Saturday, November 30, 2013

कालीचरण नंदा गवली (Kalicharan Nandagavali)

     विदर्भ के सामाजिक आंदोलन में बाबा साहब डॉ आंबेडकर के उदय होने के पूर्व जिस दलित नेता की भूमिका अग्रणी थी, वे थे गोंदिया के कालीचरण नंदागवली। कालीचरण नंदागवली गोंदिया के मालगुजार थे।
      दलित और मालगुजार ?  कुछ अजीब लग सकता है ! मगर , यह अजीब नहीं था । यद्यपि, दलित का मतलब ही मार्जिनल क्लॉस है। परन्तु , ढूंढे से एकाध पटेल/ मालगुजार भी देखने मिल जाते हैं । उदहारण के लिए किरनापुर के पांडुरंग भिमटे जी।  भिमटे जी को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता  हूँ।
बहरहाल,  नंदागवली जी घर से समृद्ध थे। वे एक समय गोंदिया नगरपालिका कमेटी के सदस्य रहे थे।  आपका जन्म महार परिवार में सन 1881  में हुआ था। उनका घराना कबीर पंथी था।  वे कबीर पंथ के महंत थे।
सन 1909-10 में कालीचरण नंदा गवली जी ने गोंदिया में सर्व-प्रथम लड़कियों का एक स्कूल खोला था। ध्यान रहे, उस ज़माने में लड़कियों को स्कूल भेजना अच्छा नहीं समझा जाता था। लड़कियों का यह स्कूल तब,  नंदागवली जी ने बिना किसी सहायता के खुद का पैसा लगा कर खोला था। समाज में जाग्रति लाने के उद्देश्य से कालीचरण नंदागवली ने ' चोखा मेला ' और  ' बिटाल विध्वंसक ' नामक  समाचार-पत्रों का प्रकाशन किया था ।
कालीचरण नंदा गवली सन 1920 से 1923 तक सी पी एंड बरार विधान मंडल के सदस्य रहे थे।  विधान मंडल का सदस्य रहते हुए कालीचरण नंदा गवली ने दलित समाज के हित के लिए अनेकों काम किये। आपने 13  अग  1923 को एक बिल प्रस्तुत किया था जिसमे यह मांग की गई थी कि सार्वजनिक स्थानों के उपयोग का अधिकार दलित समाज के लोगों को हो। यद्यपि, यह बिल विधान सभा में पारित नहीं हो पाया ।  किन्तु , ऐसा कर वे लोगों का ध्यान इस तरफ खींचने में सफल हुए थे ।
सन  1920  के दौरान नागपुर में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहू जी महाराज के अध्यक्षता में बहिष्कृत हितकारिणी सभा का जो अधिवेशन हुआ था , कालीचरण नंदा गवली उसके स्वागताध्यक्ष बनाए गए थे।
दलितों को राजनैतिक अधिकार प्राप्त होना चाहिए, इस उद्देश्य से विदर्भ से कालीचरण नंदा गवली ने सन 1919 में साउथबरो कमेटी  (1919) को ज्ञापन दिया था। विदित हो, इसी साउथबरो कमेटी के समक्ष,  जो 'गवर्नमेंट इण्डिया एक्ट 1935'  के लिए काम कर रही थी, डॉ आंबेडकर ने दलितों के लिए आरक्षण और पृथक चुनाव की मांग रखी थी। इसी तरह सायमन कमीशन(1928) जो संवैधानिक सुधारों के लिए भारत आया था, को भी नंदागवली जी ने दलितों के राजनैतिक अधिकारों के संबंध में ज्ञापन सौंपा था।

सामाज सुधार के क्षेत्र में उनके भारी योगदान को देखते हुए कालीचरण नंदा गवली को  कई मौकों पर पुरष्कृत किया गया।  सन 1923 में सी पी एंड बरार स्तर पर दलित समाज के एक बड़े अधिवेशन में उन्हें मान-पत्र भेट किया गया था। इसी अधिवेशन में एक दूसरा मान -पत्र दलित विद्यार्थी संघ की ओर से दिया गया था।  

