Saturday, September 28, 2013

संघमित्रा बुद्ध विहार सालेबर्डी

जहाँ आप पैदा हुए, पले-बढे, उस जन्म स्थान में एक लम्बे अंतराल के बाद एक ऐसा कार्य करने का मौका हो जो लोगों की आस्था से जुड़ा हो, तो इससे अच्छा पवित्र कार्य भला क्या हो सकता है। यह वैसा ही है, जैसे गावं का कर्ज उतारना । आजीविका की वजह 35 वर्ष दूर रहने के बाद गावं में मुझे अवसर मिल रहा था कि मैं अपने समाज के लिए कुछ करूँ।
दलित समाज के नौकरी-पेशा लोगों पर सामाजिक कर्ज होता है, अगर आप इसे समझे और महसूस करे।  बाबा साहब ने 'पे बेक टू सोसायटी' की बात कही है।  क्या है यह पे बेक टू सोसायटी ? क्या इसमें कर्ज की बात अंतर्भूत नहीं है ? मुझे नहीं मालूम लोग इसे कितना समझते हैं ?

 मेरा गावं सालेबर्डी, बालाघाट जिले में रामपायली-बोनकट्टा सड़क मार्ग पर रामपायली से 4 की मी दूर चिखला बांध के आगे है। यह वही चिखला बांध है, जहाँ गावं का प्रायमरी स्कूल पास करने के बाद मिडिल स्कूल की  पढाई करने के लिए हम आया करते थे। जैसे ही आप बस से उतरते हैं, सडक के दायी ऒर का रास्ता गावं के अन्दर जाता है। यहाँ टर्निंग पर कोने में एक कुआ है। यह कुआ हमारे घराने के ही एक बड़े बुजुर्ग मारोती उके ने खुदवाया था।  कुआ खोदना पुण्य का काम समझा जाता है। मगर, आजकल गाव में पानी की टंकी बन गई है। अब लोगो के घरों में पानी नल से आता है।

सडक के दोनों और चाय-पान की कई  दुकानें हैं। आज से 25-30 साल पहले चाय पान की सिर्फ एक दुकान हुआ करती थी।  यह दुकान टेलर काकाजी की थी। काकाजी काफी ऊंचा सुनते थे। काकाजी जाति के पंवार थे। गावं के रिश्तों में खून की सरहद नहीं होती।
 हमारे गावं में पंवार अधिसंख्यक हैं।  पंवारों के बाद गोंड जाति के लोग हैं । इसके बाद महार समाज । तब महार करीब तब 70-75 घर के थे।  आज यह संख्या 100  के ऊपर होगी। गावों में मोहल्ले होते हैं। ये मोहल्ले जाति के आधार पर होते हैं;  जैसे पंवार मोहल्ला, गोंडी मोहल्ला, महार मोहल्ला आदि आदि । हर गावं में देवी का मन्दिर होता है। मन्दिर एक से अधिक हो सकते हैं। मगर , प्रत्येक गावं में स्कूल हो,यह जरूरी नहीं हैं। इधर, सन 1956  के बाद से गावों में एक नई तब्दीली आई है। बाबा साहब डा आम्बेडकर के बौद्ध धर्मांतरण से अनु जाति खास कर महारों ने इन देवी-देवताओं के मन्दिरों में जाना छोड़ दिया है। उन्होंने अपने अलग पूजा-स्थल विकसित कर लिए हैं।
मेरा गावं भी इससे अछूता नहीं है। मोहल्ले में बस, एक चबूतरा था जिस पर बाबा साहब और भगवान् बुद्ध की दो मूर्तियाँ रखी थी। मूर्तियाँ सीमेंट (आर सी सी) की थी। ये मूर्तियाँ जब स्थापित की गई थी तब, सुन्दर रही होगी।  मगर, समय के साथ-साथ अब खराब हो चली थी। एक मूर्ति का हाथ ही टूट गया था। मुझे यह दृश्य कुछ अच्छा नहीं लगता था । मेरा पैतृक मकान इस चबूतरे से जरा ही आगे है। जब भी चबूतरे के सामने से गुजरता  , मुझे गहरे तक पीड़ा होती थी।  

