितो। सचे हि मयं, भंते, जानेय्याम, भगवा बहिद्वार कोट्ठके ठितो, एत्तकं अपि नो न पटि-भासेय्य।"
भगवान ने जब यह देखा की आयु. नंदक लज्जा का अनुभव कर रहे हैं तो उन्होंने आयु. नंदक को कहा - "नंदक! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा। साधु नंदक साधु। तुम्हारे जैसे कुलपुत्रों के लिए यही योग्य है कि तुम धार्मिक वार्ता करते रहो।"
अथ खो भगवा आयस्मंत नंदक सारज्जमान रूपं विदित्वा आयस्मंतं नंदकं एतद वोच- "साधु, साधु नंदक!  एतं खो नंदक, तुम्हाकं पतिरूप कुलपुत्तानं, यं तुम्हे धम्मिया कथाय संदस्सेय्याथ" (अ. नि.: नवक निपात) ।
----------------
 संदस्सति- प्रशिक्षित करना।उक्कासेति- खांसना। अग्गळं - कुण्डी (सांकल) आकोटन- ख़ट खटाना।  आगिलायति- दर्द/ पीड़ा होना। 

ब्राह्मणों के 'गुरुकुल' विश्वविद्यालय क्यों नहीं ?

ब्राह्मणों के 'गुरुकुल' विश्वविद्यालय क्यों नहीं बने ?
एक समय नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, ओदन्तपूरी, जगद्दल, वल्लभी, जयेंद्र आदि विश्वविद्यालय बौद्धों के शिक्षा-संस्थान थे ? यहाँ बिना किसी भेदभाव के धर्म, दर्शन और राजनीति विषयों में शिक्षा दी जाती थी। इन शिक्षा-संस्थानों में दूर दूर, देश विदेश के विद्यार्थी पढ़ने आते थे। इन विश्वविद्यालयों ने एक से एक दार्शनिक प्रकांड विद्वान् दिए जिन्होंने अन्तराष्ट्रीय जगत में देश का नाम रोशन किया।
किसी समय इस देश में ब्राह्मणों के 'गुरुकुल' भी थे। यहाँ भी धर्म, दर्शन और राजनीति में शिक्षा दी जाती थी। यहाँ ऋषियों के मुख से वेद ऋचाएं निसृत होती थी। बड़ा स्वभाविक प्रश्न है, ये शिक्षा-संस्थान, विश्वविद्यालय क्यों नहीं बनें ? जो लोग शिक्षा की ठेकेदारी लिए बैठे थे, वे विना विश्वविद्यालयों के 'विश्वगुरु' कैसे बन गए ?
बात दरअसल यह है कि ब्राह्मणों के गुरुकुल, ब्राह्मणों के विद्या-केंद्र थे। वहां विधर्मी तो छोडिये, ब्राह्मणों के इतर अन्य स्वधार्मियों का कोई काम न था। अधिक-से अधिक क्षत्रियों के बच्चें वहां प्रवेश पा सकते थे, इसलिए कि सत्ता में क्षत्रियों का वर्चश्व था। वैश्य का इन विद्या-केन्द्रों से कोई लेना-देना नहीं था। शूद्रों के लिए गुरुकुलों के दरवाजें बंद थे।
अब जिन गुरुकुलों में स्वधार्मियों के साथ न सिर्फ भेदभाव किया जाता हो, वरन भेदभाव किये जाने की शिक्षा दी जाती हो, वे सर्व-जन के लिए शिक्षा के केंद्र कैसे हो सकते थे ? वेद का उच्चारण करने मात्र से जीभ काटने, सुनने से कान में पिघला सीसा भरने का आदेश देते हो, ऐसे मानवता-निषेध के विद्या केंद्र, विश्वविद्यालय कैसे हो सकते थे ? जो स्वधार्मियों से पशुओं से बदतर व्यवहार करने की शिक्षा देते हो, वहां गैर समाज और देशों के विद्या-व्यसनी कैसे आ सकते थे ?
