Friday, January 31, 2020

Dalit


Dr. Ambedkar used the words such as Dalit Varg, Paddalit, Dalit Vargasathi in his Marathi editorial entitled 'Samtesathich hi Vishmata' in Bahishkrut Bharat. The word Dalit appears four times in the editorial. There is a photograph of Dr. Ambedkar campaigning for election and the banner of his Party shows the word 'Akhil Bhartiya Dalit Federation che Umedwar Dr. Babasaheb Ambedkar'. Moreover, he also founded 'Dalit Nirashrit Sahayak Fund' and the photograph of the same is also available in Photo-biography of Dr. Ambedkar - Reference - Photo biography of Dr. Ambedkar - BAWS Volume -22

।v नामकरण-डॉ अंबेडकर 1.5.1932
संविधान में प्रस्तावित परिवर्तनों के फलस्वरूप मतदाता सूचियों में जो संशोधन हो रहा है, वह इस प्रश्न पर विचार के लिए एक अति उत्तम अवसर है कि दलित वर्गों का एक उचित और उपयुक्त नामकरण किया जाए। जिन जातियों को इस समय 'दलित वर्ग' कहा जाता है, उन्हें इस शब्द के प्रयोग पर काफी आपत्ति है। इसके अलावा दलित वर्ग शब्द ने जनगणना में काफी संभ्रम पैदा करा दिया है, क्योंकि इसमें उन दूसरे लोगों का भी समावेश है, जो वास्तव में अस्पृश्य नहीं हैं। दूसरे दलित शब्द यह धारणा पैदा करता है कि अस्पृश्य एक निम्न और असहाय समुदाय है, जबकि वास्तविकता यह है कि हर प्रांत में उनमें से अनेक सुसम्पन्न और सुशिक्षित लोग हैं और समूचे समुदाय में अपनी आवश्यकताओं के प्रति चेतना जागृत हो रही है। उसके मानस में भारतीय समाज में सम्मानजनक दर्जा प्राप्त करने की प्रबल लालसा पैदा हो गई है और वह उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास कर रहा है। इन सब कारणों के आधार पर 'दलित वर्ग' शब्द अनुपयुक्त और अनुचित है।

असम के जनगणना अधीक्षक मा.मुल्लान ने अस्पृश्यों के लिए 'बाह्य जातियां' नामक नये शब्द का प्रयोग किया है। इस बोध नाम के अनेक लाभ हैं। यह उन अस्पृश्यों की स्थिति की सही व्याख्या करता है, जो हिंदू धर्म के भीतर तो हैं लेकिन हिंदू समाज से बाहर हैं और वह उसका विभेद उन हिंदुओं से करता है, जो आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से दलित तो हैं - लेकिन हिंदू धर्म और हिंदू समाज दोनों की परिधि के भीतर हैं। इस शब्द के दो अन्य लाभ हैं दलित वर्ग जैसे अनिश्चित शब्द के प्रयोग से इस समय, जो समूचा भ्रम जाल फैला हुआ है वह तो 'बाह्य जाति' के प्रयोग से दूर होता ही है पर साथ ही साथ वह भोंडा भी नहीं है। दलित वर्गों के प्रतिनिधि के नाते मैं बिना किसी संकोच के कह सकता हूं कि जब तक कोई और बेहतर नाम न मिल जाए, तब तक अस्पृश्य वर्गों को अधिक व्यापक शब्द 'बाह्य जातियों' या 'बहिष्कृत जातियों' के नाम से पुकारा जाए ना कि दलित वर्गों के नाम से।

iv संज्ञा-डॉ अंबेडकर
दलित वर्ग की मौजूदा संज्ञा के बारे में दलित वर्ग के सदस्यों द्वारा आपत्ति की गई है और इस वर्ग से बाहर के व्यक्तियों ने भी जिन्हें दलित वर्गों में रूचि रही है। यह संज्ञा अपमानजनक, अप्रतिष्ठाकारी और तिरस्कारपूर्ण है। हमारा विचार है कि 'दलित वर्ग' के बजाय 'अवर्ण हिंदू' , 'सुधारवादी हिंदू', 'अनुदार हिंदू', 'गैर-सवर्ण हिंदू', 'प्रोटेस्टेंट हिंदू'' 'नॉन कंफर्मड हिंदू' या दलित वर्ग के अतिरिक्त अन्य किसी नाम से पुकारा जाए। इस ज्ञापन में उल्लिखित मांगों का समर्थन करते हुए हमें सारे भारत के दलित वर्गों से बड़ी संख्या में तार प्राप्त हुए हैं।

