Saturday, March 31, 2012

You can't blame Kejriwal alone ?

     You can't blame Kejriwal alone ?

  Queries raised by Arvind Kejriwal are in context. You can't blow them easily. He has briefed his submission in reply to explanation sought by Lok Sabha Speaker Mira Kumar.Some party leaders shows their irritation and alleged them that they too are involving in corruption.May be it is true but, this is not the way to response.
   However, I am not in their favour.They have picked-up corruption. But that is not a core issue.The core issue is Hindu social system, which is responsible to all such bad evils.In facts, corruption is a by-product.The root cause is your social system.It is Hindu social system which generate caste hatred, trible exploitation, women atrocities etc etc.Hindu are in majority. That is why blame to Hindus.
   Anna being a Brahmin, has never raised such issues.These are no issue to him.On being made these issue, how he can be dear to his upper caste fellows ? These issues are not heart-touching to him because he is not sufferer.
     Corruption is outcome of your bad social values.Hindu is a double hear ted men.The deities to whom he gets inspiration, have double characters.The Mantras he utters have double meanings.Then, how can he be noble man ? Until you does not reform your social values, you can't hope to root out all these evils.
     No doubt, MP are given some privilege as liberty to act freely inside Parliament for raising public issues.There is no authority to instruct the MPs inside Parliament house. Lok Sabha Speaker his/her own has right to frame rule to proceed healthy discussion.But, it doesn't mean you can do/behave as you want. Decency should be there at any cost.And unfortunately, what we see day to day is not that decency. Throwing shoes and slapping chap pal in parliament are not activities under rule.
     If you go to the proceeding of constitution assembly, you would be realized that every system has some draw back.The constitution assembly has opted the present democratic set-up after years long discussion.Our Democratic set-up has many loop holes but as there is no other alternative, it is our bound duties to minimize these loop holes.
        No doubt, It is the Congress party who has ruled this country for 50-60 years.It was their duty to check all these draw-backs in due course of time.You can't blame BJP for this.And perhaps, that is why, Anna Hazare team blame Congress totally.
Now, It is the duty of Mira Kumar i.e. MPs of both houses to justify the allegations made by Arvind Kejriwal categorically.

Friday, March 30, 2012

Sikhism: the religion of Bravery


    सिक्ख और उनके महान गुरुओं का लम्बा इतिहास रहा है. आम तौर पर सिक्खों को एक मेहनतकश और बहादूर कौम के रूप में देखा जाता है. नि:संदेह, इस पहचान के पीछे उनके गुरुओं की अहम भूमिका है. धार्मिक समुदाय के रूप में सिक्खों ने जो एक 'इथनिक आयडेनटीटी' स्थापित है, वह ऐतिहासिक है. मगर, इसके लिए सिक्ख समाज ने भारी क़ुरबानी भी दी है.पंजाब का लम्बा इतिहास रहा है.यहाँ की राजभाषा पंजाबी है,
      पंजाब, जिसका नाम सिन्धु नदी की पांच सहायक नदियाँ ब्यास,रावी,सतलज,चिनाब,झेलम के बहने से पड़ा. यह वही सिन्धु नदी है जिसके आस-पास आज से 30000  वर्ष पहले सिन्धु घाटी सभ्यता  फली-फूली थी

सिक्ख गुरु पम्परा -
गुरु नानक साहिब  : (1469-1539) -
       सिक्ख, अपनी गुरु परम्परा में नानक को अपना प्रथम गुरु मानते हैं. नानक ने अलग हट कर जो रास्ता अपनाया और जिस अधिकारिता से साथ अपनी बात उन्होंने लोगों के सामने बात रखी, नि:संदेह वह उन्हें गुरु के पद पर सुशोभित करती है.
       नानक का जन्म 15 अप्रेल सन 1469 ( बैसाख सुदी 3  सवंत  1526 ) को पाकिस्तान में लाहौर से करीब 50  की.मी. दूर गावं  'राय भोई दी तलवंडी'  के एक हिन्दू खत्री परिवार में  हुआ था. इनके माता का नाम तृप्ता और पिता का नाम  कल्याणदास बेदी था. राय भोई दी तलवंडी के मालगुजार राय बुलर भट्टी एक मुस्लिम थे. नानक के पिताजी कल्याणदास बेदी इस मालगुजार के पास पटवारी का काम  करते थे.
Guru Nanak
      6  वर्ष की उम्र में नानक ने स्कूल जाना शुरू किया था. बालक नानक बचपन से ही आम बच्चों से हट कर थे. एक बार जब नानक 12  वर्ष के थे, उनके पिताजी ने उन्हें  20  रूपये दिए और कहा कि कोई सौदा कर आए. नानक बाजार गए, बहुत सारा अनाज ख़रीदा और साधू-सन्यासी तथा गरीबों में बाँट आए. पिताजी ने पूछा, वह सौदा कर आए ? इस पर नानक ने जवाब दिया- हां, वह सच्चा सौदा कर आए. 
प्रथम गुरु के इस वाकये को याद रखने सिक्ख संगत ने यहाँ गुरुद्वारा बनाया है, जिसका नाम 'सच्चा सौदा' रखा गया है.
      एक और इसी तरह की घटना है. हिन्दू उच्च जातियों में 'द्विज-संस्कार करने का रिवाज है. बालक नानक का 13  वर्ष की उम्र में जनेऊ-संस्कार किया जा रहा था. किन्तु , नानक ने यह कह कर जनेऊ पहनने से इंकार कर दिया कि यह आदमी-आदमी में भेद पैदा करता है.
Virasat-e-Khalsa : Anandpur sahib
     नानक की इस तरह की प्रवृतियों से माँ-बाप चिंतित थे. उन्होंने 16  वर्ष की उम्र में नानक का विवाह बटाला के मूलचंद खत्री  की पुत्री बीबी सुलाक्षनी से कर दिया था. उनके दो पुत्र थे. नानक की बड़ी बहन के पति जयराम, सुलतानपुर( लाहौर ) के दौलतखान लोदी के दरबार में काम करते थे. नानक को इन्ही के देख-रेख में खजांजी के काम में लगा दिया गया था.
    नानक का मन घर गृहस्थी और संसारिक-कार्यों में नहीं लगता था.जब भी समय मिलता, वे अपने बचपन के दोस्त मरदाना के साथ निकल जाते और या तो आध्यात्मिक चर्चा करते या 'रबाब'  पर भजन गाते.
Nankana Sahib
     तलवंडी गावं का मुस्लिम मालगुजार राय बुलर, गुरु नानक के व्यक्तित्व से बड़े प्रभावित थे. उन्होंने गुरु नानक की याद में गावं का नाम बदल कर  ननकाना साहिब  रखा था.
       गुरु नानक ने देश-विदेश की खूब की थी. उनके उपदेश गरीब दलित-पिछड़ी जाति के लोगों के लिए हितकारी थे. उनके प्रमुख चार शिष्य, भाई मर्दाना (मराशी), भाई लालो (बढई), भाई शिहान (टेलर ), भाई कोंडा (आदिवासी)  इन्हीं जातियों से थे. गुरु नानक के शिष्य मुस्लमान भी थे. क्योंकि, वे जाति/ धर्म के परे मनुष्य और मनुष्य के बीच बराबरी की बात करते थे. गुरु नानक ने मक्का-मदीने तक की यात्रा की थी. जब वे मक्का में थे तब, किसी ने उनसे काबे के तरफ पैर करके नहीं सोने की हिदायत दी थी. इस पर गुरु नानक ने कहा, क्या वे ऐसी दिशा या जगह हैं, जहाँ खुदा मौजूद न हो ?
      गुरु नानक ने अंध-विश्वासों, रीती-रिवाजों और कुप्रथाओं का पर्दा-फाश किया था. एक बार वे हरिद्वार गए थे. कुछ लोग पूर्व दिशा में खड़े हो कर सूर्य की ओर हाथ से पानी फैंक रहे हैं. उन को देख कर गुरु नानक ने पश्चिम की ओर पानी फैंकना शुरू कर दिया. लोगों ने उन्हें बड़े आश्चर्य से देखा. नानक ने कहा कि पश्चिम में पंजाब है, जहाँ उनका खेत है. अगर स्वर्ग में तुम्हारे पूर्वजों को ये पवित्र गंगा का पानी जा सकता है तो मेरे खेत में क्यों नहीं जा सकता ?
     गुरु नानक अपनी यात्राओं के दौरान विभिन्न धर्म/ सम्प्रदायों के आचार्यों से संगत करते और अपने संदेश का प्रचार करते थे. गुरु नानक का संदेश नया था. वह समाज में प्रचलित सड़ी-गली मान्यताओं और रीती-रिवाजों का विरोधी था.
Rakabganj Sahib:Delhi
 गुरु नानक ने उंच-नीच की जाति-पांति को नकारा था. उन्होंने अस्पृश्यता का विरोध किया. नानक ने ब्राह्मणवाद को जम कर लताड़ा. पंडा-पुजारियों की खूब खबर ली और इन सब से ऊपर उन्होंने नि:स्वार्थ सेवा का संदेश दिया.
    मगर, नानक ने ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया. नानक ने ईश्वर को स्वीकार ही नहीं किया बल्कि, यह भी कहा की वे जो संदेश दे रहे हैं, उस 'सत्ता' के हुक्म से दे रहें  हैं. उन्हें इस 'विशेष कार्य' के लिए भेजा गया है. अन्य तमाम अच्छे विचारों के, नानक का ईश्वर को मानना एक ऐसी बात थी जिसने ब्राह्मणवाद से उनके बिगड़ते सम्बन्धों को सम्भाल लिया. नानक के प्रेरणा स्रोत कबीर थे. मगर, कबीर  ने ईश्वर के साथ  समझौता नहीं किया और यही कारण है कि नानक का दर्शन एक मजबूत धर्म के रूप में सामने आया जबकि कबीर फगुआ ही गाते रहे.
      नानक के उपदेश 'शबद' के रूप में गुरु ग्रन्थ साहिब में समाहित है. उन्होंने 'नाम'  को तारक बताया.
गुरु नानक करीब 30 -35  वर्ष तलवंडी रहे. मगर, बाद में वे करतारपुर जा कर बस गए थे. बाकि के दिन यही रहते हुए 70  वर्ष की उम्र में 25 सित. 1539  को उन्होंने अपना शरीर छोड़ा था.