इसके बावजूद भी ब्राह्मणों ने 'विश्वगुरु' का तमगा अपने सिर पर बांध लिया और जिन बौद्ध विश्वविद्यालयों के कारण वे विश्वगुरु कहलाए, उस बुद्ध को इस देश और उसकी जन्म भूमि से निकाल बाहर किया ! 

Monday, September 2, 2019

बुद्धा एंड हिज धम्मा

बुद्धा एंड हिज धम्मा'
'बुद्धा एंड हिज धम्मा' बाबासाहब डॉ अम्बेडकर का अप्रतिम ग्रन्थ है. यह एक परिणति है, जो बुद्धचरित, उनके दर्शन के प्रति, बाबासाहब क्या सोचते थे, को दर्शाता है. ति-पिटक में हजारों ग्रन्थ हैं. डॉ अम्बेडकर की दृष्टि में उन अन्यन्य ग्रंथों का निचोड़ 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' है.
बुद्ध हमारे पथ-प्रदर्शक हैं. बुद्धिज़्म, जैसे कि बाबासाहब अम्बेडकर ने बतलाया, हमारे लिए जीवन जीने का एक ढंग है. अगर बाबासाहब हमें बुद्ध के बारे न बतलाते, तो बुद्ध हमारे लिए अपरिचित थे. हमारा प्रथम नमन बुद्ध को नहीं, बाबासाहब अम्बेडकर को है. बुद्ध हमारे लिए जीवन मार्गदाता हैं, जबकि बाबासाहब अम्बेडकर हमारे लिए मुक्तिदाता है.
बुद्धिज़्म के विभिन्न निकायों में, प्रारंभ से ही मतभेद रहें हैं. दरअसल, मतभेद के कारण ही विभिन्न निकाय हुए। बुद्धिज़्म, अपनी जन्म-भूमि से अवनत होने के बाद, अन्यन्य देशों में फैला, वहां की संस्कृति में रचा-बसा। 1956 में जब बाबासाहब अम्बेडकर ने बुद्धिज़्म को इस देश में पुनर्स्थापित किया, तब, बुद्धिस्ज्म बिलकुल भी वैसा नहीं था, जैसे बुद्ध ने देशना की थी। ब्राह्मणवाद उसे पूरी तरह निगल चूका था जैसे कबीर, रैदास आदि कई सामाजिक चितकों को निगल चूका है. ऐसी परिस्थिति में, बाबासाहब अम्बेडकर ने अन्य बुद्धिस्ट देशों से सहायता मांगी। बाबासाहब अम्बेडकर को बुद्धचरित तो मिला, उनका दर्शन भी मिला किन्तु वह उन देशों की संस्कृति और परम्पराओं को भी जाने-अनजाने साथ लाया जो उन देशों में प्रचलित हैं। 'परित्राण-पाठ' और 'विपस्सना' आदि क्रियाएं हमारी संस्कृति और संस्कारों का हिस्सा बन गई.
वर्षों की खोज, अध्ययन और चिंतन के बाद बाबासाहब अम्बेडकर, बुद्ध को ब्राह्मणवाद के चंगुल से अलग करने सफल हुए। उनके इसी प्रयास का नाम 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' है। इसी ग्रन्थ में बाबासाहब अम्बेडकर ने बतलाया है कि बुद्ध के नाम पर प्रचलित मत-मतान्तरों, धारणाओं और परम्पराओं में क्या सही है, क्या गलत है ? यथा, हम अपने पडोसी देश सिंहलद्वीप की तरह बुद्ध के दांत के नाम पर पहाड़ की पूजा नहीं कर सकते ? बाबासाहब अम्बेडकर कृत 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' हमारे लिए 'कालाम सुत्त' है। गोयनकाजी के विपस्सना केन्द्रों में 'बुद्धा एंड हिज धम्मा', जो अम्बेडकर अनुयायियों और धर्मान्तरित बौद्धों का पवित्र ग्रन्थ है, पर न तो बात होती है और न ही 'जय भीम' का अभिवादन किया जाता है। यहीं नहीं, इस तरह के आंबेडकर विरोधी संस्कारों से बौद्ध भिक्खुओं को प्रशिक्षित किया जाता है।
