Saturday, June 29, 2019

गुलाम. गुलामी को इंज्वाय करते हैं ?

गुलाम. गुलामी को इंज्वाय करते हैं ?
पिछले लोकसभा चुनाव में उ प्र सहित देश में अन्य भागों में दलित संगठनों ने हजारों उम्मीदवार उतारे. वे सारे के सारे उम्मीदवारों ने बीएसपी के वोट काटे. हकीकत में, बसपा सुप्रीमो मायावती से खपा कई दलित नेता बहनजी का गरूर उतारना चाहते थे, उन्हें मजा चखाना चाहते थे.
मजा चखाना तो यशवंत सिन्हा जैसे कई दिग्गज नेता मोदीजी को भी चाहते थे, किन्तु, इसका अर्थ यह कतई नहीं कि वे बीजेपी को हराना चाहते थे ?
दूसरी ओर, दलित संगठनों के नेता अच्छी तरह जानते थे कि उनके उम्मीदवारी से उन्हें फायदा कम, बीएसपी को नुकसान अधिक होगा. इसके बावजूद, वे चुनाव लडे ! दरअसल, गुलामी में रहते रहते गुलामों की मानसिकता गुलामी को इंज्वाय करने की हो जाती है ?

वाजिब सवाल ?

वाजिब सवाल ?
दलितों के हजारों संगठन होना गलत नहीं है, बल्कि उनके वोटों का आपस में बंटवारा गलत है. आरएसएस के हजारों संगठन हैं. मगर, वे वोट बीजेपी को देते हैं. क्या दलित संगठन ऐसा करते हैं ?

पालि की यह दुर्दशा क्यों?

पालि की यह दुर्दशा क्यों?
1. ‘बुद्धा एण्ड धम्मा’ बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर का कालजयी है। यह शोध ग्रंथ है, जिसकी परम्परागत बौद्ध देशों में आलोचना भी हुई थी, किन्तु चहुं ओर अभिनन्दन भी हुआ था। चूंकि यह शोध ग्रंथ है और बुद्ध और उनके धम्म के नए-नए आयाम खोलता है, सद्धम्म को मानवता के लिए अनिवार्य सिद्ध करता है, अतयव जो लोग भाग्य, भगवान और कर्म को पुनर्जन्म से जोड़कर देखने के अभ्यस्त है, ऐसे परजीवियों को भला यह कैसे स्वीकार्य हो सकता था?
‘बुद्धा एण्ड धम्मा’ को बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर ने पालि और अंग्रेजी भाषा के अनेको ग्रंथ अध्ययन कर लिखा था। बाबासाहेब पालि भाषा के अनुत्तर विद्वान थे। वृहत् ‘पालि शब्द कोस’ इसका गवाह है। और यही कारण है कि पालि और संस्कृत के स्वनामधन्य पंडितों को धता बता कर दुनिया को वे दिखा सके कि ‘सद्धम्म’ कैसा है। बुद्ध की देसना में क्या है, क्या नहीं है। यहां तक कि उन्होंने कौन-सा प्रसंग कहां से लिया गया है, बतलाना भी गैर जरूरी समझा। यह तो भदन्त आनन्द कौसल्यायन थे जिन्होंने बाद के अपने अनुवाद में इस पर काम किया। सवाल है कि क्या इसी तरह के शोध-ग्रंथ और नहीं आना चाहिए?
इस समय ति-पिटकाधीन अनेको ग्रंथ हिंन्दी और अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हैं,, तथापि अनेको ग्रंथ आज भी पालि अथवा पालि मिश्रित संस्कृत में अटके पड़े हैं। इन्हें हिन्दी में अनुदित करने की महत्ती आवश्यकता है। बिना पालि जाने यह किस तरह संभव है? अगर हम अपने बच्चों को पालि पढ़ाएंगे नहीं तो यह काम कौन करेगा? आखिर, प्रसिद्ध ऐतिहासिक बौद्ध-ग्रंथ ‘महावंस’ के अनुवादक स्वामी द्वारकादास शास्त्राी जैसे ब्राहमण विद्वानों के भरोसे हम कब तक बैठे रहेंगे? विश्वविद्यालयों में, नाम के लिए ही सही, स्थापित बौद्ध विभागाध्यक्ष की कुर्सी पर रमाशंकर त्रिपाठी जैसे संस्कृत प्रोफेसर कब तक बैठे रहेंगे? हमें जातीय तौर इन ब्राह्मण विद्वानों से कोई शिकायत नहीं है, किन्तु बौद्ध विभागाध्यक्ष की कुर्सी पर पालि-भाषा का प्रोफेसर क्यों नहीं होना चाहिए?
जहां तक हमें ज्ञात है, पालि भाषा के प्रोफेसर डॉ. विमलकीर्ति हैं, जिन्होंने ‘सद्धम्मपुण्डरिक’ जैसे कई महत्वपूर्ण बौद्ध-ग्रंथों का अनुवाद किया है। किन्तु देश में ऐसे कितने पालि के प्रोफेसर बौद्ध-ग्रंथों पर शोध कर रहे हैं और करा रहे हैं? प्रथम तो स्कूल-कॉलेजों में पालि पढ़ाई नहीं जाती। और अगर कोई जैसे- तैसे पढ़ ले तो शोध के लिए उसे कोई गॉइड नहीं मिलता। उसे कहा जाता है कि बेहतर है वह संस्कृत में पी. एच. डी. कर लें! संस्कृत में नहीं तो नागरी में गीता अथवा मानस पर कर लें?

2. बुद्ध, उनका धम्म और पालि के प्रति वैमनश्यता के चलते स्कूल और कॉलेजों में पालि पढ़ायी नहीं जाती। संस्कृत को बिना जनता की मांग के स्कूल और कालेजों में जबरन पढ़ाया जाता है। महानगरों से लेकर दूरस्थ स्थानों में महाविद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय खोले जाते हैं। टीवी से लेकर प्रचार मिडिया तक इस मद में अरबों रूपया खर्च किया जाता है। किन्तु पालि-ग्रंथ, जो एकमात्रा स्रोत है, भारत के इतिहास को बतलाने वाले, के अनुवाद और प्रसार पर घोर उदासीनता बरती जाती है। इसके विपरित, यूपीएसी में  किसी तरह चल रही ‘पालि भाषा’ को हटा दिया जाता है!
सवाल है, पालि के प्रति सरकार के भेदभाव पूर्ण रवैये के चलते हमारे बच्चों को पालि कौन पढ़ाएगा? रोजी-रोटी की समस्या से हमारे उन लोगों को, जो इस दिशा में कुछ कर सकते हैं, फुर्सत नहीं है। जो रोजी-रोटी से ऊबर चुके हैं, उनका मुंह सरकार ने विभिन्न सुविधाएं देकर बंद करा दिया है। सवाल है, हमारे युवा पालि पढ़ेंगे कैसे? उन पर शोध करेंगे कैसे?