पिछली बार जब मैं गावं आया तो यह देख कर आश्चर्य चकित रह गया था कि कोने के कुए के पास एक भव्य मन्दिर खड़ा है। काकाजी, जिनका  इकलौता  पान-ठेला सडक किनारे हुआ करता था, ने बतलाया था कि गावं के ही आदिवासी समाज का लड़का जो मेरी ही तरह कही 'साहब'  है, ने इस मन्दिर को बनाने में अहम् भूमिका अदा की है। लडके ने अपने पिताजी के लिए एक बड़ा मकान बना दिया है। मकान बनाते समय उसने कहा था कि वह गावं में शिवजी का मन्दिर बनाना चाहता है, अगर गावं वाले इसके लिए आगे आए।  
मुझे यह वाकया प्रेरणास्पद लगा। मैं जहाँ सर्विस करता था, वहां पर मैंने जन-सहयोग से कई सामाजिक और रचनात्मक कार्य किये। कार्यों में मेरी संलिप्तता देख कर कुछ लोग पूछते थे कि आप यह क्यों कर रहे हैं ? क्या आप रिटायर्मेंट के बाद यहीं रहने वाले हैं ? मुझे इस तरह के प्रश्न बड़े अजीब से लगते। कुछ हमदर्दी दिखाते हुए सलाह देते कि एक सरकारी आफिसर को लोकली इन्वाल्व नहीं होना चाहिए। खैर, मेरे मन में टीस बनी रही कि गावं के लिए कुछ करना है।
यह जन 14 का महिना था।  मैसूर के रजवाड़े और बंगलौर की चमक निहारते हुए हम लोग गावं लौट रहे थे। सरकारी सेवा से रिटायर होने को 4 साल आ रहे थे। रिटायर होने के बाद किसी शहर में मकान बना कर  घर-परिवार में गूँथ जाना शायद, मेरी फितरत में नहीं था। मैंने राहुल संकृत्यायन को पढ़ा था। राहुल सांस्कृत्यायन के यायावरी के परिणामों को मैं जानता था. 
                                      
लम्बे समय के बाद आप गावं जाते हैं तो गावं और मोहल्ले के लोग आपसे रूबरू होना चाहते हैं। वे अपनी बात बताना चाहते हैं और आपसे कुछ सुनना चाहते हैं। एक दिन मौका पाकर मैंने अपनी बात रखी।  मैंने कहा, अगर आप लोग साथ दे तो उस चबूतरे पर भव्य बुद्धविहार बनाया जा सकता है। इसके लिए मैं हर मदद करने तैयार हूँ ।
मेरी बात पर कुछ खास प्रतिक्रिया नहीं हुई। कुछ ने कहा कि अब गावं में काम-धंधा बचा ही नहीं है। पैसा कौन देगा ? बड़ी मुश्किल से तो पेट भरता  है।  किसी ने कहा कि गावं में अब आदमी तो कोई बचा ही नहीं है।  जो है सब शहर कमाने जाते हैं। ये काम कौन करेगा ? एक ने कहा कि अगर हमारे में दम होता तो बुद्ध विहार कब का बना लेते ? मैं  भारी मन से वहां से चला आया।  सोचा , अगर करना है तो रास्ता भी निकालना होगा।