 गुरु अंगद देव  2nd Guru : (1504-1552) -
      गुरु नानक ने सन 1538  में इन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था. गुरु अंगद ने अपने गुरु नानक की रचनाओं को संकलित किया था.      कर 'आदि ग्रन्थ' की रचना की थी.
  गुरु अमरदास  3rd Guru : (1479-1574)  - 
       सिक्खों के गुरु अमरदास ने हिन्दू-कर्मकांड और देवी-देवताओं को मानने से इनकार कर दिया था.  उन्होंने छुआछूत और सती-प्रथा का भी विरोध किया था. उन्होंने अपने शिष्यों को राम के स्थान पर 'वाहे गुरु ' का उद्घोष करने को कहा था.
 गुरु रामदास  4rth Guru : (1534-1574)
      ये तीसरे गुरु अमरदास के दामाद थे. आपने हरमंदिर साहिब( स्वर्ण मन्दिर) की नीवं एक मुस्लिम संत मियां मीर से रखवाई थी. आपने हरमंदिर साहिब के चार दरवाजे रखवाए थे ताकि किसी भी जाति/ धर्म, समुदाय का व्यक्ति किसी भी दिशा से आ कर इबादत कर सके.
 गुरु अर्जनदेव  5th Guru : (1563-1606) -
      गुरु रामदास के पुत्र गुरु अर्जनदेव ने पूर्व गुरुओं की वाणी को 'आदि ग्रन्थ' के रूप में संकलित किया था. गुरु रामदास की हत्या लाहौर के ब्राह्मण राजा चंदूशाह ने करवाई थी.
हरिगोविन्द साहिब  6th Guru : (1595 -1644 ) - गुरु अर्जनदेव तक सिक्ख धर्म का स्वरूप भक्तिमय था. परन्तु, गुरु हरगोविंद साहिब ने भक्ति को शक्ति से जोड़ दिया और सिखों के हाथ में तलवार थमा दी.
  गुरु तेग बहादुर  6th Guru : (1621-1675) -
Sisganj Sahib:Delhi
   कश्मीरी पंडितों ने औरंगजेब के आतंक से निजात पाने के लिए गुरु तेग बहादूर से गुहार की थी. इस से मुग़ल बादशाह औरंगजेब खपा थे. औरंगजेब ने उन्हें कैद कर बाद में हत्या करवा दी थी.दिल्ली के चांदनी चौक का गुरुद्वारा सिस गंज साहिब उनकी स्मृति में बनाया गया है जहाँ उनकी हत्या की गयी थी. गुर तेग बहादूर ने सन 1665  में आनंदपुर साहिब शहर बसाया था.
गुरु गोविन्दसिंह   10th Guru : (1666-1708)  -
    गुरु गोविन्द सिंह के बचपन का नाम गोविन्द राय था. उनका जन्म पटना (बिहार ) में हुआ था. उनके पिता का नाम गुरु तेग बहादूर और माता का नाम गूजरी देवी था. उनकी तीन पत्नियाँ और चार पुत्र थे. वे  मात्र 9  वर्ष के थे जब उन के पिताजी गुर तेग बहादूर को मुग़ल बादशाह औरंगजेब ने कैद कर हत्या करवा दी थी.
    सन 1699  में गुरु गोविन्द सिंह ने 'खालसा' की स्थापना की थी. वैसाखी के दिन आनदपुर साहिब में गुरु गोविन्दसिंह सिख-संगत को संबोधित कर रहे हैं  -
" मैं क्या हूँ ?"
Guru Govind Singh
"आप हमारे गुरु हैं ." - संगत से आवाज आयी.
"आप लोग क्या हैं ?"  - गुरु ने पूछा.
"हम आपके सिक्ख ( शिष्य ) हैं.? - संगत से समवेत स्वर गूंजा.
" ठीक है. तब, गुरु को आज शिष्यों की जरुरत है." गुरु ने संगत की ओर देख कर कहा .
"हुकुम करो, सच्चे बादशाह. - सिक्ख  संगत से एक आवाज आयी.
 एकाएक म्यान से तलवार निकाल कर गुरु गोविन्द सिंह आगे बढे और कहा -
 "वाहेगुरु को ऐसे बंदे की जरुरत है, जो अपना सिर कटाने तैयार हो ?"
 वातावरण  में सन्नाटा छा गया. कहीं से कोई आवाज नहीं थी. तब, गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी बात को फिर दोहराई. मगर, कोई हरकत नहीं. तब, उन्होंने तीसरी बार.....
भीड़ में हरकत हुई. एक बंदा उठा, सामने आया और बोला-
"हुकुम करो सच्चे बादशाह, बन्दा हजिर है."
गुरु गोविन्द सिंह ने बन्दे की पीठ ठोकी. वे उसका हाथ पकड़ कर शिविर के अन्दर गए और थोड़ी ही देर में  खून से सनी तलवार के साथ बाहर आये. उन्होंने फिर, तलवार को लहरा कर कहा-
"वाहेगुरु को एक और सिर की जरुरत है ?"
 तब, बिना देर किये दूसरा बंदा सामने आया. गुरु गोविन्दसिंह ने उसका हाथ पकड़ा. अन्दर ले गए और फिर, बाहर आ कर बोले -  "वाहेगुरु को एक और सिर की जरुरत है......?"
...और जब पांचवीं बार गुरु गोविन्द सिंह शिविर से बाहर आये तो उनके साथ नए कपड़ों में वे पाँचों शिष्य थे जो गुरु के साथ अन्दर गए थे.
    गुरु गोविन्द सिंह ने एक लोहे की कढाई ली. उस में पानी डाला और कुछ बताशे मिलाए. फिर, अपनी  तलवार से हिलाकर उन पाँचों को थोडा-थोडा  चखाया. उन्होंने कहा, यह वाहेगुरु का  अमृत  है. आज से तुम 'पंच प्यारे' हो.
      सिक्खों का इतिहास साक्षी है, ये पञ्च प्यारे थे - भाई दयाराम, भाई धरम दास, भाई हिम्मत राय, भाई मोहकम चन्द और भाई साहिब चन्द थे. यह बड़ी अजीब बात है कि इन 'पञ्च प्यारों' में कोई उच्च जाति का बंदा नहीं था. गुरु गोविन्द सिंह ने इस केडेट कोर का नाम  खालसा रखा और उसकी उपमा 'सिंह' ( Lion ) से की.        
       तब, गुरु गोविन्दसिंह ने उन पाँचों और बैठी सिक्ख संगत के सामने एकाएक घुटनों के बल झुक कर अर्ज किया कि वे भी 'पञ्च प्यारों' की तरह 'वाहेगुरु' को अपना सिर न्यौछावर करते हैं. अतयव खालसा के 6  वे सदस्य के रूप में उन्हें स्वीकार किया जाए. इसके बाद गुरु ने कहा कि खालसा की सदस्या महिलाऐं भी होगी. खालसा महिला को 'कौर' कहा जाएगा. स्मरण रहे, खालसा फारसी के शब्द 'खालिस' से उत्पन्न है, जिसका अर्थ शुध्द होता है.
       इस अवसर पर गुरु गोविन्द सिंह ने सिख संगत से कहा, अब से तुम किसी जाति या किसी धर्म के नहीं हो. तुम किसी अन्धविश्वास/कुप्रथा को नहीं मानोगे. एक ईश्वर को मानोगे जो सभी का मास्टर और संरक्षक हैं. संगत का प्रत्येक सदस्य, दूसरे के लिए भाई होगा. कोई तीर्थ यात्रा नहीं करोगे और न साधू-सन्यासी बनोगे. एक अच्छा आदमी बनोगे जो समाज के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने हमेशा तैयार रहे. महिलाएँ, प्रत्येक मद में आदमी के बराबर होगी. अब से न पर्दा-प्रथा होगी और न ही सती-प्रथा. जो कोई अपनी बच्ची का कत्ल करेगा, खालसा से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होगा.
Paonta Sahib:Sirmour HP
      अपनी बात को जारी रखते हुए गुरु गोविन्द सिंह ने आगे कहा, केश, कंगा, कड़ा, कच्छा और किरपान ये पञ्च 'क' जो तुम अब से धारण करोगे, तुम्हारी निष्ठां का मेरे प्रति सबूत होंगे.नशीली वस्तुओं के सेवन से दूर रहने की तुम शपथ लोगे. हथियार से तुम प्यार करोगे. शारीरिक शक्ति प्राप्त करना तुम्हारे लिए उतना ही पवित्र होगा जितनी की आध्यात्मिक. हिन्दू  और मुसलमानों के बीच तुम सेतु का काम करोगे.गरीब की सेवा करोगे इस बात की परवाह किये बगैर कि वह किस जाति और नस्ल का है. तुम्हारे सामाजिक जीवन का डेग (लंगर ) उतना ही अनिवार्य हिस्सा होगा जितना की तेग (तलवार). तुम अब से  वाहेगुरुजी कह कर एक-दूसरे का अभिवादन करोगे.
      गुरु गोविन्दसिंह के पिताजी गुरु तेग बहादूर ने आनंदपुर साहिब बसाया था. आनंदपुर साहिब शिवालिक पहाड़ियों के तराई में आता है.  तब, पंजाब कई रजवाड़ों में बंटा था. गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा की तर्ज पर फ़ौज को संगठित कर उस क्षेत्र में अच्छी धाक जमा ली थी. मगर, इससे हिन्दू रियासतों में इर्ष्या और जलन का वातावरण बन गया था. इन रजवाड़ों ने संयुक्त-फ्रंट बना कर गुरु गोविन्द सिंह को घेरने की भी कोशिश की थी. किन्तु , उन्हें मुंह की खानी पड़ी.
        तब, उन्होंने  दिल्ली के मुग़ल बादशाह औरंगजेब को भड़काया कि गुरु गोविन्द सिंह दिल्ली पर हमला करने की तैयारी में है. इस पर औरंगजेब ने भारी सेना भेज कर सूबा सरहिंद को हुक्म दिया कि आनंद पुर साहिब से गुरु गोविन्द सिंह को निकाल बाहर किया जाये.सूबा सरहिंद ने मुग़ल बादशाह की फ़ौज और अन्य हिन्दू  रियासतों के साथ गुरु गोविन्द सिंह पर हमला कर दिया.
         सूबा सरहिंद और हिन्दू रजवाड़ों के संयुक्त धावे से गुरु गोविन्द सिंह बुरी तरह घिर गए.  7 दिस.1705  के इस हमले में उन्हें अपने दो पुत्रों से हाथ धोना पड़ा . युध्द के मैदान जब उन्हें इसकी खबर लगी तो आपने कहा - "मुझे ये बच्चें ईश्वर ने दिए थे.   सकता है, ये वक्त उनके वापिस जाने का रहा हो."  गुरु गोविन्द सिंह पल भर के लिए उस तरफ मुड़े भी थे. कुछ सिक्ख  उनके बच्चों के शव के पास थे. आपने ने पूछा, वे क्या कर रहे हैं ? इस पर बताया गया कि गुरु-पुत्रों का अन्तिम संस्कार उचित ढंग से हो, इसकी व्यवस्था कि जा रही है. इस पर गुरु गोविन्द सिंह ने कहा-  क्या नादानी है. क्या ये तमाम शव जो युध्द-भूमि में पड़े हैं, उनके बच्चें नहीं हैं ?
      इधर, आनंदपुर में उनके पुराने अंगरक्षक गंगू नामक एक ब्राह्मण ने उनके साथ बड़ा विश्वासघात किया.  उसने गुरु गोविन्द सिंह के दो छोटे बच्चे और गुरुमाता को सूबा सरहिंद के हवाले कर दिया था. कहा जाता है कि सूबा सरहिंद के दरबार में इन बच्चों को इस्लाम धर्म कबूल करने कहा गया.मगर, जब बच्चों ने इंकार किया तो उन्हें जीवित ही दीवार में चिनवा दिया गया. यह लोमहर्षक घटना 13  दिस. 1705  की है. यह खबर जब गुरु-माता को पहुंची तो सदमे को बर्दाश्त न कर उसने औरंगजेब की कारगर में ही प्राण त्याग दिए.
         एक और दर्दनाक घटना का उल्लेख आता है. मुग़ल फ़ौज की जबरदस्त घेरा-बंदी में गुरु गोविन्द सिंह को छोड़ कर 40 सिक्ख युध्द के मैदान से चले गए थे. मगर, जब ये गावं में पहुंचे तो वहां उनकी बड़ी बेइज्जती हुई. तब, ये जवान एक खालसा सिक्ख महिला के कमांड में फिर वापिस आये. मगर, मुग़ल फौजों द्वारा ये बड़ी आसानी से मार दिए गए थे. गुरु गोविन्द सिंह को इस पर बड़ा पछतावा हुआ था.
      नि;संदेह, औरंगजेब के साथ गुरु गोविन्द सिंह की जाति दुश्मनी थी. क्योंकि, औरंगजेब से घिरने के  दौरान कई मुस्लिम शासकों ने गुरु गोविन्द सिंह की सहायता की थी. दूसरी ओर, हिन्दू शासकों ने उनके साथ धोका किया था. उनके पुराने अंग रक्षक हिन्दू ब्राह्मण गंगू ने उनके साथ विश्वासघात किया था. गुरु गोविन्द सिंह ने महसूस हुआ की वे और उनके पिताजी औरंगजेब के गुस्से का शिकार न सिर्फ अनावश्यक रूप हुए हैं बल्कि, उन पर जो अत्याचार किये गए, इस में सामान्य मानवीय धर्म का पालन नहीं किया गया ? कुछ इसी मनस्थिति में गुरु गोविन्द सिंह ने मुग़ल बादशाह औरंगजेब को एक पत्र लिखा जो 'जफरनामा' से प्रसिध्द है.
     'जफरनामा' पढ़कर मुग़ल बादशाह औरंगजेब को खेद हुआ. बादशाह को समझते देर न लगी की आनंद पुर का क्षेत्र हडपने के लिए वह हिन्दू राजाओं की साजिश थी. औरंगजेब ने पश्चाताप करते हुए लाहौर के डिप्टी गवर्नर मुनीम खान को भेजा था की वह गुरु गोविन्द सिंह को दरबार में ले कर आये. इसी बीच औरंगजेब की बिगडती सेहत देख कर उनके बड़े पुत्र ने दिल्ली पर हमला कर दिया. इस हमले में गुरु गोविन्द सिंह ने उसकी मदद की थी.हमले में मिली कामयाबी के बाद यही बहादूर शाह जफ़र के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा.
    उधर, सरहिंद के वाजिर खान, दिल्ली दरबार को गुरु की मदद से बेपरवाह नहीं थे. वाजिर खान ने गुरु की हत्या करने का षड्यंत्र रचा. इसके लिए उसने दो पठानों को नियुक्त किया. गुरु जब आराम कर रहे थे तब इन में से एक पठान ने गुरु पर प्राण घातक हमला किया जिससे गुरु गोविन्द सिंह को गंभीर चोट आयी थी. खबर पा कर मुग़ल बादशाह बहादूरशाह ने इलाज  के लिए एक्सपर्ट डाक्टरों की टीम भेजी थी.किन्तु, दुर्भाग्य से गुरु की हालत बिगड़ते गयी और 7 अक्टू. 1708 को उन्होंने अन्तिम साँस ली थी.
          अपनी मृत्यु को आसन्न जान कर गुरु गोविन्द सिंह ने सिख संगत के खास-खास लोगों को बुलाने को कहा. जब सब इकट्ठे हुए, गुरु ने 'गुरु-ग्रन्थ साहिब' को बीच में रखने कहा. तब, गुरु ने हाथ में नारियल ले गुरु-ग्रन्थ साहिब को देख कर अपना सर झुकाया और सिख संगत की ओर देख कर कहा, -यह मेरा आदेश है, 'गुरु-ग्रन्थ साहिब' को मेरी जगह  स्वीकार करो. वह जो इसे ऐसा मानेगा, वाहेगुरु उसकी रक्षा करेगा.
    स्मरण रहे,  'आदि ग्रन्थ' जिसे उनके दादा गुरु अर्जन दास ने संकलित किया था, गुरु गोविन्दसिंह के रहते कहीं गुम हो गया था. गुरु गोविन्द सिंह ने खुद और अन्य जानकार लोगो  के साथ बैठ कर नया ग्रन्थ तैयार करवाया था. गुरु गोविन्द सिंह के आदेश से गुरु-ग्रन्थ साहिब को जीवित गुरु की मान्यता दे कर  11  वें गुरु की स्थापना की गयी है, जो अब 'शब्द गुरु'  के रूप में स्थापित है.
Maharaja Ranjit Singh
महाराजा रंजीतसिंह   (1780 -1839 ) -
    महाराजा रंजित सिंह की बायीं आँख बचपन में चेचक की बीमारी के कारण जाती रही थी. महाराजा ने अफगानों को पीछे धकेल पेशावर, मुल्तान, जम्मू-कश्मीर, काँगड़ा आदि पहाड़ी क्षेत्र को जीत कर एक मजबूत  पंजाब  की नीवं रखी थी .
      महाराजा रंजित सिंह के पास बेशक, उनके पिता और दादा के समय में अफगानी शासकों के द्वारा किये गए ढेरों अत्याचारों का इतिहास था. मगर, महाराज ने बदले की भावना को जगह नहीं दी थी. उन्होंने हिन्दू और मुसलमान को बराबर समझा. महाराजा रंजित सिंह को  'शेर-ए-पंजाब' का खिताब मिला था. महाराजा रणजीत सिंह 'ब्राह्मण-धर्म' के चहेते थे. उन्होंने  दशम ग्रन्थ को प्रमोट किया था.
Golden Temple
      महाराजा ने हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मन्दिर ) को सजाया. आज जो स्वर्ण मन्दिर दीखता है वह महाराजा रंजित सिंह की देन है. उन्होंने गुरु गोविन्द सिंह की याद में तख़्त श्री पटना साहिब और सन 1708  को  महाराष्ट्र के नांदेड में तख़्त श्री हजूर साहिब का निर्माण किया.
     महाराजा रंजित सिंह के विभिन्न रानियों से 7  पुत्र थे. मगर, इन में से कोई योग्य शासक न बन सके. अपनी मृत्यु को आसन्न निकट जान कर महाराजा ने विश्व प्रसिध्द कोहनूर हीरा जो महाराजा के पास था, सन 1839   में को पूरी के जगन्नाथ मन्दिर को दान कर दिया था.
      महारानी मह्ताफ़ देवी जो काँगड़ा की राज कुमारी थी, के साथ कई रानियाँ महाराजा के शव के साथ जल कर सती हुई थी.स्मरण रहे, गुरु नानक से लेकर अब तक के सभी गुरुओं ने सती-प्रथा का निषेध किया है.  महाराजा की मृत्यु के बाद पारिवारिक आपसी संघर्ष से उनका राज-काज जाते रहा.
गुरुग्रंथ साहिब -
 सिख परम्परा में, गुरु ग्रन्थ साहिब को ही पवित्र माना जाता है. गुरु ग्रन्थ की भाषा गुरु मुखी (पंजाबी) है. सिखों से इस पवित्र ग्रन्थ में गुरु नानक, गुरु अंगद, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जन, गुरु तेगबहादूर ( 9  वे गुरु), गुरु गोविन्दसिंह ( 10 वे गुरु ) और 15  भगतों यथा: नामदेव, रविदास, जयदेव, त्रिलोकन, बेनी, रामानंद, सैनु, धन्ना, साधना, पीपा, सुर, भीखन, परमानन्द, फरीद और कबीर की बाणी को समाहित किया गया है.
  शुरुआत में इसकी रचना सुबह-साम की प्रार्थना के लिए हुई थी. मगर, बाद में गुरुओं की वाणी को मिलाने से इसका आकार बढ़ते गया. गुरु ग्रन्थ साहिब में गुरुओं के व्यक्तित्व, उपदेश और तत्कालीन इतिहास की जानकारी मिलती है.
     गुरु ग्रन्थ साहिब 'शबद' रूप में संकलित है. शबद 'ग्रंथियों'( ज्ञानियों/वाचकों ) द्वारा विभिन्न रागों में गाए जाते हैं. यह गुरुमुखी अर्थात पंजाबी लिपि ( "ਸੱਬ ਸਿੱਖਣ ਕੋ ਹੁਕਮ ਹੈ ਗੁਰੂ ਮਾਨਯੋ ਗ੍ਰੰਥ" ) में संहिताबध्द किया गया है.
Guru Granth Sahib
     गुरु ग्रन्थ साहिब में छुआछूत और उंच-नीच की जाति-पांति का  कड़ा विरोध है. इस में सामाजिक-बराबरी और भाई-चारे का संदेश दिया गया  है. मूर्ति-पूजा, सती-प्रथा, कन्या-वध, पर्दा-प्रथा आदि का  निषेध किया गया है,
गुरु ग्रन्थ साहिब में ईश्वर को निराकार,निरंजन, अकाल,अजन्मा और अविनाशी माना गया  है. सिख धर्म में मदिरा और तम्बाकू सेवन पर सख्त पाबन्दी है.
Langar Hall:Keshargarh Sahi
 'गुरु ग्रन्थ साहिब' की मूल प्रति सन 1757 में मुग़ल फ़ौज ने जला डाली थी जब अहमद शाह दुर्रानी ने करतारपुर पर आक्रमण किया था.  सिखों के पांच तख़्त - अकाल तख़्त पर बैठ कर सिक्ख गुरु हुक्म देते हैं जिसका पालन करना प्रत्येक सिक्ख के लिए आवश्यक है. कुल पांच अकाल तख़्त हैं -  1. अकाल तख़्त (अमृतसर)  2. दमदमा साहिब (भटिंडा:पंजाब) 3. केशरगढ़ साहिब (आनंदपुर)  4.हजूर साहिब (नांदेड: महा.) 5. हरमंदिर साहिब (पटना : बिहार )
गुरु का लंगर  - सामाजिक गैर-बराबरी को ख़त्म करने के लिए लंगर की शुरुआत गुरु नानक ने की थी.यह व्यवस्था गुरु-दर-गुरु जारी रही और आज भी है. इसी लंगर से प्रभावित हो कर मुग़ल बादशाह अकबर ने कुछ गावं सिखों को जागीर में दिए थे जिस पर आज अमृतसर बसा है.
गुरुद्वारा आन्दोलन -       आरम्भ में गुरुद्वारे भी हिन्दू मन्दिरों की तरह महंतों/पंडों की पैतृक सम्पत्ति समझे जाते थे. इसके विरोध में लम्बा आन्दोलन चला और गुरुद्वारों को सिक्ख संगत( समाज ) की सम्पत्ति बना दिया गया. इसके लिए निर्वाचित गुरुद्वारा प्रबंध समितियां बनायीं गयी.
सिक्खों में जाती-पांति और छुआछूत - गुरु ग्रन्थ साहिब में जाति-पांति और छुआछूत का निषेध किया गया है. मगर. सिक्खों में छुआछूत है. रामदासिया और मह्जबिया सिक्खों को नीच माना जाता है. जाट, खत्री, अरोरा आदि उच्च जाति के सिक्ख  इन से छुआछुत बरतते हैं. यहाँ तक कि विदेशों में, जहाँ भी सिक्ख गए हैं, हिन्दुओं की जाति-पांति और छुआछुत साथ ले गए हैं. वाल्मीकि और रविदासिया सिक्खों के होटल और बार में उच्च जाति के सिक्ख जाना पसंद नहीं करते. दलित सिक्खों को जातिगत नामों से पुकारा जाता है. नीच समझी गयी सिक्ख  जातियों के अलग गुरुद्वारे हैं. सेना में दलित सिक्ख जातियों का  'सिखलीगर' नामक अलग रेजिमेंट है.
डा. आंबेडकर का धर्मान्तरण आन्दोलन और सिक्ख नेता -   सन 1935  में जब डा. आंबेडकर ने धर्मान्तरण की घोषणा की तब, अन्य धर्मों के आलावा सिक्ख धर्म पर भी उन्होंने गौर किया था. एक प्रसंग इस सन्दर्भ में बड़ा मजेदार है. इंद्र सिंह करवाल ने अकाली दल के वरिष्ठ नेता हरनाम सिंह झल्ला से जब यह पूछा कि डा. आंबेडकर ने सिख धर्म में शामिल होने का इरादा क्यों त्याग दिया तो उनका जवाब था, "ओय, तुम्हे इन बातों की जानकारी नहीं है ! क्या छ: करोड़ दलितों को सिक्ख बना कर हरमिंदर ( दरबार ) साहिब  पर चुहड़ों का कब्जा करा दे ?
मुस्लिम सिक्खों के मददगार  -  अमृतसर दरबार साहिब की नीवं एक मुस्लिम फकीर मीर ने रखी थी.
Akal Takht Sahib
ब्राह्मणवाद के विरुध्द जंग में गुरु नानक के साथ नीच करार की गयी जातियां चाहे हिन्दुओं में हो या मुसलमानों में,  बराबर के साझीदार थी. मगर, बाद में हम देखते हैं कि जो जंग ब्राह्मणवाद  के खिलाफ होनी थी, वह सिक्खों और मुसलमानों के बीच खड़ी हो गयी. मनुवादियों ने मुगलों के साथ रिश्ते जोड़ कर और गुरुओं पर हमले कर सिक्ख लहर को कमजोर किया.
सिक्खिस्म  इन द माउथ आफ ब्राह्मनिस्म -  
       ब्रिटिश लेखक मेकालिफ (Max Arthur Macauliffe ) जो पंजाब में डिप्टी कमिश्नर रहे, ने सन 1909 के दौरान  'द सिक्ख रिलिजन' नामक पुस्तक लिखा है. मेकालिफ  ने अपनी पुस्तक में टिपण्णी की है कि सिक्ख धर्म, जिसकी उसके गुरुओं ने पृथक पहचान बनायीं थी, का तेजी से ब्राह्मण-धर्म में विलय हो रहा  है.ख्याति प्राप्त लेखक खुशवंत सिंह ने भी चिंता व्यक्त की है कि सिक्ख  अपनी 'पहचान' और 'सिक्ख-धर्म के मूल्यों' को निरंतर विस्मृत कर रहे हैं.
सिक्खिस्म , हिन्दू धर्म की सैनिक-शाखा  -    सिक्ख धर्म को पहले ही हिन्दू धर्म की शाखा करार कर दिया गया है. मास्टर तारा सिहं ने 14  अप्रेल 1948  को 'सिक्ख विद्यार्थी फेडरेशन' के दूसरे अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए कहा था कि सिक्ख, हिन्दू धर्म की सैनिक शाखा है. सन 1999  के दौर में महाराजा रणजीतसिंह  की जगह नियुक्त अकाल तख़्त के जत्थेदार भाई पूरणसिंह ने कहा था कि सिक्ख जनता भगवान् राम के पुत्र लव-कुश की सन्तान हैं.
सिक्खों  के प्रति गांधीजी का दृष्टिकोण  -         गांधीजी ने अपनी पत्रिका 'हरिजन' में सिक्खों को हिन्दू बतलाया था. उन्होंने गुरु गोविन्दसिंह को गुमराह राष्ट्रभक्त कहा था. गांधीजी ने 'सिक्ख पहचान' को ख़त्म करने की हर सम्भव कोशिश की थी. उन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब को हिन्दू धर्म-ग्रंथों पर आधारित बतलाया था.
Akal Takhat Damdama Sahib:Pan jab
 ब्राह्मण-सिक्ख   -     कश्मीर और पूंछ के सिक्ख मूलत: ब्राह्मण हैं. मजे की बात यह है कि ब्राह्मण-सिक्ख अपने सरनेम अब भी कायम रखे हुए हैं. हाल ही में आर.एस. एस. के संगठनों द्वारा आयोजित परसुराम जयंती में इन ब्राह्मण-सिक्खों ने जम कर शिरकत थी
 राष्ट्रीय सिक्ख संगत -   सन 1986  के दौर में  ब्राह्मण-सिक्खों ने आर. एस.एस. की मदद से 'राष्ट्रीय सिक्ख संगत' का गठन किया है. विश्व हिन्दू परिषद् के सहयोग से सन 1986  में जब आनंदपुर साहिब से पटना साहिब तक  'खालसा पंथ' की यात्रा निकाली गयी तब, इस  राष्ट्रीय सिक्ख संगत को आर.एस. एस. प्रमुख सुदर्शन ने सम्बोधित किया था. राष्ट्रीय सिक्ख संगत गुरु ग्रन्थ साहिब की जगह दशम ग्रन्थ के पाठ पर जोर देती है. दशम ग्रन्थ, वेद और गीता पर आधारित है. इसका बड़ा हिस्सा वैष्णवों और ब्राह्मणों द्वारा लिखा गया है. इसमें वर्ण-व्यवस्था का प्रचार किया गया है.
       इस अवसर पर जो पोस्टर वितरित किये गए थे, उनमें दशम गुरु गोविन्दसिंह की पृष्ठभूमि में भगवान्  राम को दिखाया गया था. यह ठीक वैसे ही है जैसे सन 1995 के दौरान अयोध्या में उन्होंने अपने प्रचार अभियान में डा. आंबेडकर का चित्र लगाया गया था
  सिक्ख बुध्दिजीवियों की चिंता -      ब्राह्मण-सिक्खों से आक्रांत सिक्ख बुध्दिजीवियों को आशंका है कि आने वाले दिनों में यह राष्ट्रीय सिक्ख संगत गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के चुनावों में उतर सकती है. और अगर ऐसा हुआ तो सिक्खों की सभी धार्मिक संस्थाओं पर आर.एस. एस. का कब्जा हो जाएगा. क्योंकि, पंजाब और भारत के अन्य प्रान्तों में सिक्खों के ग्रंथी (पुजारी ) अधिकतर ये ब्राह्मण-सिक्ख ही हैं. दूसरे,  90 % सिक्ख  जातियों पर  10 %  उच्च जातियों का कब्ज़ा है.
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Ref- 1.en.Wikipedia.org/wiki/Sikhism 
        2.Dalit Voice : Bangalore, May II/2000,Jul I/2000,Sept II/2000, Feb.I/2001 
        3. Lokmat : 21 May 2000

