Thursday, April 15, 2021

धम्मपद का ब्राह्मणीकरण

धम्मपद का ब्राह्मणीकरण

धम्मपद की यह गाथा 'मनुस्मृति' को भी पीछे छोड़ रही है-

न ब्राह्मणस्स पहरेय्य, नास्स मुञ्चेथ ब्राह्मणो

धि ब्राह्मणस्स हन्तारं, ततो धि यस्स मुञ्चति. 389

चीवरधारी ब्राह्मण ग्रन्थकारों ने विज्ञ पाठकों को संदेह का लाभ देने के लिए उक्त गाथा का अर्थ बहुत ही गड्ड-मड्ड किया है. बहुत कठिन शब्द नहीं हैं उक्त गाथा में. कोई भी प्रारंभिक पालि का अध्येयता बड़ी आसानी से इसका अनुवाद कर सकता है-

ब्राह्मण पर प्रहार न करे, न ब्राह्मण उस(प्रहार कर्ता) को जाने दे

धिक्कार है, ब्राह्मण की हत्या करने वाले को, धिक्कार उसको भी जिसको जाने देता है.

ईर्ष्या

 ईर्ष्या

एक धनि व्यक्ति था. उसके पास बहुत धन था. उसने शहर की सबसे अच्छी लोकेशन पर एक बड़ा और आलीशान  मकान बनवाया. यही नहीं, उसमें सुन्दर फर्नीचर, कालीन आदि बेशकीमती जरुरत की तमाम वस्तुओं से उसे सुसज्जित किया और अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहने लगा.

वह अपने मकान को देखकर बहुत प्रसन्न होता. जो भी मित्र आता, उसे घुमा-घुमा कर अपना मकान दिखाता और फर्नीचर तथा बेशकीमती वस्तुओं के बारे में जानकारी देता. 

कुछ समय उपरांत उसके एक मित्र उसके यहाँ आये तो वह बहुत उदास और चुप-चुप था.  मित्र में पूछा- "भाई, बात क्या है, आज हमें मकान नहीं दिखाओगे?" इस पर उस धनी व्यक्ति ने कहा- अब मकान क्या दिखाऊं, देखते नहीं, मेरे पडोसी ने मेरे घर से भी बड़ा मकान बना लिया है !


Wednesday, April 14, 2021

भिक्खुओं के लिए 7 अपरिहाणीय धर्म

भिक्खुओं के लिए 7 अपरिहाणीय धर्म


 "भिक्खुओ! तुम्हे 7 अपरिहाणीय धर्म उपदेश करता हूँ. उन्हें सुनो, कहता हूँ."

"अच्छा भंते !"

"1. भिक्खुओ! जब तक भिक्खु बार-बार बैठक करने वाले रहेंगे, तब तक भिक्खुओ!  भिक्खुओं की वृद्धि ही समझना, हानि नहीं. 

2. जब तक भिक्खुओ! एक होकर बैठक करेंगे, एक ही उत्थान करेंगे, एक ही संघ के करणीय को करेंगे, तब तक भिक्खुओ!  भिक्खुओं की वृद्धि ही समझना, हानि नहीं. 

3. भिक्खुओ! जब तक अप्रज्ञप्तों को प्रज्ञप्त नहीं करेंगे, प्रज्ञप्त का उच्छेद नहीं करेंगे, प्रज्ञप्त भिक्खु-नियमों के अनुसार व्यवहार करेंगे, तब तक भिक्खुओ! भिक्खुओं की वृद्धि ही समझना, हानि नहीं.

4. भिक्खुओ! जब तक  चिर प्रवजित, संघ के नायक थेर भिक्खु हैं, उनका सत्कार करेंगे, गुरुकार करेंगे, मानेंगे, पूजेंगे, उनको सुनने योग्य मानेंगे, तब तक भिक्खुओ! भिक्खुओं की वृद्धि ही समझना, हानि नहीं.

5. भिक्खुओ! जब तक भिक्खु  तृष्णा के वश में नहीं पड़ेंगे तब तक भिक्खुओ! भिक्खुओं की वृद्धि ही समझना, हानि नहीं.

6. भिक्खुओ! जब तक भिक्खु आरण्यक सयनासन की इच्छा वाले रहेंगे तब तक भिक्खुओ! भिक्खुओं की वृद्धि ही समझना, हानि नहीं.

7. भिक्खुओ! जब तक भिक्खु यह याद रखेगा कि अनागत में सुन्दर समण आये, सुख से विहरें,  तब तक भिक्खुओ! भिक्खुओं की वृद्धि ही समझना, हानि नहीं(महापरिनिब्बान सुत्त: दीघ निकाय)."

धर्म की आवश्यकता

1. यदि नए जगत को किसी धर्म को अपनाना ही हो, ध्यान रहे कि नया जगत पुराने जगत से सर्वथा भिन्न है और नए जगत को पुराने जगत की अपेक्षा धर्म की अत्यधिक जरुरत है, तो वह बुद्ध का धम्म ही हो सकता है. - डॉ अम्बेडकर : बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य.

2. समाज को अपनी एकता को बनाये रखने के लिए या तो कानून का बंधन स्वीकारना होगा या फिर नैतिकता का. दोनों के अभाव में समाज निश्चय ही टुकडे-टुकड़े हो जायेगा.

3. हर व्यक्ति का अपना दर्शन होना चाहिए. एक ऐसा मापदंड होना चाहिए जिससे वह अपने जीवन का आचरण परख सकें. क्योंकि जीवन में ज्ञान, विनय, शील, सदाचार का बड़ा महत्व है.

4. मनुष्य सिर्फ पेट भरने के लिए जिंदा नहीं रहता है. उसके पास मन है. मन के विचार को भी खुराक की जरूरत होती है. और धम्म मानव मन में आशा का निर्माण करता है, उसे सदाचार का सुखी जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है.

5. कुछ लोग धर्म को व्यक्तिगत समझते हैं. जबकि, बाबासाहब अम्बेडकर के अनुसार बुद्ध का धर्म सामाजिक है. उसका केंद्र बिंदु समाज है. एक आदमी का दूसरे आदमी के बीच व्यवहार का नाम धर्म है. आदमी अगर अकेला है तो उसे धर्म की आवश्यकता नहीं होगी. किन्तु आदमी अकेला नहीं है, वह समाज का अंग है. जहाँ दो आदमी होंगे, वहां धर्म की आवश्यकता होगी.


Monday, April 12, 2021

प्रो. पी. लक्ष्मी नरसू

प्रो. पी. लक्ष्मी नरसू

1. लेखक से मेरी भेट कभी नहीं हुई. डॉ. पट्टाभिसितारामैय्या, जो प्रो. नरसू के मित्र थे, से ही मुझे उनके बारे में जानकारी प्राप्त हुई.  प्रो. पी लक्ष्मी नरसू  डायनामिक्स के प्रतिष्ठित प्रोफ़ेसर थे. इसके अलावा  वे एक बड़े समाज सुधारक थे. प्रो. नरसू ने जाति-पांति की प्रथा के विरुद्ध अपनी पूरी ताकत से संघर्ष किया. हिन्दू धर्म में इस कुप्रथा के फलस्वरूप जो अत्याचार होता था, उसके खिलाफ विद्रोह का झंडा खड़ा किया था. 

वे बौद्ध धर्म के बड़े प्रशंसक थे और इसी विषय पर सप्ताह-दर-सप्ताह व्याख्यान दिया करते थे. अपने विद्द्यार्थियों में बड़े प्रिय थे. उनका व्यक्तिगत स्वाभिमान और राष्ट्राभिमान दोनों उच्च कोटि के थे. 

पिछले कुछ समय से लोग बौद्ध धर्म के बारे में किसी अच्छे ग्रन्थ की जानकारी चाहते थे. उनकी इच्छा पूर्ति के लिए मुझे प्रो. नरसू के इस ग्रन्थ की सिफारिश करने में कुछ भी हिचकिचाहट नहीं है. मैं सोचता हूँ की अभी तक बौद्ध धर्म के सम्बन्ध में जितने भी ग्रन्थ लिखे गए हैं, उनमें यह ग्रन्थ सर्व श्रेष्ठ है('दी इसेन्स ऑफ़ बुद्धिज्म' के तृतीय संस्करण प्रकाशन: डॉ अम्बेडकर). 

2. प्रो. नरसू मद्रास में डायनेमिक्स के जाने-माने विद्वान थे. आपके साथ ही सी. अयोध्यादास जी भी काम करते  थे. प्रो. नरसू और सी. अयोध्यादास ने साउथ बुद्धिस्ट एसोसियन' की स्थापना की थी और इसके माध्यम से 1910 में भारत सरकार से बौद्धों की अलग से जनगणना कराई. उस समय 18000 बौद्ध मद्रास राज्य में थे.  

3. मद्रास शहर में उस समय महाबोधि नाम की एक बौद्ध संस्था थी. उस संस्था के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर लक्ष्मी नरसू नायडू व सचिव सिंगारावेलू थे.  

मद्रास में परिहार (पराया) अति शुद्र जाति के बहुत से लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार लिया था. इन नव बौद्धों के नेता पंडित अयोधीदास थे. इन लोगों ने रायपेट में एक घर किराये से ले लिया और उसमें  बौद्ध आश्रम की स्थापना की थी. मैं उसमें पालि सुत्त कहा करता था और सिंगारावेलू उसका तमिल में अनुवाद करते थे.

प्रो. नरसू प्रत्येक शुक्रवार को सायं के समय बौद्ध आश्रम आते थे. आप महाविद्यालय के वाचनालय से कुछ पुस्तके मेरे वचन के लिए लाते थे. किसी विषय का तुलनात्मक अध्ययन किस प्रकार करना चाहिए, यह मैंने पहली बार प्रो. नरसू से सीखा था. प्रो. नरसू का व्यवहार बहुत ही अच्छा था.  उनमें किसी भी प्रकार का बुरा व्यसन नहीं था. वे एक खुले दिल के व्यक्ति थे. मद्रास राज्य के समाज सुधारकों में उनकी  गणना होती थी(धर्मानन्द कोसम्बी; आत्मचरित्र  आणि चरित्र: जगन्नाथ सदाशिव सुखठणकर). 

देसस्स सासका

देसस्स सासका

 

गच्छ, 

अत्तनो घरस्स भित्तिसु

लिखाहि-

"मयं

अस्स देसस्स

सासका." 


जाओ

अपने घर की दीवारों पर 

लिख दो-

कि हम 

इस देश के शासक हैं.

कचवरं

अहं घरस्स कचवरं पठि, किं मग्गो अत्थि ?

मग्ग विसये न संसयं.

ते पुब्बे बाबासाहबेन दस्सितं 

घरे यदि कचवर अत्थि, तस्स संसोधनं आवस्सकं.

बुद्ध का अट्ठंगिक मार्ग-

बुद्ध का अट्ठंगिक मार्ग-

1. सम्यक दिट्ठि-  भले-बुरे का ठीक-ठीक ज्ञान.

2. सम्यक संकल्प- राग, द्वेष रहित संकल्प.