सन 1935 के येवला में डॉ आंबेडकर की यह घोषणा कि 'वे हिन्दू धर्म में पैदा हुए है किन्तु , एक हिन्दू के रूप में वे मरेंगे नहीं' - पर कांग्रेस सहित तमाम राजनैतिक पार्टियां और सामाजिक-धार्मिक संस्थाएं सकते आ गई थी ।  चारों तरफ से डॉ आंबेडकर पर दबाव था कि वे अपनी बात पर पुनर्विचार करें। डॉ आंबेडकर की इस घोषणा पर उनके अपने बहुतेरे लोग भी उन के साथ नहीं थे। कांग्रेस पार्टी के लोग उन्हें तरह-तरह का प्रलोभन दे रहे थे ।  इसी प्रलोभन में कालीचरण नंदा गवली, हेमचन्द्र खांडेकर, गणेश आकाजी गवई, पांडुरंग नंदराम भटकर, तुलाराम साखरे जैसे कई बड़े-बड़े दलित नेताओं ने डॉ आंबेडकर का साथ छोड़ दिया था । कालीचरण नंदा गवली सन 1936  में कुछ साथियों के साथ कांग्रेस में चले गए थे।
इस तोड़-फोड़ में विदर्भ से राव साहब गंगाराम ठवरे एक प्रमुख हस्ती थे।  ठवरे के टूट कर कांग्रेस में चले जाने के कारण गोंदिया , बालाघाट और अन्य स्थानों में जितने भी महानुभाव पंथी थे, कांग्रेस में चले गए।  गोंदिया से धन्नालाल पटेल, पुरंदर वैद्य, कुशोबा पटेल, मंगलदास गजभिए, उदल मेश्राम।
 
उनका देहांत 1962  में हुआ था।

Sunday, November 24, 2013

वर्गीय चेतना

सुबह का अखबार(पत्रिका ) पढते-पढते एक खबर ने सहसा मुझे अख़बार और आगे पढने से रोक दिया। खबर भोपाल की  थी।  खबर, एक स्थान में सम्पन्न ब्राह्मण सभा के कवरेज को लेकर थी। ब्राह्मण सभा में बीजेपी और कांग्रेस सहित अन्य राजनैतिक दलों के लोग थे। सभा में इस बात पर चर्चा हुई थी कि किस पार्टी ने कितने ब्राह्मण प्रत्याशियों को टिकिट दिया ?
मैं सोचने लगा- तो ये राज है, सदियों से समाज की ठेकेदारी अपने कन्धों पर ढोने का ! मैंने क्षत्रिय-समाज की  सभाओं के बारे में सुना। मैंने जाट-सभाओं के बारे में पढ़ा।  मगर, जिस मुद्दे पर ब्राह्मण सभा का चिंतन था , वह वर्गीय चेतना का अन-मेल उदहारण है। सभा में सम्मिलित ब्राह्मण समाज के सदस्यों को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि वे किस पार्टी का समर्थन करे ? उन्हें सिर्फ इस बात से दरकार थी कि किस पार्टी ने कितने ब्राह्मण प्रत्याशियों टिकिट दिया है ! यह होती है, वर्गीय चेतना और वर्गीय हित।

दलितों में केडर की बात की जाती है। मगर, किसी केडर केम्प में मैंने किसी वक्ता को इस तरह की पट्टी पढ़ाते नहीं देखा।  यह मेरे लिए दिमाग को झनझनाने वाली खबर थी। यह एक ऐसी बात थी जो बतलाती है कि वह क्या युक्ति है कि ब्राह्मण समाज तमाम विरोध और विरोधियों के बावजूद बाकायदा जिन्दा और साबुत है।

Saturday, November 23, 2013

Prof. Arun Kamble

Portrait of Arun Kamble.jpg
Professor Arun Kamble (1953-2009)
देश के लिटरेरी जगत में अरुण कामले एक जाना-माना नाम है। वे दलित पेंथर के संस्थापक सदस्यों में एक रहे थे।

अरुण कृष्णाजी काम्बले का जन्म 14 मार्च 1953 को सांगली के पास कर्गनी जिले के अठपड़ी गावं में एक महार दलित परिवार में हुआ था। उनके पिता कृष्णाजी काम्बले, कर्गनी जिला के जाने माने व्यक्ति थे। उनकी माता का नाम शांताबाई था। अरुण की माँ शांताबाई और पिताजी कृष्णाजी दोनों सांगली के स्कूल में शिक्षक थे।