Friday, March 23, 2012

मन्दिर का सच

    देश में लाखों मन्दिर हैं. मन्दिरों में पंडे हैं , पुजारी/ महंत हैं. महंतों के चेले हैं. चेलों के लिए मठ हैं. इन मठों/ मन्दिरों में अकूत सम्पति है. कई मन्दिरों में मन्दिर-ट्रस्ट को नहीं मालूम की उनके पास कितनी सम्पति है, फिर बात चाहे त्रुपति के बालाजी मन्दिर की हो या काशी के भगवन विश्वनाथ मन्दिर की. इसके आलावा मन्दिरों में और भी खेल खेले जाते हैं -
      मुग़ल बादशाह औरंगजेब अपने काफिले के साथ बंगाल की ओर कूच कर रहा था. वाराणसी के पास से गुजरते हुए काफिले में शामिल हिन्दू राजाओं की रानियों ने इच्छा जाहिर की कि वे भगवन विश्वनाथ की पूजा करना चाहती है. रानियों की इच्छा को मुग़ल दरबार तक पहुँचाया गया. बादशाह को इसमें कोई आपत्ति नजर नहीं आयी.औरंगजेब के आदेश से बंगाल की ओर बढ़ता काफिला एक दिन के लिए रुक गया. शहर से करीब 5 -6  मील दूर फ़ौज ने डेरा डाल दिया.
      हिन्दू रानियों ने पहले गंगा स्नान किया और फिर पूजा के लिए विश्वनाथ मन्दिर गयी. पूजा के बाद सब रानियाँ वापिस आ गयी मगर, कच्छ की महारानी वापिस लौट नहीं पायी. खोज-बिन की गयी लेकिन महारानी का पता नहीं चला. जब यह खबर मुग़ल दरबार पहुंची तो बादशाह को फ़िक्र हुई . बादशाह ने आदेश दिया कि महारानी का पता हर कीमत पर लगाया जाये. उन्होंने अधिकारीयों को भेजा.
    मन्दिर का चप्पा-चप्पा छाना गया.और अंतत: महारानी का पता चल गया. अन्दर मन्दिर की दीवार में गणेश की मूर्ति जड़ी मिली, जिसे अपनी जगह से इधर उधर सरकाया जा सकता था. मूर्ति सरकाने से अन्दर तहखाने में उतरती सीढियाँ दिखी. नीचे महारानी को रोते हुए पाया गया. महारानी के द्वारा पता चला कि उनकी इज्जत लुटी जा चुकी है.
       घटना की रिपोर्ट जब औरंगजेब को दी गयी. बादशाह ने हुक्म दिया, भगवन विश्वनाथ की मूर्ति को अन्यत्र स्थापित कर मन्दिर को ढहा दिया जाये और महंत को गिरफ्तार कर दरबार में पेश किया जाए। 
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स्रोत: द फीदर्स एंड द स्टोंस (1946): लेखक डा. पट्टाभि सितारमैया