3. सम्यक वाचा- झूठ, चुगली और कटु वचन न बोलना.

4. सम्यक कम्मान्त- हिंसा, चोरी, व्यभिचार रहित कर्म. 

5. सम्यक जीविका- अनवर्जित कर्म करते हुए आजीविका चलाना.

6. सम्यक वायाम-  इन्द्रियों का संयम.

7. सम्यक सति- सति(स्मृति) बोध को सतत क्रियाशील रखना.

8. सम्यक समाधि-  कुशल कर्मों के सम्पादन और अकुशल कर्मों के त्याग का सतत चिंतन. 

महासमुद्र के 8 गुण

 महा समुद्र किनारे से गहरा नहीं होता. क्रमश: गहरा होता है. इसी तरह धम्म का ज्ञान धीरे-धीरे गहरा होता है.


संस्मरण

भदंत आनंद कोसल्यायन पंजाब में जन्में (5 जन. 1905) थे, पर उनका कार्य-क्षेत्र भारत में सारनाथ, वर्धा और अपने जीवन के उत्तरार्ध में नागपुर रहा. वे अपने जीवन के अंतिम दिनों तक(22 जून 1988) लिखते रहे.

सन 1964 में राहुलजी के देहांत का तार लंका में आया तो हम लोग केन्डी के एक विहार में थे. भंतेजी उस समय अंगुत्तर निकाय का अनुवाद कर रहे थे. तार पढ़ कर एक क्षण आँखे मुंदकर मौन रहने के बाद कहने लगे-  अब तो राहुलजी के हिस्से का भी लिखना है, और लिखने लगे(भिक्खु मेघंकर: सम्पादकीय: धम्मपद).

Sunday, April 11, 2021

महाप्रजापति गोतमी

पूर्वज

4. शुद्धोदन का विवाह महामाया से हुआ था. उसके पिता का नाम अंजन था और माँ का सुलक्षण. अंजन कोलिय था और देवदह नाम की बस्ती में रहता था.

5. शुद्धोदन एक बड़ा योद्धा था. जब शुद्धोदन ने अपनी वीरता का परिचय दिया तो उसे एक और विवाह करने की अनुमति मिल गई. उसने महा प्रजापति गोतमी को चुना, महाप्रजा पति गोतमी महामाया की बड़ी बहन थी(डॉ अम्बेडकर : बुद्धा एंड हिज धम्मा. पूर्वज: खंड 1, भाग 1).


महामाया की मृत्यु 

2. महामाया अचानक बीमार पड़ी.  6-7. जब उसने अंतिम सांस ली, तब सिद्धार्थ मात्र 7 दिन का था.

8. सिद्धार्थ का एक छोटा भाई भी था. उसका नाम नन्द था. वह शुद्धोदन का महाप्रजापति से उत्पन्न हुआ था.


घायल हंस की कथा

घायल हंस की कथा जो सिद्धार्थ से जोड़ी गई है और जो पाठ्य-पुस्तकों में पढाई जाती है, ति-पिटक ग्रंथों में उसका कोई उल्लेख नहीं है.

यह कथानक बुद्धचरित पर लिखे गए एक काव्य ग्रन्थ 'दी लाईट ऑफ़ एसिया' से लिया गया है जिसके रचियता एडविन आर्नोड हैं. यह कृति सन 1879 में छपी थी और इतनी प्रसिद्द हुई कि विश्व के तमाम ख्यात-नाम रचना धर्मियों ने इसे अपनी कला का विषय बनाया. स्वाभाविक है, चित्र-कला पर भी इसका भारी प्रभाव पड़ा. भारत की बात करें तो रामचंद शुक्ल ने सन 1922 में इसका पद्यानुवाद कर 'बुद्धचरित्र' की रचना की थी.

जैसे की काव्य-ग्रंथों में होता है, यहाँ भी हुआ. बुद्ध के एतिहासिक चरित्र को काल्पनिक और परा-प्राकृतिक बना कर, परस्पर विरोधी बातों से भर दिया गया (डॉ सुरेन्द अज्ञात : एसिया का प्रकाश ).

Saturday, April 10, 2021

ललितागिरी (नाल्टीगिरी)

ललितागिरी (नाल्टीगिरी के नाम से भी जाना जाता है) भारतीय राज्य में एक प्रमुख बौद्ध परिसर है जिसमें प्रमुख स्तूपों, 'एसोटेरिक' बुद्ध चित्रों, और मठों (विहारों), क्षेत्र के सबसे पुराने स्थलों में से एक है ।

रत्नागिरी और उदयगिरी साइटों के साथ, ललितगिरी पुस्पगिरी विश्वविद्यालय का हिस्सा है जो एक ही नामों की पहाड़ियों के शीर्ष पर स्थित है ।

तीन जटिलों को ′′ डायमंड ट्रायंगल ′′ के नाम से जाना जाता है ।

इस परिसर में महत्वपूर्ण खोजों में बुद्ध की रिलिक्स शामिल है । तांत्रिक बौद्ध धर्म का अभ्यास इस साइट पर किया गया था ।

ललितगिरी, उड़ीसा के सबसे प्रारंभिक बौद्ध स्थलों में से एक, ने मौर्यन काल (322-185 ईसा पूर्व) से शुरू होकर 13 वीं शताब्दी ईडी तक एक निरंतर सांस्कृतिक अनुक्रम को बनाए रखा । यह भी ज्ञात है कि इस साइट ने 3 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 10 वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक बौद्ध धर्म, अखंडता की निरंतर उपस्थिति बनाए रखी ।

Friday, April 9, 2021

द्रविड़ प्रदेश

उत्तर भारत-

13 सदी में ही बौद्ध विहीन हो गया था.


द्रविड़ प्रदेश- 

1. बुद्धदत्त(450 ईस्वी)

यह शायद बुद्धघोस के पहले सिंहल आये थे. दोनों की भेट समुद्र में नौका पर हुई थी.इनके ग्रन्थ हैं- 1. विनय विनिच्छय,  2. उत्तर विनिच्छय,  3. अभिधम्मावतार, 4. मधुर अत्थविलासिनी, 5. रूपारूपविनिच्छय. 

2. बुद्धघोस(450 ईस्वी)-  

3. धम्मपाल(500 ईस्वी)-

द्रविड़ प्रदेश में इनके द्वारा रचित ग्रन्थ कम नहीं हैं. दरअसल, बुद्धघोस द्वारा छोड़े हुए कार्य की पूर्ति इनके द्वारा हुई है. इनका जन्म तमिल प्रदेश के कांचीपुरम नमक स्थान में हुआ था. व्हेन-सांग ने जिन धर्म पाल का उल्लेख किया है, वे इनके गुरु थे.

इनकी रचनाएँ हैं-

1. परमत्थ दीपनी(खुद्दक निकाय के उन ग्रंथों की अट्ठकथायें जिनका बुद्धघोस ने आख्यान नहीं किया है. यथा उदान, इतिवुत्तक, विमान वत्थु, पेतवत्थु , थेरगाथा, थेरीगाथा एवं चरिया पिटक)

2. नेत्तिप्पकरण अट्ठकथा  3. दीघ निकाय अट्ठकथा टीका   4. मज्झिम निकाय अट्ठकथा टीका.  5. संयुत्त निकाय अट्ठकथा टीका  6. अंगुत्तर निकाय अट्ठकथा टीका.   7. जातक अट्ठकथा टीका  8. अभिधम्म अट्ठकथा टीका   9. बुद्धवंस टीका   10. विसुद्धि मग्ग टीका  

4. अनुरुद्ध- ये कांची के पास कावेरिपटटन के निवासी थे. इनकी रचाएं हैं-  1. अभिधम्मअत्थ संगह,   2. नाम रूप परिच्छेद ,   3. परमत्थ विनिच्छय.

5. कस्सप(1200 ईस्वी) - इनकी रचनाएँ हैं - 1. मोह विच्छेदनी (अभिधम्म मातिका टीका) , 2. विमति विनोदनी (विनय कथा टीका). 

बुद्धप्पिय दीपंकर(1300 ईस्वी)-  इनकी रचनाएँ हैं- 1. महा रूप सिद्धि  2. पजज मधु 


14वीं सदी में मलिक काफूर ने मथुरा को जीता और सरे मंदिरों और विहारों को ध्वस्त कर दिया. घनघोर अत्याचार किया गया. ऐसे निर्मम हत्यारों से भिक्खु अपने को पीले कपड़ों में रख कर कितने दिनों तक बच सकते थे ? जो जीवित बचे वे सिंहल भाग गए और बिना ग्वाले की गायों की भांति जो बौद्ध गृहस्थ बच रहे, वे ब्राह्मणों के शिष्य हो गए.  इस तरह द्रविड़ प्रदेश से बौद्ध धर्म का उच्छेद हो गया(राहुल सांस्कृत्यायन : पालि साहित्य का इतिहास पृ. 264 ).

ति-पिटक लेखन

 ति-पिटक लेखन

कंठस्थ बौद्ध ग्रंथों की शुद्धता तथा सुरक्षा के लिए दूसरी संगीति के 125 वर्षों बाद तीसरी संगति असोक के समय पटना में हुई थी. इसी के निर्णयानुसार असोक के पुत्र स्थविर महेंद्र ई. पू. तीसरी सदी में सिंहल आये और यह देश कासाय धारी भिक्खुओं से आलोकित हो उठा. पर पिटक की परम्परा अभी भी मौखिक ही थी और यह सूत्रधरों, विनयधरों तथा मात्रिकाधरों के ह्रदय में निहित था. ऐसी विशाल सामग्री का ह्रदय जैसे कोमल भंगुर पात्र में सुरक्षित रखना अत्यंत कठिन है, अतयव सिंहल राज वट्ट गामणि (ई. पू. प्रथम शताब्दी) के समय निर्णय लिया गया और इसके अनुसार 'अलोक विहार' में ति-पिटक ताल-पत्रों पर लिखा गया(पृ. 191). 

सूत्र, विनय तथा अभिधर्म को पढ़ाते समय आचार्य परम्परा के अनुसार जो व्याख्या करते थे, वही सिंहली अट्ठकथाओं के रूप में प्रस्तुत हुई और इन्हें भी लिपिबद्ध किया गया था. ईस्वी सदी के प्रारंभ होते ही सिंहल थेरवाद का गढ हो गया. वहां पर लिपिबद्ध किये गए पिटक ग्रन्थ बाहर भी पहुँच जाते थे, पर सिंहल अट्ठकथाएं सिंहल प्राकृत भासा में थी और शायद ही उनमें से कुछ दक्षिण या उत्तर भारत में पंहुची हों. उनकी भासा सिंहल-प्राकृत थी, जो तीसरी-चौथी सदी के सिंहल शिलालेखों में मिलती है. प्राकृत होने से यह बहुत कठिन नहीं थी. समयानुसार पीछे यह मांग होने लगी की उन्हें मागधी में कर दिया तो बड़ा लाभ हो, क्योंकि इनके प्रयोग का क्षेत्र विस्तृत हो जाता. इसी आवश्यकता की पूर्ति बुद्धघोस , बुद्धदत्त तथा धर्मपाल आदि आचार्यों ने की(बुद्धघोस युग :पाली भासा का इतिहास: राहुल सांस्कृत्यायन).