अरुण की माँ शांताबाई की आत्मकथा  'माझ्या जलमा ची चित्रकथा'(प्रका. 1986) दलित साहित्य में काफी प्रसिद्द हुई। यह किसी दलित महिला द्वारा  लिखित पहली आत्म-कथा है। यह पुस्तक मुंबई यूनिवर्सिटी में पढाई जाती है है।  कृष्णाजी काम्बले की आत्म कथा 'मी कृष्णा ' भी काफी चर्चित रही है ।

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Shantabai Kamble  1923-
अरुण के माता-पिता, बाबा साहेब डा आंबेडकर के अनुयायी थे। आपने बी ए के बाद सन 1976 में एम् ए किया था। बालक की दिलचस्पी शुरू से ही दलित-साहित्य और आंबेडकर मूवमेंट से रही थी।

अरुण ने मुंबई के 'डा आंबेडकर कालेज ऑफ़ कामर्स एंड इकनामिक्स, वडाला' में लेक्चरार से नौकरीं शुरू की थी। सन 1990 के दौरान वे मुंबई यूनिवर्सिटी में रीडर थे। वे यहाँ फुले-साहू चेयर के हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट थे।

प्रोफ़ेसर अरुण काम्बले, दलित पेंथर के संस्थापकों; नामदेव ढसाल, राजा ढाले के साथी थे। सन 1974 में आप दलित पेंथर के अध्यक्ष बने थे । बाबा साहेब डा आंबेडकर का सम्पूर्ण वांग्मय यथा-शीघ्र प्रकाशित होना चाहिए,  दलित पेंथर के अध्यक्ष रहते सन 1979 दौरान आपने  इसके लिए लांग-मार्च निकाला था।

मराठवाडा यूनिवर्सिटी का नाम डा बाबा साहब आंबेडकर होना चाहिए, इसके लिए आपने बड़े स्तर पर व्यापक आन्दोलन किए थे। सन 1987 के दौरान बाबा साहेब डा आंबेडकर की प्रसिद्द पुस्तक 'रिदिल्स इन हिदुइस्म' पर छिड़े विवाद पर आपने बड़ी   लड़ाई लड़ी थी। 

प्रोफ़ेसर अरुण काम्बले जनता दल के राष्ट्रीय महासचिव रहे थे। आपने भूतपूर्व प्रधान मंत्री वी पी सिंह के साथ काम किया था। सन 1989 में आपने वी पी सिंह से वादा करवाया था कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट को यथा-शीघ्र लागू किया जाएगा। बुद्धिस्ट, पिछड़े वर्ग और धार्मिक अल्प संख्यकों को भी आरक्षण मिलना चाहिए,इसका आपने काफी प्रयास किया था। दलित राष्ट्रपति के मुद्दे पर बात बनती न देख प्रोफ़ेसर काम्बले ने जनता दल से त्याग-पत्र  दे दिया था।  

'डा आंबेडकर चरित्र साधने पब्लिकेशन ' के आप सदस्य रहे थे। डा बी आर आंबेडकर राईटिंग एंड स्पीचेस  ले सम्पादक मंडल के आप सदस्य रहे थे। डा बी आर आंबेडकर सम्पूर्ण वांग्मय के प्रकाशन योजना से 'रिडल्स इन हिंदूइस्म'  (खंड 4) को हटाने के सवाल पर सम्पादक मंडल से अलग हो कर आपने इस निर्णय के विरुद्ध हाई कोर्ट में सूट दायर किया था।

प्रोफ़ेसर अरुण काम्बले ने सन 1986 में 'आल इंडिया दलित रायटर कांफेरेंस का आयोजन किया था। आपने 'आंबेडकर भारत' , 'शुन्य' , 'संघर्ष' आदि पाक्षिक-पत्रिकाओं का सम्पादन किया था।

http://upload.wikimedia.org/wikipedia/en/f/f9/Arun_Kamble_3.JPGप्रोफ़ेसर अरुण काम्बले एक शीर्ष मराठी लेखक थे। आप मराठी भाषा के जाने-माने कवि थे। महा. साहित्य परिषद् द्वारा आपको सम्मानित किया गया था।