Saturday, March 17, 2012

विट्ठल रामजी शिंदे(Vitthal Ramji Shinde: 1873-1944)

विट्ठल रामजी शिंदे
        देश की आजादी के आन्दोलन के दौरान दो प्रकार की विचारधाराए काम कर रही थी. एक वे जिनका लक्ष्य  ब्रिटिश भारत को अंग्रेजों से आजाद करा कर देश की सत्ता को अपने हाथ में लेना था और दूसरे वे जो  आजादी के साथ-साथ यह भी चाहते थे की देश की सत्ता,जिससे बलात उनको दूर रखा गया था, जो सदियों से उनके हाथ में नहीं थी, की हिस्सेदारी में वे शरीक हो.पहले प्रकार की विचारधारा का नेतृत्व महात्मा गांधीजी कर रहे थे जबकि दूसरी का बाबासाहब डा.आंबेडकर.इसके आलावा कुछ लोग ऐसे भी थे जो इन दोनों विचारधाराओं के बीच सेतु का काम कर रहे थे. विट्ठल रामजी शिंदे का व्यक्तित्व इसी कड़ी का हिस्सा था.
      विट्ठल रामजी शिंदे ही वह वजह थे जिसके कारण लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे कट्टर हिन्दू नेता को अस्पृश्यता के विरुध्द बोलने के लिए मंच पर खड़े होना पड़ा था. ये विट्ठल रामजी शिंदे ही थे, जिनके प्रयास से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को अस्पृश्यता के प्रश्न को अपने राष्ट्रीय एजेंडे में शामिल करना पड़ा था.
      विट्ठल रामजी शिंदे का जन्म 23  अप्रेल सन 1873  को जामखंडी ( कर्नाटक) में हुआ था. उनके पिता  रामजी बसवंत शिंदे, जामखंडी स्टेट में नौकरी किया करते थे. विट्ठल रामजी का ब्याह 9  वर्ष की उम्र में हुआ था. तब, उनके पत्नी की उम्र मुश्किल से 1  वर्ष रही होगी.
    मेट्रिक पास करने के बाद विट्ठल रामजी शिंदे ने पूना में आ कर फर्ग्युशन कालेज से बी. ए. और सन 1898  में एल.एल.बी किया था. इस दौरान उन्हें पूना के प्रसिध्द एडव्होकेट गंगाराम भाऊ म्हस्के और समाज सुधारक बडौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड से आर्थिक सहायता मिली थी.
     शुरू में विट्ठल रामजी शिंदे  प्रार्थना समाज  के सम्पर्क में आये थे. प्रार्थना समाज द्वारा प्राप्त आर्थिक सहायता से वे उच्च विद्या-अध्ययन हेतु इंग्लैण्ड  गए थे इस शर्त के साथ कि वापिस आ कर वे संस्था का काम करेंगे. इंग्लैण्ड स्थित आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के मानचेस्टर कालेज में शिंदे ने विभिन्न धर्मों, खास कर बौध्द धर्म और पाली भाषा का गहन अध्ययन किया था.
      सन 1903  में  इंग्लैण्ड से लौटने के बाद मुम्बई में उन्होंने 'यंग  थीइस्ट  यूनियन' ( Young Theist Union) संस्था स्थापित की थी. संस्था के सदस्यों के लिए उन्होंने शर्ते रखी थी कि वे मूर्तिपूजा और जाति-पांति की घृणा में विश्वास कभी नहीं करेंगे. वे सन  1913  तक प्रार्थना समाज में रहे. यद्यपि, बाद के दिनों में उनके कार्यों का उन्हीं के लोग विरोध करने लगे थे.
     विट्ठल रामजी शिंदे ने वर्ष 1905 में पूना के मिठनगंज पेठ में अछूतों के लिए रात्रि-स्कूल खोला था.इसी प्रकार  14  मार्च 1907  को अछूत जातियों के सामाजिक-धार्मिक सुधार के निमित्त  'सोमवंशीय मित्र समाज' की स्थापना की थी.
    प्रार्थना समाज  की ओर से 18  अक्टू. 1906  को डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन की स्थापना की गयी थी. विट्ठल रामजी शिंदे इसके महासचिव थे. सन 1912  तक डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन के पास विभिन्न  4  राज्यों में करीब 23  स्कूल  और 5  छात्रावास थे. विट्ठल रामजी शिंदे ने कई रचनात्मक कार्य किये. मुम्बई और सी.पी. बरार में उन्होंने अस्पृश्यों के लिए कई आश्रम, स्कूल और पुस्तकालय खोले थे. सन 1917  को उन्होंने अखिल भारतीय निराश्रित अस्पृश्यता निवारक संघ  की स्थापना की थी.
         बाद के दिनों में विट्ठल रामजी शिंदे ने पूना को अपना कार्य क्षेत्र बनाया था. यहाँ  पर स्थानीय प्रशासन द्वारा उन्हें  7  एकड़ जमीन का प्लाट दिया गया था जो कभी पहले ज्योतिबा फुले और उनके 'सत्य-शोधक समाज' के नाम एलाट किया गया था.
      अस्पृश्यता जैसे सामाजिक सुधार के आधारभूत प्रश्न उठाने से विट्ठल रामजी शिंदे के उनके अपने ही लोगों से मतभेद बढ़ते जा रहे थे.  दरअसल, वे प्रार्थना समाज के  'सामाजिक सुधार' के फ्रेम में खुद को ढाल नहीं पा रहे थे. मतभेद बढ़ते गए और अंतत:  सन 1910  में उन्होंने प्रार्थना समाज को पूरी तरह छोड़ दिया था.
        सन 1917  में मान्तेगु-चेम्स फोर्ड के चुनाव सुधार की घोषणा के साथ ही देश की राजनैतिक परिस्थितियां तेजी से बदल रही थी. सीटों के रिजर्वेशन के कारण पिछड़ी जातियों का ध्रुवीकरण हो रहा था.स्थिति को भांपते हुए विट्ठल रामजी शिंदे  ने 'मराठा राष्ट्रीय संघ' की स्थापना की और नव. 1917  में एक विशाल अधिवेशन कर सन 1916  के कांग्रेस के 'लखनऊ पेक्ट' को भारी समर्थन दिया.
        अस्पृश्यता के प्रश्न को अखिल भारतीय स्तर पर उठाने के लिए विट्ठल रामजी शिंदे  लगातार प्रयास कर रहे थे. उन दिनों जहाँ कांग्रेस की सभा होती थी, शिंदे वहीँ 'डिप्रेस्ड क्लास मिशन' का अधिवेशन आयोजित करते थे. अंतत: शिंदे के प्रयासों से सन 1917  में कलकत्ता के अधिवेशन में कांग्रेस ने पहली बार अस्पृश्यता के विरुध्द प्रस्ताव रखा था. वह भी शायद, इसलिए संभव हो पाया था क्योंकि, अधिवेशन की अध्यक्षता अंग्रेज महिला बेसन्ट साहिबा कर रही थी.
        सामाजिक सुधार की दिशा में विट्ठल रामजी शिंदे ने  23  मार्च सन 1918  को मुम्बई में बडौदा के महाराजा सयाजी राव गायकवाड की अध्यक्षता में एक अधिवेशन आयोजित किया था. अधिवेशन में उपस्थित लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक लीक से हट कर भाषण दिया था. तिलक ने कहा था, 'यदि ईश्वर को जाति मान्य है, तो मैं ईश्वर को ही नहीं मानूंगा.' परन्तु, सभा के अंत में  अस्पृश्यता के खात्मे के विरुध्द प्रस्ताव  पर तिलक ने हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था. इसी प्रकार मुम्बई प्रोविंसियल की कन्फेरेंश जो लोनावाला में हुई थी,  में शिंदे स्वराज की मांग का प्रस्ताव रखने तैयार थे बशर्त सभी लोग एक मत से अस्पृश्यता के विरुध्द प्रस्ताव पारित करे.
     दांडी-मार्च सत्याग्रह के दौरान विट्ठल रामजी शिंदे के दो अनुयायियों, पाताड़े और गाडगे ने गाँधीजी का जम कर विरोध किया था. उनका कहना था कि गाँधीजी को और किसी मार्च के पहले अस्पृश्यता के विरोध के लिए सत्याग्रह करना चाहिए.
           सन 1919  में पूना म्यूनिसपैलटी के लडके और लडकियों के शिक्षा की अनिवार्य के प्रस्ताव का तिलक के अनुयायियों ने विरोध किया था.वे लडकियों के लिए शिक्षा की अनिवार्यता के विरुध्द थे. शिंदे स्त्री शिक्षा के जबरदस्त समर्थक थे. उनके एक दूसरे अधिवेशन में जब तिलक स्त्री शिक्षा पर भाषण दे रहे थे तब, लोगों ने भारी गुस्सा जाहिर किया था. यहाँ तक कि शिंदे को उन्हें अपनी सुरक्षा में लेकर अधिवेशन के बाहर निकालने में मदद करनी पड़ी थी.
         विट्ठल रामजी शिंदे , पृथक चुनाव प्रणाली के विरुध्द थे. वे उसे देश के लिए विभाजनकारी मानते थे.पूना में  मराठों के लिए आरक्षित सीट से उन्होंने लड़ने से मना कर दिया था.शुरू में कोल्हापुर के साहू महाराज,  शिंदे के साथ थे किन्तु ब्राह्मणों से तंग आ कर जब उन्होंने क्षत्रियों के धार्मिक संस्कार किये जाने के लिए  क्षत्रिय जगतगुरु   के नियुक्त किये जाने का आदेश निकाला तो शिंदे द्वारा उसकी आलोचना किये जाने से वे  उनसे नाराज हो गए थे.
         शिंदे से उनके अपने 'डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन' के लोग भी नाराज थे. बाध्य हो कर पूना में संस्था  का नेतृत्व शिंदे को ऐसे ही एक नाराज साथी को सौपना पड़ा.
    रचनात्मक कार्यों के साथ शिंदे लेखन विधा से भी अपने विचारों का आदान-प्रदान करते थे. 'उपासना' और सुबोध चन्द्रिका' जैसी मासिक/साप्ताहिक पत्रिकाओं में सामाजिक सुधार के मुद्दों पर उनके लेख प्रकाशित होते रहते थे. सन 1933  में उनके द्वारा प्रकाशित 'बहिष्कृत भारत' और 'भातीय अस्प्रेश्यताचे प्रश्न' अस्पृश्यता के प्रश्न पर ही केन्द्रित पत्रिकाओं के अंक थे. हालेंड के विश्व धर्म सम्मेलन में उनका पढ़ा गया एक लेख ' हिन्दुस्तानातिल उदार धर्म' काफी प्रसिध्द हुआ था. 'आठवणी आणि अनुभव ' नामक शिंदे ने अपनी आत्मकथा  लिखी थी.
       सती प्रथा के निर्मूलन के लिए विट्ठल रामजी शिंदे ने जबरदस्त काम किया था. इसके विरुध्द जनचेतना जाग्रत करने महाराष्ट्र में एक सर्व धर्मी संस्था बनायीं गयी थी जिसके शिंदे सेक्रेटरी थे.
      सन 1924  के दौर में शिंदे ने केरल के वैकम मन्दिर प्रवेश आन्दोलन में  भाग लिया था. परन्तु उनका यह कार्य उनके 'ब्रहमो समाज' के लोगों को पसंद नहीं आया. निराश हो कर शिंदे पूना लौट आये. शिंदे का ध्यान अब बौध्द धर्म तरफ गया. उन्होंने 'धम्मपद' आदि ग्रंथों का गहन अध्ययन किया. इसी अध्ययन के सिलसिले में सन 1927 में उन्होंने बर्मा की यात्रा की थी.
           शिंदे के अन्तिम समय निराशजनक था.समाज सुधार के प्रति उनके मन में जो पीड़ा थी और जिसके लिए वे ता-उम्र अपने लोगों से संघर्ष करते रहे थे, को न तो दलित जातियों का समर्थन मिला और न ही उनके अपने लोगों का.  इसी संत्रास में यह  महापुरुष २ जन. 1944  को दुनिया से अलविदा हो गया.

Thursday, March 15, 2012

नो कमेंट्स.

15 .03  12 
"सीनियर सिटिजन किसे कहा जाता है ? "
"जो 60  वर्ष की उम्र प्राप्त कर चूका हो."
"आखिर, 60  वर्ष की उम्र का आधार क्या है ?"
"एज आफ सुपर्नेशन अर्थात रिटायर्मेंट की एज."
"आजकल, सरकार के कई विभागों में एज आफ सुपर्नेशन 58  साल है. तो क्या वे 'सीनियर सिटिजन' हैं ?"
"नो कमेंट्स." 

" हम 1  रुपया भेजते हैं. मगर, 15  पैसे भी उस गरीब तक नहीं पहुँच पाते !"
"आप उस के एकाउंट में सीधे ट्रांसफर क्यों नहीं करते ?"
"नो कमेंट्स."

"आपने डी.पी.यादव को क्यों नहीं लिया ?"
" जी, हम एक मेसेज देना चाहते हैं ."
"तो फिर, राजा भैया ?"
"जी, उनके विरुध्द सारे आरोप राजनैतिक षड़यंत्र हैं."

"आपने कहा था, गुंडई बर्दाश्त नहीं होगी."
"जी, आप देखिएगा, ऐसे ही होगा."
"मगर,चुनाव के नतीजे घोषित होते से ही फिर, वही सब हो रहा है ?"
"ये विरोधियों की साजिश है."

"आखिर, आप ममता को क्यों झेल रहे हैं ?"
"जी, गठबंधन की सरकारों में सहनशील होना पड़ता हैं."
"मगर, जनता के विश्वास की कीमत पर ?"
"जी, सरकार होगी तभी तो जनता का विश्वास होगा."