दिव्यावदान

दिव्यावदान 

यह संस्कृत में है. इस ग्रन्थ का चीनी अनुवाद 265 ईस्वी में हो चुका था.

दिव्य अवदानों या कथाओं का संकलन का नाम है- दिव्यावदान. इसमें  असोकवदान आदि  कुल 38 अवदान हैं. अवदान और  जातक कथा में अन्तर यह हैं कि जातक कथा में बुद्ध के पुनर्जन्म की कथाएं हैं जबकि अवदान में  नायक अन्य भी हैं. 

बौद्ध कालीन इतिहास और संस्कृति का वर्णन दिव्यावदान से प्राप्त होता है.

यह भारतीय इतिहास और संस्कृति के स्रोतों का आधार ग्रन्थ है. इतिहास की पुस्तकें बिना दिव्यावदान के उद्धरणों के प्राचीन इतिहास की पुष्टि असंभव होती है. तब भी हिंदी में इसका अनुवाद नहीं मिलता.


Thursday, April 8, 2021

धम्मपद में इंद्र ब्रह्मा आदि देवता और स्वर्ग-नरक

धम्मपद में इंद्र ब्रह्मा आदि देवता और स्वर्ग-नरक

(1)

1. अप्पमादेन मधवा देवानं सेट्ठतं गतो. 

अप्रमाद से ही इंद्र देवताओं में श्रेष्ठ बना. 30

2. यमलोकं च इमं सदेवकं. 

इस यमलोक तथा इस पृथ्वी को. 44

3. अदस्सनं मच्चुराजस्स गच्छे

यमराज को न दिखाई देने वाला बने. 46

4. न देवो न गंधब्बो न मारो सह ब्रम्हुना. 

न देवता, न गन्धर्व, न मार सहित ब्रह्मा ही. 105

5. सकुंतो जालमुत्तो व अप्पो सग्गाय गच्छति. 

जाल से मुक्त पक्षियों की तरह कुछ ही स्वर्ग जाते हैं. 174

6. पठव्या एक रज्जेन सग्गस्स गमनेन वा. 

पृथ्वी का अकेले राजा होने अथवा स्वर्ग जाने. 178

7. एतेहि तीहि ठानेहि गच्छे देवानं संतिके. 

इन तीन बातों के करने से आदमी देवताओं के पास जाता है. 224


2.

अनेक जाति संसारं सन्धाविस्स अनिब्बिसं.

गहकारकं गवेसन्तो दुक्खा जाति पुनप्पुनं.

बारम्बार जन्म लेना दुक्ख है. 

गृहकारक को ढूंढते हुए मैं अनेक जन्मों तक लगातार संसार में दौड़ता रहा. 153

देवापि तं पसंसति ब्रम्हुणा पि पसंसति.

देवता भी उसकी प्रशंसा करते है और ब्रह्मा भी.230

यम पुरिसा पि च ते उपतिट्ठा. तेरे पास यमदूत आ खड़े हैं. 235

अभूतवादी निरयं उपेति. असत्यवादी नरक में जाता है. 306

निन्दं ततियं निरयं चतुत्थं.

(प्रमादी पुरुष की गति)--- तीसरी निंदा, चौथी नरक. 309

निरया उपकंखति. तो नरक में ले जाया जाता है. 311

खाणातीता हि सोचन्ति निरयम्हि समप्पिता. 315

क्षण हाथ से निक़ल जाने के बाद नरक में पड़ कर शोक करना होता है.

यस्स गतिं न जानन्ति, देवा गंधब्ब मानुसा. 420

जिसकी गति को न देवता जानते हैं, न गन्धर्व न मनुष्य.





Wednesday, April 7, 2021

धम्मपद अट्ठकथा

 धम्मपद अट्ठकथा

इसके रचियता बुद्धघोस(4-5 वीं सदी) बताये जाते हैं. इसमें कई कथा- कहानियों के माध्यम से गाथाओं का अर्थ समझाया गया है. ये कथानक सुत्तपिटक और विनयपिटक तथा जातक कथाओं से लिए गए हैं. 

 

धम्मपद और ताराराम

 ताराराम 

"...... उपनिषदों के निरपेक्ष ब्रह्म या परं ब्रह्म की अवधारणा बुद्ध के समय प्रचलन में नहीं आयी थी।

किसी भी पालि सुत्त में अंतिम सत्य के रूप में उपनिषद के ब्रह्म सिद्धांत का हवाला नहीं दिया गया है।

अतः इसकी आलोचना का प्रश्न ही नहीं उठता---।"

"---उपनिषद का परब्रह्म का विचार ईश्वर, ब्रह्म अथवा प्रजापति के रूप में वैदिक विचारों के केंद्रीय-बिंदु के रूप में आविर्भूत नहीं हूं था।

जीवों के ऊपर ब्रह्मा की सर्वोच्चता और वैदिक कर्मकांड करके कल्पो स्वर्ग प्राप्त करने की वांछनीयता का बुद्ध द्वारा बार-बार खंडन किया गया है।

महानतम वैदिक देव, इंद्र, ब्रह्मा प्रजापति कईं पालि ग्रंथों में बुद्ध के श्रद्धालु शिष्य प्रतीत होते है।"

"यह तथ्य कि बुद्ध अपने कईं प्रवचनों में आदर्श ब्रह्म की प्रशंसा करते है और अपने कई प्रवचनों में ब्रह्मचर्य, ब्रह्मकाया, ब्रह्मभूतः शब्दों का प्रयोग करते है, परंतु इससे हमें भ्रांति में नहीं पड़ना चाहिए। 

'ब्रह्म' शब्द पर वैदिक  ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं था; यह शब्द बुद्धकाल में लोगों के बीच में सामान्य प्रयोग में था।

धम्मपद के ब्राह्मण-वग्ग में ब्राह्मण शब्द का अर्थ वैदिक-पुरोहित्य (पौरोहित्य) ब्राह्मण नहीं है।

बौद्ध-धम्म में सच्चे ब्राह्मण की अवधारणा का अर्थ अर्हत  अथवा बुद्ध की अवधारणा है।

ब्राह्मण शब्द मुनि अथवा श्रमण का पर्यायवाची है।"

"ब्रह्मचर्या का अर्थ धम्मचरिया है।

पालि मूल/पाठों में ब्रह्मचरिया का जो अर्थ है, वही शान्तिदेव अपने बोधिचरियावतार में बोधिचर्या का अर्थ लेते है।

चूंकि ब्रह्म, बोधि, धम्म और बुद्ध का प्रयोग यहां पर्यायवाची शब्दों के रूप में हुआ है।

अतः ब्रह्मकाया का अर्थ धम्मकाया है अर्थात परम तत्व (धम्म धातु) अथवा निर्वाण-धम्म।

निर्वाण एक ऐसी शांति है, जो अनिर्वचनीय है।

ब्रह्मभूत शब्द का अर्थ निब्बूत अथवा सीतिभूत है, जो तथागत का उपनाम है।"

   (ब्राह्मणवाद, बुद्ध धम्म और हिंदूवाद, पृष्ठ 66-67)

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1. बाबासाहब अम्बेडकर ने बौद्ध-हिन्दू संघर्ष को दो संस्कृतियों का खुनी संघर्ष कहा है. 

2. बौद्ध परम्परा में, सिंहलद्वीप के ग्रन्थ दिव्यावदान(300 ईस्वी), असोकवदान और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ(1600 ईस्वी) के 'हिस्टरी आफ बुद्धिज्म' ग्रन्थ उक्त खुनी संघर्ष के साक्षी हैं.

 इन ग्रंथों में बतलाया गया है कि कैसे पुष्यमित्र शुंग(  ईस्वी ) ने बौद्धों का बड़े पैमाने पर संहार किया था और  लाखों बुद्धविहार धराशायी किये थे. पुष्यमित्र शुंग ने राजज्ञा जारी की थी जो किसी समण का सिर लायेगा उसे 100 सोने की मोहरे दिए जायेंगे.

3. ह्वेनसांग(650 ईस्वी) के अनुसार, राजा शशांक(600 ईस्वी ) ने बुद्धगया के विहारों को जमीदोज कर बोधिवृक्ष को जला दिया था.

4. हिन्दू परम्परा में कुमारिल भट्ट(550 ईस्वी) ने बुद्ध की कठोर निंदा की है.

'शंकर दिग्विजय' में शंकर(788-820  ईस्वी) के शिष्य सुधन्वा राजा का बौद्धों के प्रति द्वेष उल्लेखित है. 

"स्कंधगुप्त सम्राट(455- 474 ईस्वी) ने जैसा किया था, उसका अनुशरण करते हुए सुधन्वा राजा ने भी(शंकर की इच्छा से) अपने भृत्यों को यह आज्ञा दी थी की रामेश्वर के सेतु से हिमालय पर्वत तक, बौद्धों को मार डालो, उनके बुद्धे-बच्चों को तक न छोडो और जो उनको मारने से हिचके, उसे भी मार डालो. 

वाल्मीकि रामायण हो या मनुस्मृति, बौद्ध द्वेष सर्व विदित है.

(1.)

 ब्रह्म- 1. बुद्ध ने वैदिक ऋषियों के दर्शन को बेकार जान उसकी सम्पूर्ण रूप से अवहेलना की(बुद्ध और उनके पूर्वज/समकालीन  खण्ड 1 भाग- 5/6: डॉ, अम्बेडकर; बुद्धा एंड हिज धम्मा ). 2. बुद्ध ने ब्राह्मणों के चार आधारभूत सिद्धांत यथा वेद. आत्मा, चातुर्वर्ण व्यवस्था और पुनर्जन्म आधारित कर्मवाद को अस्वीकार कर दिया(वही).  3. ब्रह्म और उसकी संकल्पना को बुद्ध ने नकार दिया(वही).

(2.) 

"जीवों के ऊपर ब्रह्मा की सर्वोच्चता और वैदिक कर्मकांड करके कल्पित स्वर्ग प्राप्त करने की वांछनीयता का बुद्ध द्वारा बार-बार खंडन किया गया है। महानतम वैदिक देव, इंद्र, ब्रह्मा प्रजापति कईं पालि ग्रंथों में बुद्ध के श्रद्धालु शिष्य प्रतीत होते है।" 

क्या उक्त दोनों वाक्य आपस में विरोधाभाषी नहीं ?

(3.)  

धम्मपद के ब्राह्मण-वग्ग में ब्राह्मण शब्द का अर्थ वैदिक-पुरोहित्य (पौरोहित्य) ब्राह्मण नहीं है। बौद्ध-धम्म में सच्चे ब्राह्मण की अवधारणा का अर्थ अर्हत अथवा बुद्ध की अवधारणा है। ब्राह्मण शब्द मुनि अथवा श्रमण का पर्यायवाची है।"

बुद्धकाल में 'ब्राह्मण' शब्द रूढ़ था. वह ब्राह्मणों की लिए ही प्रयोग होता था. यथा-                                            यम्हा धम्मं विजानेय्य सम्मा सम्बुद्ध देसितं.                                                                                                     सक्कच्चं तं नमस्सेय्य अग्गिहुत्तं व ब्राह्मणो. धम्मपद 393

जिस उपदेशक से बुद्ध द्वारा उपदिष्ट धर्म जाने, उसे वैसे ही नमस्कार करे जैसे ब्राह्मण अग्नि होत्र को.