एक विपस्सी साधक, ध्यान रहे, 'साधक' और 'साधना' जैसे संस्कृति, धम्म में नहीं है; ने 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' की यह कह आलोचना की है, कि अम्बेडकर ने बुद्ध के सिर्फ सामाजिक पहलू को पकड़ा है, जो कि भगवान् बुद्ध के धर्म का एक पहलू मात्र है. दूसरी ओर, बाबासाहब अम्बेडकर ही नहीं, चाहे पी. लक्ष्मी नरसू हो अथवा एडविन आर्नोल्ड, बुद्ध को मानवता का केंद्र कहते हैं, मानवता, जो सामाजिक रिश्तों को तय करती है।

अधिकार लोगों से मिलने चाहिए

अधिकार लोगों से मिलने चाहिए-
ऐसा मैंने सुना-
एक बार भगवान सावत्थी के जेतवन में अनाथपिंडक के आवास में विहर रहे थे।
एवं मे सुतं- एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे।
तब एसुकारी नामक ब्राह्मण, जहाँ भगवान थे,  वहां गया। जा कर भगवान के साथ कुशल क्षेम पूछ कर एक तरफ बैठ गया। एक और बैठे एसुकारी ब्राह्मण ने भगवान से यह कहा-
तेन खो पन समयेन एसुकारी बाहमणो येन भगवा तेनुपसंकमि। उपसंकमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि। सम्मोदनीयं कथं वितिसारेत्वा एकमन्त निसीदि। एकमन्त निसिन्नो सो एसुकारी बाहमणो भगवन्तं एतद वोच-
‘‘हे गोतम! ब्राह्मण चार परिचर्या (सेवा धर्म) बताते हैं- ब्राह्मण, ब्राह्मण की परिचर्या करें; क्षत्री, ब्राह्मण की परिचर्या करें; वैश्य, ब्राह्मण की परिचर्या करें; शूद्र, ब्राह्मण की परिचर्या करें। इस प्रकार, गोतम, ब्राह्मण, बाह्मण की परिचरिया बताते हैं।
‘‘बाह्मणा भो गोतम, चतस्सो परिचरिया पञ्ञापेन्ति- बाह्मणा वा बाह्मणं  परिचरेय्य, खत्तिया वा बाह्मणं परिचरेय्य, वेस्सा वा बाह्मणं परिचरेय्य, सुद्दा वा बाह्मणं परिचरेय्य। इदं भो गोतम, बाह्मणा बाह्मणस्स परिचरियं पञ्ञापेन्ति।
वही हे गोतम, ब्राह्मण, क्षत्री की परिचर्या बतलाते हैं- क्षत्री, क्षत्री की परिचर्या करें, वैश्य, क्षत्री की परिचर्या करें। शूद्र, क्षत्री की परिचर्या करें।
तत्र इदं भो गोतम, बाह्मणा, खत्तियस्स पारिचरियं पञ्ञापेन्ति- खत्तियो वा खत्तियं परिचरेय्य। वेस्सो वा खत्तियं परिचरेय्य। सुद्दो वा खत्तियं परिचरेय्य।
उसी प्रकार गोतम, ब्राहमण, वैश्य की परिचर्या बतलाते हैं- वैश्य, वैश्य की परिचर्या करें, शूद्र वैश्य की परिचर्या करें।
तत्र इदं भो गोतम, बाह्मणा, वेस्सस्स पारिचरियं पञ्ञापेन्ति- वेस्सो वा वेस्सं परिचरेय्य, सुद्दो वा वेस्सं परिचरेय्य।
उसी प्रकार ब्राहमण, शूद्र की परिचर्या बतलाते हैं- शूद्र, शूद्र की परिचर्या करें। ब्राह्मण; हे गोतम! ये चार परिचर्या बतलाते हैं।
तत्र इदं भो गोतम, बाह्मणा, सुद्दस्स पारिचरियं पञ्ञापेन्ति- सुद्दो सुद्दं परिचरेय।
हे गोतम, ब्राह्मण ये चार प्रकार की परिचर्या बतलाते हैं। यहां गोतम, क्या कहते हैं?’’