Wednesday, March 14, 2012

बहुजन समाज पार्टी के स्थानीय निकाय चुनाव न लड़ने की घोषणा

बहुजन समाज पार्टी के स्थानीय निकाय चुनाव न लड़ने की घोषणा
       उ.प्र. के विधान सभा चुनाव में बसपा को करारी हार का सामना करना पड़ा. चुनाव के नतीजों की घोषणा के तुरंत बाद से ही प्रदेश में बसपा के लोगों पर बड़े पैमाने पर हमले किये जाने की खबरे मिडिया में आने लगी. सपा जो 'गुंडा राज' के लिए जानी जाती है, के द्वारा बसपा के वोटरों और कार्य-कर्ताओं पर अत्याचार किये जाने की कई घटनाएँ सामने आयी.
      उक्त स्थिति के मद्दे-नजर पूर्व मुख्य मंत्री मायावती ने बसपा के अखिल भारतीय कार्य-कर्ता सम्मेलन में घोषणा की कि पार्टी आगामी स्थानीय निकायों के चुनाव नहीं लड़ेगी. अपनी बात को स्पष्ट करते हुए मायावती ने बतलाया कि इन चुनावों में भारी हिंसा की आशंका को देखते हुए उन्होंने यह फैसला लिया है. चूँकि, स्थानीय चुनावों में केन्द्रीय सुरक्षा बल नहीं होते, इसलिए उन्हें यह फैसला लेना पड़ा.
     बसपा सुप्रीमो मायावती के बयान को हल्के से नहीं लिया जाना चाहिये. बसपा और सपा के बीच के  राजनैतिक-संघर्ष को सिर्फ राजनैतिक कहना गलत होगा, जैसे की अन्य पार्टियों में होता है. सामाजिक धरातल पर भी यह उतना ही कडुवाहट भरा है. देखे, चुनाव आयोग मायावती के डर को कितनी संजीदगी से लेता है.

Monday, March 12, 2012

छत्रपति शिवाजी महाराज(Shivaji Maharaj:1630-1680)

छत्रपति शिवाजी प्रथम  ( 1630 -1680 )

     कट्टर हिंदुत्व की मानसिकता के लोग  छत्रपति शिवाजी महाराज को  'हिन्दू राष्ट्र' के स्वप्न-दृष्टा के रूप में देखते हैं. वे उन्हें 'गौ-रक्षक' के रूप में पेश करते हैं. पाठ्य-पुस्तकों में उन्हें क्षत्रिय वंश का बतलाया जाता है.
     देश के राजे-महाराजों के इतिहास से छत्रपति शिवाजी महाराज को इस तरह पेश करने वाले लोक मान्य बाल गंगाधर तिलक थे.स्मरण हो कि बाल गंगाधर तिलक ने सती-प्रथा का समर्थन किया था.ये वही बाल गंगाधर तिलक थे जिन्होंने कहा था कि पिछड़ी जातियों को राजनीति में जाने की बात की जाती है तो संसद और विधान सभाओं में जा कर क्या उन्हें हल चलाना है ?
           ब्रिटिश भारत के आजाद होने का जब वक्त आया तब सत्ता के दावेदारी में मुस्लिमों के आलावा दलित-पिछड़ी जातियां लाम बंद हो रही थी. क्योंकि, पूर्व के हिन्दू राजा महाराजों के शासन काल में इन जातियों पर अकल्पनीय अत्याचार हुए थे. ब्रिटिश राज्य के समाप्ति पर सत्ता उन्हीं के हाथों में जानी थी. इन जातियों को डर था की अंग्रेजों के जाने के बाद फिर कहीं उनकी वही दुर्गति न हो और इसलिए सत्ता-हस्तांतरण के दौरान आने वाले आजाद भारत की राजनीति में ये जातियां अपने अधिकारों को सुरक्षित करना चाहती थी.
     दूसरी ओर, हिन्दू ,हाथ में आने वाली सत्ता पर अपना एकाधिकार कायम रखना चाहते थे. दलित-पिछड़ी जातियों का हिन्दुओं से राजनैतिक रूप से छिटकना उनके सामाजिक-धार्मिक एकाधिकार को कम करना था. नि;संदेह इन परस्थितियों में इन जातियों को संगठित रखना हिन्दुओं के लिए चुनौति भरा कार्य था. हिन्दू कट्टर पंथी बालगंगा धर तिलक द्वारा छत्रपति शिवाजी महाराज को हिन्दू आईकन के रूप में उतारना उसी चुनौति का जवाब था.
        शिवाजी के दादा मालोजी भोसले (1552-1606) बीजापुर के मुग़ल बादशाह निजाम शाह के दरबार में मनसबदार थे. मालोजी भोसले के पुत्र शाहजी (1599 -1664 ) निजामशाह और आदिलशाह के फ़ौज में जनरल थे. शाहजी का ब्याह बीजापुर के एक सामंत यादवराव की बेटी जीजाबाई से हुआ था.
     शिवाजी का जन्म शाहजी की प्रथम पत्नी जीजा बाई से सन 1630  को पूना के पास शिवनेर दुर्ग में हुआ था. जीजाबाई के दो पुत्र थे- सम्भाजी और शिवाजी जिस में सम्भाजी बड़े थे. जीजाबाई एक धर्म-परायण हिन्दू महिला थी. परिवार के कुल देवता  'शिकारा शिन्गना पूरा शंभू महादेव'  थे. शाहजी के पास पूना की जागीरदारी भी थी, जिसकी देख-रेख उनके विश्वास-पात्र एक ब्राह्मण दादोजी कोंडदेव करते थे. शिवाजी का बचपन अपनी माँ जीजाबाई के साथ यही बिता था. जिजाबाई को शाहजी ने काफी पहले त्याग दिया था.
     सन 1636  में निजाम शाही के विलय के बाद शाहजी को मुग़ल बादशाह आदिल शाह बैंगलोर लाये थे.यहाँ पर शाहजी ने तुकाबाई मोहित से दूसरा ब्याह कर लिया था जिससे व्यन्कोजी पैदा हुए थे. व्यन्कोजी ने थंजोर राज्य की स्थापना की थी. शाहजी के एक और दासी पुत्र शांताजी का उल्लेख मिलता है जिसे शिवाजी ने कर्नाटक का सूबेदार नियुक्त किया था.
      जीजाबाई ने शिवाजी की परवरिश एक बहादुर लड़का के रूप में की थी. उसे बचपन से ही युध्द-कौशल में पारंगत किया था. बड़े हो कर शिवाजी ने सचमुच अपनी माँ के सपने को साकार किया था. शिवाजी का ब्याह साईंबाई निम्बालकर से 14  मई 1640  में हुआ था.
     शिवाजी ने विश्वस्त मराठा युवाओं की एक लडाका टुकड़ी तैयार की थी. उसने बचपन से ही डाका डालना और लूटपाट के कार्यों में दक्षता हाशिल कर ली थी. शिवाजी की सेना मराठे और कुनबी अधिक थे. वैसे तो मराठे खेतिहर किसान थे. मगर, युध्द कौशल में वे उतने ही पुर्तीले थे. उनकी सेना में कोली,संघर ,बघेर आदि जातियों के भी काफी सैनिक थे. शिवाजी को जिनसे भिड़ना था, उन मुग़ल बादशाहों की विशाल फ़ौज के बनिस्पत उनके पास छोटी-सी सैन्य टुकड़ी थी. शायद, इसी कारण शिवाजी ने छापामार युध्द शैली का विकास किया था.
      शिवाजी ने बीस वर्ष की युवावस्था में ही बीजापुर के तोरण किले को लूट लिया था. मुग़ल बादशाह आदिल शाह के ख़राब स्वाथ्य के चलते उसने राजगढ़, सिंहगढ़, पश्चिम घाट और कोक्कन क्षेत्र के दुर्गों पर भी अधिकार कर लिया था. सन 1647  तक  उसने अन्य आस-पड़ोस के शासकों की आपसी रंजिश का फायदा उठा कर पुरन्दर का किला सहित कई दुर्गों को अपने कब्जे में ले लिया था.
     शिवाजी की हरकतों से आदिल शाह बेखबर नहीं थे. बादशाह ने गुस्से में उनके पिता को कैद कर लिया तथा शिवाजी को सबक सिखाने फ़ौज भी भेज दिया था. पिता की कैद से दुखी हो कर  शिवाजी ने अगले 4 -5  वर्षों तक कोई लूटपाट नहीं की. इस दौरान वे अपनी सेना को मजबूत करने में लगे रहे. अच्छा मौका जान कर  शिवाजी ने पुन: चन्द्र राव मोरे के किले पर आक्रमण कर उसे अपने कब्जे में कर  लिया.
       इसी बीच सन 1656  में बादशाह आदिलशाह की मृत्यु हो गयी. औरंगजेब ने इसका फायदा उठा कर बीजापुर पर आक्रमण कर दिया. मगर, यहाँ औरंगजेब को शिवाजी से भी निपटना पड़ा . इस मुठभेड़ में शिवाजी को काफी बड़ी रसद हाथ लगी थी. अब तक शिवाजी करीब 40  दुर्गों के मालिक बन चुके थे.
      सन  1659  में शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अफजल खां को प्रतापगढ़ भेजा था. अफजल खां ने शिवाजी को संदेश भिजवाया कि अगर वे बीजापुर की अधीनता स्वीकार करते हैं तो सुल्तान उन्हें उन सब क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जिन पर उन्होंने कब्जा कर रखा है. इस पर शिवाजी ने कहा कि संधि- प्रस्ताव के सिलसिले में उनसे अकेले में मिलना चाहते हैं.जब अफजल खां इसके लिए तैयार हो गया तो शिवाजी ने कहा कि वह उससे गले मिल कर बधाई देना चाहते हैं. कहा जाता है कि शिवाजी ने बड़ी चालाकी से अपनी लम्बी दाढ़ी के पीछे खंजर छुपा रखा था. बस क्या था, गले मिलने के दौरान शिवाजी ने खंजर अफजल खां के सीने में उतार दिया.
      अफजल खां की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला, पवनगढ़, वसंतगढ़, राजापुर और दावुल के किलों पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया. यद्यपि, बाद के दिनों में बीजापुर के सुल्तान ने पुन: इन दुर्गों को अपने अधिकार में ले लिया था तथापि उसे शिवाजी से संधि करनी पड़ी. सन 1962 की इस संधि के अनुसार, बीजापुर के सुल्तान को इन्द्रापुर से दावुर और कल्याण से पोंडा तक के क्षेत्र पर शिवाजी का आधिपत्य  मानना पड़ा और एक स्वतन्त्र राज्य के रूप में मान्यता देनी पड़ी.
          उधर, आगरे का मुग़ल बादशाह औरंगजेब, शिवाजी की बढती ताकत से परिचित था. उसने अपने सूबेदार शास्ता खां को शिवाजी की ओर रवाना किया. मगर, शास्ता खां को मुहं की खानी पड़ी. इस विजय से  उत्साहित हो कर  शिवाजी ने सूरत पर हमला किया. तब, सूरत डचों का व्यापार केंद्र था. सूरत की लूट से खिन्न हो कर औरंगजेब ने राजा जयसिंह को भेजा. राजा जयसिहं से शिवाजी को भारी हार का सामना करना पड़ा. शिवाजी ने राजा जयसिंह को संधि का प्रताव भेजा. जून 1665  की इस संधि के अनुसार शिवाजी को जीते हुए करीब  25  दुर्ग मुग़ल बादशाह को लौटाने पड़े थे.यही नहीं, संधि के मुताबिक शिवाजी और उनके बड़े भाई सम्भाजी को मुग़ल बादशाह के दरबार में खिदमत के लिए राजी होना पड़ा था.
      मगर, औरंगजेब के दरबार में शिवाजी का रवैया ठीक नहीं था. उसकी ढीठता देख कर बादशाह ने उन्हें नजरबन्द कर लिया था. मगर, थोड़े समय ही बाद औरंगजेब के सिपहसालारों को गच्चा दे कर शिवाजी अपने भाई संभाजी से साथ वहां से भागने में कामयाब रहे. बादशाह को शक था कि इसमें राजा जयसिहं का हाथ है. अत: औरंगजेब ने राजा जयसिहं को मरवा डाला था.
        औरंगजेब की कैद से भाग कर शिवाजी छिपते-छिपते राजगढ़ पहुंचे थे. राजगढ़ में मराठों के साथ शिवाजी ने पुन: अपने को सशक्त किया. सन 1668  में जसवंतसिहं की मध्यस्थता में शिवाजी ने फिर से  औरंगजेब को संधि का प्रस्ताव भेजा.इस बार मुग़ल बादशाह औरंगजेब को भी यह संधि स्वीकार करनी पड़ी. संधि के तहत औरंगजेब ने शिवाजी को एक स्वतन्त्र राज्य के रूप में मान्यता देकर पूना, चाकन और सुपा के किले लौटा दिए.
       सन 1670  में शिवाजी के द्वारा सूरत को फिर से लूटने का उल्लेख आता है. सन 1674  आते-आते  शिवाजी का उन सब दुर्गों पर अधिकार हो गया था जो पुरन्दर की संधि के तहत उन्होंने मुगलों को लौटाए थे.
       6  जून सन 1674  को शिवाजी का राज्यभिषेक हुआ था. इस राज्यभिषेक में शिवाजी को 'छत्रपति' की उपाधि से नवाजा गया था. शिवाजी के राज्यभिषेक के समय ब्राह्मणों ने भारी विरोध किया था. ब्राह्मणों का कहना था की चूँकि, शिवाजी शुद्र है इसलिए उनका राज्यभिषेक नहीं हो सकता. शिवाजी के राज्यभिषेक का सबसे ज्यादा विरोध उनके गुरु रामदास तथा प्रधान मंत्री मोरोपंत पिंगले से हुआ था. ये दोनों ब्राह्मण थे.