तीसरे-चौथे दिन मौका देख कर फिर मैंने फिर अपनी बात रखी। इस बार मैंने कहा कि 'बुद्ध विहार निर्माण समिति' का गठन करना है। इसके लिए 8-10  नाम चाहिए। कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं। मैंने सलाह दी कि पहल महिलाओं से किया जाए। इस पर एक महिला ने तड से कहा कि उसका नाम लिखा जाए। मैंने झट से
उसका नाम लिख लिया। फिर तो महिलाओं के कई नाम आने लगे। इसी बीच किसी पुरुष की आवाज आई,  ' ये कोई चूल्हा-चौकी का काम नहीं है। जरा सोच-समझ के बोलो।' इस पर एक दूसरी महिला ने कहा कि मर्द तो यहाँ कोई रहते ही नहीं, सब शहर कमाने गए हैं। तब क्या करे ? अगर भाऊ खुद हो कर आगे आ रहे हैं  तो क्या हमें उनकी मदद नहीं लेनी चाहिए ? मैं हतप्रभ रह गया। मैं सोचने लगा कि आदमी, महिलाओं को कितना संकुचित दृष्टी से देखता है !
तय हुआ कि अब महिलाओं की ही समिति यह काम करे। समिति का नाम ' संघमित्रा महिला बौद्ध समिति ' रखा गया। अब गावं की महिलाऐं कमर कस कर आगे आने लगी। महिलाऐं जहाँ कहीं इकट्ठी होती, चर्चा होने लगती कि अब तो उन्हें बुद्ध विहार निर्माण करके ही दिखाना है।
इधर, गावं के दीगर समाज में भी हलचल शुरू हो गई । लोग टकटकी लगा कर देख रहे थे कि यह क्या हो रहा है ? आजकल, गावों में काफी कुछ बदला है। कई तरह की शासन की योजनाओं के चलते लोगों में चेतना का संचार हुआ है। राशन और मनरेगा के कारण काम करने/ कराने के तरीके बदले हैं । खैर, लोग चाहे जिस जाति के हो, महिला समिति के सदस्यों के जोश की हौसला आफजाई करने लगे कि वे उनके साथ है। इसी बीच खबर आयी कि क्षेत्रीय विधायक अपनी विधायक निधि से महिला समिति को मदद देने तैयार है।

अब क्या था ? महिलाओं की टोलियाँ बनी।  अलग-अलग ग्रुप बने।  महिलाओं के दल चन्दा एकत्र करने के लिए गावं और शहर दूर-दूर जाने लगे। वारासिवनी, बालाघाट, कटंगी के धम्म प्रिय लोगों से बुद्ध विहार बनाने के लिए चन्दा एकत्र किया जाने लगा।  शहर के लोग अभिभूत कि 25-30  की मी दूर से गावं की महिलाऐं   बुद्ध विहार निर्माण करने के लिए शहर में चन्दा मांगने आई हैं। दूसरी तरफ, एक गजब की शक्ति गावं की इन महिलाओं के अन्दर जोश भर रही थी कि हम किसी से कम नहीं है... कि हमें बुद्ध विहार बनाकर दिखाना है।

Tuesday, September 24, 2013

Veerangana Jhalkari Bai

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photo:dalitresoursecentre.com


वीरांगना देशभक्त झलकारीबाई का जन्म 22 नव 1832 को झाँसी के पास भोजला गावं में हुआ था। आपके पिता का नाम मूलचंद और माता का नाम घानिया था। इनकी माता का देहांत बचपन में ही हो गया था। मूलचंद कोरी जाति के थे। कोरी समाज का परम्परागत पेशा कपड़ा बुनना था। झलकारीबाई सुन्दर थी।  उसे परिवार के परम्परागत पेशे से ज़रा भी रूचि न थी । उसे वीरता पूर्ण कार्य अच्छे लगते थे।
झलकारीबाई के बचपन की एक घटना जबर्दस्त है। तब, उसकी उम्र 12 वर्ष के आस-पास रही होगी। रोजमर्रा की तरह एक दिन वह जब जंगल में लकड़ी लाने गई तो उसका सामना शेर से हो जाता है। वह ज़रा भी नहीं घबराती और कुल्हाड़ी से शेर के सर पर वार करती है। शेर वही ढेर हो जाता है।  यह वाकया झलकारीबाई के अदम्य साहस, सूझ-बुझ को दर्शाता है।  