 आपकी कई पुस्तकों का राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय भाषाओँ में अनुवाद हुआ है।  आपकी द्वारा लिखी पुस्तकें कल्चर स्ट्रगल इन रामायण (1982), कन्वर्शन ऑफ़ डा आंबेडकर, चीवर(1995),  वाद-संवाद(1996) , युग- प्रवर्तक आंबेडकर(1995) , चळवळी  चे दिवस(1995), तर्कातीत एक वदतो व्याख्यात(1987) आदि मराठी और हिंदी साहित्य में काफी चर्चित रही ।  

प्रोफ़ेसर अरुण काम्बले की मृत्यु 20 दिस 2009 को हैदराबाद में हुई थी। एक अन्तराष्ट्रीय सेमीनार में भाग लेने आप हैदराबाद गए थे। । किन्तु वहां, वे रहस्यमय तरीके से मृत पाए गए थे। 

Friday, November 22, 2013

Hindu Media

तरुण तेजपाल यौन शोषण प्रकरण से स्प्ष्ट हो गया है कि मिडिया, खबरे जैसे के तैसे पेश नहीं करता।  वरन उनकी फ्रेमिंग करता है-अपने अपने हिसाब से।  यहाँ तक कि खबरों को पूरा का पूरा गायब भी करता है।

देश के मिडिया से हमारी हमेशा शिकायत रही है। दलित शोषण और अत्याचार पर मिडिया अव्वल तो खामोश रहता है। उसे यह घटनाएं रोजमर्रा की लगती है। उसे यह कभी नहीं लगता कि ये घटनाएं अन्याय और बर्बरता पूर्ण हैं। ठीक यही स्थिति नारी अत्याचार और शोषण की  है। किन्तु , नारी अत्याचार और शोषण का ताल्लुक अगर किसी उच्च जाति की महिला से है तब तो उस पर खूब हाय-तौबा की जाती है। कई-कई दिनों तक लोगों को झक-झोरा जाता है।

हिन्दू-मुस्लिम दंगों में मिडिया का रोल देखते ही बनता है। खबरों को इस तरह दिया जाता है कि दस बार पढने के बाद भी पता नहीं लगता कि दरअसल हुआ क्या है ? किन्तु अगर दंगे की वजह मुसलमान है तो फिर खबरें सिलसिलेवार होती हैं। कमोवेश मिडिया का यही रुख क्रिश्चियनों के साथ होता है।

सवाल पूछा जा सकता है कि क्या मिडिया में मुस्लिम और क्रिश्चियन नहीं होते ? भई, क्रिश्चियन और मुस्लिम तो बीजेपी में भी हैं ? तो क्या 'हिन्दू राष्ट्र' की  बात वहाँ क्रिश्चियन और मुस्लिम करता है ?

आजकल मिडिया से कांग्रेस पार्टी बहुत परेशान है। अकसर देखा जाता है कि कांग्रेस के प्रवक्ता मोदी के झूंठ को काउंटर नहीं कर पाते।  दरअसल, मिडिया ने यह गठजोड़ कर रखा है कि मोदी को देश का अगला प्रधान मंत्री बनाना है। और यही कारण है कि मिडिया दिन और रात कांग्रेस की बुराई में रत है। बहस के दौरान बीजेपी को पूरा मौका देता है किन्तु कांग्रेस को गोल-मोल कर देता है। 

Sunday, November 17, 2013

Bodhagaya Mahabodhi Vihar Temple Issue

History -

चन्द्रगुप्त मौर्य का पोता और बिन्दुसार का पुत्र अशोक,  ई पू  273  में जब मगध के राजसिहासन पर बैठा तब अपने शासन के 10 साल होने के अवसर पर
उसने पहली बार बुद्धगया का भ्रमण किया था। सम्राट अशोक ने ठीक उस पीपल वृक्ष के नीचे जहाँ भगवान् बुद्ध को बोधी प्राप्त हुई थी , पत्थर का वज्रासन बनवाया था। इसके साथ ही स्मारक के रूप में उसने एक पत्थर का स्तम्भ भी खड़ा करवाया था।