नोट-बाबा साहब दलित शब्द के समर्थक नहीं थे यह बात में "बाबा साहेब डॉ.अंबेडकर संपूर्ण वांङ्मय" के तीन खंडों में पढ़ चुका हूँ।

संदर्भ-
बाबा साहेब डॉ.अंबेडकर संपूर्ण वांङ्मय खंड 4 के पृष्ठ 228; 229 से साभार
बाबा साहेब डॉ.अंबेडकर संपूर्ण वांङ्मय खंड 5 के पृष्ठ 207 से साभार
बाबा साहेब डॉ.अंबेडकर संपूर्ण वांङ्मय खंड 16 के पृष्ठ 316, 317 से साभार
हिंदी अजिल्द सातवां संस्करण 2013 जुलाई
प्रकाशक-डॉ.अंबेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली 110001


Dalits
Dalit is not a caste but a realization and is related to the experience, joys and sorrows, and struggles for those in the lowest stratum of society. It matures with a sociological point of view and is related to the principle of negativity, rebellion and loyalty to science, thus finally ending as revolutionary.
The non-Dalits do not like to call themselves Dalits. They feel that to do so is below their dignity.

This is not only true of non-Dalits but also of the educated and secure among the Dalits themselves.
The word 'Dalit' traditionally connotes wretchedness, poverty and humiliation. Hence the term has become derogatory. The non-dalits, therefore, pose the question; why should we call ourselves 'Dalits' ? But with reference to 'Dalit literary movement', we have not used the traditional meaning of the term but have added a new dimension and content to it.
'Dalit' means masses exploited and oppressed economically. socially, culturally, in the name of religion and other factors. Dalit writers, hope that this exploited group of people will bring about a revolution in this country(Introductuon: Arjun Dangale: Poisoned Bread:).
Today, through the word Dalit remains the most recognizable word at national level, it is probably true that the majority of the people classified as 'Scheduled caste' reject it for self-identification. It is rejected for varying reasons. In some cases, as among the new Buddhist of Maharashtra. Dalit is felt to be negative and confining, while being Buddhist gives broader, positive and human indent y. At the same time, the difference among scheduled castes have become stark, negating any unity that might be expressed in the use of words like Dalits.
In almost every region of India, there are a multitude of castes who were originally considered untouchables and are now classed as 'Scheduled castes'; there are generally two large communities, one more educated and first to organised, the other more backward in educational and economic terms. The second group is now mobilizing, often in opposition to the first group. The conflict between Malas and Madigas of Andhra has now becomes notorious; but there are also the Chuharas/Bhangi group of the north and west, who identifies themselves most as Valmikis, the Matangs of the Maharashtra and others.
In most cases the latter group is wooed by various Hindu forces to identify themselves as Hindus, not Buddhist. In tamil Nadu, the two largest groups have been the one time Paraiyas and Pallars; the first may call themselves Dalits and frequently identify as Buddhist; the second are taking the name DKVs, Devendra Kula Vanniyars.
Along with the growing hostility between Dalit and OBCs, these difference have made the very term Dalit a symbol of broad revolt problematic(Gail Omvedt: Preface: Poisones Bread).

Tuesday, January 21, 2020

साहित्य, समाज का दर्पण है ?

साहित्य, समाज का दर्पण है ?