     शिवाजी कुनबी समाज के थे. कुनबी समाज की गिनती ब्राह्मण, शूद्रों में करते थे. ब्राह्मणों के रुख को देख कर शिवाजी ने बालाजी आवाजी को अपना निजी सचिव बनाया था जो गैर ब्राह्मण कायस्थ थे. ब्राह्मण, कायस्थ समाज को भी शुद्र में ही गिनते थे. बालाजी आवाजी कई मन सोना और चांदी के गहने दे कर बनारस के गोगा भट्ट नामक ब्राह्मण पंडित को ले आये थे और उसके द्वारा शिवाजी का राज्यभिषेक सम्पन्न कराया था. गोगा भट्ट का पैतृक स्थान नांदेड़ था।  राज्यभिषेक के दौरान गोगा भट्ट ने ब्राह्मणों के डर से वैदिक मंत्रोच्चार नहीं किया था।  ब्राह्मण डर से भयाक्रांत हो कर गोगा भट्ट ने अपने पैर के अंगूठे से शिवाजी के माथे पर तिलक लगा कर राजतिलक की रस्म की थी. उसने तिकडम भिड़ा कर शिवाजी को उदयपुर ( राजस्थान) के सिसोदिया (राजपूत) वंश का घोषित किया था.
      राज्यभिषेक से दौरान ब्राह्मणों को इतना धन दिया गया था कि राज्य का राजकोष खाली हो गया था. खाली राजकोष भरने के लिए शिवाजी ने पडोसी राज्यों पर कई बार आक्रमण, लूटपाट और डाके डाले थे.
     शिवाजी के 'अष्टप्रधान' मंत्री परिषद् में आठ प्रधानों में से एक सेनापति को छोड़ कर शेष ब्राह्मण ही थे.  शासन-प्रशासन ब्राह्मणों के हाथ में था. ब्राह्मणों की शासन पध्दति और सामाजिक-व्यवस्था की परिणति आगे चल कर पेशवाओं का शासन स्थापित करने में हुई थी. शिवाजी पर एक ब्राह्मण कृष्णराव कुलकर्णी ने प्राण-घातक हमला किया था जिसे उनके अंगरक्षक जीवा ने निष्फल कर दिया था. मगर, इस हमले में जीवा मारा गया था। कोंडीवली का निवासी जीवा नाई का था।  
       सन 1677  तक शिवाजी ने राज्य का विस्तार करते हुए कोकण, बेलगावं, धारवाड़, मैसूर, त्रिचूर, तथा जिंजी पर अपना अधिकार कर लिया था. 
    शिवाजी के दो पुत्र थे, शम्भू या संभाजी और राजाराम।  ज्येष्ठ पुत्र सम्भाजी पत्नी सायबाई की संतान थे. 9  वर्ष उम्र से ही संभाजी मुग़ल सरदार राजा जयसिंह की कैद में थे. शिवाजी पर नकेल कसने के लिए राजा जयसिंह ने उसे कैद कर रखा था. राजा जयसिंह की कैद में रह कर शम्भू बिगडैल और एय्यास बन गया था. अपनी मृत्यु के समय शिवाजी ने उसे पन्हाला दुर्ग में कैद कर रखा था.
      शिवाजी का देहांत सन 1680  में उनके राजगढ़ किले में लम्बी बीमारी के बाद हुआ था। शिवाजी की मृत्यु के उपरांत उनकी पत्नी सोयरा बाई ने अपने 10  वर्षीय पुत्र राजाराम को  राज्यभिषेक करवा दिया था।  किन्तु, संभाजी ने सेना को भरोसे में लेकर अपनी सौतेली माँ और भाई को जेल में डाल दिया। संभाजी सन 1689  में कनकगिरी के युध्द में मुग़ल सेना द्वारा धोके से घेर कर  मारे गए थे। संभाजी के मारे जाने के बाद राजाराम ने गद्दी संभाली। वह आजीवन मुग़ल सेना से लड़ते रहा । उसकी मृत्यु सन 1700 में पुणे के पास सिंगबाद में फेफड़े की बीमारी से हुई थी.
      नि;संदेह, शिवाजी बड़े पराक्रमी शासक हुए थे. राजपूताने के सिसौदिया, बुन्देलखंड के बुन्देल और बघेल, ग्वालियर के कुशवाह और राजपूतों से वे चौथ ( कर ) वसूला करते थे. उन्होंने दक्षिण के मुस्लिम शासकों को कुचल कर रख दिया था और तो और शिवाजी ने दिल्ली के मुस्लिम बादशाह औरंगजेब की नाक में भी दम कर रखा था.
      हिन्दू फंडामेंटेलिस्ट, शिवाजी को हिन्दू आईकन के रूप में पेश करते हैं. वे शिवाजी को मुग़ल साम्राज्य और इस्लाम के विरुध्द हिन्दू-घृणा के रूप में चित्रित करते हैं. इसमें कोई शक नहीं की छत्रपति शिवाजी महाराज ने मुस्लिम साम्राज्य के विरुध्द लम्बा संघर्ष किया था. किन्तु यह भी सच है की शिवाजी के राज्य की सेना में न सिर्फ मुसलमानों की संख्या अधिक थी वरन सेना में उनके विश्वस्त मुस्लिम अफसरों के होने का भी उल्लेख मिलता है।  उनका सेना प्रमुख इब्राहिम  मुसलमान था। शिवाजी ने अस्पृश्यों और महारों को किलेदार बनाया था।
 जिस शिवाजी ने गाय, प्रजा और स्त्रियों को न लूटने  की अपने सिपाहियों को दी थी, धूर्तता  की हद देखिए  कि उन्हें  'गो -ब्राह्मण प्रतिपालक' कह कर प्रचारित किया गया । निस्संदेह उनके राज्य में ब्राह्मणों को विशेष सुविधाएं  थी, किन्तु प्रजा और स्त्रियों के स्थान पर ब्राह्मण किसने हुए कब घुसेड़ दिया, इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं है।
शिवाजी हिन्दू थे, हिन्दू धर्म में उनकी आस्था थी और आचरण भी उनका वैसा था, किन्तु वे मस्जिद और कुरआन की भी इज्जत करते थे. तत्संबंधित आदेश उन्होंने सैनिकों को दे रखा था. वे मंदिरों के साथ साथ मस्जिदों को भी दान देते थे. सूरत के जुन्नर व अन्य बाजार लुटे जाने का उल्लेख है, किन्तु किसी मस्जिद को तोड़ने का कोई उल्लेख नहीं मिलता।
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शायद, शिवाजी के भाई और पुत्र का नाम एक ही होने से कुछ गलती हुई है । बहरहाल, गलती को दुरुस्त कर दिया गया है। हमें इस गैर-जिम्मेदारी का भारी अफ़सोस है।  

Sunday, March 11, 2012

फैसले की परिपक्वता

         प्रसंग शादी का है. वधु की उम्र 29 और वर की  29  वर्ष 8  माह है .लडके के परिवार में डिस्कशन इसी बात पर हो रहा है-
"मेरे ख्याल से उम्र ठीक है." - वर की माँ ने हामी भरी.
 "वर-वधु में  4 -5  साल का अंतर होना चाहिए." - पिता ने कहा.
" हां, डेडी की बात सही है. वर-वधु में 3 -4  साल का अंतर होना चाहिए. क्योंकि, एक ही ऐज-ग्रुप की लडकी बाय नेचर लडके से ज्यादा मेच्योर होती है. दूसरे, 30 -31  वर्ष की उम्र के बाद लडकियों में फर्टिलिटी रेट धीमी पड़ जाती है. इसलिए, च्वाईश अगर आपके पास हो तो शादी के लिए लडकी की उम्र 27 -28  वर्ष रखा जाना चाहिए. ताकि आफ्टर मेरिज वे 1 -2  वर्ष का गेप मेंटेन कर सके "- बड़े भाई ने अपनी बात रखी.
"हां, यह एक अलग टेक्नीकल पाईंट है. मगर, अगर हम यहाँ सिर्फ उम्र की ही बात करे तो क्या दोनों की उम्र में 4 -5  वर्ष का अंतर नहीं होना चाहिए ?  - लडके के पिता ने फिर अपनी बात दोहरायी.
" अंकल, मेरे ख्याल से लड़का और लडकी की उम्र बराबर है तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता."  - पास खड़े भतीजे ने डिस्कशन में खुद को जोड़ते हुए कहा .
"अरे भाई, अभी हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है.घर के फैसलों के लिए पुरुष से अपेक्षा की जाती है.पत्नी की उम्र अगर बराबर है तो जाहिर है, फैसला लेते वक्त उसकी सलाह दरकिनार नहीं की जा सकती और ऐसे में कई बार विवाद की स्थिति आ सकती है."  - लडके के पिता ने अपना अनुभव बतलाया.
"अंकल, विवाद की स्थिति आ सकती है. मगर, यह तय है कि विवाद के बाद जिस फैसले पर पहुंचा जायेगा ,वह अधिक परिपक्व होगा. मेरे विचार में, फैसले की परिपक्वता की तुलना विवाद या इसमें हुई देरी से नहीं की जा सकती."

Thursday, March 8, 2012

बी एस पी. की मुस्लिम सोशल इंजीनियरिंग फेल क्यों ?

बी. एस. पी. की सोशल इंजीनियरिंग कहती है, जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।
पार्टी की हार का कारण बहन मायावती उ. प्र. के 70 % मुसलमानों का एस. पी को वोट देना, बतलाती है।  मतलब साफ है,  मुसलमानों का बी. एस. पी. से मोह-भंग हो गया।  सवाल है कि मुसलमानों का मोह-भंग क्यों हुआ ?  उनका वाजिब हक उन्हें क्यों नहीं दिया जा  सका ? यह कहना सतही होगा की हरेक को संतुष्ट नहीं किया जा सकता।  केंद्र की अटल बाजपेयी सरकार और आज की यू. पी. ए- 2   से समय रहते सबक क्यों नहीं लिया गया  ? और अगर आप सचेत थे, तब यह कहना पड़ेगा कि बी. एस. पी. के इस सोशल इंजीनियरिंग की काट ढूंढ़ ली गयी है.

Wednesday, March 7, 2012

बी.एस.पी.की हार और उसके कन्स्ट्रैन्ट

     जैसे की आशंका  व्यक्त की जा रही थी, वही हुआ. बी एस पी के खाते में मात्र 80 सीटें आयी.खैर,यह हताशा का विषय नहीं है.आप राजनीति में है, तो यह स्वाभाविक है. उतार चढाव आते रहते हैं. आप इन सब से सीखते हैं. बी एस पी ही क्यों, बड़ी-बड़ी पार्टियों की दुर्गति हुई  है.
    जब लोगों की अपेक्षाए बढती है और आप अपने कन्स्ट्रैन्ट( constraints) की वजह से उन पर खरे नहीं उतरते, तब ऐसी परिणति पर पहुँचाना अवश्य-सम्भाव्य होता है.बेशक, कन्स्ट्रैन्ट थे और उनका विश्लेषण किया जाना चाहिए.बहन मायावती भी करेगी. निश्चित रूप से इस पर समग्र रूप से विचार होगा.मगर, यह कहना गलत होगा की बी एस पी के अपने कन्स्ट्रैन्ट की वजह से ही हार हुई है.बल्कि, सच तो यह है कि बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो बहन मायावती सवर्ण हिन्दुओं को, खास कर मिडिया को चुभ रही थी. वे जैसे तैसे बर्दाश्त कर रहे थे.
       काम करने के अपने-अपने ढंग होते हैं.जो हट कर काम करते हैं, वह लोगों की नज़रों में किरकिरी तो बनते हैं.मगर, सिर्फ इसी वजह से उसके काम करने के ढंग को नकारा नहीं जा सकता. हाँ, अगर उस ढंग विशेष के कारण दूसरे लोग प्रभावित होते हैं, जन-सामान्य प्रभावित होता है, तब बेशक, वह लताड़े जाने का हकदार बनता है.नि;संदेह, मिडिया से दूरी बनाये रखना, बहन मायावती के लिए बतौर  सी एम् और एक रूलिंग पार्टी के हेड के रूप में, सही नहीं कहा जा सकता. चाहे इस 'दूरी' के लिए के मिडिया खुद ही जिम्मेदार क्यों न हो. मिडिया से सम्बन्ध बनाये जा रखे सकते थे.
       जन-आलोचना का एक दूसरा बड़ा मुद्दा पार्कों में खुद की मूर्ति लगाने के आरोप का है. दलित महापुरुषों की मूर्ति लगाने की शायद ही आलोचना हुई हो. मगर, मान्यवर कांशीराम साहब के साथ बहन मायावती जी के खुद की मूर्ति लगाने की जम कर आलोचना हुई. मुझे लगता है, इस तरह के जो प्रस्ताव उनके सामने आये थे, बहन मायावती जी को नजर-अंदाज कर देना चाहिए था.आखिर, इस तरह के प्रस्ताव पर मौन रह कर जो स्वीकृति दी गयी, उसके पीछे क्या धारणा थी, समझ के परे है ?
      महापुरुष इतिहास गढ़ते हैं. उन्हें लिखने का काम आने वाली पीढ़ी करती है. बहन मायावती को चाहिए था की वह उस तरह का प्रस्ताव लाने वालों से कहती कि उनके स्वत: की  मूर्ति स्थापित करना उनका काम नहीं वरन आने वाले दिनों में उनके अनुयायियों का है. जहाँ तक हाथी और पार्कों का सवाल हैं, ये दलितों के प्रेरणा स्थल है. ये सब ऐतिहासिक धरोहर हैं.दलित समाज को इस पर नाज है.
         बहन मायावती को लोग एरोगेंट (arrogant ) कहते हैं. यह रिमार्क गैर दलितों से तो ठीक है, कई दलित चिन्तक और बहुजन समाज पार्टी के शुभ चिंतकों से कहते पाया गया है.  एरोगेंसी, जन-सामान्य को आपसे सहज रूप से जोड़ने को रोकती है.उसे खुल कर अपनी बात कहने से रोकती  है. जबकि जमीनी कार्य-कर्ता से फीड-बैक लेना उतना ही जरुरी है जितना कि आपके द्वारा स्थापित सूचना-तंत्र से.क्योकि, सूचना-तंत्र आगे जा कर जी-हजूर तंत्र के रूप में विकसित हो जाता है.
      कभी समय था की 'इंदिरा इज इण्डिया और इन्डिया इज  इंदिरा' लोग कहते थे.मगर, अब समय बदल गया है. केंद्रीकृत सत्ता का विकेंद्रीकरण हो चूका है.राज परिवार सडकों पर आ गए हैं. लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का इतना सरलीकरण हो गया है कि वह लोगों के घर में घुस गयी है. नि;संदेह, आज आप केन्द्रीभूत सत्ता के बारे में सोच नहीं सकते. और अगर आपने खुद को बदलती हवा के अनुकूल नहीं किया तो या तो आप खुद उखड़ जायेंगे या हवा आपको बहा ले जाएगी.
     उदाहरण के लिए मध्य-प्रदेश को ले. कुछ वर्ष पहले वहां के प्रदेश अध्यक्ष फूलचंद बरैया हुआ करते थे. नि;संदेह, बरैया काबिल आदमी थे. म.प्र. जहाँ बी. एस. पी. ने अच्छी पकड़ बनायीं थी, की बागडोर सही आदमी के हाथ  थी. ऐसे उर्वर जमीन पर उसने भी काफी मेहनत की थी. मगर, एकाएक पता नहीं क्या हुआ ? सारी मेहनत धरी रह गयी. वह इतना हताश हुआ कि बी.एस.पी. छोड़कर बी.जे.पी. में चला गया. विचारों में टकराहट अवश्य-सम्भाव्य है.आपके पास निपटने के लिए बरैया जैसे दसों व्यक्ति हो सकते हैं. मगर, उसे कन्विंस (convince)  करने का ढंग एक मात्र वही बचा था, नहीं कहा जा सकता. आज, बहुजन समाज पार्टी की मध्य-प्रदेश में  हालत यह है कि लोग नाम लेते से ही इरिटेट ( irritate ) होने लगते हैं.