3. हम बाबासाहेब को नमन करते हैं, उनके कृत्यों को स्मरण करते हैं, किन्तु ‘बुद्धा एण्ड धम्मा’ जैसे शोध ग्रंथ प्रकाशित हो, ति-पिटक ग्रंथों के नए-नए आयाम खुले, इस दिशा में हम मौन है!
हम तो हम, हमारे भिक्खु-गण भी विनय पिटक में दिए गए  दैनिक जीवनचर्या के निर्देशों के आगे कुछ नहीं देखते। क्या बुद्ध की देसना ति-रतन वन्दन और पंचशील तक ही सीमित है ? हम यह क्यों नहीं देखते कि अश्वघोष, नागसेन, नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु, बुद्धघोष, कुमारजीव, दिग्गनाग, धम्मकीर्ति, शांतिदेव जैसे दार्शनिक परवर्तितकाल में बौद्ध दर्शन का विकास कर दर्शन-शास्त्रा का कितना बड़ा किला बाद की सदियों में खड़ा कर सके ? अगर तक्षसीला, नालन्दा, ओदन्तपुरी, वल्लभि, विक्रमसीला, जगद्दल जैसे विश्व प्रसिद्ध बौद्ध विश्वविद्यालय उस काल में नहीं होते तो क्या ऐसा संभव था?
अठारवीं और उन्नसीसवीं सदी में पूर्व और पश्चिमी देशो में जिस विज्ञानवादी दर्शन का विकास हुआ, उस पर बौद्ध दार्शनिक असंग, वसुबन्धु और दिग्गनाग ने चौथी-पांचवी सदी में जबरदस्त काम किया था। सनद रहे, दूसरी सदी के दौर में ही बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन के शून्यवाद ने ‘पदार्थ’ को पहली बार परिभाषित किया। क्या यह विश्व को बौद्ध दार्शनिको की अभिनव देन नहीं है? यही कारण है कि पश्चिम के दार्शनिकों ने छटवीं सदी के बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति को ‘कान्ट’ की संज्ञा दी। आखिर, आज ऐसे बौद्ध दार्शनिक पैदा क्यों नहीं हो रहे हैं?
चौथी सदी प्रारम्भ में बुद्धघोष ने सिंहलद्वीप जाकर पालि-ग्रंथों पर जो अट्ठकथाएं लिखी, उन अट्ठकथाओं पर अट्ठकथाएं अब और क्यों नहीं लिखी जा रही है? अगर मानस पर हजार-हजार शोध ग्रंथ लिखे जा रहें हैं तो पालि-ग्रंथ क्यों अछूत हैं?
स्पष्ट, है, पालि भाषा के पठन-पाठन की महत्ती आवश्यकता है। ति-पिटकाधीन ग्रंथों पर कितना ही शोध होना बाकि है। ललितविस्तर जैसे आज भी कई ग्रंथ हैं, जिनके लेखकों का पता नहीं हैं। इसकी खोज कौन करेगा? बिना पालि पढ़े क्या यह संभव है?

4. भारत सरकार के अनुसार पालि ‘मृत-भाषा है! जबकि  संस्कृत और हिन्दी की तरह इसकी ‘नागरी लिपि’ ही है। सवाल है, कि आखिर इसे जीवित कौन करेगा? आज, हमारे आदिवासी भाइयों ने गोन्डी भाषा को पुनः जीवित कर ऐतिहासिक कार्य कर दिखाया है। एक अच्छी बात उनके साथ यह थी कि वे अपने घरों में इसे बोल रहे थे। उन्होंने इसे अपनी ‘भाषा-संस्कृति’ के रूप में सहज कर रखा था। दूसरी ओर, पालि जो हमारी भाषा-संस्कृति’ है, धम्म-विरासत है, को हमने ‘वैदिक-संस्कृति’ के झांसे में आकर विस्मृत कर दिया।

5. इसी प्रकार हिमालयीन अंचल के क्षेत्रा तिब्बत, भूटान, सिक्किम हो, अथवा आसाम, लद्दाख, अरुणाचल, यद्यपि वहां भिन्न-भिन्न बोलियां बोली जाती हैं किन्तु लिपि, ध्वनि, अर्थ में उनकी ‘धर्म-भाषा’ एक है और वह है- भोट भाषा।  परम्परागत बौद्ध आज भी ‘भोट भाषा’ बोलते हैं। इसकी अपनी ‘भोट लिपि’ है। ‘भोट’ सब्द  ‘बौद्ध’ अथवा ‘बोध’ का अपभ्रंश है। यह धर्म-भाषा उनके जन्म से लेकर विवाह और मृत्यु जैसे संस्कारों की भाषा है। यह संस्कार लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक प्रायः लामा कराते हैं। लामा बौद्ध भिक्खु है।
स्मरण रहे, भोट भाषा में बौद्ध साहित्य का विपुल भंडार है। ‘कंजूर-तंजूर’ तिब्बति ति-पिटक है। कंजूर में 1108 और तंजूर में 3458 ग्रंथ संग्रहित हैं। भला हो, राहुल सांस्कृत्यायन का जिन्होंने कितनी ही पोथियां जिसमें अथाह बौद्ध साहित्य भरा पड़ा है, तिब्बत के बौद्ध विहारों(गोनपाओं) के तहखानों की कई-कई महिनों खाक छानकर बुद्ध के जन्म स्थान भारत में लाकर भारत सहित विश्व के बौद्ध अध्ययताओं को उपकृत किया। किन्तु भोट भाषा और लिपि, जो हिमालयीन एक बड़े भू-भाग में बोली और लिखी जाती है, के प्रति भारत सरकार का क्या रवैया है? कितनी ही भाषाएं जिन्हें कोई बोलता तक नहीं, सरकार ने संविधान की ‘भाषा-अनुसूची’ में रखकर उनका संवर्द्धन किया है। किन्तु भोट भाषा के प्रति सरकार का रवैया उदासीन ही नहीं नकारात्मक भी है(स्रोतः हिमालय की धर्म भाषा, बौद्ध निबन्धावलीः लेखक कृस्णनाथ)।

6. पालि भाषा का अथाह भण्डार है। घरों और विहारों में हम इसका पाठ भी करते हैं। आवश्यकता है, इसके दैनदिनी में व्यवहार करने की। यह धम्म-सेवियों के रुचि और उत्साह से सहज ही किया जा सकता है। प्रोफेसर प्रफुल्ल गढ़पाल जैसे धम्म-सेवी इस दिशा में कार्यरत भी हैं। किन्तु इसको गति जन-सहयोग के बिना नहीं मिल सकती। अगर हम अपने-अपने घरों की दीवार पर लिख लें कि पालि हमें पढ़ना है, बच्चों को पढ़ाना है, तो यह कतई नामुमकीन नहीं है।