बुद्ध ब्राह्मण की सर्वोच्चता को पसंद नहीं करते थे और इसलिए जब भी अवसर आया उन्होंने ब्राह्मण की गर्हा की. ऐसे ढेरों प्रसंग हैं जिन्हें इस सन्दर्भ में उल्लेखित किया जा सकता है. 

(4.) 

"ब्रह्मचर्या का अर्थ धम्मचरिया है।

निस्संदेह, ब्रह्मचरिया ही धम्मचरिया है. किन्तु सवाल यह नहीं है. सवाल यह है कि हर उत्तम  चीज में ब्रह्म कैसे घुस गया ?  जिस ब्रह्म को बुद्ध नकार रहे हैं, वह उत्तमता का प्रतीक कैसे हो सकती है ?

(5.) 

"ब्रह्मभूत शब्द का अर्थ निब्बूत अथवा सीतिभूत है, जो तथागत का उपनाम है।"

निब्बुत पालि शब्द है, जिसका अर्थ 'बुझ जाना' है. बाकि ब्राह्मणीकरण है. 

(6.)  

ब्रह्म, आत्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक, देवलोक, परलोक  का बुद्ध ने उपदेश नहीं दिया. जबकि धम्मपद में अनेक गाथाये हैं जो इनका प्रचार करती हैं.

(7.)  

धम्मपद की ये गाथाये कौन सा उपदेश देती है, सिवाय ब्राह्मण सर्वोच्चता और स्वच्छंदता के ?                                          मातरं पितरं हन्त्वा, राजानो द्वे च खत्तिये.                                                                                                                      रट्ठं सानुचरं हन्त्वा, अनीघो याति ब्राह्मणो. 294

(8) 

ति-पिटक में जो बुद्धवचन के रूप में लिखा और कहा गया है, उसे 'बुद्धवचन' स्वीकारते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए(परिचय: डॉ. अम्बेडकर: बुद्धा एंड हिज धम्मा)

(9.)

बुद्धिज्म को समता का प्रतीक कहा जाता है, फिर धम्मपद में 'ब्राह्मणवग्ग' ही क्यों ? अन्य वर्गों का क्या अपराध था ? विशेष कर तब, जब ब्राह्मण के बारे में बुद्ध के अच्छे विचार नहीं थे.

(10.)

बुद्धा एंड हिज धम्मा में बाबासाहब अम्बेडकर ने ति-पिटकाधीन कई ग्रंथों से उद्धरण लिए हैं. उद्धरण को जस के तस लिखा जाता है.

(11.)

न ब्राह्मणस्स पहरेय्य नास्स मुंचेथ ब्राह्मणो.

धि ब्राह्मणस्स हन्तार ततो धि यस्स मुंचति. 389

ब्राह्मण पर प्रहार न करे, न ब्राह्मण उसे छोड़े.

ब्राह्मण हत्या करने वाले को धिक्कार है, उसको धिक्कार है, जो उसे छोड़ता है.

आचरेसु पालि(2)

 आचरेसु पालि(1) 

किसी भी भाषा को सीखने का तरीका है, व्यवहार में लाना. निम्न कुछ वाक्यों को फेसबुक/ वाट्सएप में कमेन्ट करते समय प्रयोग करे.

भंडागारे नियुत्तो-  स्टोर्स में नियुक्त

बाहासु गहेत्वा- बांहों में लेकर.

कदलिसु गजे रक्खन्ति- केले के पेड़ों से हाथियों की रक्षा(व्यंग)

मुसली दण्डेहि न भायति- मुसल को डंडे से कैसा डर ?

पुनं मिलाम- पुन: मिलते हैं.

बालो मिच्छा मञ्ञति- मुर्ख मिथ्या ही सोचता है.

सीलं रक्खेय्य- शील की रक्षा करें.

सप्पुरिसो यं यं देसं गच्छति, तहं- तंह पूजितो होति.




Tuesday, April 6, 2021

असोक का भाबरू(जयपुर) सिलालेख

असोक के सिलालेखों में बुद्धवचनों के जो अभिलेख मिलते हैं, यह एतिहासिक विरासत अनुत्तर है. यथा असोक का भाबरू(जयपुर) सिलालेख जिसमें 7 सुत्तों में सदाचरण सम्बन्धी निर्देश उत्कीर्ण हैं.

1. विनय समुकसे(समुत्कर्ष) धम्म चक्क पवत्तन सुत्त 

2. अलिय वसानि(वंस)- अंगुत्तर निकाय; चतुक्क निपात 

3. अनागत भयानि- अंगुत्तर निकाय; पंचक निपात

4. मुनि गाथा- मुनि सुत्त; सुत्त निपात

5. मोनेय सूते- नालक सुत्त; सुत्त निपात

6. उपतिसपसिने(सारिपुत्त/उपतिस पन्ह)-  सारिपुत्त सुत्त; सुत्त निपात

7. राहुलोवाद सूते(चुळ राहुलोवाद सुत्त/ अम्बलट्ठित राहुलो वाद सुत्त)-  मज्झिम निकाय 

 

आरक्षण के विरोध में प्रेमचन्द: कँवल भारती

1934 में पहली बार भारत सरकार ने मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों में 25 प्रतिशत आरक्षण की विज्ञप्ति जारी की थी। प्रेमचंद ने उसका भरपूर विरोध किया। उनका हिंदू मन आहत हो गया. जिस राष्ट्रवादी सोच के तहत प्रेमचन्द ने दलितों के लिए पृथक निर्वाचन के अध्किार का विरोध किया, उसी सोच के तहत उन्होंने मुसलमानों के आरक्षण का भी विरोध किया। उन्होंने जुलाई 1934 के ‘हंस’ में लिखा: ‘साम्प्रदायिकता के नाम पर, मुसलमानों के लिए पच्चीस प्रतिशत स्थान सुरक्षित कर दिए गए हैं। हमारी समझ में इसका अर्थ यही है कि सरकार हमारी राष्ट्रीय प्रगति को कुचलने का प्रयत्न कर रही है। वह नहीं चाहती कि हममें जीवन आ जाए। इस प्रकार साम्प्रदायिकता का पोषण करके वह हमारी राष्ट्रीयता को हवा में उड़ा देना चाहती है। सरकार का यह रुख बड़ा भयावह है। राष्ट्र के लिए यह कितना खतरनाक सिद्ध होगा, इसकी कल्पना करते ही महान खेद होता है। लेकिन सरकार को इसकी क्या परवाह है? उसे तो राष्ट्रीयता छिन्न-भिन्न करनी है। प्रत्येक समझदार व्यक्ति ने स्पष्ट शब्दों में नौकरियों के साम्प्रदायिक विभाजन का विरोध किया है।’

नौकरियों के साम्प्रदायिक विभाजन का विरोध करने वाले समझदार राष्ट्रवादी हिन्दू आज भी हैं, जो नौकरियों के जातीय विभाजन का विरोध करते हैं। और ये समझदार राष्ट्रवादी भला ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य और कायस्थों के सिवा कौन हो सकते हैं? प्रेमचन्द कितने तुच्छ दिमाग के थे कि मुसलमानों को भारत-राष्ट्र का अंग ही नहीं मान रहे थे! जैसे आज हिन्दुत्ववादी दलितों को भारत-राष्ट्र का अंग नहीं मानते, वरना सुप्रीम कोर्ट पूछता कि उन्हें कितनी पीढ़ियों तक आरक्षण चाहिए? विचारणीय सवाल यह है कि कोई राष्ट्र नीचे कैसे गिर सकता है, अगर उसके कमजोर वर्ग को विशेष प्रावधान से ऊपर उठाने की व्यवस्था की जाती है? मुसलमानों के लिए नौकरियों में आरक्षण की विज्ञप्ति 1934 में जारी हुई थी। उस समय तक भारत का विभाजन नहीं हुआ था। मुसलमान भारत-राष्ट्र के ही अंग थे। इसका मतलब यह हुआ कि 1934 तक सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं था। दलित और पिछड़ी जातियों को तो खैर शिक्षित ही नहीं किया गया था। फिर सरकारी नौकरियों में किनकी इजारेदारी थी। जाहिर है कि सवर्ण हिन्दुओं की। फिर मुसलमानों को 25 प्रतिशत नौकरियाँ देने से किस हिन्दू राष्ट्र को खतरा महसूस कर रहा था? ज़ाहिर है हिन्दू राष्ट्र को!
आगे प्रेमचन्द एक और निहायत बचकाना तर्क देते हैं, जैसे आज भी कुछ छद्म प्रगतिशील लोग दलितों के आरक्षण के सम्बन्ध में देते है---‘इसका यह अर्थ नहीं कि हम मुसलमानों की उन्नति के विरोधी हैं। हमें उनके लिए 25 प्रतिशत स्थानों के सुरक्षित होने पर भी खेद नहीं है, खेद है इस साम्प्रदायिक मनोवृत्ति पर, जिससे राष्ट्रीयता का गला घुट रहा है।’ वाह रे, प्रेमचन्द, मुस्लिम-विरोधी हैं, पर नहीं हैं, बस खेद है कि मुसलमानों को नौकरियाॅं देने से राष्ट्रीयता का गला घुट रहा है। कौन मूर्ख कहेगा कि यह प्रेमचन्द का मुस्लिम-विरोधी वक्तव्य नहीं है? छद्म प्रगतिशील भी ऐसे ही बोलते हैं कि ‘हम दलितों के विरोधी नहीं हैं, हम दलितों की तरक्की चाहते हैं। पर उनको आरक्षण देने से राष्ट्रीयता का गला घुट रहा है।’
मुसलमानों के सवाल पर प्रेमचन्द आगे और भी घोर सनातनी हिन्दूवादी दृष्टिकोण से लिखते हैं--'नौकरियों के इस प्रकार विभाजन से क्या होगा?साम्प्रदायिक द्वेष की मनोवृत्ति पनपनेगी, धर्मान्धता बढ़ेगी, हृदय ईर्ष्यालु होंगे, योग्यता का मूल्य गिर जायगा। मूल्य रहेगा साम्प्रदायिकता का। उसी का भयानक ताण्डव दृष्टिगोचर होगा, और यह राष्ट्र के लिए कितना घातक हो सकता है, यह किसी भी समझदार व्यक्ति की समझ से बाहर की बात नहीं है। प्रत्येक समझदार व्यक्ति इस दृष्टिकोण का विरोध करेगा और चाहेगा कि नौकरियाँ सम्प्रदाय के नाम पर नहीं, योग्यता के नाम पर दी जाएॅं।’
ये ठीक वही तर्क हैं, जो सनातनी हिन्दू और छद्म प्रगतिशील हिन्दू दलितों के आरक्षण के बारे में आज भी देते हैं। इन तर्को में सबसे बेहूदा तर्क योग्यता का है। यह तर्क इसलिए दिया जाता है, क्योंकि द्विज हिन्दू अपने सिवा किसी अन्य को योग्य मानते ही नहीं, और दलितों को तो बिल्कुल भी नहीं। जब मुलायम सिंह यादव पहली बार उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री बने थे, तो इन्हीं ‘योग्य’ हिन्दुओं ने दीवालों पर नारा लिखा था--‘अहीर का काम भैंस चराना है, शासन करना नहीं।’ असल में द्विज हिन्दू और खास तौर से ब्राह्मण समझते हैं कि वे योग्य और श्रेष्ठ पैदा हुए हैं, इसीलिए वे शासन-प्रशासन और न्यायपालिका में मुख्य पदों पर हैं। पर यह सच नहीं है, सच यह है कि सत्ता उनको चाहती है, इसलिए वे हर जगह मुख्य पदों पर हैं। चूॅंकि सत्ता उन्हीं के हाथों में है, इसलिए योग्य-अयोग्य का पैमाना भी उन्हीं के हाथों में है।
हिन्दुओं की इसी विषैली मनोवृत्ति के कारण भारत का विभाजन हुआ, और पाकिस्तान बना। यह ठीक ही हुआ, वरना हिन्दू कभी भी किसी मुसलमान को यहाँ प्रधानमंत्री नहीं बनने देते।
(6/4/2021)
Bharti Kanwal