तब, बच्चों का विवाह बचपन में ही कर दिया जाता था।  झलकारी बाई का विवाह  सन 1843 में जब वह 13 वर्ष की थी, नामापुरा (झाँसी ) के पूरण से हुआ था। पूरण कोरी झाँसी के राजा गंगाधर राव की सेना में एक बहादूर सिपाही थे।  
झलकारीबाई अपने पति के कार्य से प्रभावित थी। उसके मन में भी सेना में भर्ती होने की इच्छा थी।  उसने अपनी इच्छा पति को बतलाई।  पूरण के घर में पैतृक पेशा कपड़े बुनना था। मगर, पूरण ने झलकारीबाई की इच्छा का सम्मान किया। उसने झलकारीबाई के बचपन के किस्से तो सुने ही थे। पूरण ने कहा कि वह उसके साथ है।
झलकारी बाई की क्षमता और कौशल महारानी लक्ष्मी बाई की नज़रों से भी ज्यादा दिन छिप न सका। एक और बात,  झलकारीबाई की कद-काठी रानी लक्ष्मीबाई से काफी कुछ मिलती थी। अपने इस गुणों के कारण उसे राज दरबार की सेना में नौकरी मिल गई।  कड़े परिश्रम, सैन्य कौशल और कुशल  नेतृत्व को देख कर उसे नारी सेना का कमांडर बना दिया गया।
इधर, ब्रिटिश शासन की नजरें झाँसी पर लगी हुई थी। राजा गंगाधर राव की मृत्यु होने पर झाँसी को अंग्रेजी शासन में मिला दिया गया । किन्तु , इसी बीच अंग्रेजी शासन के विरुद्ध  कई जगह से भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया था । यह चिंगारी झाँसी तक आ चुकी थी ।
झाँसी में भी यह विद्रोह फुट पड़ता है। किले के बाहर अंग्रेजी सेना और विद्रोही भारतीय सैनिकों के बीच भीषण युद्ध छिड़ता है। ब्रिटिश सेना ने किले को चारों और से घेर लिया था। विद्रोही क्रन्तिकारी भारतीय सैनिक भी पूरी ताकत से ब्रिटिश सेना का मुकाबला करती है। झलकारीबाई भी अपनी पलटन के साथ दुश्मनों पर टूट पड़ती है।
इसी बीच रानी लक्ष्मीबाई अपने छोटे-से बेटे दामोदर राव को लेकर चुपके से किले के बाहर निकल जाती है। जब महारानी काफी दूर निकल जाती है तब झलकारीबाई अपने आप को लक्ष्मीबाई के वेश में आ कर ब्रिटिश सेना को ललकारती है। वह ब्रिटिश सेना को बेवकूफ बनाती है।
 युद्ध भूमि मार-काट मचाती झलकारी बाई के पास तभी दो खबरे आती हैं।  यह की लक्ष्मीबाई बिठुर पहुँच गई और दूसरी की उसके पति पूरण कोरी शहीद हो गए।  वह घोड़े को उस तरफ मोडती है जहाँ उसके पति का शव पड़ा था। वह अपने पति के पैर छू कर एक बार फिर ब्रिटिश सेना पर टूट पड़ती है। झलकारी बाई आंधी की तरह ब्रिटिश सेना को काटती है।  तभी एक गोली उसके सीने के आर-पार होती है। वह घोड़े से गिर पडती है।
भारतीय नारी के इस शहादत  पर ब्रिटिश सेनापति जनरल हुरोज लिखते हैं -'If Indian women were like Jhalkaari, we would soon have to leave this country. 'मगर, भारत का इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों और लेखकों को झलकारीबाई की यह शहादत नहीं दिखती। हिंदी साहित्य के हस्ताक्षर कहलाने वाली लेखिका सुभ्रदा कुमारी चौहान की यह पंक्तियाँ तो आप ने चौथी-पांचवीं की किताब में पढ़ी होगी - 'खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।' धर्म-शास्त्र तो ठीक है, कलम के इन ठेकेदारों ने इतिहास को भी नहीं छोड़ा मनुस्मृति के नियम लादने।  

Saturday, September 14, 2013

Desperate Bhopal Dalits in search of new political party ?