कुछ हमारे भाई सवाल करते हैं कि अंग्रेजी आदि विदेशी भाषा न पढ़कर पालि क्यों पढ़े, क्यों हम वक्त जाया करें? इसमें रोजगार भी नहीं है? इसके उत्तर में हम यही कहेंगे कि भविष्य में इस दिशा में रोजगार के अवसर भी खुल सकते हैं।
हमारे कई लोगों के पास उनके अपने स्कूल और महाविद्यालय हैं। अगर अतिरिक्त भाषा के तौर पर वे अपने स्कूलों में पालि पढ़ाना प्रारम्भ कर दें तो? हम देखते हैं कि देश के कई प्रांतों में मानस और गीता को स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया है। कॉलेजों में पढ़ाया जा रहा है। योग को पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया है। और आप तो पालि को अतिरिक्त भाषा के रूप में पढ़ा रहे है। अंग्रेजी में तो रोमन लिपि होती है। यहां, पालि पढाने में बच्चें पहले से नागरी लिपि से वाकिफ होते हैं। सोचिए, इस प्रकार अगर स्वयं-सेवी की तरह हम अपने स्कूल और कॉलेजों में पालि पढ़ाना प्रारम्भ करें तो, निश्चित रूप से रोजगार के अवसर आपके दरवाजे पर होंगे।
विदित हो कि महाराष्ट्र के कुछ विद्यालय-महाविद्यालयों में पालि पढ़ाया जा रहा है। यह कोर्स महाराष्ट्र राज्य माध्यमिक व उव्व माध्यमिक शिक्षण मंडल द्वारा मान्यता प्राप्त है। उल्लासनगर में संचालित ‘तक्षसीला महाविद्यालय’ जैसे अनेको शिक्खण-संस्थानों में पालि भाषा के रूप में पढ़ायी जाती है। हमें बतलाया गया है कि हिन्दी और पालि का 50-50 प्रतिशत वाला संयुक्त पेपर होता है।
इधर, वर्तमान दिल्ली सरकार ने पालि विश्वविद्याय की स्थापना के प्रति रुचि दिखाई है। महाराष्ट्र में पालि विश्वविद्वालय की स्थापना के लिए वहां की जनता ने बौद्ध भिक्खुओं के साथ आन्दोलन छेड़ रखा है। सोचिए, ये प्रयास अगर कारगर होते हैं, तो क्या रोजगार के अवसर नहीं खुलेंगे?
और फिर, आप इतने ‘निकट दृष्टि-दोष’ से बाधित कैसे हो सकते हैं? हमारे आदिवासी भाई हमारे लिए रोशनी है। हम अगर ‘अपना दीपक आप न बन सकें’ तो उनकी रोशनाई में अपना अक्स ढूंझ सकते हैं।
-अ. ला. ऊके 

Friday, June 28, 2019

Edicts Of Ashoka;

Edicts Of Ashoka
In 1986, when the roof of the Kali temple in Chandralamba temple complex collapsed, it destroyed the idol; however it revealed four Ashokan edicts on the floor and foundation stone of the temple. These edicts were written in the Prakrit languageand Brahmi script and one of them was used as foundation of the pedestal for the Kali idol.[3][4] During subsequent excavations by Archaeological Survey of India (ASI) and the State Archaeology Department, tablets, sculptures, and other terracotta items were found, and most importantly numerous limestone panels of sculptures of the ruined 'Maha Stupa' or Adholoka Maha Chaitya (the Great Stupa of the Netherworld) were found. Archaeologists believe that Ranamandalwas a fortified area, spread over 86 hectares (210 acres; 0.33 sq mi), out of which only 2 acres had been excavated by 2009. Clay pendants , black polished pottery, Satavahana and pre-Satavahana coins, ornaments made of copper, ivory and iron, a township with paved pathways, houses, and limestone flooring have been found. Many excavated items were later shifted to GulbargaMuseum.[4]
The government has asked the Archaeological Survey of India to take up further exploration of the Ranamandal area to know the history of the region and its connection with Buddhism.
One of the stones - the only known example of its type - is of Emperor Asoka (r. 274–232 BC) seated on his throne. It is probably the only surviving image of the emperor.[3]
In 2010, ASI along with Sannati Development Authority deputed Manipal Institute of Technology to prepare a blueprint for restoration and reconstruction of the stupas[5]
https://wikivisually.com/wiki/Sannati

Thursday, June 27, 2019

TMC की सांसद महुआ मोइत्रा

केरल की दलित मजदूर की बेटी #राम्या हरिदास के बाद जिस #महिला के #संसद पहुँचने पर गर्व हो रहा है वे हैं कल चर्चा में आई तृणमूल #सांसद महुआ मोइत्रा।कल इन्होंने मोदी सरकार का संसद में खाल उधेड़कर रख दिया। उन्होंने जब बोलना शुरू किया तो बीजेपी के सैकड़ों सांसद सिर झुकाकर सुनते रहे जैसे एक जज अपराधी को सजा सुनाते हैं,और अपराधी कटघरे में चुप खड़ा रहता है।जेपी मॉर्गन में काम कर चुकीं बैंकर महुआ मोइत्रा न्यूयॉर्क में अपनी शान-ओ-शौकत भरी जिंदगी को छोड़कर राजनीति में आईं. पश्चिम बंगाल के कृष्णानगर से TMC के टिकट पर उन्होंने 2019 का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की.उन्होंने देश में फांसीवाद का संकेत देते हुए 7 मुद्दों पर देश को झकझोर दिया।ये मुद्दे सभी को दिख रहे थे,लेकिन जिस नज़र से महुआ मोइत्रा ने देखा और अपने पहले ही संबोधन में अपनी बात रखी काबिलेतारीफ है।
#पहला_देश में लोगों को अलग करने के लिए उन्मादी राष्ट्रवाद फैलाया जा रहा है. दशकों से देश में रह रहे लोगों को अपनी नागरिकता का सबूत देने को कहा जा रहा है.
उन्होंने #प्रधानमंत्री और सरकार के कुछ मंत्रियों पर चुटकी लेते हुए कहा कि जहां सरकार के मंत्री ये तक नहीं दिखा पा रहे हैं कि उन्होंने किस कॉलेज या यूनीवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया है वहां सरकार ग़रीब लोगों से नागरिकता के सबूत देने को कह रही है.
#दूसरा_सरकार के हर स्तर में मानवाधिकारों के ख़िलाफ़ घृणा पनपती जा रही है. दिन दहाड़े भीड़ के द्वारा की जा रही लिंचिंग पर चुप्पी है.
#तीसरा_मीडिया पर नकेल कसी जा रही है. देश की सबसे बड़ी पांच मीडिया कंपनियों पर या तो सीधा या अप्रत्यक्ष तरीक़े से एक व्यक्ति का नियंत्रण है. फ़ेक न्यूज़ के ज़रिए लोगों को दिगभ्रमित किया जा रहा है.
#चौथा_राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर दुशमन ढूंढे जा रहे हैं. जबकि पिछले पांच सालों में कश्मीर में सेना के जवानों की मौत में 106 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है.
#पांचवा_सरकार और धर्म आपस में मिल गए हैं. 'नैश्नल रेजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स' और 'सिटिज़नशिप अमेंडमेंट बिल' के ज़रिए ये सुनिश्चित किया जा रहा है कि एक ही समुदाय को इस देश में रहने का हक़ रहे.
#छठा_बुद्धीजीवियों और कला की उपेक्षा की जा रही है और असहमति की आवाज़ों को दबाया जा रहा है. और सातवां, चुनाव प्रक्रिया की स्वायत्ता कम हो रही है.
#संसद में यदि आतंकी प्रज्ञा ठाकुर जैसे महिला पहुंची है तो महुआ मोइत्रा ,राम्या हरिदास,चंद्राणी मुर्मू जैसे भी महिला पहुंची है,जो अकेले विपक्ष की भूमिका निभाने में सक्षम है।हमें इन्हें साथ देना होगा।