ति-पिटक में शाक्यॉ को अक्षम और नीचा दिखाया गया(3)-

ति-पिटक में शाक्यॉ को अक्षम और नीचा दिखाया गया(3)-

एक बार बुद्ध,  कोसल देश  की यात्रा करते हुए कपिलवत्थु पहुंचे. उनके आगमन की खबर सुनकर उनके चचेरे भाई महानाम उनसे मिलने पंहुचे. मेल-मुलाकात के बाद बुद्ध ने उनसे एक रात रुकने की व्यवस्था करने को कहा. किन्तु महानाम ने ऐसा न कर सुझाव दिया कि वे अपने पुराने परिचित भरंडु कालाम के यहाँ रात बिताये(अंगुत्तर निकाय; तिकनिपात: भरंडु कालाम सुत्त).

एवं मे सुत्तं (1)

एवं मे सुत्तं(1) 

1. 

जो हाथ देता है, उसे बचाया जा सकता है

जो हाथ ही नहीं देता, उसे बचाना कैसे संभव है ?

यं इच्छेय्य, तं रक्खणं संभवं.

यं न इच्छेय्य, तं कथं सम्भवं ?

भोपाल के बुद्ध विहार

नम्रता बुद्धविहार- कोलर रोड

करुणा बुद्धविहार- पञ्चशील/अम्बेडकर नगर

प्रबुद्ध बुद्धविहार-  चार इमली 

अशोक बुद्धविहार- अन्नानगर/हबीबगंज 

हबीबगंज बुद्धविहार-

बुद्धभूमि बुद्धविहार- चुना भट्टी

पण शील नगर बुद्ध विहार- 2

अम्बेडकर नगर बुद्ध विहार- 2 

  


Monday, April 5, 2021

आमजन की चिंता

आमजन की चिंता 

भिक्खु-संघ के कुछ नियमों को लेकर बुद्ध और देवदत्त के मध्य मतभेद थे. इसके चलते देवदत्त द्वारा बुद्ध पर प्राण-घातक चोट पहुँचाने का अंदेशा विनयपिटक के चुलवग्ग में आया है- 

बुद्ध, राजगृह में विचरण कर रहे थे. जब वे गृधकूट पर्वत के नीचे से जा रहे थे, उनके सामने एक बड़ी चट्टान गिरी थी. सहस्त्र भिक्खु बुद्ध के आस-पास थे तब भी चट्टान की एक चिप्पी उनके पैर को लगी थी. कहीं देवदत्त हत्या न कर दे, इस आशंका से भिक्खुओं ने उनके आराम-स्थल के चारों ओर पहरा देना शुरू कर किया था. भिक्खुओं की हलचल देख बुद्ध ने आनन्द से पूछा- 

"आनन्द! ये भिक्खु यहाँ क्यों घूम रहे हैं 

" भंते! भगवान को कोई हानि न पहुचाने पाएं, इसलिए ये भिक्खु पहरा दे रहे हैं." 

बुद्ध ने भिक्खुओं को बुला कर कहा - 

" भिक्खुओं! मेरी चिंता छोड़ आम-जन की चिंता करो. उनके दुक्ख दूर करो" 

एक रोगी की सेवा

एक रोगी की सेवा 

भिक्खुओं में यदि कोई बीमार होता तो बुद्ध उनके स्वास्थ्य के बारे उतने ही चिंतित होते थे जितना कि एक माँ बच्चे के बीमार पड़ने पर होती है. विनयपिटक के महावग्ग में एक कथानक दृष्टव्य है-

उस समय एक भिक्खु को पेट की बीमारी थी. वह अपने पेशाब-पाखाना में पड़ा हुआ था. जब बुद्ध को यह ज्ञात हुआ तो वे आनन्द को साथ लेकर उस भिक्खु के पास गए. 

"भिक्खु तुझे क्या रोग है ?" -बुद्ध ने उस भिक्खु को पूछा.

"पेट की बीमारी है, भंते !"

"भिक्खु, तेरा कोई परिचारक है ?"

"नहीं भंते !"

"क्या दूसरे भिक्खु तेरी सेवा नहीं करते ?"

"भंते! मैंने किसी दूसरे भिक्खु की सेवा नहीं की."

"जाओ आनन्द,  पानी लाओ. इसे हम नहालायेंगे."

आचरेसु पालि(1)

आचरेसु पालि(1) 

किसी भी भाषा को सीखने का तरीका है, व्यवहार में लाना. निम्न कुछ वाक्यों को फेसबुक/ वाट्सएप में कमेन्ट करते समय प्रयोग करे.

तस्स ऊपरि- उसके ऊपर.

ति-बारं- तीन बार.

खिरेसु जलं- दूध में पानी के बराबर.

तस्मिं समये- उस समय.

गीतस्स कुसलो- गायन में कुशल.

विनये निपुणो- विनय में निपुण.

धम्मे गारवो- धम्म में गौरव.

अप्प तुट्ठो- अल्प में संतुष्ट.

(2)


धम्मपद पाठ

 धम्मपद पाठ

आजकल कुछ 'धम्म-प्रेमियों' को घर-घर 'रामचरित मानस' गायन की तर्ज पर धम्मपद का पाठ करते देखा जा सकता हैं. भोपाल के बुद्ध विहारों में बीते समय धम्मपद का पाठ होता था. किन्तु धीरे-धीरे लोग इस षडयंत्र को समझने लगे हैं. अब बुद्ध विहारों में धम्मपद का नहीं, बाबासाहब अम्बेडकर कृत 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' का पाठ होता है.
निस्संदेह, धम्मपद में नीतिपरक अच्छी-अच्छी बातें हैं. सुन्दर-सुन्दर शिक्षा-प्रद बातें कहीं गई हैं. किन्तु इसमें ब्राह्मणवाद का बखान भी है. ब्राह्मण को जघन्य पाप करने के बाद भी इसके परिणाम से मुक्त रखा गया है ! हम समता के पक्षधर है. हमें इस तरह की असंवैधानिक बातों का क्यों समर्थ करना चाहिए? या कि इन भेद भाव और अवांछित गाथाओं को निकाल बाहर करें अथवा इनमें संशोधन हो.
अनेक देशों में धम्मपद की जो प्रतियाँ मिलती हैं, उनमें भारी अन्तर है. कहीं कहीं तो कई वग्ग ही गायब हैं. अर्थात धम्मपद में संशोधन हुए हैं. भदंत आनंद कोसल्यायन हो या 'धम्मपद; गाथा और कथा' के लेखक प्रो. ताराराम; सभी ने स्वीकार किया है कि वर्तमान में प्राप्त धम्मपद में भारी बदलाव हुआ है. ऐसे में जो कुछ ति-पिटक में लिखा है, उसे 'बुद्धवचन' मानना न सिर्फ तथ्यों से परे हैं वरन ब्राह्मणवाद को अपने कन्धों पर ढोते रहना है.

Sunday, April 4, 2021

चीवरधारी ब्राह्मण

चीवरधारी ब्राह्मण 

बुद्ध की दृष्टि में समण और ब्राह्मण में ज्यादा फर्क नहीं है(समण ब्राह्मण सुत्त: अंगुत्तर निकाय तिक निपात ). बुद्ध जो समण संस्कृति के संवाहक थे,  ब्राह्मण को समण के समान अथवा उससे अधिक क्यों बता रहे थे ? कहीं यह चीवरधारी ब्राह्मण भिक्खुओं का षडयंत्र तो नहीं ?

पालि सीखें

 बुद्ध को आता हुआ देख भिक्खुओं ने वंदन किया.

भगवा आगच्छन्तं दिस्वा भिक्खवो ति-बारं वन्दिंसु

बेर खाता देख तुम्हारे मुंह में पानी आया. 

बदरी फलं खादन्त दिस्वा त्वयि मुखे रसं आगच्छि.


Friday, April 2, 2021

चीनी धम्मपद: ताराराम

 धम्मपद 

धम्मपद पहला वग्ग : अनित्यता (Impermanency)

1. इसकी पहली गाथा/कथा शक्र से संबंधित है। ब्राह्मणी साहित्य में शक्र की तुलना ब्रह्मा से की जाती है, हालांकि कईं कारणों से ये दोनों एक-ही चरित्र नहीं है।  कईं प्रसंगों में शक्र को इंद्र का समतुल्य मानकर शक्र का अनुदित रूप इंद्र भी  किया जाता है। जो भी हो।

      इस पहली गाथा में कहा यह गया कि एक बार शक्र ने कुम्हार के घर में गधे की योनि में जन्म लिया... ---गर्भाधान के समय गधी बड़ी प्रसन्न हुई और उसने लातों से कुम्हार के सब बर्तन तोड़-फोड़ दिए ------कुम्हार ने उसे बहुत पीटा----इसका संधान करते हुए बुध्द ने कहा। कुछ भी स्थायी नहीं है, जो पैदा होता है, फलता-फूलता है, वह एक न एक दिन विनिष्ट होता है। मनुष्य जन्म लेता है और मर जाता है। इस से बचने की खुशी मिट्टी के बर्तनों की तरह ही है---! जिसे कुम्हार बड़ी मेहनत और तल्लीनता से बनाता है---अंत में नष्ट होना होता है।-----

2.