पिछले दिनों भोपाल में एक मित्र ने किसी मीटिंग में शरीक होने के लिए कहा।  मैं भी एक लम्बे समय से मीटिंगों से दूर ही था।  सोचा, देखे भोपाल में किस तरह से मीटिंग होती है ? मीटिंग एक अच्छे होटल में आयोजित की गई थी।

मीटिंग में आयोजक मित्र ने जिस हस्ती से परिचय कराया, वे मिस्टर गिरधारी लाल भगत थे। भगतजी इनकम टेक्स डिपार्टमेंट में चीफ कमिश्नर के पद से रिटायर हुए थे। वैसे तो मैं भगतजी के करीब ही बैठा था, मगर, चाह कर भी मुझे उनकी बातें स्पष्ट नहीं हो रही थी। चर्चा के बाद खाने की मेज पर मैंने अपनी उत्कंठा रखी।  इस पर भगतजी ने कहा कि मैं तत्सम्बंध में आयोजक से सम्पर्क कर सकता हूँ।
खैर, बात आई गई हो गई।  एक दिन मित्र के पुत्र किसी दूसरे कारण से क्वार्टर पर आए।  मैंने जब उस दिन के तारतम्य में अपनी उत्कंठा रखी तो मित्र-पुत्र ने कहा- "अंकल, भगतजी बीबीपी को पहली बार भोपाल में इंट्रोड्यूस कर रहे थे।"
"मगर, ये 'बीबीपी' है क्या ?"
"भारतीय बहुजन पार्टी।"
"ओह ! तो ये बात है।  इसके कर्ता -धर्ता कौन है ? - मैंने पूछा।"
"भगतजी खुद इसके चेयरमेन हैं।"
"मगर राहुल, फिर और एक नई पार्टी बनाने की क्या जरुरत है ? भोपाल में इसके लिए पहले से ही बीएसपी है।  लोग जानते हैं।   फिर एक नई पार्टी की दरकार कैसे है ?"
"अंकल , बहनजी मनमानी करती है।  लोग खासे नाराज हैं। हमारे लोग बीजेपी और कांग्रेस में जा रहे हैं।  उन्हें थामना बहुत जरुरी है।"
"तो तुम क्या सोचते हो, एक नई पार्टी लांच कर तुम लोगों को रोक पाओगे ? बाबा साहब आंबेडकर के द्वारा स्थापित आरपीआई को हमारे लोग नहीं संभाल पाए।  कांशीराम और मायावतीजी को समझ नहीं पा रहे हैं तो भगतजी को ये लोग कितना समझ पाएंगे ?"
"अंकल, किसी भी नई चीज के प्रति लोगों में आकर्षण होता है।"
"मगर, किस कीमत पर ? जो आम्बेडकराईट हैं, उन्हीं को बाटोगे ? अगर बीजेपी और कांगेस के वोटों को बांटने की बात होती, तो एक बार गले के नीचे उतारा जा सकता था।  मगर, गिने-चुने अपने ही वोटों को फिर डिवाइड करना कहाँ की अक्लमंदी है ? क्या यह एक प्रकार से अपने ही वोटों को काटने की साजिश नहीं है ?"
मित्र-पुत्र को अब मेरी बातों में दम नज़र आने लगा था। वह जो अब तक क्रास कर रहा था, धीरे-धीरे हाँ में सर हिलाने लगा था।
-  "अंकल, मुझे राजनीति की ज्यादा समझ नहीं है।  मेरे पापा बताएंगे।"
"ओके।  तुम मेरी बात अपने पापा तक जरुर पहुँचाना।"
"जी अंकल।" 