Wednesday, June 26, 2019

बसपा

जब बसपा अपनी सफलता के चरम पर थी तो नसीमुद्दीन सिद्दकी, बाबू सिंह कुशवाहा, नरेंद्र कश्यप, स्वामी प्रसाद मौर्य, बादशाह सिंह, लालजी वर्मा, विजय बाहदुर सिंह का राज था। नसीमुद्दीन तो 2 दर्जन मंत्रालयों के मंत्री थे । लाल जी वर्मा को छोड़कर बाकी सब बसपा छोड़कर चले गए ।
परन्तु आज जब बसपा अपने राजनीतिक अस्तिव के लिये संघर्ष कर रही है तब उस संघर्ष के भागी बनने के लिए मायावती जी ने अपने परिवार के लोगो को सामने लाया है ।
और जो दलित-पिछड़े नेताओं ने सत्ता के दौर में खूब मलाई खाई व अपने पूरे खानदान को खिलाई वही आज बहन जी के निर्णय का विरोध कर रहे ।
तमाम राजनीतिक दलों के नेताओ को देखिए, जब वो सत्ता में थे, तब अपने तमाम रिश्तेदारों को सरकार में जगह दी, संगठन में जगह दी, सत्ता खोने के बाद कही कोई आगे नही आया। आज चुनौतियों के इस दौर में मायावती, वही मायावती जिसने गरीबो को बिना माँगे 3 एकड़ जमीन मुफ्त दी, वही मायावती जिसने बिना मांगे प्रमोशन में आरक्षण दिया, वही मायावती जिसने बिना किसी माँग के up के कई जिलों का नाम बहुजन महापुरुषों के नाम पर रखा; ये जानते हुए भी बहुजन महापुरुषों के नाम पर बड़े बड़े पार्क व स्कूल कालेज बनाये  ये सब करने के बाद वो सत्ता में आने वाली नही ।
अरे यही वो आयरन महिला हैं जो उस दौर में जब आपकी पत्नी बेटी व मां घर मे घूंघट में रहती थी सड़क पर निकल नही सकती थी तब लालटेन की रोशनी में गलियों में समाज जगाने निकली थी ।
अगर मायावती जी किसी सवर्ण के घर मे जन्म लेती तो 5 बार देश की प्रधानमंत्री बनी होती नही भी होती तो उसके संघषों को उसका समाज कभी नही भूलता लेकिन वाह रे बहुजन गद्दारों ...कल तक मिश्रा पर पार्टी हाईजैक का आरोप लगाते थे 25 साल के युवा जय प्रकाश को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया तो भी इनको तकलीफ और आज अपने घर के चमकते हीरे को राजनिति के कठिन रास्ते पर चलने के लिए आगे लाया तो भी तकलीफ है ,तो कम से कम देख तो लो आगे क्या परिवर्तन होता है ।
अगर नही तो अपने घर की किसी कुवांरी बेटी या बहन को समाज जगाने के लिए किसी नुक्कड़ न सही किसी मंच पर खड़ाकर मनुवाद के खिलाफ दो शब्द बुलवाकर ही दिखा तो ...नजरें क्यों झुका लिए है साहस नही न फिर काहे शोशल मीडिया में रात दिन उस महान नेता के खिलाफ लिखते हो जिसने तुम्हारे उत्थान में अपना जीवन समर्पित कर दिया ।

जय भीम जय भारत
माननीय बहिन जी जिंदावाद।

ॐ की 3 मात्राएं हैं- 'अ', 'उ', 'म' ।  'अ' तथा  'उ' पूर्ण मात्राएं हैं और  'म' आधी मात्रा । इसलिए ॐ को ढाई मात्रा भी कहा गया है।

हिन्दू धर्मग्रन्थ और ॐ -
कठोपनिषद (दूसरी वल्लरी- 16 ) के अनुसार-  'यह ॐ एक अक्षर है , परन्तु यही ब्रह्म है, यही सबसे परे है, इसी अक्षर को जान कर जो कुछ चाहता है, उसे वह प्राप्त हो जाता है।' माण्डूक्य उपनिषद(8.10.11.12 ) के अनुसार, 'ॐ में अ, उ, म  शरीर की जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति अवस्था के प्रतिनिधि हैं। प्रश्न उपनिषद में ॐ को मृत्यमय बताया गया है। ॐ को कहीं रजोगुण, सतोगुण और तमोगुण तो कहीं ब्रह्मा, विष्णु, महेश बताया गया है। कहीं कहा गया है कि ॐ की आवाज फटने से ब्रह्मांड पैदा हुआ, तो कहीं इसे गंगा,यमुना और सरस्वती का संगम अर्थात प्रयाग कहा गया है।

ॐ और बुद्ध- 
बुद्ध को किसी भी मन्त्र में ऐसा कुछ दिखाई नहीं दिया जो मानव के नैतिक उत्थान में सहायक हो। बुद्ध ने वेदों को इस योग्य नहीं समझा कि उनसे कुछ सीखा और ग्रहण किया जा सकें। सृष्टि कर्ता के बारे में हो या ब्रह्म के बारे में,  उपनिषदों की स्थापना को बुद्ध ने शुद्ध कल्पना समझ अस्वीकार कर दिया(बुद्धा एंड हिज धम्मा: बी आर अम्बेडकर )।

महायानी बौद्ध परम्परा-
तिब्बती महायानी बौद्ध परम्परा में 'ॐ मणि पद्मे हूँ' 'अवलोकितेश्वर' का मन्त्र है। अवलोकितेश्वर 'बोधिसत्व' है। 'सद्धर्मपुंडरिक सूत्र' के 24 वें परिवर्त में अवलोकितेश्वर का बखान है। अवलोकितेश्वर का स्थान पोतलक पर्वत है। और तो और, तिब्बती गुरु  'दलाई लामा' अवलोकितेश्वर के अवतार माने जाते हैं ! महायानी बौद्ध, अधिकतर कम पढ़े-लिखे,  इसका जप करते देखे जा सकते हैं।

हिन्दू संत परम्परा-
इस दिशा में संत परम्परा हिन्दू उपनिषदों से एक हाथ आगे हैं। यहाँ, संतों ने  ॐ  को ढाई के स्थान पर साढ़े तीन मात्रा कही है- अ उ म और अर्द्ध चंद्र। अर्द्ध चन्द्र को आधी मात्रा कह कर उसे 'तुर्या' अवस्था कहा गया है।  यथा- "प्रणवा चि अर्द्ध मात्रा।  ते तुर्या जान गा मैत्रा।
तया चे स्थान पवित्रा। ब्रह्मरन्ध्र जानावे।।"

कबीर का ॐ -
कबीर ने तो ॐ की खूब खबर ली है-
"ॐ कार आदि सो जाने। लिख के मेटे ताहि सो माने।
ॐ कार कहे सब कोई, जिन यह लखा सो बिरला होई (बीजक: ग्यान चौतीसा)।

ॐ और बाबासाहब अम्बेडकर-
चाहे दूसरा विवाह हो अथवा बुद्ध की शरण; बाबासाहब अम्बेडकर के चिन्तन को 'हिन्दू परिधि' में रखने का प्रयास किया जाता रहा, जो सतत जारी है। चाहे 'विपस्सना' के मार्फ़त अम्बेडकरी आन्दोलन को दंतहीन बनाना हो या सामाजिक समरसता की आड़ में 22 प्रतिज्ञाओं को नकारना । कई विचारक सिद्ध करने में लगे हैं कि बाबासाहब अम्बेडकर न सिर्फ विपस्सना करते थे वरन 'ॐ मणि पद्मे हूँ' मन्त्र का जाप करते थे ?