Monday, March 5, 2012

जीरो मूड लेवल

      मेरी बेटी आजकल दिल्ली में है. उसे वहां ज्वाब लगी  है.उसने बी.ई.( CS ) के बाद DAVV  इंदौर के IMS  संस्थान से  HR में  MBA किया  है. कल उसका फोन आया था. वह बतला रही थी कि अपने एक फ्रेंड के साथ दिल्ली के बंगला साहिब गुरुद्वारा गयी थी. बातें दिलचस्प  थी. आईये मैं वह डिस्कशन आपसे शेयर करूँ कि बंगला साहिब गुरुद्वारा में बेटी क्या देखती है और मैं क्या सोचता हूँ -
"डेडी, आज मैं बंगला साहिब गुरुद्वारा  गयी थी."
"गुरुद्वारा ?"
"हाँ, मैं गुरुद्वारा गयी थी. कल मेरे कुछ फ्रेंड्स इंदौर IMS  से आये थे.राजीव चौक मैं उन लोगों से मिलने गयी थी. लास्ट में मैंने एक फ्रेंड से कहा, यहाँ पास में ही बंगला साहिब गुरुद्वारा  है. चलो वहां चलते हैं. हम दोनों वहां गए. डेडी बड़ा सकुन वहां मिल रहा था.जीरो मूड लेवल का एहसास हो रहा था. गजब की शांति और गंभीरता का एहसास हो रहा था...."
"तुम वहां पहली बार गयी थी. एकदम डिफरेंट क्लायमेंट में तुम गयी थी. तुम्हें जो एहसास हो रहा था, नेचुरल था. स्वाभाविक था." -मैंने उसके भावों को पकड़ने की कोशिश की.
"डेडी, मैंने वहां देखा, बड़े-बड़े लोग, इस बात की परवाह न करते हुए कि वे किसी फेक्ट्री के मालिक हैं या किसी उंच पद पर; जन-सेवा के कार्य बड़ी शांति और धैर्य से कर रहे थे. कोई झाड़ू लगा रहा था, कोई आगंतुकों के जूते-चप्पल साफ कर रहा था.कहीं कोई इरीटेशन नहीं, माथे पर शिकन नहीं. मुझे यह सब देख बड़ा अच्छा लग रहा था.मुझे लग रहा था कि मैं इस सब का पार्ट हूँ, हिस्सा  हूँ."
"स्वाभविक है और बिलकुल स्वाभाविक था कि तुम्हे वैसा लगे." - मैंने कहा.
"डेडी, मगर जब हम अपने बुध्दिस्ट टेम्पल में जाते हैं. तो वहां इस तरह का एहसास नहीं होता ?  मैंने कभी वहां ऐसा महसूस नहीं किया ?"
"तुम किस बुध्दिस्ट टेम्पल में गयी हो ?"
"अरे, हम लोग जब सीतापुर गए थे तब, 'मेनपाट' भी गए थे. आपको याद है, हम वहां तिब्बतियों के बुध्दिस्ट टेम्पल में गए थे ?"
"अच्छा,अच्छा." - मैंने याद करते हुए कहा.
 "मगर, तुम जब दिल्ली में थी, हम लोग अभी पिछले महीने ही नागपुर गए थे .यू नो, आप जब नागपुर जाते हैं, रास्ते में कई बुध्दिस्ट टेम्पल पड़ते हैं. नागपुर सिटी के जस्ट बाहर कामठी रोड पर 'नागलोक बुध्दिस्ट टेम्पल' है. सिटी के अन्दर भी इन्दोरा का फेमस बुध्दिस्ट टेम्पल है. तुमने कामठी के  'ड्रेगन पेलेस' का नाम तो सुना ही होगा.हम लोग वहां भी गए थे. तुम्हारी मम्मी साथ में थी. यकीन करो, हम लोगों को वहां,वही एहसास हुआ जिसे तुम 'जीरो मूड लेवल' कहती हो. हमे जरा भी वहां से उठने का मन नहीं कर रहा था.लग रहा था , बैठे रहे और बस बैठे रहे."- मैंने अपनी फिलिंग शेयर की.
"डेडी, हम बुध्दिस्ट है. हम बुध्दिस्ट बाय हार्ट है. दिल-दिमाग से है.बुध्दिस्ट टेम्पल से उठने का मन नहीं करता, ये स्वाभाविक है. पर मैं जीरो मूड की बात रही हूँ. विचारों के शून्यता के लेवेल की बात कर रही हूँ."
"हाँ भई, मैं भी उसी की बात कर रहा हूँ. तुम्हे बुद्धिस्ट टेम्पल में गए काफी दिन हो गए हैं. ऐसा करो, दिल्ली में ही कई बुध्दिस्ट टेम्पल  हैं. तुम अब हो ही आओ वहां एक बार.हम तब, इस पाईंट पर चर्चा करेंगे.
      " रहा सवाल  सिख गुरुद्वारों में जन-सेवा भाव का, तो नि;संदेह वह अन्यथा नहीं दीखता. गुरु नानक सहित सिखों की तमाम गुरु-शिष्य परम्परा बेशक, इसके लिए सेल्यूट की पात्र है.इस परम्परा को जो उन्होंने सम्भाल कर रखा हैं, अनुकरणीय है...
        दरअसल, सिख  धर्म  में आगंतुकों के जूते-चप्पल साफ करने की बात हो या फिर, बिना छोटे-बड़े और उंच-नीच का भेद किये लंगर में खाना खिलाने की; तुम्हे इसे समझने के लिए इतिहास में जाना होगा. कबीर और नानक करीब करीब समकालीन थे. दोनों महापुरुषों के पैदा होने के समय सामाजिक-धार्मिक परिस्थितियां एक जैसी थी. दोनों के उपदेशों में भी ख़ास फर्क नहीं था. हाँ, उनके गुरु-शिष्य परम्परा में जरुर फर्क था. क्योंकि, कबीर जुलाहा जाति में पैसा हुए थे और दूसरे उनके माँ-बाप का पता नहीं था.यू नो, हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में इन  बातों का बड़ा महत्त्व होता है. कबीर, यद्यपि अधिक प्रखर थे, मानवीय और सामाजिक मसलों पर नानक से अधिक क्रांतिकारी थे मगर, कबीर की गुरु-शिष्य परम्परा ने, कबीर का वही हाल किया जो कभी इन प्रति-क्रांतिकारी शक्तियों ने बुध्द का किया था. बुध्द और महावीर समकालीन थे.फर्क इतना था कि बुध्द अधिक क्रांतिकारी थे.
      नि;संदेह, गुरुद्वारों में जन-सेवा दिखती है. चाहे अमीर हो या गरीब, महजबिया हो या खत्री, लोग जब गुरुद्वारों के अन्दर जाते हैं, इन लबादों को बाहर ही छोड़ देते है. मगर, गुरुद्वारे के बाहर निकलते से ही फिर वे इन लबादों को ओढ़ लेते हैं. क्योंकि,सिखों के सामाजिक जीवन में जाति-पांति के उंच-नीच की घृणा है.

Sunday, March 4, 2012

Dadasaheb Bhau Rao Gayaikad


Dadasaheb Bhaurao Gaikwad
       प्रत्येक युग परिवर्तनकारी पुरुष के पीछे उनका शिष्य होता है, जो उनके   संदेश को जन-जन तक पहुंचता है. देश के  करोड़ों दलित-शोषित जातियों की मुक्ति के लिए बाबा साहेब डा. आंबेडकर ने जो संघर्ष छेड़ा था, उसे जन-जन तक पहुँचाने का काम कर्मवीर दादा साहेब गायकवाड ने किया. दादा साहेब गायकवाड को डा. आंबेडकर का उत्तराधिकारी कहा जाता है. बात चाहे, महाद चवदार  तालाब सत्यागृह की हो या नाशिक के कालाराम मन्दिर प्रवेश के आन्दोलन की या फिर, स्वतन्त्र मजदूर संघ अथवा शेड्यूल्ड कास्ट फेडेरशन  अथवा रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के स्थापना की।  बाबा साहेब डा. आंबेडकर के द्वारा चलाये गए इन सभी आंदोलनों में उनकी अहम भूमिका थी. बिना दादा साहेब गायकवाड को विश्वास में लिए बाबा साहेब डा. आंबेडकर आगे नहीं बढ़ते थे और यही कारण है, दादा साहेब को बाबा साहेब का दाया हाथ कहा जाता था.
       दादा साहेब गायकवाड पर डा. आंबेडकर का प्रचंड विश्वास था. उनके गुरु शिष्य के संबंधों की झलक हमें  20  नव. 1937  को नाशिक के जिला युवक संघ द्वारा दादा साहेब गायकवाड की अमूल्य सेवाओं के लिए उनके अभिनन्दन  के अवसर पर बाबा साहेब डा. आंबेडकर के द्वारा प्रकट उद्गार से मिलती है. इस मौके पर विराजमान बाबा साहेब ने अपने भाषण में ने कहा था कि अगर उन्हें अपनी आत्म-कथा लिखने का अवसर आया तो उसका अधिकतम भाग भाऊराव गायकवाड का होगा.
Dadasaheb Bhaurao Gaikwad
 and other social activists
        कर्मवीर दादा साहेब गायकवाड का जन्म 15 अक्टू. 1902  नाशिक जिले (महाराष्ट्र ) की दिंडोरी तहसील के आम्बेगावं में हुआ था. उनके पिता का नाम किसन राव और माँ का नाम पवळा बाई था.बालक के बचपन का नाम भाऊराव था. भाऊराव का पालन-पोषण संयुक्त परिवार में हुआ था. उनकी चार बहने थी.
       भाऊराव का जन्म दलित समाज की उस महार जाति में हुआ था जिसे छूना उच्च जाति के हिन्दू पाप समझते थे. बालकभाऊ राव को भी जाति की वह पीड़ा झेलनी पड़ी, जिस पर उसका कोई बस नहीं था. स्कूल के रजिस्टर में उनका नाम 'भावडया किसन महार' लिखा गया था. क्लास में जहाँ बच्चों की लाइन ख़त्म होती थी, उन्हें वहां बैठना होता होता था.सब बच्चों की तरह भाऊराव को अपना सवाल दिखाने के लिए स्लेट नीचे जमीन पर रख कर गुरूजी तरफ खिसकाना होता था. गावं के स्कूल के बाद नाशिक के स्कूल में उनका  नाम 'भाऊराव कृष्णाजी गायकवाड' लिखा गया था..
with Dr Ambedkar
 during his Nasik visit
         दस वर्ष की उम्र में भाऊराव ने  4  थी कक्षा पास कर ली थी. इसके बाद भाऊ राव ने अंग्रेजी स्कूल से 8 कक्षा पास की.इसी बीच महाराष्ट्र में प्लेग की महामारी फैली. भाऊराव की पढाई रुक गयी. भाऊराव के घर में गन्ने की खेती की जाती थी. उस समय गन्ना लगाना और काटने का काम महार दलित जाति के लोग तो कर लेते थे किन्तु, गन्ने का रस निकालना, गूढ़ बनाना आदि के काम करने की अछूत महारों को मनाही थी.

   सन 1919  में भाऊराव की माताजी चल बसी. माताजी के देहांत के बाद भाऊराव नौकरी के लिए हाथ-पैर मारने लगे. इस समय तक उन्होंने मेट्रिक पास कर लिया था. शुरू में भाऊ राव को नाशिक के एक्साईज डिपार्टमेंट में नौकरी मिली. परन्तु, वह उसे रास नहीं आई. पोस्ट एंड टेलीग्राफ विभाग में भाऊराव ने कुछ समय काम किया. मगर, यहाँ भी ज्यादा दिन वे टिक नहीं सके. सन 1920 के वर्ष में राजश्री छत्रपति शाहू छात्रावास नाशिक में नया नया खुला था. भाऊ राव को वहां नौकरी मिली.छात्रावास के अधीक्षक के रूप में भाऊराव ने नौकरी ज्वाइन की.यह उसे ठीक लगी.
        छात्रावास अधीक्षक के रूप में अपना कार्य समाप्त करने के बाद भाऊराव, सीधे छात्रावास के ग्रंथालय में जाते और अपना शेष समय यही बिताया करते थे. इस ग्रंथालय में उन्होंने गांधीजी,मार्क्स, एंजिल, लेनिन आदि के बारे में  खूब पुस्तके पढ़ी. छात्रों के साथ नित बैठ कर उन्होंने अपनी अंग्रेजी भाषा को समृध्द किया.
   