‘साहित्य, समाज का दर्पण है’- दलित समाज को इस कथन पर आपत्ति है। आपत्ति इसलिए है कि जिस ‘दर्पण’ की बात की जाती है, उसमें दलितों का चेहरा बदसूरत और घृणास्पद है। अजीब बात यह है कि जिन लोगों ने कलम की ठेकेदारी अपने पास रखी, उन्होंने ही यह घृणित और अपमानजनक कार्य किया। जिनके पास समाज के सभी वर्गों को साथ में लेने की जिम्मेदारी थी, उन्होंने ही यह विभेदकारी रास्ता अपनाया। आखिर, स्वयं को पूज्य बनाने के लिए समाज के एक बड़े वर्ग को नीचा दिखाने की क्या जरूरत है ? जो विश्व में 'वसुधैव कुटुंबकम' का ढोल पीट रहे हो, अपने ही घर में अपने ही सहोदरों के साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार करने का क्या तुक है ? दलित, साहित्य के ऐसे दोगले मानदंडों को अपनी पूरी शक्ति के साथ नकारते हैं।
बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर ने दलितों में स्वाभिमान की अलख जगाई। उन्होंने बतलाया कि दलितों को रोटी से कहीं अधिक अपने मान-सम्मान की जरूरत है। दलित, रोटी के बिना तो सकते हैं किन्तु स्वाभिमान के बिना नहीं। एक सुअर की जिन्दगी दलित नहीं जी सकते ?
और दलितों ने सही मायने में जीना सीखा। स्वाभिमान के साथ जीना। दलितों ने जाना कि वे आदमी है। दलितों ने जाना कि वे सिर उंचा रख कर चल सकते हैं। दलितों ने जाना कि उनका इतिहास स्वाभिमान और वीरता का इतिहास है। दलित इस देश के मूल निवासी हैं। यह जम्बुदीप उनकी थाती और विरासत है। दलितों पर बाहर से आए आक्रमणकारी और अब शासन नहीं कर सकते। दलित अपने ही देश में गुलाम बन कर नहीं रह सकते। उन्हें अपनी विरासत सम्भालनी होगी।
और तब, दलितों ने अपने मुंह पर बंधी पट्टी को उतार फेंका। बोलने का साहस किया। हाथ में कलम ली। और, सदियों से भरी सड़ान्ध उनकी गलियों से भर-भरा कर बहने लगी। घर और आंगन साफ हुए। उजली धूप से घर रोशन हुआ। यह ‘कालाम सुत्त’ था जिसकी धूप से दलित नहा गए। यह बुद्ध की देशना थी। कालाम सुत्त कहता है कि हमें कोई बात इसलिए नहीं मानना है कि वह परम्परा से चली आ रही है। कोई बात इसलिए नहीं माननी है कि वह किसी धर्म-ग्रंथ में लिखी है। कोई बात इसलिए नहीं माननी है कि ऐसा कोई धर्म-गुरू कह रहे हैं। बल्कि, इसलिए माननी चाहिए कि वह बहुजनों के हित में है और समान्य न्याय की कसौटी पर खरी उतरती है।
दलित साहित्य ‘कालाम सुत्त’ की वकालत करता है। वह बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त 22 प्रतीज्ञाओं से अपनी बात शुरू करता है। किसी को ‘पूजनीय’ और किसी को ‘ताड़न के अधिकारी’ जैसे रामराज्य के ‘आदर्श’ को नकारता है। दलित साहित्य समानता की बात करता है। बुद्ध की मैत्री और करुणा दलित साहित्य के आधार-स्तम्भ हैं। सम्राट अशोक का सर्वजन हिताय शासन उसका आदर्श है।
अब तक दलितों के साथ, उनकी संस्कृति और इतिहास के साथ अन्याय होते रहा है। अब वह मूक दर्शक बना नहीं रह सकता। 'साहित्य समाज का दर्पण है' - इस बहकावे में नहीं रह सकता। हमें अपनी बात करनी होगी। हमें उनके नकली दर्पण की पोल खोलनी होगी। आखिर ब्राह्मण ही ‘गरीब’ क्यों होता है, दलित क्यों नहीं होता; इस ‘सनातन सत्य’ का भंडा-फोड़ करना होगा।
आजकल, ‘दलित’ शब्द पर आपत्ति जतायी जाती है। ब्राहमण तो ठीक है, कुछ दलित ही ‘दलित’ शब्द पर आपत्ति करते हैं। दलित का अर्थ दलन अथवा पीड़ा से है। निस्सेदह, दलित समाज सदियों से दलित-पीड़ित रहा है। दलित शब्द उसकी इसी दशा को चित्रित करता है। हमारे कुछ साथी प्रश्न करते हैं कि हम कब तक ‘दलित’ बने रहेंगे?
दरअसल, ‘दलित’ शब्द हमें ‘दलन’ वाली स्थिति से बाहर निकलने के लिए पिंच करता है। यह पिंच होते रहना आवश्यक है। यह पिंच निरन्तर हमें इस इस स्थिति से बाहर निकलने के झकझोरता है।