 ॐ और बाबा रामदेव-
रामदेव बाबा का योगा ॐ से ही शुरू होता है। सूर्य नमस्कार हो या प्राणायाम, प्रारंभ  ॐ से होता है।  चूँकि ॐ को ब्रह्म या ब्रह्मा, विष्णु और महेश त्रिमूर्ति से जोड़ा जाता  है,  इसलिए कई गैर हिन्दू  न ॐ  बोलते  हैं, न योगा करते हैं।

हम लड़ेंगे साथी.

हम लड़ेंगे साथी. 
दुश्मन को पस्त होते तक हम, लड़ेंगे साथी। 
सूर्य के अस्त होने तक हम, लड़ेंगे साथी ।।

  
पुण्णमी का चाँद देखने तक, हम लड़ेंगे साथी।  
तेरे इंतजार की घड़ियां ख़त्म होने तक, हम लड़ेंगे साथी ।। 



कि संघर्ष ही तो जीवन है, यह सोच कर, लड़ेंगे साथी।
कि कीड़ें-मकोड़ों की तरह जीने से, अच्छा है मर जाएं,

यह सोच कर लड़ेंगे साथी।।

What crisis mean ?

What crisis mean ?
अगर विचारधाराओं को लड़ाई है तो युद्ध में सिर्फ दो विचारधाराएं रहें; आरएसएस विचारधारा और गैर-आरएसएस विचारधारा. इससे दुश्मन की पहचान आसान और युद्ध निर्णायक हो जायेगा. परन्तु, ऐसा क्यों होता है कि आरएसएस विचारधारा के वोट कन्सोलिडेट हो जाते हैं किन्तु गैर आरएसएस विचारधारा के वोट कांग्रेस और गैर कांग्रेस तथा गैर कांग्रेसी वोट सपा, बसपा जैसी सैकड़ों-हजारों पार्टियों में बंटते जाते हैं, बंटते जाते हैं ?
आरएसएस के लिए यह ठीक हो सकता है कि गैर बीजेपी वोट बंटे रहें, और तत्सम्बंध में वह अनुरूप माहौल भी निर्मित करें. किन्तु कांग्रेस सहित विपक्षी पार्टियों के लिए यह किस तरह चिंता का विषय नहीं है, यह भयावह है ?
निस्संदेह, आरएसएस विचारधारा के लिए मुद्दे आसान है. पचास से अधिक वर्षों में रहते कांग्रेस की नाकामियां, मुस्लिम तुष्टिकरण, गऊ भक्ति, राम मंदिर आदि तमाम मुद्दे हैं, जिन पर वोटों का ध्रुवीकरण किया जा सकता हैं और जिसके लिए बेशक, कांग्रेस जिम्मेदार हैं. मगर, इसकी कीमत धार्मिक ध्रुवीकरण नहीं है. यह एक धर्म-निरपेक्ष राज्य और लोकतान्त्रिक संरचना के लिए घातक है.
हिन्दुओं के लिए एक 'हिन्दू राष्ट्र'' ठीक हो सकता है किन्तु गैर हिन्दुओं, दलित-आदिवासियों के लिए यह 'रामराज्य' ठीक कैसे हो सकता है ? और, कांग्रेस की किंकर्तव्य मूढ़ता के लिए भी यह 'रामराज्य' ही जिम्मेदार हैं ! बोये पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय ?
दक्षिण की पेरियार विचारधारा और उत्तर-मध्य भारत की अम्बेडकर-मार्क्सवादी विचारधारा, आरएसएस विचारधारा को माकूल जवाब दे सकती है. हमें लगता है, आगे आने वाले दिनों में, आरएसएस विचारधारा के लोग दलित और अल्पसंख्यकों पर जैसे-जैसे आक्रामक होंगे, वह क्राईसिस(crisis) पैदा होगी जब 'मेटर' और 'एंटी-मेटर' रियक्ट करेंगे और तब, 'क्रांति' को रोकना नामुमकिन होगा.

Tuesday, June 25, 2019

दलिट-अत्याचारों पर ब्रेक लगाने का 'बीज मन्त्र'

दलिट-अत्याचारों पर ब्रेक लगाने का 'बीज मन्त्र'
दलित अत्याचारों को बंद कराने कोई आन्दोलन करने की जरुरत नहीं है. बस, चाहे पार्षद का चुनाव हो या सांसद का, अपने-अपने क्षेत्र में कोई और उम्मीदवार खड़े न कर यह सुनिश्चित करें कि बीएसपी का उम्मेदवार, हर हाल में जीत रहा है, जैसे बीजेपी इंश्योर करती है, सारे अपराध और दलित अत्याचार बंद हो जायेंगे. दलित जितने बंटे रहेंगे, राजनीतिक रूप से कमजोर रहेंगे, सवर्ण अत्याचार बढ़ते जायेंगे. राजनीति में 'संख्या-बल' एक बड़ा शस्त्र है.

देश का लोकतंत्र 'खतरे में'

देश का लोकतंत्र 'खतरे में'
लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के विवादित भाषणों को चुनाव आयोग क्लीन चिट देता रहा. तीन सदस्सीय चुनाव आयोग आचार संहिता उलंघन के मामले में अपने एक सदस्य अशोक लवासा के स्पष्ट असहमति को दरकिनार कर ऐसा करता रहा.
पुणे के एक आरटीआई कार्यकर्त्ता ने चुनाव आयोग से मोदी के भाषणों पर लवासा की टिप्पणियों को सार्वजनिक करने की मांग की तो आयोग ने जवाब दिया कि ऐसा करने से उनके जान को 'खतरा' हो सकता है(पत्रिका 25 जून 2019).

सवाल माईन्ड-सेट का

सवाल 'माईन्ड-सेट' का
बीजेपी के अमित साह की तर्ज पर कई युवाओं को हाथ में रंग-बिरंगे धागे बांधे देखा.
कालेज परिसर में एक युवती को टोका- 
"बिटिया ! इन लड़कों की तरह आपने हाथ में धागा नहीं बाँधा है ?"
"अंकल ! हम लड़की है न ?"

धन्य है वह, संस्कृति !

धन्य है वह, संस्कृति ! 
धन्य है, वह संस्कृति; जो एक ब्राह्मण के कहने पर 'भगवान राम' को शम्बूक 'शुद्र' का वध करने प्रोत्साहित करती है. धन्य है, वह संस्कृति; जो एक 'धोबी' के कहने पर सीता को घर से निकाले जाने का यशोगान करती है. धन्य है, वह संस्कृति; जो 'भगवान राम' को सबरी के झूठे बेर खाने को नहीं रोकती किन्तु एक दलित दुल्हे को घोड़ी पर चढ़ने से रोकती है ? धन्य है, वह संस्कृति; जो मैत्री और गार्गी को वेद पढ़ने से नहीं रोकती किन्तु, सबरीमाला के मंदिर में महिलाओं को जाने से रोकती है ?