With Dr Ambedkar
Babu Jagjeevanram etc
  तब, महाराष्ट्र में यहाँ वहां समाज सुधार की चर्चाएँ हो रही थी. दलित जातियों के लोगों को सार्वजानिक पनघटों/कुओं से पानी भरने दिया जाना चाहिए,उनके साथ भेदभाव खत्म होना चाहिए जैसे मुद्दों पर मुम्बई की नगरपालिका परिषद  में जोरों से बहस छिड़ी थी. दूसरी ओर, विट्ठल रामजी शिंदे,शिवराम जानबाजी कामले ,चन्द्रावरकर आदि समाज सुधारकों के द्वारा दलित जाति के बच्चों के लिए स्कूल और छात्रावास खोले जाने जैसे कार्य किये जा रहे थे.तत्सम्बन्धी ख़बरों को  भाऊराव बड़ी उत्सुकता से देख रहे थे.इसी समय 20 जुला. 1924 को मुम्बई में बाबा साहेब आंबेडकर के द्वारा बहिष्कृत हितकारिणी सभा का गठन किया गया था.
       सन 1926  में बाबा साहेब डा. आंबेडकर कोर्ट के किसी काम से नाशिक आये थे. वे राजश्री छत्रपति शाहू छात्रावास में ठहरे थे. बाबा साहेब डा. आंबेडकर से भाऊराव की पहली मुलाकात यही हुई थी. डा.आंबेडकर के बारे में भाऊराव ने पहले से काफी  सुन रखा था.वे बाबा साहेब से रुबरुं मिलकर अत्यंत प्रभावित हुए थे. भाऊराव गायकवाड  इस छात्रावास के अधीक्षक जुला. 1929  तक रहे थे.
      भाऊराव जब 9 -10  वर्ष के थे तभी उनका ब्याह रखमाजी दानी की पुत्री सीताबाई से हुआ था. काफी समय तक भाऊराव को कोई सन्तान नहीं हुई थी. थक हार कर सीताबाई  ने भाऊराव को दूसरी शादी करने के लिए राजी किया. 20 मई 1928  को सीताबाई की छोटी बहन गीताबाई से भाऊराव का दूसरा ब्याह हुआ था.
      भाऊराव ने सामाजिक आंदोलनों में अपने भागीकारिता की शुरुआत शैक्षणिक कार्यों से की.उन्होंने मनमाड में बच्चों के लिए अनेक छात्रावास खोले. उन्होंने वहां एक 'अनाथ विद्यार्थी आश्रम' की स्थापना की थी. तब, गावों के सार्वजानिक पनघटों/कुओं से पानी भरने के लिए अस्पृश्य जातियों को मनाही थी. भाऊराव ने इसके लिए 'पनघट आन्दोलन'  शुरू किया.उन्होंने  कई आन्दोलन और सत्याग्रह किये. मगर, किसी भी तरह का सत्याग्रह या आन्दोलन  शुरू करने के पहले भाऊराव आवश्यक रूप से बाबा साहेब डा. आंबेडकर से सलाह जरुर लेते थे.
   
With Dr Ambedkar
मुखेड़ में दलित महारों ने  'पांडव प्रताप' के चार माह का धर्म-परायण कार्य-क्रम रखा. प्रोग्राम के बाद धर्म-ग्रन्थ की पालकी निकाली गई. किन्तु सवर्णों ने इसे गावं में निकालने नहीं दिया.बाद में कुछ कट्टर-पंथियों ने पालकी को जला दिया. भाऊराव ने इस घटना की कड़ी निंदा की. दादा साहेब गायकवाड ने हिन्दुओं से पूछा कि उनका धर्म एक, धर्म-ग्रन्थ एक. फिर, उनके साथ ऐसा अधर्मियों जैसा व्यवहार क्यों ?
         सन 1930  के दशक के दौरान  नाशिक नगर पालिका का सदस्य रहते हुए भाऊराव ने  दलित जातियों के सामाजिक और आर्थिक विकास के निमित्त कई प्रस्ताव पारित कराने में अहम् भूमिका निभायी. सफाई का काम दलित जाति के लोग करते हैं.पीढ़ी दर पीढ़ी यह काम करने से उनकी मानसिकता भी उसी तरह की बन गयी है.दूसरी ओर, ब्राह्मण और उच्च जाति के लोग इस कार्य को हिकारत की नजर से देखते हैं. 28 मार्च 1932 को नाशिक नगरपालिका कार्यकारिणी की बैठक में भाऊराव ने मांग की कि इसमें बदलाव होना चाहिए. यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि कर्मवीर दादा साहेब गायकवाड की इस मांग को आज तक आजाद भारत में स्वीकारा नहीं गया.
With Dr Ambedkar
      महारों को गावों में सफाई के काम के बदले कोई मजदूरी नहीं दी जाती थी. इसके एवज में उन्हें गावं की पड़ती और अनुपजाऊ जमीन दी जाती थी.ये जमीन इतनी नहीं थी कि उनका परिवार पल सके .परिणाम स्वरूप महार, बड़ी लाचारी और बेगारी का जीवन जीते थे.वे मृत पशु का मांस कई-कई दिनों तक खाते थे.सवर्ण हिन्दुओं ने अपने घर/गावं से मृत पशुओं के उठाने का कार्य महारों के जिम्मे कर रखा था. इस बेढंगी और अमानवीय प्रथा से दुखी हो कर बाबा साहेब डा. आंबेडकर ने 'महार वतन' आन्दोलन चलाया था. बाबासाहेब के इस आन्दोलन का उद्देश्य महारों को गंदे कामों से अलग कर खेती जैसे स्वत: के उत्पादनों के धंधे करने की ओर प्रवृत करना था.
With Dr Ambekar
      स्त्री शिक्षा पर दादा साहेब बहुत जोर देते थे.वे कहा करते थे कि बच्ची को स्कूल भेजो, तुम्हारा पूरा परिवार  शिक्षित हो जाएगा. नाशिक में उन्होंने सन 1944 में लडकियों के लिए 'रमाबाई आंबेडकर छात्रावास' की स्थापना की थी. इसके आलावा नारी जाग्रति के उन्होंने कई काम किये थे. सन 1938 में नाशिक के स्कूल बोर्ड कमेटी में उनकी पत्नी गीताबाई  निर्विरोध चुनी गयी थी..
    
  दादा साहेब गायकवाड  नाशिक जिला बोर्ड के चेयरमेन थे. वे राय साहेब मेश्राम के देहांत के बाद औरंगाबाद  के मिलिंद महाविद्यालय के निर्माण समिति के इंचार्ज रहे थे. उन्होंने बड़े-बड़े पदों को सुशोभित किया. मगर, एक बात है. उन्होंने अपनी ग्रामीण वेश-भूषा को कभी नहीं छोड़ा था. वे हमेशा टोपी और धोती में रहते थे.यह ग्रामीण वेश-भूषा उनकी पहचान थी. गावं-देहात से आये हुए लोगों को उनसे मिलने और बात करने में जरा भी दिक्कत पेश नहीं होती थी.वे बड़ी आत्मीयता से मिलते थे.लोग चाहे गावं के हो या देहात के, वे बड़ी सहजता से बात करते थे. उनके बात करने के लहजे में विनोद मगर, शालीनता होती थी.
       पेरूमल कमेटी के समय, दादा साहेब ने देश भर में दौरा कर तथ्यों को जुटाने के लिए जो काम किया, वह उनकी लगन,परिश्रम और समाज के कमजोर वर्ग के प्रति उनकी तड़प को बयां करता है.नाशिक और दिल्ली  में दादासाहेब के आवास दीन-दुखियों के लिए मन्दिर से कम न थे. दिन-दुखी और दलित समाज के प्रश्नों को उठाने का उनका एक खास अंदाज था.
        तत्कालीन लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और मऊ में डा. बाबा साहेब आंबेडकर राष्ट्रीय सामाजिक विज्ञानं संस्थान के पहले महानिदेशक रहे सहारे जी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि एक दिन दादा साहेब ने उन्हें अपने पास बुला कर कहा था कि 'भाऊसाहेब, हमारे लोग जो बड़े पदों पर पहुँच गए हैं, उन्हें अपनी स्वच्छ छवि और पारदर्शिता के प्रति सजग रहना चाहिए. उन्हें इसे अपनी सम्पत्ति के तौर पर देखना चाहिए. समाज में ऐसे लोगों का नाम रहता है'. सहारे ने लिखा हैं कि वे शासन में और भी बड़े-बड़े पदों पर रहे और अपनी पूरी सेवा में दादा साहेब के इस सलाह का पालन ईमानदारी से किया, इसका उन्हें गर्व है.
       जैसे कि बतलाया जा चूका है, दादा साहेब की दो पत्नियाँ थी. ये दोनों उनके यहाँ आने-जाने वाले कार्य-कर्ताओं का पूरा-पूरा  ध्यान रखती थी. दादा साहेब कार्य-कर्ताओं को अपने जीवन की पूंजी मानते थे. उन्होंने निर्देश दे रखा था कि बाहर से आये कार्य-कर्ताओं की भूख-प्यास का ख्याल रखा जाये.
With Dr Ambedkar at Nasik
        जहाँ कहीं से अन्याय और अत्याचार की खबर आती, वे तुरंत निकल पड़ते थे. जाने का साधन न होने पर वे पैदल ही रवाना हो जाते थे.गावं- देहातों का दौरा करते समय वे अपने कार्य-कर्ताओं का पहले ख्याल रखते थे. वे अपने कपड़े तक उन्हें दे देते थे. अन्य गुणों के अलावा दादा साहेब एक और खास बात के लिये जाने जाते थे. और वह था उनके भाषण करने की कला. उनके जैसे भाषण करने वाला कोई नहीं था.सम्बोधन की शैली उनकी बड़ी सहज हुआ करती थी. उनके बताने के ढंग में ऐसा अपनापन होता था की वे डाँटते तब भी बुरा नहीं लगता था.
          दादा साहेब गायकवाड जमीनी कार्य-कर्ता थे. गावं-देहात के लोगों के रोजमर्रा की समस्याओं से वे सीधे जुड़े थे.किसी दलित के खेत को मराठे ने जबरदस्ती जोत लिया हो या किसी दलित स्त्री को कुँए में पानी भरने नहीं दिया गया हो अथवा  किसी दलित जाति के बच्चे को स्कूल के बाहर ही बैठाल दिया गया हो या काम करने के बाद भी किसी गरीब को मजदूरी न मिली हो, ऐसे एक नहीं कई छोटे-बड़े कामों में दादा साहेब गायकवाड सुबह से शाम तक लगे रहते थे.
      दलित अस्मिता के प्रतीक महाड चवदार तालाब का पानी पीने के आन्दोलन में कर्मवीर भाऊराव की अहम् भूमिका थी. बाबा साहेब डा. आंबेडकर के नेतृत्व में हुए इस संघर्ष ने देश की दलित जातियों के मुर्दा शरीरों में स्वाभिमान और आत्म-सम्मान की भावना को जाग्रत किया था. महाड़ के चवदार तालाब का पानी पीने के लिए 19-20 मार्च  1927  को सत्याग्रह हुआ था. किन्तु, कुछ ही दिनों बाद सनातनी हिन्दुओं ने तालाब के पानी में गाय का गोबर, मूत्र और घी डाल कर शुध्दिकरण किया. इस पर दलित जातियों की ओर से 25  दिस. 1927  को फिर सत्याग्रह हुआ. इसी दिन 'मनुस्मृति दहन' भी किया गया. क्योंकि, इसी ग्रन्थ के कारण ही तो दलितों को जानवरों से बदतर समझा जा रहा था.
With Karmveer Bhaurao Patil, Gadge Baba
Dr Ambedkar
      इसी बीच हिन्दुओं की ओर से कोर्ट को बतलाया गया कि चवदार तालाब, सार्वजानिक न हो कर निजी मिल्कियत है. कोर्ट ने स्टे दे दिया. तत्सम्बन्धी जानकारी जिला कलेक्टर ने डा. आंबेडकर को दी और कहा कि ऐसी स्थिति में उनका अगर कोई आदमी तालाब पर जाता है तब, उन्हें नियमानुसार कार्रवाई करनी पड़ेगी.यहाँ पर भाऊराव भी उपस्थित थे. कलेक्टर की बात सुन कर भाऊराव ने कहा कि वे मानवीय हक की लड़ाई में एक सैनिक के रूप में इस संघर्ष में उतरे हैं. हम इसे प्राप्त किये बिना  पीछे नहीं हटेंगे. भाऊराव की बात पर वहां उपस्थित सभी लोग तन कर खड़े हो गए.तब, डा. आंबेडकर ने भाऊराव को एक तरफ ले जा कर कहा कि वे कह सही रहे हैं. मगर, वे खुद एक फौजी की संतान हैं और युध्द नीति को बेहतर जानते हैं. बाबा साहेब ने समझाया कि ऐसे वक्त हम अगर शांत नहीं रहे तो सनातनी हिन्दू और स्थानीय प्रशासन एक तरफ होंगे और दूसरी तरफ दलित.परिणाम स्वरूप यह मानवीय हक की लडाई उनके विरुध्द भी जा सकती है.
           इसी तरह नाशिक के कालाराम मन्दिर का आन्दोलन था. यह आन्दोलन पांच वर्षों तक चला था. इस आन्दोलन के अध्यक्ष पतितपावन दास थे. दादा साहेब गायकवाड संघर्ष समिति के सचिव थे.
          चवदार तालाब का संघर्ष और नाशिक के कालाराम मन्दिर में प्रवेश का संघर्ष; इन दोनों आंदोलनों ने दलित समाज को जो सदियों से सो रहा था, एकाएक हडबडा कर जगा दिया था. इन दोनों आंदोलनों ने उसे एहसास कराया था कि वे अपने मानवी हकों की लड़ाई लड़ सकते हैं.बाबा साहेब डा. आंबेडकर के नेतृत्व में हुए इन आंदोलनों में कर्मवीर दादा साहेब गायकवाड की भूमिका सदैव याद रहेगी.
    सन 1932  के पूना करार के बाद हिन्दुओं की ओर से बाबा साहेब डा. आंबेडकर को जान से मारने की धमकियाँ मिल रही थी, इसके चलते सन 1934  के दौरान बाबा साहेब ने अपना मृत्यु-पत्र तैयार करवा लिया था और उसकी एक प्रति दादा साहेब गायकवाड को भेज दी थी कि कदाचित ऐसा होता है,तब भी उनके द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन को बंद न रखा जाये. आन्दोलन चलाने का खर्च मुम्बई स्थित उनका राजगृह बेच पूरा किया जाये.
    दादा साहेब के व्यक्तित्व के जुझारूपन की झलक सन 1959  से 1965  के दौरान उनके द्वारा भूमिहीनों के बीच पड़ती भूमि बाँटने के लिए चलाया गया  आन्दोलन था.दादा साहेब की सोच थी की देश की सारी पड़ती जमीन को भूमिहीनों में बाँट देनी चाहिए. इससे न केवल ख़ाली पड़ती जमीन का उपयोग होगा वरन लोगों के द्वारा पड़ती भूमि पर खेती किये जाने से भूमिहीनों की हालत में सुधार आयेगा. इस सत्याग्रह में दादा साहेब गायकवाड कई बार जेल गए.
    दादा साहेब को उनकी अमूल्य सेवाओं के कारण उन्हें  26 जन. 1968  को पद्मश्री की उपाधि से नवाजा गया था. दादा साहेब को ब्लड प्रेसर और मधुमेह की बीमारी थी. इस बीमारी ने उन्हें  29 दिस. 1971 को हम से छीन लिया.राष्ट्र उनका सदैव ऋणी रहेगा.