Saturday, September 7, 2013

Buddha Vandana

Lord Buddha

Buddha Vandana

             बुद्ध वंदना


उपासक/उपासिका -
पंचांग प्रणाम करते हुए
(Five points salutation)


बुद्धं नमामि
I pay reverence to Buddha
                                                      धम्मं नमामि  
पंचांग प्रणाम (1)
I pay reverence to Dhamma


संघं नमामि
 पंचांग प्रणाम (2)
I pay reverence to Sangha 


ओकास, वन्दामि भंते  
Please permit, I salute you Bhante 
द्वारत्तयेन मयं कत्तं सब्बं अपराधं
 खमतु मे भन्ते
Again please Bhante,  pardon me from my all excuses.


पंचांग प्रणाम (3)
दुतियम्पि ...
Second time...
                                                   
पंचांग प्रणाम (4)
ततियम्पि...
Third time...

 धम्म याचना - ओकास, अहं भन्ते  
                 Permit me Bhante

तिसरणेन सह पञ्चसीलं धम्मं  याचामि
Ti-sarnen sah panchseelm  Dhammam yaachaami
मै ति-सरण सहित पञ्च-सील ग्रहण करने की याचना करता हूँ। 
I ask for the five precepts together with three refuges

अनुग्गहं कत्वा सीलं देथ मे भंते 
पंचांग प्रणाम (5)
Anuggham katvaa seelm deth me Bhante
भंते, कृपया अनुग्रह करके मुझे सील प्रदान कीजिए।                
Please Bhante, kindly administer the precepts to me


दुतियम्पि.……            
Second time...

ततियम्पि …           
Third time......         

भंते - यमहं वदामि तं वदेथ 
        Yamahm vadaami tam vadeth
         Repeat after me
 उपासक /उपासिका - आम भंते  (Yes, Bhante)

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Five points veneration- Salute by placing your forehead and both palms, elbows, knees, toes on the floor before the Buddhist monk or the statue/image of Lord Buddha.
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नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स
Namo tassa Bhagavato Arahato SammasamBuddhassa
नमन है उस भगवान् (बुद्ध) को जिन्होंने अर्हत* (जीवन मुक्त)  पद को प्राप्त कर लिया है और जो सम्यक सम्बुद्ध(बोधी प्राप्त) है 
Salute to the Blessed One, the Perfect One, the Fully Enlightend One

बुद्धं  सरणं गच्छामि
Buddham saranam gacchaami
मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ।
I go to the Buddha as my reguge

धम्मं सरणं गच्छामि
Dhammam saranam gacchaami
मैं धम्म की शरण जाता हूँ।  
I go to the Dhamma as my refuge

संघं सरणं गच्छामि
Sangham saranam gacchaami
मैं संघ की शरण जाता हूँ।
I go to the Sangha as my refuge

दुतियम्पि बुद्धं सरणं गच्छामि
Dutiyampi Buddham saranam gacchaami
दूसरी बार मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ।  
Second time, I go to the Buddha as my refuge

दुतियम्पि धम्मं सरणं गच्छामि
Dutiyampi Dhammam saranam gacchaami
दूसरी बार मैं धम्म की शरण जाता हूँ।  
Second time, I go to the Dhamma as my refuge

दुतियम्पि संघं सरणं गच्छामि
Dutiyampi Sangham saranam gacchaami
दूसरी बार मैं संघ की शरण जाता हूँ।  
Second time, I go to the Sangha  as my refuge

ततियम्पि बुद्धं सरणं गच्छामि
Tatiyampi Buddham saranam gacchaami
तीसरी बार मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ।
Third time, I go to the Buddha as my refuge

ततियम्पि धम्मं सरणं गच्छामि
Tatiyampi Dhammam saranam gacchaami
तीसरी बार मैं धम्म की शरण जाता हूँ।
Third time, I go to the Dhamma as my refuge

ततियम्पि संघं सरणं गच्छामि
Tatiyampi Sangham saranam gacchaami
तीसरी बार मैं संघ की शरण जाता हूँ।  
Third time,I go to the Buddha as my refuge

पञ्चसीलानि
(Five Precepts)

पाणातिपाता वेरमणी, सिक्खापदं समादियामी
Panatipata veramini sikkhapadam samadiyaami
मैं प्राणी हिंसा से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता /करती हूँ। 
I undertake to observe the precept to abstain from killing of living beings


अदिन्नादाना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामी
Adinnadana veramini sikkhapadam samadiyaami
मैं चोरी से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ। 
I undertake to observe the precept to abstain from not taking what is not given(theft/stealing).