गुंगें-बहरों से अपील

अपील
हम 'बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ़ इण्डिया' के सारे संगठनों और धम्म निमित्त अन्यय नामों से कार्यरत तमाम प्रादेशिक, राष्ट्रीय संथाओं से अनुरोध करते हैं कि वे भारत में सभी बुद्धिस्टों की आचार संहिता में यह अधिनियमित करें कि 6 से 18 वर्ष आयु के बच्चें(लड़की हो यह लडका) किसी बौद्ध भिक्खु के सानिध्य में 3 महीने का अनिवार्यत: सामणेर प्रशिक्षण प्राप्त करें. यह 3 महीने का समय 15-15 दिनों की समयावधि में निर्धारित 6 से 18 वर्ष आयु के मध्य स्कूल- की छुट्टियों में माता-पिता की सुविधानुसार कभी-भी हो सकता है. यह धम्म कार्य, जहाँ एक ओर बच्चों में धम्म के प्रति रूचि जाग्रत करेगा वहीँ सामाजिक एकता को एक नयी ऊंचाई प्रदान करेगा.

सवाल माईन्ड-सेट का

सवाल माईन्ड-सेट का 
बीजेपी के अमित साह की तर्ज पर कई युवाओं को हाथ में रंग-बिरंगे धागे बांधे देखा. कालेज परिसर में एक युवती को टोका- "बिटिया ! इन लड़कों की तरह आपने हाथ में धागा नहीं बाँधा है ? " "अंकल ! हम लड़की है न ?"

कुंठित दलित नेता

कुंठित दलित नेता 
बीएसपी सुप्रीमो मायावती के आलोचकों को अपने अन्दर झांकना चाहिए कि वे बहनजी के प्रति कितने निष्ठावान रहें? दलितों पर हो रहे अत्याचारों पर घड़याली आंसू बहाना अलग है और पार्टी नेतृत्व के प्रति निष्ठा अलग. यह जान कर भी कि बीएसपी दलित अस्मिता का पर्याय बन चुकी है, उन्होंने अपनी ही अस्मिता को निरंतर जलील और नंगा किया. 
हमें लगता हैं, बहनजी ने ठीक किया जो भरोसे मंद व्यक्ति पर भरोसा किया, फिर चाहे 'भतीजा' ही क्यों न हों. आप, निरंतर पार्टी-विरोधी हरकतें कर पार्टी के शीर्षस्थ स्थान पर नहीं बैठ सकते?
जहाँ तक धन की बात हैं, यह बेमतलब है. आज, चुनाव में करोड़ों रूपया लगते हैं. कल तक आन्दोलन करते नेता, यूँ ही नहीं बिक जाते ? चुनाव में भारी धन लगता है. बीजेपी को अडानी-अम्बानी एक हाथ से देते हैं और दूसरे हाथ से दस गुणा वसूलते हैं. क्या बीएसपी को अडानी-अम्बानी धन देंगे ? नानसेंस ?

Monday, June 24, 2019

मुस्लिम और दलित

मुस्लिम और दलित
देश का मुस्लिम न कमजोर था, न है. लगातार संघर्ष कर रहा है. जिसे हम 'आतंकवादी' कहते हैं, वह क्या है ? और मुस्लिम ही क्यों ? नक्सलिज्म क्या है ? चारू मजुमदार कौन है ? क्यों हैं ? ये जो बुद्धिजीवी, लेखक जेल में ठुसे गए हैं, क्या हैं, क्यों हैं ? बन्दुक कोई नहीं चाहता. दाढ़ी और टोपी के साथ मुस्लिम हर गली-मोहल्ले में बेखौप रहता है. हम सलाम करते हैं, उसके जज्बे को. बल्कि, दूसरी ओर, दलित डरता है, सरेंडर करता है.
एक मुस्लिम और दलित में फर्क यह है कि मुस्लिम, कुर्बानी देना जानता है, यह उसके खून में है. जबकि दलित, 'सेफ झोन' ढूंढता है. वह बौद्धिक नपुंसकता की लड़ाई लड़ता है.

झारखण्ड में योगा और 'जय श्री राम'

यह वही भूमि है, जहाँ कुछ दिन पहले 'ब्रान्डेड योगा' हुआ था. सारा देश देख रहा था कि देश का पीएम कैसे रिलेक्स की मुद्रा में घंटों योगा में बिताता है. न सिर्फ इतना, वरन इसे हर घर तक पहुँचाने का सन्देश देता है ! बड़ी पवित्र भूमि हैं, यह झारखण्ड.यहाँ बीजेपी सत्तारूढ़ है. हम नमन करते हैं उस माटी को जहाँ विधर्मी मुस्लिमों को 'जय श्री राम' न बोलने के लिए पेड़ से बांध पीट-पीट कर मारने जैसी वीभत्स सजा दी जाती है ! हम नमन करते हैं उस न्यायपालिका को जो ऐसे घृणित कृत्यों को बिना चेहरे पर सिकन लाए देखती है ? हम नमन करते हैं, दलित-आदिवासी सांसदों को, जो इस पवित्र भूमि में जाकर मोदीजी के साथ 'हिंदुत्व' की गहरी-गहरी साँसे लेते हैं ?

Saturday, June 22, 2019

शत-शत नमन

छुआछुत मिटाने दलितों के पाँव तक धोने वाले हिंदुत्व के ठेकेदारों को शत-शत नमन.
पाकिस्तान के नाम पर लोकसभा चुनाव जितने वाले बीजेपी नेताओं को शत-शत नमन.
पशुओं तक के लिए आन्दोलन करने वाले भारत के हिन्दू संगठनों को शत-शत नमन.
आरक्षण के लिए दलित-आदिवासियों को गरिया कर देश में 90 प्रतिशत पदों पर विराजमान मिश्रा, पांडेजी को शत-शत नमन.