अपने शासन के अगले 10 साल होने पर पुन: वह दूसरी बार यहाँ आया था। इस बार उसने महाबोधि विहार का निर्माण कराया था।  इसी तरह के बुद्ध महाविहार उसने 
लुम्बिनी, सारनाथ और कुशिनारा में निर्माण करवाए थे । इसके आलावा उस पीपल वृक्ष की एक टहनी, जिसके नीचे भगवान् बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था;  उसने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा के हाथ श्रीलंका के शासक के पास भेज कर वहां बोधी वृक्ष लगवाया था।
सम्राट अशोक ने  चौरासी हजार बुद्ध विहार, स्तूप, संघाराम आदि जगह-जगह सम्पूर्ण राज्य में निर्माण करवाए थे। बौद्ध धर्म के प्रचार -प्रसार में सम्राट अशोक का योगदान जगत प्रसिद्द है।

मगर, बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार सम्राट अशोक के शासन तक ही सीमित नहीं रहा, गुप्त शासन काल में आगे भी हम इसकी प्रगति देखते हैं।
 
मगर, सातवी और आठवी ईसवी शताब्दी में हूण और मुस्लिम आक्रमणकारियों के हमलों से बौद्ध धर्म को भारी क्षति हुई थी। बुद्ध विहार/संघारामों को बड़े पैमाने पर नष्ट किया गया। इन हमलों में बौद्धगया का बुद्ध महाविहार भी बच नहीं सका।

आठवी से बारवीं शताब्दी ईसवी में पाल राजाओं के समय बौद्ध धर्म का प्रसार हम पुन: देखते हैं । इस समय , जीर्ण शीर्ण बुद्ध विहारों को फिर से बनाया गया।   मगर, इसके बाद पुन : हुए मुस्लिम आक्रमण में बौद्ध धर्म का जबदस्त नुकसान हुआ । मुस्लिम आक्रान्ताओं के निशाने पर ज्यादातर बौद्ध भिक्षु और बौद्ध विहार/संघाराम थे।


यह तो हुई मुस्लिम आक्रान्ताओं की बात।  मगर , हिन्दू शासकों ने बौद्ध धर्म का इससे भी ज्यादा नुकसान किया। एक-एक बौद्ध भिक्षु का सिर काट कर लाने के लिए राज खजाने से ईनाम बांटा गया । बौद्ध विहारों /संघाराम को न सिर्फ नष्ट किया बल्कि , उस स्थान पर मन्दिर बनाकर कब्जा किया गया । बुद्ध गया के बोधी महाविहार पर हिन्दू  महंत का कब्जा जो लगभग सन 1590 से है, इसी की परिणति है।

Namo tassa bhagavato arahato samma sambuddhassa

 चीनी यात्री व्हेनसांग जो ईसवी सन 635 में भारत आया था, ने बुद्ध गया का भ्रमण किया था। आज, जिस रूप में बोधी महाविहार खड़ा है , उसका हुबहू वर्णन उसकी यात्रा वर्तांत में मिलता है। 

बुद्ध गया महाबोधी विहार मुक्ति आन्दोलन  -

Atta Hi Attano Natho
बुद्ध गया महाबोधी विहार मुक्ति आन्दोलन का लम्बा इतिहास है। सन 1874 में बर्मा के महाराजा ने एक बड़ी धन राशि के साथ अपना प्रतिनिधि मण्डल भारत सरकार के पास भेजा था कि बुद्ध गया महाविहार को पुराने स्वरूप में लाकर उसे बौद्धों का पवित्र धार्मिक स्थल के रूप में स्थापित किया जाए। सन 1880 के अवधि में ब्रिटिश शासन के समय जीर्ण-शीर्ण बोधी महाविहार के कुछ मरम्मत का काम हुआ । 
सन 1891 में  श्रीलंका के अनागरिक धर्मपाल ने कर्नल ओलकाट के साथ महाबोधि विहार का भ्रमण किया था। वे पवित्र महाबोधि विहार की दयनीय हालत देख कर बेहद दु:खी हुए थे।