Thursday, January 16, 2020

आनन्द सुत्त(अंगुत्तर निकाय)

आनन्द सुत्त
एकं समयं आयस्मा आनन्दो कोसम्बियं विहरति घोसितारामे।
एक समय आयु. आनन्द कोसम्बी के घोसिताराम में विहार कर रहे थे।
तत्र खो आयस्मा आनन्दो भिक्खू आमन्तेसि- ‘‘आवुसो भिक्खवे’’ति।
वहां आयु. आनन्द ने भिक्खुओं को सम्बोधित किया- ‘‘आयु. भिक्खुओं!’’
‘‘आवुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो आनन्दस्स पच्चसोसुं।
उन भिक्खुओं ने आयु. आनन्द को ‘‘आवुस’’ कह कर प्रतिवचन दिया।
आयस्मा आनन्दो एतदवोच-
आवुस आनन्द ने यह कहा-
‘‘अच्छरियं, आवुसो, अब्भुतं, आवुसो!
आयु. यह अद्भुत है। आयु. यह आश्चर्य है कि
यावचिदं तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सम्बाधे
उन भगवान जानकार, दर्शी अरहत सम्यक सम्बुद्ध ने बाधाओं के बीच में
ओकासाधिगमो अनुबुद्धो
मार्ग(अवकाश) निकाल लिया
-सत्तानं विसुद्धिया सोक परिदेवानं समतिक्कमाय,
-प्राणियों की विशुद्धि के लिए, शोक, रोने-पीटने को शांत करने के लिए,
दुक्ख दोमनस्सानं अत्थंगमाय ञायस्स अधिगमाय निब्बानस्स सच्छिकिरियाय।
दुक्ख-दौर्मनस्य को अस्त करने, ज्ञान को प्राप्त करने, निर्वाण का साक्षात्कार करने के लिए।
तदेव नाम चक्खुं भविस्सति, ते रूपा तं च आयतनं नो पटिसंवेदिस्सति।
यही आंख रहेगी, यही रूप(आंख का विषय) रहेगा किन्तु चक्षु आयतन की संवेदना नहीं रहेगी।
तदेव नाम सोतं भविस्सति, ते सद्दा तं च आयतनं नो पटिसंवेदिस्सति।
यही कान रहेंगे यही शब्द(कान के विषय ) रहेंगे किन्तु कान आयतन की संवेदना नहीं रहेगी।
तदेव नाम घाण भविस्सति, ते गन्धा तं च आयतनं नो पटिसंवेदिस्सति।
यही घ्राण रहेगा यही गन्ध( घ्राण के विषय) रहेंगे किन्तु घ्राण आयतन की संवेदना नहीं रहेगी।
सा एव नाम जिव्हा भविस्सति, ते रस्सा तं च आयतनं नो पटिसंवेदिस्सति।
यही जिव्हा रहेगीे यही रस(जिव्हा के विषय) रहेंगे किन्तु जिव्हा आयतन की संवेदना नहीं रहेगी।
सो एव नाम कायो भविस्सति, ते फोटब्बा तं च आयतनं नो पटिसंवेदिस्सति।
यही काया रहेगी, यही (काया के विषय) स्पर्श रहेंगे किन्तु काया आयतन की संवेदना नहीं रहेगी।
एवं वुत्ते आयस्मा उदायी आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच-
ऐसा कहने पर आयुस्मान उदायी ने आयुस्मान आनन्द को यह कहा-
‘‘सञ्ञीं एव नु खो आवुसो आनन्द, तदायतनं नो पटिसंवेदेति उदाहु असञ्ञी’’ति?
‘‘आवुस आनन्द! क्या वह व्यक्ति संज्ञा-युक्त रहता हुआ उस आयतन की संवेदना नहीं करेगा, अथवा संज्ञा-विहिन होने के कारण?’’
‘‘सञ्ञीमेव खो, आवुसो, तदायतनं नो पटिसंवेदेति, नो असञ्ञी’’ति।
‘‘आवुस! वह व्यक्ति संज्ञा-युक्त रहता हुआ ही उस आयतन की संवेदना नहीं करेगा, संज्ञा-विहिन होने के कारण नहीं।’’
‘‘किं सञ्ञी पन आवुसो तदायतनं नो पटिसंवेदेति’’ति?
‘‘आवुस ! वह व्यक्ति किस संज्ञा से युक्त होकर उस आयतन की संवेदना नहीं करेगा?’’
‘‘इध आवुसो, भिक्खु, सब्बसो रूप सञ्ञानं समतिक्कमा पटिघ सञ्ञानं अत्थंगमा नानत्तं सञ्ञानं अमनसिकारा विहरति।
आवुस, एक भिक्खु सभी रूप संज्ञाओं का प्रहाण कर, पटिघ संज्ञाओं के अस्त हो जाने पर, नानात्व संज्ञाओं की ओर से उपेक्षावान हो विहार करता है।
एवं सञ्ञीपि खो आवुसो, तदायतनं नो पटिसंवेदेति।’’
इस संज्ञा से युक्त होने पर भी आवुस,  वह उस आयतन की संवेदना नहीं करता(आनन्द सुत्तः अंगुत्तर निकायः नवक निपातो 176/100)।