अतीतपंथी वामपंथी: कँवल भारती

आज के 'हिन्दुस्तान' में प्रसिद्ध इतिहासकार रामचन्द्र गुहा का लेख "अतीत से चिपके वाम का भविष्य" छपा है। इसका अर्थ यही है 'अतीत पंथी वाम पंथी।' रामचन्द्र गुहा ने कम्युनिस्टों को अपनी सोच का भारतीयकरण करने की सलाह दी है। वे लिखते हैं कि 'भारतीय वामपंथियों ने अपने नायकों को देश में नहीं, बल्कि देश से बाहर ही पाया है। लेनिन और माओ जैसों की भारत या भारतीय समाज के बारे में न तो कोई समझ थी और न उनमें बहुदलीय लोकतंत्र की ख़ूबियों के प्रति प्रशंसा भाव था। गांधी और आंबेडकर जैसे स्वदेशी चिन्तकों की क़ीमत पर विदेशी नायकों को पूजते हुए वामपंथी भारतीय सच्चाइयों से परे चले गए।' 
यह बात डॉ. आंबेडकर अपने पूरे जीवन भर कहते रहे कि कम्युनिस्ट अपना भारतीयकरण करें, पर उन पर कोई असर नहीं हुआ था। इसलिए आंबेडकर कम्युनिस्टों से इस क़दर नाराज़ थे कि कहते थे कि वे दुनिया भर से समझौता कर लेंगे, पर कम्युनिस्टों से कभी समझौता नहीं करेंगे। वे कहते थे कि इनके एजेंडे में जाति के सवाल ही नहीं हैं, इसलिए ये क्रांति करने नहीं, बल्कि क्रांति को रोकने आए हैं। आंबेडकर ने यह ग़लत नहीं कहा था। आज तक वे कोई क्रांति नहीं कर सके। 
मैं स्वयं काफ़ी सालों से कह रहा हूँ कि अगर भारत में वामपंथियों को सफल होना है, तो उन्हें तीन काम करने होंगे-- (1) अपनी सोच और शब्दावली दोनों का भारतीयकरण करना होगा। कम्युनिस्ट शब्द खत्म करना होगा, क्योंकि यह भारत के शोषित वर्गों में कोई क्रांतिबोध पैदा नहीं करता है। यह बात रामचंद्र गुहा ने भी कही है। (2) आंबेडकर, पेरियार, फुले और कबीर की वैचारिकी को अपनाना होगा, और (3) जाति और ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखना होगा।
भारत में कम्युनिज़्म की विफलता इन्हीं तीन कामों को न करने से हुई। वामपंथी जिस वर्ग नामक चीज पर जोर देते हैं, वह अस्तित्व में ही नहीं है। ग़रीब ब्राह्मण भी ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ नहीं जाता। 
यह स्पष्ट रूप से समझना होगा कि भारत में दो विचारधाराएँ हैं, एक समतावादी और दूसरी ब्राह्मणवादी। कबीर और तुलसीदास इन्ही दो विचारधाराओं के स्तम्भ हैं। आंबेडकर और गांधी भी इन्हीं दो विचारधाराओं के स्तम्भ हैं। तथाकथित मार्क्सवादी आलोचक राम विलास शर्मा ने एक जगह लिखा है कि 'अगर भारत में फ़ासीवाद क़ायम हुआ, तो उसकी पहली जिम्मेदारी कम्युनिस्टों की होगी।' पर हक़ीक़त में रामविलास शर्मा भी तुलसीवादी थे, कबीरवादी नहीं थे। यह उनका नहीं, बल्कि अधिकांश मार्क्सवादियों का चरित्र था और है। मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह तक ने यह बयान दिया था कि वह सुबह नहाधोकर रामचरितमानस का पाठ करते हैं। अब जो तुलसीवादी है, वह समतावादी छोड़ो, मार्क्सवादी भी नहीं हुआ। इन लोगों ने कुछ भी तो नहीं त्यागा, जनेऊ तक नहीं तोड़ी। बंगाली कम्युनिस्ट दुर्गापूजा में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। जो ब्राह्मणी पाखण्ड नहीं छोड़ सकता, उससे क्या उम्मीद की जा सकती है? बंगाल का सारा कम्युनिस्ट वोट ज्यों ही थोड़े ही चला गया भाजपा में, वह उसका घर है, इसलिए वह उसमें आराम से चला गया।
इसलिए मैं कहता हूँ कि ब्राह्मण के कई मुँह हैं, वह एक मुँह से मार्क्स की बात करेगा, तो दूसरे मुँह से तुलसीदास की प्रशंसा करेगा। वह एक मुँह से आंबेडकर की बात करेगा, तो दूसरे मुँह से जयश्रीराम के नारे लगाएगा। यह क्रांतिकारी और विश्वसनीय प्राणी नहीं है। वेदों से गीता तक की जो धारा है, वह उसी में जायेगा।
कबीर ने इन लोगों को पहिचान लिया था, इसलिए खुलकर कहा था---
अति पुनीत ऊँचे कुल कहिए, सभा माहिं अधिकाई।
इनसे दिच्छा सब कोई माँगे, हंसीआवे मोहि भाई।

चे ग्वेरा : रावन राज

चे ग्वेरा ये वो आदमी था जो पेशे से डॉक्टर था, 33 साल की उम्र में क्यूबा का उद्योग मंत्री बना लेकिन फिर लातिनी अमरीका में क्रांति का संदेश पहुँचाने के लिए ये पद छोड़कर फिर जंगलों में पहुँच गया. एक समय अमरीका का सबसे बड़ा दुश्मन, आज कई लोगों की नज़र में एक महान क्रांतिकारी है. अमरीका की बढ़ती ताकत को पचास और साठ के दशक में चुनौती देने वाला यह युवक– अर्नेस्तो चे ग्वेरा पैदा हुआ था अर्जेंटीना में.
सत्ता से संघर्ष की ओर:
चाहता तो अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स के कॉलेज में डॉक्टर बनने के बाद आराम की ज़िंदगी बसर कर सकता था. लेकिन अपने आसपास ग़रीबी और शोषण देखकर युवा चे का झुकाव मार्क्सवाद की तरफ़ हो गया और बहुत जल्द ही इस विचारशील युवक को लगा कि दक्षिणी अमरीकी महाद्वीप की समस्याओं के निदान के लिए सशस्त्र आंदोलन ही एकमात्र तरीक़ा है.
चे एक प्रतीक है व्यवस्था के ख़िलाफ़ युवाओं के ग़ुस्से का, उसके आदर्शों की लड़ाई का !
जॉन एंडरसन ली, जीवनी लेखक
1955 में यानी 27 साल की उम्र में चे की मुलाक़ात फ़िदेल कास्त्रो से हुई. जल्द ही क्रांतिकारियों ही नहीं लोगों के बीच भी 'चे' एक जाना पहचाना नाम बन गया. क्यूबा ने फ़िदेल कास्त्रो के क़रीबी युवा क्रांतिकारी के रूप में चे को हाथों हाथ लिया । क्रांति में एहम भूमिका निभाने के बाद चे 31 साल की उम्र में बन गए क्यूबा के राष्ट्रीय बैंक के अध्यक्ष और उसके बाद क्यूबा के उद्योग मंत्री. 1964 में चे संयुक्त राष्ट्र महासभा में क्यूबा की ओर से भाग लेने गए. चे बोले तो कई वरिष्ठ मंत्री इस 36 वर्षीय नेता को सुनने को आतुर थे.
लोकप्रिय नाम
आज क्यूबा के बच्चे चे ग्वेरा को पूजते हैं. और क्यूबा ही क्यों पूरी दुनिया में चे ग्वेरा आशा जगाने वाला एक नाम है. दुनिया के कोने-कोने में लोग उनका नाम जानते हैं और उनके कार्यों से प्रेरणा लेते हैं.
चे की जीवनी लिखने वाले जॉन एंडरसन ली कहते हैं, "चे क्यूबा और लातिनी अमरीका ही नहीं दुनिया के कई देशों के लोगों के लिए एक प्रेरणा स्रोत हैं." वे कहते हैं,  "मैंने चे की तस्वीर को पाकिस्तान में ट्रकों, लॉरियों के पीछे देखा है, जापान में बच्चों के, युवाओं के स्नो बोर्ड पर देखा है.
चे ने क्यूबा को सोवियत संघ के करीब ला खड़ा किया. क्यूबा उस रास्ते पर चार दशक से चल रहा है. चे ने ही ताकतवर अमरीका के ख़िलाफ़ एक दो नहीं कई विएतनाम खड़ा करने का दम भरा था.
चे एक प्रतीक है व्यवस्था के ख़िलाफ़ युवाओं के ग़ुस्से का, उसके आदर्शों की लड़ाई का. चे ग्वेरा की यह तस्वीर दुनिया के कोने-कोने में दिखाई देती है। 37 साल की उम्र में क्यूबा के सबसे ताक़तवर युवा चे ग्वेरा ने क्रांति की संदेश अफ़्रीका और दक्षिणी अमरीका में फैलाने की ठानी. 
काँन्गो में चे ने विद्रोहियों को गुरिल्ला लड़ाई की पद्धति सिखाई. फिर चे ने बोलीविया में विद्रोहियों को प्रशिक्षित करना शुरू किया. अमरीकी खुफ़िया एजेंट चे ग्वेरा को खोजते रहे और आख़िरकार बोलीविया की सेना की मदद से चे को पकड़कर मार डाला गया.
अर्नेस्टो चे ग्वेरा आज दिल्ली के पालिका बाज़ार में बिक रहे टी-शर्ट पर मिल जाएगा, लंदन में किसी की फ़ैशनेबल जींस पर भी लेकिन चे क्यूबा और दक्षिण अमरीकी देशों के करोड़ों लोगों के लिए आज भी किसी देवता से कम नहीं है. आज अगर चे ग्वेरा ज़िंदा होते तो 80 साल के होते लेकिन चे ग्वेरा को जब मारा गया उनकी उम्र थी 39 साल.
भारत यात्रा
यह कम ही लोगों की जानकारी में है कि चे ग्वेरा ने भारत की भी यात्रा की थी. तब वे क्यूबा की सरकार में मंत्री थे.
भारत से लौटकर रिपोर्ट :
भारत यात्रा से हमें कई लाभदायक बातें सीखने को मिलीं. सबसे महत्‍वपूर्ण बात हमने यह जाना कि एक देश का आर्थिक विकास उसके तकनीकी विकास पर निर्भर करता है. और इसके लिए वैज्ञानिक शोध संस्‍थानों का निर्माण बहुत ज़रूरी है.
चे ग्वेरा : चे ने भारत की यात्रा के बाद 1959 में भारत रिपोर्ट लिखी थी जो उन्होंने फ़िदेल कास्त्रो को सौंपी थी. इस रिपोर्ट में उन्होंने लिखा था, “काहिरा से हमने भारत के लिए सीधी उड़ान भरी 39 करोड़ आबादी और 30 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल हमारी इस यात्रा में सभी उच्‍च भारतीय राजनीतिज्ञों से मुलाक़ातें शामिल थीं नेहरू ने न सिर्फ दादा की आत्‍मीयता के साथ हमारा स्‍वागत किया, बल्कि क्यूबा की जनता के समर्पण और उसके संघर्ष में भी अपनी पूरी रुचि दिखाई.
चे ने अपनी रिपोर्ट में लिखा,
"हमें नेहरु ने बेशकीमती मशविरे दिये और हमारे उद्देश्‍य की पूर्ति में बिना शर्त अपनी चिंता का प्रदर्शन भी किया भारत यात्रा से हमें कई लाभदायक बातें सीखने को मिलीं सबसे महत्‍वपूर्ण बात हमने यह जाना कि एक देश का आर्थिक विकास उसके तकनीकी विकास पर निर्भर करता है और इसके लिए वैज्ञानिक शोध संस्‍थानों का निर्माण बहुत ज़रूरी है- मुख्‍य रूप से दवाइयों, रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान और कृषि के क्षेत्र में. 
अपनी विदाई को याद करते हुए चे ग्वेरा ने लिखा था, "जब हम भारत से लौट रहे थे तो स्‍कूली बच्‍चों ने हमें जिस नारे के साथ विदाई दी, उसका तर्जुमा कुछ इस तरह है- 
क्यूबा और भारत भाई भाई सचमुच,
क्यूबा और भारत भाई भाई है ||