धम्मपद : अनित्यता वग्ग

   गाथा 2

            धम्मपद के अनित्यता वर्ग की दूसरी गाथा महाराजा प्रसेनजित से संबंधित है। महाराजा प्रसेनजित राजमाता की मृत्यु के बाद दाह-संस्कार से लौटते हुए भगवान बुद्ध से मिलते है। भगवान बुद्ध उस समय श्रावस्ती में विहार कर रहे होते है। कुशलक्षेम पूछने के बाद भगवान बुद्ध देसना देते है कि हे राजन! चार चीजे है, जो सनातन काल से अब तक मनुष्य को चिंताग्रस्त और भयग्रस्त किये हुए है। वे है; बुढ़ापे का भय, बीमारी का भय, मृत्यु का भय और मृत्यु पर दुखाप्त भय। मनुष्य का जीवन ऐसा और इतना ही अनित्य है, जितना हम अपने आसपास विनिष्ट होती चीजों को देखते है। आज वे फली-फूली दिखती है तो कल खत्म हुई दिखती है, जिस प्रकार हमेशा पंच-नद का पानी दिन-रात बहता हुआ दिखता है, उसी प्रकार यह जीवन है। जिस प्रकार से नदियों का पानी कितने ही उफान और बहाव के साथ बहता है, वह वापस नहीं बह सकता है, उसी प्रकार से मनुष्य के जीवन का बहाव है। जो बीत गया वह लौट कर वापस नहीं आ सकता है।-----

      भगवान बुद्ध द्वारा राजा को इसप्रकार देसना दिए जाने से राजा और उनके अनुचर व श्रोतागण विषाद से उभरे। जीवन की क्षण भंगुरता का उन्हें ज्ञान हुआ....

 

3.

धम्मपद : अनित्यता वग्ग

    गाथा 3

3. अनित्यता वग्ग की तीसरी गाथा राजगृह नगर से संबंधित है। किसी समय भगवान बुद्ध राजगृह के वेणुवन में विहार कर रहे थे। ----वे नगर में देसना के बाद विहार में लौट रहे थे तो रास्ते नगर के द्वार पर जानवरो के एक झुंड को ले जाते हुए एक ग्वाला मिला, जिसके हाथ में एक लाठी यानी दंड था, जिसे ग्वाले अक्सर अपने पास रखते है और जानवरों को उससे हांकते, लाते- ले जाते है। 

          उस समय भगवान ने उसको प्रसंग/विषय बनाते हुए कहा कि जिस प्रकार से यह व्यक्ति/ग्वाला हाथ में दंड लेकर मवेशियों को पालता है और नियंत्रित करता है, घेरता है और चारागाह ले जाता है, उसी प्रकार से बुढापा और मृत्यु नष्ट हो रहे हमारे जीवन को घेरे रहते है; चाहे वह किसी भी वर्ग का आदमी हो या औरत, छोटा हो या बड़ा; धनवान हो या गरीब, अंत में उन्हें खत्म होना है और विलुप्त होना है। जिसने भी जन्म लिया है वह हर एक दिन - रात क्षरण को प्राप्त हो रहा है। जिस प्रकार से बांध से छिन छिन रिसता हुआ पानी एक दिन खत्म हो जाता है, उसी प्रकार से निरंतर रूप से जीवन का क्षरण हो रहा है।----

          इस प्रकार कहते हुए भगवान वेणुवन में पहुंचे। हाथ-पैर धोकर चीवर को ठीक करके भगवान जब अपने आसन पर बैठ गए तो आनंद उनके पास आया और भगवान से निवेदन किया कि भगवान ने जो गाथा कही है, उस को स्पष्ट रूप से समझाने की कृपा करें। .......

          इस अवसर पर भगवान ने उसे पुनः स्पष्ट करते हुए बताया कि जिस प्रकार से ग्वाला प्रतिदिन बैलों को चराने ले जाता है, उसे पालता है और हृष्टपुष्ट होने पर उसकी बलि दे दी जाती है अर्थात कत्ल कर लिया जाता है, जीवन की भी यही गति है। कुछ क्षणों के लिए जीवन निखरता है और फिर मृत्यु को प्राप्त होता है। ---

           इस अवसर पर उपस्थित दो सौ स्रोताओं ने अर्हत्व को प्राप्त किया।

          चाइनीज धम्मपद के अनित्यता वग्ग की यह गाथा पाली धम्मपद की गाथा क्रमांक 135 (दंडवग्ग की गाथा क्रमांक 7 ) से मिलती है। पालि धम्मपद की गाथा संख्या 135:  "यथा दण्डेन गोपालो, गावो पाचेति गोचरं। एवं जरा च मच्चु च, आयु पाजेंति पाणिनं।।"

 

धम्मपद : अनित्यता वर्ग

(प्रचलित पालि धम्मपद में अनित्यता वग्ग नहीं है। यह वग्ग चाइनीज धम्मपद में है, जिसका जिक्र धम्मपद पर मेरी कृति 'धम्मपद: गाथा और कथा' में किया है। मेरा ऐसा मानना है कि मूल धम्मपद में यह अध्याय जरूर रहा होगा, तभी चीन देश में उसका अनुवाद हुआ, परंतु समय के साथ-साथ धम्मपद के पाठ-भेद हो गए और जब सत चित आनंद का दर्शन फैलने लगा तो देश-काल के अनुसार प्रचलित पालि धम्मपद से कुछ वग्ग और गाथाएं निरसित कर ली गयी होगी। वर्तमान में जो पालि धम्मपद प्रचलित है, वह बाद का रूप है। 'धम्मपद:गाथा और कथा' प्रचलित पालि धम्मपद की गाथाओं का ही संपादन है।

       कुछ मित्रों, जिस में निर्वाण-प्राप्त शांतिस्वरूप बौद्ध भी थे, ने निवेदन किया था कि चाइनीज़ धम्मपद की उन गाथाओं का सार रूप भी अगर उपलब्ध हो जाये तो यह हिंदी जगत के लिए उपलब्धि होगी।

      लिहाजा, बील महोदय की चाइनीज़ धम्मपद की अंग्रेजी प्रति से उन गाथाओं के सार को यहां पर संक्षिप्त में रखने का यह लघु यत्न है। यह न तो सकल अनुवाद है और न ही स्वतंत्र लेखन। यह अंग्रेजी में उपलब्ध चाइनीज़ धम्मपद की उन गाथाओं का सार रूप ही है, जो पालि में अप्राप्य है। त्रुटि हेतु क्षमाप्रार्थी🙏)

धम्मपद: अनित्यता वर्ग

गाथा 4.

          चाइनीज धम्मपद के अनित्यता वग्ग की चौथी गाथा अनाथपिंडक से संबंधित है। बुद्ध-साहित्य में अनाथपिंडक के अवदान का कोई सानी नहीं है। श्रावस्ती में उसने भगवान के विहार हेतु स्वर्ण मुद्राएं बिछाकर भूमि को खरीदकर उस पर भव्य जेतवन विहार का निर्माण कराया था। जिसके खंडहर आज भी उसकी वैभव-गाथा को संजोए हुए है।

          अनाथपिंडक के एक खूबसूरत पुत्री थी, जिसे वह बेहद प्यार करता था। लाडो-प्यार में पली यह पुत्री चौदह-पंद्रह वर्ष की वय आते ही काल-कवलित हो गयी। उसके निधन से अनाथपिंडक बहुत ही विक्षुब्ध हो गया और घोर विषाद को प्राप्त हुआ।  किसी अवसर पर भगवान बुद्ध श्रावस्ती पधारे और जेतवन विहार में विहार कर थे। अनाथपिंडक वहां जाता है।------

          ----------भगवान बुद्ध उसे जीवन की अनित्यता का उपदेश देते है, जिससे उसका विषाद दूर हो जाता है---भगवान उपदिष्ट करते है कि जो कुछ स्थायी दिखायी देता है, वह स्थायी नहीं है। एक न एक दिन उसे विनिष्ट होना होता है। जो ऊंचा है वह भी एक दिन नीचे आ जाता है। जहां उन्नति है, वहां अवनति भी होती है। जो साझा है, उस में विभाजन है। जहाँ जन्म होता है, वहाँ मृत्यु भी होगी। -----

           भगवान के मुखारविंद से इस प्रकार की देसना सुनकर अनाथपिंडक को ज्ञान हो गया और उसका विषाद दूर हो गया----!

गाथा 5.

          अनित्यता वग्ग की पांचवी गाथा राजगृह की है। भगवान बुद्ध गृद्धकूट पर विहार कर रहे होते है। राजगृह में पुंडरी नाम की एक बेहद खूबसूरत सुंदरी होती है। उसके सौंदर्य की शोभा और शालीनता की सानी अन्य किसी से नहीं की जा सकती है। वह---वह अनिंद्य सुंदरी अपने जीवन से उकता जाती है-----वह भगवान बुद्ध के संघ में शामिल होने के लिए व भिख्खूणी बनने के लिए भगवान बुद्ध जहां विहार कर रहे होते है, उधर चल पड़ती है।-----

          .... वह पहाड़ की आधी चढ़ाई चढ़ती है तो उसे वहां पोखर दिखता है। पानी पीने के लिए वह थोड़ी देर के लिए उस पोखर पर रुकती है। वह ज्योहीं तालाब के पानी को हाथों में लेकर ऊपर उठाती है, त्यों ही उसको अपनी छवि तालाब में दिखती है। अपने मुंह तक हाथों में लिए हुए पानी को पीने को उद्यत पुंडरी जब अपनी छवि को देखती है तो उसको निहारने लग जाती है। वह अपने रूप-वैभव को देखकर----उसका मन बदल जाता है। उसकी अद्वितीय सुंदरता, अप्रतिम रंग-रूप, सुनहरे केश और लचकता शरीर----! वह उस में खो जाती है। उसके मन में विचारों का तूफान खड़ा हो जाता है। वह सोचती है कि क्या उस जैसी अनिंद्य सुंदरी को संसार त्याग करके वैरागी बनना चाहिए?----! क्या यह रूप इसीलिए है---नहीं! ----उसे रूप-वैभव का आनंदोपभोग करना चाहिए---उसे वैरागी नहीं होना---।---ऐसा सोचते हुए वह वापस जाने के लिए उद्यत होती है। वह अपने घर की ओर रवाना होती है।

          उस समय भगवान बुद्ध इन सब परिस्थितियों को देख रहे होते है। ---वे पुंडरी के मन में उठ रहे विचारों के तूफान को जान जाते है।--- भगवान सर्वज्ञ है। उन्हें पुंडरी के मन का हाल मालूम होता है।----भगवान करुणाशील है---! --पुंडरी को उससे भी बेहतर नारी के रूप में रूपांतरित करने का अवसर है---! पुंडरी के सामने उससे भी सुंदर एक रूपकाय उपस्थित होता है।

          उस सुंदर रूपकाय को देखकर पुंडरी सवाल करती है कि ----आप कहाँ से हो?---कहाँ जा रही हो---अति सुंदर---बिना किसी अनुचर के यों अकेले ही कैसी?-----उनमें वार्तालाप होता है। वह रूपकाय बोलती है कि वह अपने नगर से आ रही है---हालांकि हम एक दूसरे को नहीं जानती है, फिर हमसफ़र हो लें------!