उस घर जाना नहीं चाहिए

उस घर जाना नहीं चाहिए 

नवहि, भिक्खवे, अंगेही समन्नागतं कुलं
‘‘भिक्खुओं! जिस गुहस्थ कुल में ये नौ बातें हों,
अनुपगन्त्वा वा नालं उपगन्तुं।
वहां जाना न हुआ हो तो जाना नहीं चाहिए।
उपगन्त्वा वा नालं निसीदितुं।
जाना हुआ हो तो बैठना नहीं चाहिए।

कतमेहि नवहि?
कौन-सी नव बातें?

न मनापेन पच्चुट्ठेन्ति।
अच्छी तरह उठकर स्वागत न करते हों।
न मनापेन अभिवादेन्ति।
अच्छी तरह अभिवादन न करते हो।
न मनापेन आसनं देन्ति।
आदरपूर्वक आसन न देते हो।
सन्तमस्स परिगुहन्ति।
घर में जो हो, उसे छुपाते हो।
बहुकम्पि थोकं देन्ति।
बहुत रहने पर भी थोड़ा देते हो।
पणीतम्पि लूखं देन्ति।
बढ़िया रहने पर भी रूखा-सूखा देते हो।
असक्कच्चं देन्ति नो सक्कच्चं।
अनादर कर देते हों सत्कार/आदर  कर नहीं।
न उपनिसीदन्ति धम्मस्स सवनाय।
धर्म सुनने के लिए न बैठते हो।
भासितमस्स न सुस्सूसन्ति।
जो कहा जाए, उसे ध्यान पूर्वक न सुनते हो।
इमेहि खो भिक्खवे, नव अंगेही समन्नागतं कूलं
जिन गुहस्थ कुल में भिक्खुओं ! ये नव बातें हों ,
अनुपगन्त्वा वा नालं उपगन्तुं।
वहां जाना न हुआ हो तो जाना नहीं चाहिए।
उपगन्त्वा वा नालं निसीदितुं।
जाना हुआ हो तो बैठना नहीं चाहिए।
स्रोत- कुल सुत्त : नवक निपातः अंगुत्तर निकाय  पृ. 72/152)। 

क्रांति का सन्देश

क्रांति का सन्देश
मोदीजी को धन्यवाद कि उन्होंने बाबासाहब अम्बेडकर को लोगों की जुबान पर ला खड़ा कर दिया. दलितेतर और मुस्लिमादि धार्मिक अल्पसंख्यक अपने-अपने निहित कारणों-वश बाबासाहब अम्बेडकर के योगदान से दूरी बना कर रखते थे, वे उनका फोटो लेकर सडकों पर मार्च कर रहे हैं, यह एक बड़ा भारी सन्देश है. यह सन्देश स्पष्टत: उस क्रांति की ओर ले जाता है जिसने रसिया, फ़्रांस और अमेरिका में बिना किसी खून-खराबे के सामंतवादी निरंकुश सत्ता को उखाड़ कर फैंक दिया.