अनागरिक धर्मपाल ने  भारत सरकार से मांग की थी कि महाबोधी विहार को देखने की व्यवस्था और प्रबंध हिन्दू महंत के हाथ में न होकर बौद्ध भिक्षु के पास होना चाहिए। सन 1890-92 में एडविन अर्नाल्ड ने ब्रिटिश सरकार से अनुरोध किया था कि बुद्ध गया महाविहार बौद्धों को सौंप दिया जाए। इस सम्बन्ध में अर्नाल्ड ने जापान सरकार से भी मदद मांगी थी।
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Yassa mule nissinno va,Sabbari vijayam aka
इसके बाद और समय-समय पर कई आन्दोलन और सहमती के प्रयास किए गए। सन 1922  में इन्डियन नॅशनल कांग्रेस ने  डा राजेन्द्र प्रसाद; जो आगे चलकर देश के राष्ट्रपति बने, की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई। कमेटी का सुझाव था कि महाबोधी विहार के प्रबंधन में  हिन्दू और बौद्ध दोनों बराबरी से रहे।
Anagarik Dkammpala, the Pioneer
of Bodhi Vihar Liberation Movement
अंतत:  कई राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय दबावों के चलते स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार को  ' बोधगया टेम्पल एक्ट 1949'  पारित करना पड़ा।  इस बिल के तहत बिहार सरकार प्रत्येक 3 वर्ष के लिए 9 सदस्यों वाली  ' बौद्ध गया महाबोधी विहार प्रबंधन समिति' (B0dh Gaya Temple Management Committee) का चुनाव करती है। जिला  कलेक्टर समिति का पदेन अध्यक्ष होता है।  समिति में 4 हिन्दू और 4 बौद्ध सदस्य होते हैं। पहले समिति के हिन्दू अध्यक्ष होने की शर्त थी जिसे वर्तमान में हटा दिया है। 

Buddham namami,Dhammam namami, Sangham namami

सन 1973 में बुद्ध गया टेम्पल एडवायजरी बोर्ड बनाया गया जिस में देश और विदेश थाईलेंड , लाओस , बर्मा , सिक्किम कम्बोडिया ,भूटान, लदाख आदि के  कुल २१ सदस्य हैं।  

सन 1992 में भंते सुरई ससाई के नेतृत्व में 'आल इण्डिया महाबोधी टेम्पल लिबेराशन एक्शन कमेटी'(AIMTLAC) का गठन किया गया था, जिसके वर्तमान में अध्यक्ष भदन्त आनंद महाथेरो है। इस संगठन  के मार्फत दोनों बिहार और केंद्र सरकारों से मांग की गई कि ' बोधगया टेम्पल एक्ट 1949' में आवश्यक संशोधन कर महाबोधी विहार का प्रबंध बौद्धों के हाथों में दिया जाए।
Natthi me saranam annam,Buddho me saranam varam


14 अक्तू 1992 को दिल्ली के बोट क्लब पर 3 लाख के ऊपर देश और विदेश से आए बौद्धों की विशाल रेली हुई थी। इसी दिन बुद्ध गया के महाबोधी विहार को बौद्धों का सबसे पवित्र स्थल घोषित किया गया था। इसी बीच बिहार के मुख्य मंत्री लालू प्रसाद व् बाद के दिनों में राबड़ी देवी ने अपने उस वादे से हाथ खींच लिए जो महाबोधि विहार का प्रबंध बौद्धों को देने के लिए उन्होंने किया था।
सन  1992 में ही अखिल भारतीय भिक्षु संघ द्वारा व्यापक जन-आन्दोलन किया गया था। नव. 1995 में आमरण भूख हडताल की गई थी।
A close up of Bodhivihar portion