बाह्मणा, भो गोतम, इमा चतस्सो परियाचरिया पञ्ञापेन्ति।  इध भवं गोतम, किं आह ?’’
‘‘किन्तु हे ब्राह्मण, क्या लोगों ने,  ब्राहमणों को ऐसी अनुमति दी है- कि इन परिचर्याओं को प्रज्ञापित करो?’’
‘‘किं पन बाहमण, सब्बो लोको बाहमणानं एतद अनुजानाति- इमा चतस्सो परिचरिया पञ्ञापेन्तु ?’’
‘‘हे गोतम, ऐसा नहीं है।’’
‘‘नो हि इदं भो गोतम।’’
सेय्याथापि, ब्राह्मण, पुरिसो दलिद्दो अस्सको अन-आळिहयो। तस्स अकामस्स बिलं ओलग्गेयुं- इदं ते, अभ्भो पुरिस, मंसं खादितब्बं, मूलं च अनुप्पदातब्बं।
‘‘जैसे, बाहमण! कोई अ-स्वक अन-आढ्य दरिद्र पुरुष हो। अनिच्छु होते भी उसे कहा जाए- हे पुरुष! यह मांस तुम्हे खाना है और इसका मूल्य चुकाना है।
इस प्रकार ब्राह्मण! समण-ब्राह्मणों की अनुज्ञा के बिना ही ब्राह्मणों का इन चार परिचार्याओं का प्रज्ञापन करना है।
एवं येव खो, ब्राह्मण! ब्राह्मणा अप्पटिञ्ञाय तेसं समण-ब्राह्मणानं  अथ च पन इमा चतस्सो परिचारिया  पञ्ञापेन्ति।
-----------------------
एसुकारी सुत्त म. नि.- 96

राहुलोवाद सुत्त (म. नि. 62)


११३. एवं मे सुतं एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सावत्थिं पिण्डाय पाविसि। आयस्मापि खो राहुलो पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय भगवन्तं पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धि। अथ खो भगवा अपलोकेत्वा आयस्मन्तं राहुलं आमन्तेसि – ‘‘यं किञ्‍चि, राहुल, रूपं अतीतानागतपच्‍चुप्पन्‍नं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा ओळारिकं वा सुखुमं वा हीनं वा पणीतं वा यं दूरे सन्तिके वा सब्बं रूपं नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ताति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दट्ठब्ब’’न्ति। ‘‘रूपमेव नु खो, भगवा, रूपमेव नु खो, सुगता’’ति? ‘‘रूपम्पि, राहुल, वेदनापि, राहुल, सञ्‍ञापि, राहुल, सङ्खारापि, राहुल, विञ्‍ञाणम्पि, राहुला’’ति। अथ खो आयस्मा राहुलो ‘‘को नज्‍ज [को नुज्‍ज (स्या॰ कं॰)] भगवता सम्मुखा ओवादेन ओवदितो गामं पिण्डाय पविसिस्सती’’ति ततो पटिनिवत्तित्वा अञ्‍ञतरस्मिं रुक्खमूले निसीदि पल्‍लङ्कं आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा। अद्दसा खो आयस्मा सारिपुत्तो आयस्मन्तं राहुलं अञ्‍ञतरस्मिं रुक्खमूले निसिन्‍नं पल्‍लङ्कं आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा । दिस्वान आयस्मन्तं राहुलं आमन्तेसि – ‘‘आनापानस्सतिं, राहुल, भावनं भावेहि। आनापानस्सति, राहुल, भावना भाविता बहुलीकता महप्फला होति महानिसंसा’’ति।
११४. अथ खो आयस्मा राहुलो सायन्हसमयं पटिसल्‍लाना वुट्ठितो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्‍नो खो आयस्मा राहुलो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कथं भाविता नु खो, भन्ते, आनापानस्सति, कथं बहुलीकता महप्फला होति महानिसंसा’’ति? ‘‘यं किञ्‍चि, राहुल, अज्झत्तं पच्‍चत्तं कक्खळं खरिगतं उपादिन्‍नं, सेय्यथिदं केसा लोमा नखा दन्ता तचो मंसं न्हारु [नहारु (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] अट्ठि अट्ठिमिञ्‍जं वक्‍कं हदयं यकनं किलोमकं पिहकं पप्फासं अन्तं अन्तगुणं उदरियं करीसं, यं वा पनञ्‍ञम्पि किञ्‍चि अज्झत्तं पच्‍चत्तं कक्खळं खरिगतं उपादिन्‍नं अयं वुच्‍चति, राहुल, अज्झत्तिका पथवीधातु [पठवीधातु (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)]। या चेव खो पन अज्झत्तिका पथवीधातु या च बाहिरा पथवीधातु, पथवीधातुरेवेसा। तं नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ताति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दट्ठब्बं। एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दिस्वा पथवीधातुया निब्बिन्दति, पथवीधातुया चित्तं विराजेति’’