कामेसुमिच्छाचारा वेरमणी, सिक्खापदं समादियामी
Kamesu micchachara veramini sikkhapadam samadiyaami
मैं कामेसु (कामादि )मिच्छा (मिथ्या )आचरण से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता /करती हूँ।  
I undertake to observe the precept to abstain from sexual misconduct etc.

मूसावादा वेरमणी, सिक्खापदं समादियामी
Musavada veramini sikkhapadam samadiyaami
मैं मूसा (झूठ ) वचन से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता /करती हूँ। 
I undertake to observe the precept to abstain from false speech/talking lies.

सुरामेरय-मज्ज पमादठाना  वेरमणी, सिक्खापदं समादियामी
Sura-meraya-majja pamadatthana veramini sikkhapadam samadiyaami
मैं शराब, मेरय (एक प्रकार की मदिरा ) जुआदि के पमाद (प्रमाद ) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता /करती हूँ। 
I undertake to observe the precept to abstain from taking intoxicating drinks and drugs causing indolence.

भंते - ति-सरणेन सह पञ्च-सीलं गमनं सम्पूण्णं।
उपासक /उपासिका - आम भंते 

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1 .  समादियती (सं +आ +दा) =ग्रहण करना
2 .  पञ्च-शील, बौद्ध उपासक/उपासिकाओं के लिए न्यूनतम आचार-संहिता है। चिंता मत करिए कि इनके पालन में आप कहाँ फिसल गए । गलतियाँ हरेक से हो जाती है। बस कोशिश जारी रखिए।
3.  अर्हत - जिसने 10  शत्रुओं (बंधनों) को मार (तोड़) दिया है , उसे अर्हत या अरहन्त कहते हैं। 'अर' अर्थात शत्रु और 'हन्त'  अर्थात मारना।
दस बंधन/शत्रु इस प्रकार हैं -   1. सत्काय दिट्ठी अर्थात उच्छेदवाद और शाश्वतवाद इन दो अतियों में विश्वास। मृत्यु के साथ ही सब कुछ नष्ट हो जाता है, यह उच्छेदवादी दृष्टिकोण है। जबकि इसके उल्ट शाश्वतवादी दृष्टिकोण मृत्यु के अनन्तर आत्मा को मानता है। 2 . विचिकिच्छा  अर्थात शंका-कुशंका। बुद्ध की शिक्षाओं के प्रति, विशेषत: उनके द्वारा उपदेशित कर्म,कर्म फल व पुनर्भव में अविश्वास। 3 . शीलव्रत परामर्श अर्थात शील, पूजा वंदना इत्यादि बाह्य धर्मांगों की ही सम्पूर्ण धम्म समझना। यह विश्वास की बलि, कर्मकांड या अनुष्ठान से व्यक्ति पवित्र होता है। 4. कामराग अर्थात इन्द्रिय सुखों के प्रति आशक्ति।  5. व्यापाद अर्थात क्रोध और द्वेष भावना। 6   रुपराग अर्थात रूप- जगत के प्रति लालसा।  7. अरूपराग  अर्थात सूक्ष्म जगत के प्रति लालसा।  8. मान अर्थात दर्प, घमंड, अहंकार , दम्भ।  9. औधत्य अर्थात अस्थिरता, दृढ संकल्प का अभाव।  10 . अविद्या अर्थात अज्ञानता, मोह।