संयुक्त राष्ट्र संघ से मांग -
Ye c Sangha atita c, ye c Sangha anagata
सन 2002 में भंते सुरई ससाई के ही नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र संघ से यह मांग की गई कि बुद्ध गया के महाबोधी विहार का प्रबंध बौद्धों को देने के लिए वह भारत सरकार को निर्देश जारी करे। भंते सुरई ससाई ने संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव से कहा कि विश्व के तमाम बुद्धिस्ट देशों का धर्म-स्थल भारत का महाबोधी विहार है। हिन्दू मन्दिरों का प्रबंध हिन्दुओं के हाथों में है।  मस्जिदों का प्रबंध मुसलमानों के हाथों में है और चर्चों  का प्रबंध क्रिश्चियनों के हाथों में है।  तब, बोधी महाविहार का प्रबंध बौद्धों के हाथों में होना चाहिए ?
 स्मरण रहे,  भंते सुरई ससाई सन 1995 से महाबोधी महाविहार प्रबंध कमेटी के सदस्य रहे थे।  इसी बीच सन 2002 में  UNESCO ने बोधी महाविहार को world heritage  घोषित किया है ।
सर्वोच्च न्यायालय में पिटीशन- 
भंते सुरई ससाई जी ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में पिटीशन दायर कर मांग की कि कोर्ट इस मामले में संज्ञान ले ताकि महाबोधी विहार प्रबंध के सम्बन्ध में बौद्धों को न्याय मिले।

Vandami cetiyam sabbam, sabba thanesu patitthitam
हिंदुओं का दावा-
 इधर, अब हिन्दुओं की ऒर से सर्वोच्च न्यायालय में एक पीआईएल दाखिल किया है कि 'बुद्ध गया टेम्पल एक्ट 1949 ' संविधान के आर्टिकल 25, 26, 29 और 30 का विरोध करता है। इस पीआईएल के अनुसार

संविधान की धारा  26 प्रत्येक समुदाय को अपनी धार्मिक संस्था बनाने और उसका प्रबंध करने का अधिकार देती है। बुद्ध गया महाबोधी विहार गुप्त राजवंशके द्वारा निर्माण किया है और इसलिए यह हिन्दुओं का मन्दिर है।  महाबोधी विहार हिन्दू महंत के देख-रेख में बिलकुल ठीक सुरक्षित है। इसलिए 'बुद्ध गया टेम्पल एक्ट 1949' को रद्द करने न्यायालय निर्देशित करे।
...................
Please read 'Buddhists Denied Justice' :www. countercurrent .org

Friday, November 15, 2013

Buddh-Ambedkar Mission Prachar Sangh Khajari

पिछले अप्रैल 2013  को मेरे जन्म स्थान गावं सालेबर्डी (जिला बालाघाट, म प्र ) प्रवास के दौरान हमें वहाँ दो नवयुवक नव-निर्माणाधीन बुद्ध विहार प्रांगण में मिले थे। बातों ही बातों में उन्होंने  यहाँ से कुछ ही दूर सीताखोह नामक स्थान में चल रहे बुद्धिस्ट सेंटर का जिक्र किया था। उन्होंने निवेदन किया था कि मुझे अवसर निकाल कर वहाँ जरुर जाना चाहिए। किन्तु ,  तब बौद्ध बिहार निर्माण की व्यस्तता के चलते यह संभव नहीं हो पाया था।  मगर, इस बार 20 अक्टू 2013 को बुद्ध विहार लोकार्पण कार्यक्रम के दौरान अपनी उत्सुकता को मैं अधिक दबा कर नहीं रख सका।

खजरी, छोटा-सा गावं है जो सीताखोह रोड पर स्थित है।  बालाघाट-कटंगी पहुँच मार्ग से इस विकसित हो रहे बुद्धिस्ट सेंटर में जाया जा सकता है।  इस ट्रेनिंग सेंटर के लिए गावं का माहौल मगर, गावं से दूर जिस स्थल का चुनाव किया गया है, वाकई यह इसके विकास के प्रति दूरदर्शिता को इंगित करता है।
प्रफुल्ल गढ़पाल, जिनका नौकरी के सिलसिले में वर्त्तमान प्रवास दिल्ली है, ने एक-दो बार बातों के दौरान इसका जिक्र किया था।  प्रफुल्ल, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय दिल्ली के राष्ट्रीय संस्कृति संस्थान में असि.  प्रोफ़ेसर हैं।  सीताखोह जाने की बात कहने पर प्रफुल्ल ने मुझे घनश्याम गजभिए का कांटेक्ट नम्बर दिया।