          सभी साथ चल पड़ते है। रास्ते में एक झरना पड़ता है। वहां रुक जाते है।-----सभी विश्राम करते है। वह सुंदरी पुंडरी के सामने लेट जाती है। उसे नींद आ जाती है।----पुंडरी देखती है कि उस सुंदरी की सुंदर काया धीरे धीरे करके लाश में बदल जाती है...उसका अंग-प्रत्यंग उसे ढीला पड़ा हुआ नजर आया---बाल सफेद---दांत गिरते हुए---उस रूपकाया पर मक्खियां भिनभिनाने लगी----पुंडरी सिहर उठी---भयभीत हो गयी---वहां से भाग गई---उसने देखा कि यह अनिंद्य सुंदरी भी मृत्यु को प्राप्त हुई---जवानी गयी। रूप गया----- वह भागी-भागी ---बुद्ध की ओर चल पड़ी--!

          भगवान बुद्ध जहाँ विहार कर रहे थे,  जल्दी-जल्दी उसके कदम उस ओर बढ़ चले।---- महाकारुणिक के चरणों में गिर पड़ी। उसने जो कुछ देखा---, उस सब को भगवान को बताया। भगवान शांत थे। स्थिर थे----वे बोले कि हे पुंडरी! चार चीजे है, जो विषाद और असंतोष पैदा करती है, जो दुख और संताप का कारण होती है--- कोई कितना ही सुंदर हो, उसे एक न एक दिन बुड्ढा होना होता है, कोई कितना ही मजबूती से स्थिर हो उसका मरना निश्चित है, कोई कितने ही घनिष्ट स्नेह और संबंधों से बंधा हो, उसे बिछुड़ना होता है और कोई कितनी ही अकूत धन-संपत्ति को जोड़ दे, एक न एक दिन उससे हाथ धोना पड़ता है। अकूत संपत्ति भी खत्म हो जाती है----!

          बुढापा सभी प्रकार के आकर्षण को खत्म कर देता है----छिन-छिन व्याप्त भंगुरता और बीमारी ----शरीर झुक जाता है, शरीर का मांस लटक जाता है---यह शरीर का अंत है।---ऐसे शरीर का क्या फायदा----! यह बीमारी, बुढ़ापे और मृत्यु का कारागार है!------इस में आनंद --- लालसा----सब---! मनुष्य जीवन के परिवर्तन को भूलना---मनुष्य जीवन की नासमझी है---!

          भगवान के द्वारा ऐसा उपदेश दिए जाने पर पुंडरी ने जीवन की निस्सारता का साक्षात्कार कर लिया, उसकी आंखें खुल गयी, उसको सत्य का साक्षात्कार हो गया। --फूल-सा सुंदर शरीर ---उसे निस्सार लगा----उसने भगवान से भिक्षुणी बनने की आज्ञा मांगी।---- उसे दीक्षा दी गयी। ---वह भिक्षुणी संघ में शरीक हो गयी और अर्हत्व को प्राप्त किया। अर्हत्व प्राप्ति है----!

6.

धम्मपद: अनित्यता वर्ग


धम्मपद : अनित्यता वर्ग

      प्रचलित पालि धम्मपद में अनित्यता का अध्याय नहीं है। यह वग्ग चाइनीज धम्मपद में है, जिसका जिक्र धम्मपद पर मेरी कृति 'धम्मपद: गाथा और कथा' में किया है। मेरा ऐसा मानना है कि मूल धम्मपद में यह अध्याय जरूर रहा होगा, तभी चीन देश में उसका अनुवाद हुआ, परंतु समय के साथ-साथ धम्मपद के पाठ-भेद हो गए और जब 'सत-चित-आनंद' का दर्शन फैलने लगा तो देश-काल के अनुसार प्रचलित पालि धम्मपद से कुछ वग्ग और गाथाएं निरसित कर ली गयी होगी। वर्तमान में जो पालि धम्मपद प्रचलित है, वह बाद का रूप है। मेरी पूर्व रचना 'धम्मपद:गाथा और कथा' पुस्तक में प्रचलित पालि धम्मपद की गाथाओं का ही संपादन है। 

      पालि में प्रचलित धम्मपद का रचनाकार बुद्धघोष को माना जाता है, जबकि चीन में धम्मपद की जो सबसे प्राचीन प्रति मिलती है, उसका रचियता भदंत धर्मत्राता को माना जाता है। धर्मत्राता सम्राट कनिष्क के समय सम्पन्न हुई चौथी संगीति के अध्यक्ष रहे वसुमित्र के चाचा थे। महाराजा कनिष्क का समय ईसा पूर्व पहली शताब्दी है। इस तथ्य से यह प्रमाणित है कि चीन में उपलब्ध धम्मपद सबसे प्राचीन रचना है। वह ईसा पूर्व की रचना है और बुद्धघोष की रचना ईसा की चौथी शताब्दी की ठहरती है। जो भी हो, चीन में भी इसके चार से अधिक प्राचीन संस्करण मिलते है। जिसकी जानकारी हमें विभिन्न स्रोतों से मिलती है।

       धम्मपद: गाथा और कथा (सम्यक प्रकाशन) की भूमिका में मैंने धम्मपद के कुछ प्राचीन और विशिष्ट संस्करणों का जिक्र किया है। सबसे प्राचीन या पहला संस्करण 'फ़ा-ख्यो-किंग' नाम से प्रचलित है। दूसरा फ़ा-ख़यु-पि-यु कहलाता है। जिसका सैम्युअल बील महोदय ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। 'पि-यु' नामक संस्करण में फ़ा ख़यु किंग संस्करण की सभी गाथाएं नहीं है, बल्कि प्रत्येक अध्याय की कुछ प्रतिनिधि गाथाएं ही उस में संकलित की गई है और उसकी अर्थकथायें दी गयी है। बील महोदय ने उसी का मुक्तहस्त अनुवाद किया है अर्थात अंग्रेजी में हमें जो अनुवाद मिलता है वह भी 'पि-यु' कृति का सकल अनुवाद नहीं मिलता है। सैम्युअल बील के अनुवाद से अनित्यता वर्ग की गाथाओं का यहां सार दिया गया है।

       अनित्यता वर्ग की ये प्रतिनिधि गाथाएं है। इस वर्ग में इसी प्रकार की अन्य गाथाएं भी है, जो चीनी भाषा में उपलब्ध होती है, परंतु किसी अन्य भाषा में भी हो, इसकी जानकारी हमें नहीं है। इन प्रतिनिधि गाथाओं से यह ठीक ठीक पता लग जाता है कि बुद्ध के दर्शन में अनिच्चा का कितना अधिक महत्व रहा है। यह इस बात से और अधिक स्पष्ट हो जाता है कि चीनी धम्मपद में पहला वर्ग या अध्याय ही अनित्यता पर है। अनिच्चा, अनत्ता और दुख, ये बौद्ध धर्म के तीन महत्वपूर्ण स्तंभ है, जिन पर बुद्ध का पूरा दर्शन खड़ा है।

       बील महोदय ने अनित्यता वर्ग की 6 प्रतिनिधि गाथाओं को अंग्रेजी में दिया है। जिस में 1 से 5 का सार पहले प्रस्तुत कर दिया था। गाथा संख्या 6 का सार नीचे दिया जा रहा है।

       

       धम्मपद का अनित्यता वर्ग

अनित्यता गाथा 6

        6. चाइनीज़ धम्मपद के अनित्यता वर्ग की 6ठी गाथा राजगृह में उपदिष्ट की गई है। जिस समय भगवान बुद्ध राजगृह के वेणुवन में धम्म-प्रविचय कर रहे थे, उस समय एक परिव्राजक अपने तीन भाइयों के साथ साधना कर रहा था। वे परिव्राजक  साधना की कुछ सीढियां पार कर चुके थे। उन्हें यह साक्षात्कार हुआ कि 7 दिनों के अनंतर उनकी मृत्यु होने वाली है। उन्हें ऐसा आभाष होने पर एक बोला कि हम अपने अध्यात्म बल से स्वर्ग और पृथ्वी को उलट सकते है। सूरज और चन्द्रमा को छू सकते है। पर्वतों को फेर सकते है। बहती हुई नदियों को रोक सकते है, फिर भी हम मौत को वश में नहीं कर सकते है। उनमें से एक बोला कि मैं इस दानव को समुद्र की गहराई में तलाश करूंगा और इसे नष्ट कर दूंगा। दूसरा बोला कि वह इस दानव को सुमेरु पर्वत की चोटी पर चढ़कर ढूंढेगा और उसे विनिष्ट कर देगा। तीसरा बोला कि वह अंतरिक्ष में दूर-दूर तक इस दानव को ढूंढ निकलेगा और उसे मार गिरायेगा। चौथा बोला कि मैं इस दानव को पृथ्वी के रसातल तक खोजूंगा और उसे विनष्ट कर दूंगा।

            जब राजा के कानों तक ये बातें पहुंची तो राजा इन बातों की सच्चाई जानने के लिए भगवान बुद्ध के पास गया। उस समय भगवान बुद्ध राजगृह के वेणुवन में विहार कर रहे थे। कुशलक्षेम के बाद राजा ने अपनी शंका भगवान बुद्ध से पूछी। उस समय भगवान बुद्ध ने कहा कि हे राजन! जब तक हम संसार में है तब तक हम इन चार चीजों से नहीं बच सकते है: पहला, इस या उस रूप में जन्म लेना हमारे लिए संभव नही है अर्थात हमारे हाथ में नहीं है। दूसरा, अगर जन्म ले लिया तो बुढ़ापे से बचना असंभव है। तीसरा, बुढ़ापे में दुर्बलता और रोग से बचना असंभव है और चौथा, इन परिस्थितियों में मृत्यु से बचना असंभव है।

            ऐसी देशना देते हुए भगवान ने गाथा कही कि 'न आकाश में, न समुद्र के मध्य में, न पर्वतों के विवर में प्रवेश करके और न ही कोई ऐसा अन्य स्थान है जहाँ जाकर मृत्यु से बचा जा सके।-----

            न अंतलिखे न समुद्दमज्झे, न पब्बतानं विवरं पवस्सी। 

            न विज्जति सो जगतिप्पदेसो,यत्थट्ठितं नप्पसहेय्य मच्चु।।

            -----ऐसा उपदेश देते हुए भगवां ने आगे कहा कि -----इसप्रकार से जानता हुआ मार्गारुढ़ भिक्षु ही मार की सेना को परास्त कर सकता है और जन्म व मृत्यु के बंधन से मुक्त हो सकता है।

बुद्ध विहार समन्वय समिति

 धम्म-बंधुओं,

भोपाल में लगभग 60  बुद्धविहार हैं. छोटे-बड़े बुद्धविहारों की यह संख्या प्रदेश और अखिल भारतीय स्तर लाखों में होगी. किन्तु इन बुद्धविहारों के मध्य कोई सांस्कृतिक सामंजस्य नहीं है, जिसकी कमी को हम सभी ने समय-समय पर महसूस किया है.  

भारत एक बहुत बड़ा देश है. यह सांस्कृतिक विविधताओं का देश है. भाषा और जीवन-शैली के साथ एक की धर्म की पूजा-पद्दतियों में भी पर्याप्त अंतर है.  बुद्धविहारों की बात करें तो महाराष्ट्र हो या म. प्र., उ. प्र., बिहार आदि हिंदी क्षेत्र;  या दक्षिण भारत के कर्नाटक, तमिलनाडु, उड़ीसा आदि अहिन्दी भाषी क्षेत्र; आपस में ताल-मेल की भयंकर कमी है.