११५. ‘‘कतमा , राहुल, आपोधातु? आपोधातु सिया अज्झत्तिका, सिया बाहिरा। कतमा च, राहुल, अज्झत्तिका आपोधातु ? यं अज्झत्तं पच्‍चत्तं आपो आपोगतं उपादिन्‍नं, सेय्यथिदं पित्तं सेम्हं पुब्बो लोहितं सेदो मेदो अस्सु वसा खेळो सिङ्घाणिका लसिका मुत्तं, यं वा पनञ्‍ञम्पि किञ्‍चि अज्झत्तं पच्‍चत्तं आपो आपोगतं उपादिन्‍नं अयं वुच्‍चति, राहुल, अज्झत्तिका आपोधातु। या चेव खो पन अज्झत्तिका आपोधातु या च बाहिरा आपोधातु आपोधातुरेवेसा। तं नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ताति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दट्ठब्बं। एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दिस्वा आपोधातुया निब्बिन्दति, आपोधातुया चित्तं विराजेति।
११६. ‘‘कतमा च, राहुल, तेजोधातु? तेजोधातु सिया अज्झत्तिका, सिया बाहिरा। कतमा च, राहुल, अज्झत्तिका तेजोधातु? यं अज्झत्तं पच्‍चत्तं तेजो तेजोगतं उपादिन्‍नं, सेय्यथिदं येन च सन्तप्पति येन च जीरीयति येन च परिडय्हति येन च असितपीतखायितसायितं सम्मा परिणामं गच्छति, यं वा पनञ्‍ञम्पि किञ्‍चि अज्झत्तं पच्‍चत्तं तेजो तेजोगतं उपादिन्‍नं अयं वुच्‍चति, राहुल, अज्झत्तिका तेजोधातु। या चेव खो पन अज्झत्तिका तेजोधातु या च बाहिरा तेजोधातु तेजोधातुरेवेसा। तं नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ताति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दट्ठब्बं। एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दिस्वा तेजोधातुया निब्बिन्दति, तेजोधातुया चित्तं विराजेति।
११७. ‘‘कतमा , राहुल, वायोधातु? वायोधातु सिया अज्झत्तिका, सिया बाहिरा। कतमा च, राहुल, अज्झत्तिका वायोधातु? यं अज्झत्तं पच्‍चत्तं वायो वायोगतं उपादिन्‍नं, सेय्यथिदं उद्धङ्गमा वाता, अधोगमा वाता, कुच्छिसया वाता, कोट्ठासया [कोट्ठसया (सी॰ पी॰)] वाता , अङ्गमङ्गानुसारिनो वाता, अस्सासो पस्सासो, इति यं वा पनञ्‍ञम्पि किञ्‍चि अज्झत्तं पच्‍चत्तं वायो वायोगतं उपादिन्‍नं अयं वुच्‍चति, राहुल, अज्झत्तिका वायोधातु। या चेव खो पन अज्झत्तिका वायोधातु या च बाहिरा वायोधातु वायोधातुरेवेसा। तं नेतं मम, नेसोहमस्मि , न मेसो अत्ताति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दट्ठब्बं। एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दिस्वा वायोधातुया निब्बिन्दति, वायोधातुया चित्तं विराजेति।
११८. ‘‘कतमा च, राहुल, आकासधातु? आकासधातु सिया अज्झत्तिका, सिया बाहिरा। कतमा च, राहुल, अज्झत्तिका आकासधातु? यं अज्झत्तं पच्‍चत्तं आकासं आकासगतं उपादिन्‍नं, सेय्यथिदं कण्णच्छिद्दं नासच्छिद्दं मुखद्वारं, येन च असितपीतखायितसायितं अज्झोहरति, यत्थ च असितपीतखायितसायितं सन्तिट्ठति, येन च असितपीतखायितसायितं अधोभागं [अधोभागा (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] निक्खमति, यं वा पनञ्‍ञम्पि किञ्‍चि अज्झत्तं पच्‍चत्तं आकासं आकासगतं, अघं अघगतं, विवरं विवरगतं, असम्फुट्ठं, मंसलोहितेहि उपादिन्‍नं [आकासगतं उपादिन्‍नं (सी॰ पी॰)] अयं वुच्‍चति, राहुल, अज्झत्तिका आकासधातु। या चेव खो पन अज्झत्तिका आकासधातु या च बाहिरा आकासधातु आकासधातुरेवेसा। तं नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ताति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दट्ठब्बं। एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दिस्वा आकासधातुया चित्तं निब्बिन्दति, आकासधातुया चित्तं विराजेति।