Wednesday, January 15, 2020

पालि वदाहि

मित्तानं ! सादरं अभिवादनं। 
मित्रों ! मेरा सादर अभिवादन है।

जय भीम। नमो बुद्धाय।

अहं अमतो।
मैं अमृत हूँ।

अयं पालि  भासा। 
यह पालि भाषा है।

अयं भगवा वाणी।
यह भगवान बुद्ध की वाणी है।

भगवा अस्सं भासायं देसितं।
बुद्ध ने इस भाषा में देशना की है ।

पालि बहु सरला भासा।
पालि बहुत सरल भाषा है।


पालि गाम-देहातं भासा।
पालि गावं-देहातों की भाषा है।


असोक काले पालि रट्ठ भासा आसि।
अशोक के समय पालि राष्ट्र-भाषा थी।


जना पालि भासायं वदन्ति, भासन्ति।
लोग पालि में बोलते, बात करते थे। 

सम्पूण्णं बुध्दवचनं पालि भासायं अत्थि ।
सम्पूर्ण बुध्दवचन पालि भाषा में हैं।


बुध्दवन्दना च परित्त-पाठादि पालि भासायं अत्थि ।
बुध्द वन्दना और परित्राण-पाठ आदि पालि भाषा में हैं।

सोगतानं संखार भासा अपि पालि अत्थि।
बौद्धों की संस्कार भाषा भी पालि है।

पालि भासं सुणित्वा चितं  पसीदति।
पालि भाषा सुनकर मन प्रसन्न होता है।

पालि बुद्ध सावकानं भासा।
पालि बुद्ध सावकों की भाषा है।

घरे च बुध्दविहारे, बुद्ध वंदना पालि भासायं  होति।
घर और बुध्द विहार में बुद्ध वंदना पालि भाषा में होती है ।

तिपिटक संगायना अपि पालि भासायंं संवत्तति।
ति-पिटक संगायन पालि भाषा में होता है।

पालि वदनीयं।
पालि बोलना चाहिए।

पालि भासनीयं।
पालि में बात करनी चाहिए।

थोकं थोकं पालि वदनीयं, भासनीयंं।
थोड़ा-थोड़ा पालि बोलना चाहिए, बात करनी चाहिए।

सुद्धं वा असुद्धं, चिन्ता नत्थि।
शुद्ध और अशुद्ध की चिंता नहीं।

असुद्धं परं सुद्धं भवति।
पहले अशुद्ध फिर शुद्ध होती है।


खमतु मं, विदूजना, पालि पंडिता 
पालि विद्वत, पंडित जन, क्षमा करें।

पालि पचाराय अयं मम वायामो।
पालि प्रचार के लिए यह मेरा प्रयास है।

त्वं अपि वायामं करणीयं.
तुम्हें भी प्रयास करना है.

नमो बुद्धाय, जय भीम.
पुनं मिलाम.
नमो बुद्धाय, जय भीम
फिर मिलते हैं.

Tuesday, January 14, 2020

बुद्ध और चमत्कार

मल्लों के नगर अनुपिय्या के वज्जी ग्राम निवासी लिच्छवि पुत्र सुनक्खत एक समय बुद्ध का बड़ा प्रशंसक था। किन्तु वह चाहता था कि अन्य चमत्कारी महापुरुषों की तरह बुद्ध भी लोगों को चमत्कार दिखाएं । उसने बुद्ध के सामने जा कर यह बात कही-
"भंते ! अब मैं भगवान के धम्म को छोड़ रहा हूँ। क्योंकि, आप मुझे चमत्कार नहीं दिखाते हैं ? "
"सुनक्खत! क्या मैंने तुझसे कहा था कि आ मेरे धम्म को स्वीकार कर, मैं तुझे चमत्कार दिखाऊंगा। "
"नहीं भंते।"
"सुनक्खत! क्या तू समझता है कि चमत्कार दिखाने या न दिखाने से दुक्ख क्षय के लिए मेरे द्वारा उपदिष्ट धम्म पर कोई अनुकूल/प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ?"
"नहीं भंते !"
"तो मोघ पुरुष ! तू चमत्कार में क्यों पड़ता है ?"(स्रोत; पथिकवग्ग: दीघ निकाय)

Wednesday, January 8, 2020

महाबोधिविहार; तब और अब !