हम जैसे ही बतलाए स्थल पहुंचे, घनश्याम जी गजभिए रोड पर हमारा इन्तजार ही कर रहे थे। देखने में विरक्त घनश्याम जी ने हमारा स्वागत दिल से किया। गजभिए जी बतौर शिक्षक शासकीय सेवा से निवृत हो चुके हैं।  लम्बे समय तक सरकारी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने का अनुभव उनके चेहरे पर साफ़ झलक रहा था। हाव-भाव से गजभिए जी  शौम्य,शांत और संयत नजर आये।  समाज के लिए कुछ करने की तड़प जैसे उनकी रगों में बह रही थी।  लम्बे समय के बाद मैं एक सीधे और सच्चे इंसान से रुबरूं हो रहा था।

बिना किसी औपचारिकता के मैंने अपनी जुगुप्सा सामने रखी।  घनश्याम जी पहले तो थोडा सकुचाए मगर, फिर धीरे-धीरे खुलते गए।  आपने बतलाया कि इस 'बुद्धिस्ट आंबेडकर मिशन प्रचार संघ ' की स्थापना में  प्रफुल्ल गढ़पाल जैसे पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों का भारी सहयोग है।  एक और सहयोगी चितरंजन वासनिक का उतना ही सहयोग है जितना कि उनका स्वयं का। चितरंजन वासनिक, नांदी के घनश्याम जी वासनिक के सुपुत्र हैं।  घनश्याम वासनिकजी के इन सुपुत्र का जिक्र आते ही मेरे सामने एक फलेश-बैक हुआ।  दरअसल, इन महाशय से मैं काफी पहले गुरु बालकदास साहेब के साथ सत्संग में अपने घर सालेबर्डी तथा एकाध जगह और  मिल चूका था।  ये महानुभाव तभी मुझे कुछ हटके लगे थे ठीक वैसे ही जैसे घनश्याम जी आज मेरे सामने विराजमान हैं।
एक बड़ा-सा हॉल  है।  हॉल में एक बड़ा बक्शा रखा है।  हमें बतलाया गया कि इस बक्शे में  कुछ गद्दे और बैठने की छोटी-छोटी गद्दीयां  हैं जिन्हें किसी ने दान में दिया है। एक तखत और सोफा-सेट भी हॉल में दिखा।  दीवार पर टंगे कई सारे बैनर हैं जिनमे प्रशिक्षण के दौरान काम आने वाली जानकारियां और निर्देश लिखे हुए थे।  हॉल के सामने और आजु -बाजू में काफी खाली स्पेस है जहाँ पर आवश्यकता पड़ने पर कई अन्य गतिविधियां चलाई जा सकती है।  इसी से सटा हुए एक मकान है जिसमे गजभिए जी बच्चों के साथ रहते हैं। बच्चों की परवरिश में सहायता के लिए गजभिए जी की मौसी बहन रहती है जो शादी-सुदा मगर , परित्यक्ता है।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मैंने घनश्याम जी से मुखातिब हो कर कहा कि यहाँ वर्त्तमान में चार छोटी-छोटी बच्चियां  हैं जिन्हें आप, हम लोगों के आने के पहले यहाँ से लगे शहर कटंगी के अलग-अलग स्कूलों में ड्रॉप कर आए हैं और जिन्हें शाम को आप लेने भी जाएंगे।  सवाल है, लड़कियां ही क्यों ? लड़के क्यों नहीं ?
 
इसके जवाब में गजभिए जी ने बतलाया कि उन्हें लावारिश लड़कियां ही मिली थी कहीं फैंकी हुई , कहीं पड़ी हुई।  जब कोई बिन ब्याही लड़की गर्भवती हो जाती है तो समाज के सामने माता-पिता को और कोई रास्ता नहीं होता इस 'असामाजिक' स्थिति से उबरने का। दूसरे , कई बार लड़की को उसके पैदा होते ही बोझ समझ कहीं फैंक दिया जाता है।
एकाएक मुझे कुछ असहज-सा लगने लगा।  मेरा मुंह बेहद कडुवा हो गया था।  मैंने उठते हुए घनश्याम गजभिए जी से विदा ली और कहा कि फिर कभी मिलेंगे।  करीब दो घंटे बीत चुके थे,  यहाँ आए।  हमें कहीं और भी जाना था ?