११९. ‘‘पथवीसमं, राहुल, भावनं भावेहि। पथवीसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्‍ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति। सेय्यथापि, राहुल, पथविया सुचिम्पि निक्खिपन्ति, असुचिम्पि निक्खिपन्ति, गूथगतम्पि निक्खिपन्ति, मुत्तगतम्पि निक्खिपन्ति, खेळगतम्पि निक्खिपन्ति, पुब्बगतम्पि निक्खिपन्ति, लोहितगतम्पि निक्खिपन्ति, न च तेन पथवी अट्टीयति वा हरायति वा जिगुच्छति वा; एवमेव खो त्वं, राहुल, पथवीसमं भावनं भावेहि। पथवीसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्‍ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति।
‘‘आपोसमं, राहुल, भावनं भावेहि। आपोसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्‍ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति। सेय्यथापि, राहुल, आपस्मिं सुचिम्पि धोवन्ति, असुचिम्पि धोवन्ति, गूथगतम्पि धोवन्ति, मुत्तगतम्पि धोवन्ति, खेळगतम्पि धोवन्ति, पुब्बगतम्पि धोवन्ति, लोहितगतम्पि धोवन्ति, न च तेन आपो अट्टीयति वा हरायति वा जिगुच्छति वा; एवमेव खो त्वं, राहुल, आपोसमं भावनं भावेहि। आपोसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्‍ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति।
‘‘तेजोसमं, राहुल, भावनं भावेहि। तेजोसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्‍ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति। सेय्यथापि, राहुल, तेजो सुचिम्पि दहति, असुचिम्पि दहति, गूथगतम्पि दहति, मुत्तगतम्पि दहति, खेळगतम्पि दहति, पुब्बगतम्पि दहति, लोहितगतम्पि दहति, न च तेन तेजो अट्टीयति वा हरायति वा जिगुच्छति वा; एवमेव खो त्वं, राहुल, तेजोसमं भावनं भावेहि। तेजोसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्‍ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति।
‘‘वायोसमं, राहुल, भावनं भावेहि। वायोसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्‍ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति। सेय्यथापि, राहुल, वायो सुचिम्पि उपवायति, असुचिम्पि उपवायति, गूथगतम्पि उपवायति, मुत्तगतम्पि उपवायति, खेळगतम्पि उपवायति, पुब्बगतम्पि उपवायति, लोहितगतम्पि उपवायति, न च तेन वायो अट्टीयति वा हरायति वा जिगुच्छति वा; एवमेव खो त्वं, राहुल, वायोसमं भावनं भावेहि। वायोसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्‍ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति।
‘‘आकाससमं, राहुल, भावनं भावेहि। आकाससमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्‍ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति। सेय्यथापि, राहुल, आकासो न कत्थचि पतिट्ठितो; एवमेव खो त्वं, राहुल, आकाससमं भावनं भावेहि। आकाससमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्‍ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति।
१२०. ‘‘मेत्तं, राहुल, भावनं भावेहि। मेत्तञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो यो ब्यापादो सो पहीयिस्सति। करुणं, राहुल, भावनं भावेहि। करुणञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो या विहेसा सा पहीयिस्सति। मुदितं, राहुल, भावनं भावेहि। मुदितञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो या अरति सा पहीयिस्सति। उपेक्खं , राहुल, भावनं भावेहि। उपेक्खञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो यो पटिघो सो पहीयिस्सति। असुभं, राहुल, भावनं भावेहि। असुभञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो यो रागो सो पहीयिस्सति। अनिच्‍चसञ्‍ञं, राहुल, भावनं भावेहि। अनिच्‍चसञ्‍ञञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो यो अस्मिमानो सो पहीयिस्सति।