शायद,  12 वीं शताब्दी के पहले बोधगया मंदिर के नमूने बन कर बिका करते थे।  तिब्बत के यात्री अपने साथ इन नमूनों को ले गए थे। उन्हें देखने से मालूम होता है बोध गया के प्रधान मंदिर, जिसके पूरब तरफ तीन दरवाजे थे, के पश्चिम की ओर बोधि वृक्ष के पास भी एक दरवाजा-सा था।  उसके आस-पास बहुत से स्तूप और मंदिर थे और सभी एक चहार दिवारी से घिरे थे; जिसमें दक्षिण, पूर्व,उत्तर की ओर तीन विशाल द्वार भिन्न-भिन्न आकार के थे। वर्त्तमान बोधगया मंदिर का जब पिछली शताब्दी में जीर्णोंध्दार हुआ तो उसके कितने ही भाग गिर गए थे।  और जीर्णोध्दारकों के सामने पुराने मंदिर का कोई नमूना नहीं था इसलिए तिब्बत में प्राय: नमूने से वर्तमान मंदिर में कहीं-कहीं भिन्नता पाई जाती है(वही, पृ 251-52 )।

पालि एकक

पालि एकक
एकं किं?
भगवा सम्मासम्बुद्धो।
द्वे किं?
नामं च रूपं।
तीणि किं?
-ति-सरणं, ति-पिटकं।
चत्तारि किं?
-चत्तारि अरिय सच्चानि।
पञ्च किं?
-पञ्च-स्कन्धा(रूप, वेदना, सञ्ञा, संखार, विञ्ञाण), पंच सीलानि।
छह किं?-छह सळायतनं( पञ्च इन्द्रियां च मनो), छह विस्से पसिद्धा विस्सविज्झालया( तक्खसीला, नालन्दा, वल्लभी, विक्कमसीला, ओदन्तपुरी, जगद्दलादि)।
सत्त किं?
-सत्त बोज्झंगा-  सति(स्मृति), धम्म-विचय(सत्य जिज्ञासा/अन्वेषण), विरिय(उत्साह), पीति(लक्ष्य के प्रति प्रीति), पस्सद्धि(शांत-चित्तता), समाधि(एकाग्रता/चिंतन), उपेक्खा(लाभ-अलाभ के प्रति उपेक्षा-भाव)।
अट्ठं किं?
-अट्ठंगिक मग्गो।
नवं किं?
-नवांग तिपिटकं- सुत्त(गद्य), गेय्य(गद्य और पद्य), वेय्याकरण(व्याख्या), गाथा(पद्य), उदान(बुद्ध-मुख से भावातिरेक में निकले शब्द), इतिवुत्तक(बुद्ध-मुख से निकली उक्तियों का संग्रह), जातक(जातक कथाएं), अब्भुधम्म(अभिधम्म), वेदल्ल(प्रश्नोत्तर)।
दस किं?
- दसबलं.
-दस अख्याता(लोक निच्च /अनिच्च संबंधा- 4, जीव शरीर संबंधा- 2, भगवा महापरिनिब्बानस्स (क्या मरने के बाद तथागत होते हैं या नहीं) संबंधा- 4,
-दस पारमिता- दानं, सीलं, नेक्खमं(नैष्क्रम्य), पञ्ञा, विरिय, खन्ति, सच्चं, अधिट्ठानं, मेत्तं, उपेक्खा।
-दस अकुसला धम्मा- कायस्स 3- पाणातिपाता, अदिन्नदाना, कामाचार। वाचाय 4- मुसावादा, पिसुवचन(चुगली), फरुसवचन(कटुवचन), सम्फलाप(बकवास)। मनस्स 3- अभिज्झा(लोभ), व्यापाद(द्वेष-भावना), मिच्छादिट्ठि। @amritlalukey.blogspot.com

Wednesday, January 1, 2020

नववस्स सु स्वागत

 नववस्स सु स्वागत
अयं भारत देसो.
अयं अम्हाकं देसो.
अम्हे सब्बे अस्स नागरिका.
अम्हे सब्बे परस्पर सन्ति च बन्धुभावेन निवसन्ति.
अनेकास्मी एकता अम्हाकं मूल मंत.

अयं भगवा मात भूमि, पुन्य भूमि.
विस्सस्स जना अस्स वन्दन्ति, अभिनन्दन्ति.
असोक काले अयं जम्बूदीप नामेन विख्यातो.
तस्मि समये जना पालि भासायं वदन्ति, भासन्ति.
अज्ज पुन पि भगवा भासा भासनिया.

पालि अम्हाकं भासा.
पालि सोगतान भासा.
पालि अम्हाकं संखार भासा.
पालि बहु सरला, सुबोधा भासा.
सम्पूण ति-पिटक पालि भासायं अत्थि.
पालि वदनीया, भासनीया.
नमो बुद्धाय, जय भीमो.