दूसरे, बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने बुद्धविहारों को शिक्षा के केंद्र के रूप में देखा है, जहाँ बच्चों को सामाजिक-सांस्कृतिक शिक्षा दी जा सकें. सरकारी स्कूल हो या प्राईवेट, बच्चें वहां हमारे इतिहास और संस्कृति को नहीं जान सकते. 

स्पष्ट है, प्रदेश हो या अखिल भारतीय स्तर पर, इन बुद्ध-विहारों के मध्य समन्वय की महत्ती आवश्यकता है. इसी आवश्यकता के मद्दे-नजर 'बुद्धविहार समन्वय समिति' , जिसका मुख्यालय नागपुर में है, कार्यरत है. विगत वर्ष,  बुद्धविहारों में जो पालि भासा परीक्षा आयोजित की गई थी,  इसी संस्था के निर्देशन में संपन्न हुई थी. इसी तरह यह संस्था बुद्धविहारों से जुड़े कई सांस्कृतिक क्षेत्रों में कार्यरत है. 

इसी के अनुकरण में,  म. प्र. में प्रांतीय और जिला स्तर पर बुद्धविहार समन्वय मंडलों का गठन किया जाना अपेक्षित है. यहाँ हम आपका मार्ग-दर्शन चाहेंगे. यथा शीघ्र मीटिंग बुलाई जाएगी. सादर सूचनार्थ.

Thursday, April 1, 2021

बुद्ध की खड़ी प्रतिमा

 बुद्ध की खड़ी प्रतिमा 

प्रारंभ में, जैसे कि अमरावती आदि के स्तूप और बुद्धविहार(ई. पू. दूसरी सदी) अवशेषों में हम देखते हैं, बुद्ध की राज-मुद्रा में खड़ी प्रतिमा ही थी.  राज-मुद्रा में खड़ी यह प्रतिमा संभतया बुद्धकाल में ही कोसम्बी के महाराज उदयन के द्वारा चन्दन की लकड़ी पर तैयार करवाई गयी थी, जिसका उल्लेख ह्वेनसांग ने किया है. 

बाद में भी, चाहे गांधार हो या मथुरा, इस कला अनुकरण  बड़े पैमाने पर हुआ. किन्तु फिर इस 'राज-मुद्रा' को कब 'ध्यान-मुद्रा' में लाया गया, कब इसकी आँखें बंद की गई, खोज और गहन अध्ययन का विषय है. बहरहाल, चाहे 'ध्यान-मुद्रा' हो या 'अभयमुद्रा' हो, बुद्ध के जीवन से ये कतई मेल नहीं खाती.

Wednesday, March 31, 2021

बेशर्म

द्वि बारं, ति-बारं  ताळनं सुनखस्स, चजति ते त्वं द्वारं 

बारम्बारं ताळनं पि दलित जना, न चजन्ति ते मन्दिरस्स द्वारं 

दो बार, तीन बार  कुत्ते को मारना, वह तुम्हारा दरवाजा छोड़ देता है 

किन्तु बारम्बार प्रताड़ित होकर भी दलित, मंदिर का दरवाजा नहीं छोड़ते.

अम्बेडकरस्स पञ्चसीलं

अम्बेडकरस्स पञ्चसीलं

(अम्बेडकर के पञ्चसील) 

1. असिक्खितानं सिक्खितं करनं. 

(अक्षिशितों को शिक्षित करना) 

2. सिक्खितानं सुसिक्खितं करनं.

(शिक्षितों को सुशिक्षित करना)  

3. सुसिक्खितानं संखारितं करनं.
(सुशिक्षितों को संस्कारित करना)

4. संखारितानं सुसंखारितं करनं.
(संस्कारित को सुसंस्कारित करना)

5. सुसंखारितानं देसस्स सासका करनं.
(सुसंस्कारित को देश का शासक करना)

अम्बेडकरवादं


अम्बेडकरवादं

नग्गं दिस्वा

नंगे को देखकर 

चजनं अत्तानि वत्थानि 

अपने कपड़े त्यागना 

इति गांधीवादं, 

यह गांधीवाद है, 

पन, नग्गं दिस्वा

किन्तु, नंगे को देखकर 

तं 'टाई-सूट' धारनं

उसे 'टाई-सूट' पहनाना

अयं अम्बेडकरवादं.

यह अम्बेडकरवाद है.

भारतीय परिधानं

 भारतीय परिधानं

भारते, जना नाना
परिधानानि धारेन्ति।
धारन्तते परिधानानि
ते नाना उय्यानानं
पुप्फानं इव दिस्सन्ति।
तेलगु महोदयो 'लुंगी' धारेन्ति
बंगाली महोदयो 'धोती' धारेन्ति
महरट्ठी महिला 'साड़ी' धारेन्ति
अधुना बालक बालिकायो
'शर्ट पेन्ट' धारेन्ति।
बुद्ध अनुयायियो
सेत वत्थानि धारेन्ति।
नीलं परिधानं पि
बहुजनानि सोभन्ति।
बहुवो भारतीय महिलायो
साटिकायो धारेन्ति
नवं वा परम्परागतं
इमेसु परिधानेसु
भारतीय जना
बहु सुन्दरा दिस्सन्ति।
सम्पूण्ण विस्से
भारतीय परिधानस्स
महत्ता अत्थि
परिधानं विपणने पि
भारतीय परिधानस्स
सेट्ठता अत्थि
मयं, भारतीयं
भारतीय परिधानस्स
अम्हे गारवो।

Monday, March 29, 2021

सर्व-ग्राह्यता

सर्व-ग्राह्यता 

पडोसी मित्र शर्माजी, जो एक मंजे हुए लेखक और साहित्यकार है, के यहाँ बैठा मैं चाय पी रहा था. 

अचानक पुस्तकों की रेक में 'धम्मपद' देख मैंने पूछा-

"तो फिर इन ग्रंथों के बीच डॉ. अम्बेडकर लिखित 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' भी होगा ?"

"जी नहीं, 'धम्मपद' जितनी सर्व-ग्राह्यता अभी उसमें आना बाकि है." 

धर्मान्धता

 धर्मान्धता

लोकानं, चिरं याव
लोगों को, लम्बे समय तक
बाल रूपं न सक्का
मूर्ख नहीं बना सकते
धम्मन्धता अपितु
धर्मान्धता किन्तु
एको येव हेतु अत्थि
एक ऐसा हेतु है
यतो जना वंसानुवंस
जिससे लोग पीढ़ी-दर पीढ़ी
बाल रूपं होन्ति.
मूर्ख बने रहते हैं

Thursday, March 18, 2021

भूतकाले किरिया पयोगा (6)

भूत काले किरिया पयोगा(6)

1. मक्कटं नच्चन्तं दिस्वा दारका करतलेंसु।

बन्दर को नाचते देख बच्चों ने ताली बजाया।

2. धीतं मधुर सरेन भीमगीतं गायन्तं दिस्वा मात-पितुनो पसन्ना अभविंसु।

बेटी को मधुर स्वर से भीमगीत गाते हुए देख माता-पिता प्रसन्न हुए।

3. कर्मचारियों को दिल से काम करते देख अधिकारी प्रसन्न हुआ।

कम्मकरे चित्तेहि कम्मं करन्तं दिस्वा अधिकारी पसन्नो अभवि।

4. पेड़ से पका आम गिरता देख बच्चें तेजी से दौड़े।

रुक्खस्मा पक्कं अम्बं फलं पतन्तं दिस्वा दारका वेगेहि धाविंसु।

5. रोड़ की ओर अपने बच्चे को जाता देख मां तेजी से दौड़ी।

मग्गपस्से सकं बच्चं गच्छन्तं दिस्वा मातु वेगेन धावि।

6. मुझे बेर खाते हुए देख तुम्हारे मुंह में पानी आया।

बदरी फलानि मं खादन्तं दिस्वा त्वयि मुखे रसं आगच्छि।

Wednesday, March 17, 2021

Kovid threat on Sanchi summit

INTERNATIONAL PALI FOUNDATION

Hon. Members, 

It is informed that on increasing Kovid threat specially, in Maharashtra and sealing its boundaries by MP Govt,  'Second Dhammalipi-Pali Sangayana Sanchi' organiging committee held it meeting on 16th March 2021 and decided-  

1. The 'Sanchi Sangayana' summit going to be held on 3-4 April 2021, is hereby postponed till May 2021. Situation shall be reviewed and date will be fixed in May 2021 last week.

2. However, Online publishing research papers/articles will be continue. You are requested to submit the papers/articles up to 25 March 2021, already fixed date. We are going to form a expert committee to scrutinize shortly. 

-With regards.

भूतकाले किरिया पायोगा(5)

भूतकाल में कुछ किरिया शब्दों के विशेष रूप

करोति(कर)- करता है।

देति/ददाति(दा)- देता है।

तिट्ठति(ठा)- खड़ा होता है।

पुरिस- एकवचने--  अनेकवचने

उत्तम पुरिस-अहं अकरिं/अकासिं-- मयं अकरिम्ह/अकम्हा।

मैंने किया। हमने किया।

मज्झिम पुरिस- त्वं अकरि/अकासि-- तुम्हे अकत्थ।

तूने किया। तुम लोगों ने किया।

अञ्ञ पुरिस- सो अकरि/अकासि/अका-- ते अकरिंसु/अकंसु।

वाक्यानि पयोगा- 

1. मैंने जो कहा, उसने किया।

अहं यं वदिं, सो अकरि।

अहं यं वदिं, सो अका।

अहं यं वदिं, सो अकासि।

2. उसने क्या किया, जो दुर्गति को प्राप्त हुआ?

सो किं अकरि, यं दुग्गतं पापुणि ?

सो किं अकासि, यं दुग्गतं पापुणि ?

सो किं अका, यं दुग्गतं पापुणि ?

...................

पापुणति- प्राप्त करता है। भूतकाले- पापुणि।


18. 03. 2021

क्या तुमने वह कार्य किया ?

किं त्वं तं करिय अकासि ?

क्या तुमने वह कार्य किया, जो मैंने कहा ?

किं त्वं तं करियं अकासि, यं अहं वदिं ?

मैंने जो कहा, क्या तुम लोगों ने किया ?

यं अहं वदिं, किं तं तुम्हे अकत्थ ?

जो मैंने कहा, वह उसने किया.

यं अहं वदिं, तं सो अका.

क्या उसने तुम्हारा कार्य किया ?

किं सो तव करियं अका?

क्या उसने तुम्हारी पुस्तक दिया ?

किं सो तव पोत्थकं अदा ?

उसने तुमको क्या दिया ?

सो तव किं अदा?

अद्दसा भगवन्तं, मगध महाराजा अजातसत्तु सिरसा वन्दि.

भगवान को देख मगध महाराजा अजातसत्तु ने सिर से वंदन किया.

अद्दसा मात-पितूनं, पुत्तो सिरसा वन्दि. 

माता-पिता के देख पुत्र ने सिर से वंदन किया.