१२१. ‘‘आनापानस्सतिं, राहुल, भावनं भावेहि। आनापानस्सति हि ते, राहुल, भाविता बहुलीकता महप्फला होति महानिसंसा। कथं भाविता च, राहुल, आनापानस्सति, कथं बहुलीकता महप्फला होति महानिसंसा ? इध, राहुल, भिक्खु अरञ्‍ञगतो वा रुक्खमूलगतो वा सुञ्‍ञागारगतो वा निसीदति पल्‍लङ्कं आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा। सो सतोव अस्ससति सतोव [सतो (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] पस्ससति।
‘‘दीघं वा अस्ससन्तो दीघं अस्ससामीति पजानाति, दीघं वा पस्ससन्तो दीघं पस्ससामीति पजानाति; रस्सं वा अस्ससन्तो रस्सं अस्ससामीति पजानाति, रस्सं वा पस्ससन्तो रस्सं पस्ससामीति पजानाति। सब्बकायप्पटिसंवेदी अस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘सब्बकायप्पटिसंवेदी पस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘पस्सम्भयं कायसङ्खारं अस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘पस्सम्भयं कायसङ्खारं पस्ससिस्सामीति सिक्खति।
‘‘‘पीतिप्पटिसंवेदी अस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘पीतिप्पटिसंवेदी पस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘सुखप्पटिसंवेदी अस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘सुखप्पटिसंवेदी पस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘चित्तसङ्खारप्पटिसंवेदी अस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘चित्तसङ्खारप्पटिसंवेदी पस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘पस्सम्भयं चित्तसङ्खारं अस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘पस्सम्भयं चित्तसङ्खारं पस्ससिस्सामीति सिक्खति।
‘‘‘चित्तप्पटिसंवेदी अस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘चित्तप्पटिसंवेदी पस्ससिस्सामीति सिक्खति ; ‘अभिप्पमोदयं चित्तं अस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘अभिप्पमोदयं चित्तं पस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘समादहं चित्तं अस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘समादहं चित्तं पस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘विमोचयं चित्तं अस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘विमोचयं चित्तं पस्ससिस्सामीति सिक्खति।
‘‘‘अनिच्‍चानुपस्सी अस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘अनिच्‍चानुपस्सी पस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘विरागानुपस्सी अस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘विरागानुपस्सी पस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘निरोधानुपस्सी अस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘निरोधानुपस्सी पस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘पटिनिस्सग्गानुपस्सी अस्ससिस्सामीति सिक्खति; ‘पटिनिस्सग्गानुपस्सी पस्ससिस्सामीति सिक्खति।
‘‘एवं भाविता खो, राहुल, आनापानस्सति, एवं बहुलीकता महप्फला होति महानिसंसा। एवं भाविताय, राहुल, आनापानस्सतिया, एवं बहुलीकताय येपि ते चरिमका अस्सासा तेपि विदिताव निरुज्झन्ति नो अविदिता’’ति।
इदमवोच भगवा। अत्तमनो आयस्मा राहुलो भगवतो भासितं अभिनन्दीति।
महाराहुलोवादसुत्तं निट्ठितं दुतियं।