योग/विपस्सना

योग/विपस्सना, पेट भरे लोगों के चोंचले हैं ! यह हराम की कमाई को पचाने का अभ्यास है. यह पेट-भरों का मुजफ्फरपुर जैसी घटनाओं को दबाने का प्रयास है. 
योग हो या विपस्सना, यह मूक और अनाथ बच्चियों, काम-काजी महिलाओं से आये दिनों हो रहा बलात्कार, कमजोरों पर हो रहे अत्याचार जैसी विकराल समस्याओं से बचने का उपाय है. यह सिखाता है कि कैसे लोगों के सवालों से आँख-मूंद कर रहा जा सकता है ? यह झुण्ड के झुण्ड बेरोजगारों को पढ़ाता है कि कैसे बढ़ती बेरोजगारी से ध्यान हटा कर 'राष्ट्रभक्ति' पर सांस रोकी जा सकती है ?

धम्म अपरिहार्य

अकसर सांसारिक पुरुष दुक्खी होता है, तब उसे धम्म की याद आती है. क्योंकि, धम्म उसे मानसिक शांति देता है. क्योंकि, धम्म, नैतिकता का दूसरा नाम है. असहज चित्त को सद्विचारों की आवश्यकता होती है। 
बाबा साहब डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि मनुस्स,  सिर्फ रोटी के भरोसे जिन्दा नहीं रह सकता। क्योंकि उसके पास मन भी है।  और मन, रोटी से नहीं भरता ? और यही कारण है कि आदमी अपनी जीविका का एक बड़ा हिस्सा धार्मिक कार्यों में खर्च करता है. 
धम्म, मनुस्स के लिए अपरिहार्य है. वह उसके जीवन का हिस्सा है. वह जीवन का लक्ष्य निर्धारित करता है। 'मैं' और 'परिवार' से बाहर देखने प्रवृत करता है. धम्म का इष्ट भी समाज है। अगर मनुस्स अकेला है, तब उसे समाज की दरकार नहीं।  निस्संदेह, तब उसे धम्म की भी दरकार नहीं। 
धम्म का अर्थ जितना सील से है, उससे कही अधिक समाज से है. आदमी अगर अकेला है, तो सील का पालन करें तो क्या, न करें तो क्या ? सील बनी ही इसलिए है कि उसे समाज में रहना हैं. दरअसल, मनुस्स सामाजिक प्राणी है. वह समाज से अलग रह ही नहीं सकता. और इसलिए धम्म अपरिहार्य है.

Friday, June 21, 2019

मम दिनचरिया

मम दिनचरिया
मम नाम अमतो।
अहं सोळस वस्सीयो बालको अम्हि।
अहं अधुना दसमे वग्गे अज्झयन करोमि।
मम पिता कसको अत्थि।

अहं पभाते(सुबह) उट्ठहामि।
उट्ठहित्वा मात-पितुनो दस्सनं(दर्शन) करोमि।
अनुक्कमेण बुद्धं नमामि।
ततो एकं चसकं(गिलास) जलं पिबामि।
ततो पात-किरिया(प्रातः क्रिया) सम्पादेमि।
ततो दन्त मज्जनं, मुख धोवनं करोमि।
वत्थेन(वस्त्र से) मुखं पुच्छामि।
अनन्तरं पात-भमणं करोमि।
पात-भमणं आरोग्यकारी।
पात-वायु सुखकारी।

तदन्तरं अहं सिनानं(स्नान) करोमि।
सिनानेन सरीरं सुद्धं होति।
सिनानं कत्वा ति-रतनं (बुद्धं धम्मं च संघं) वन्दामि।
ति-रतनं वन्दित्वा अहं पंचसीलं धारेमि।
पंचसीलं नाम पंच विधा विरति।
पाणातिपाता विरति, अदिन्नदाना विरति
कामेसु मिच्छाचारा विरति, मुसावादा विरति
सुरा-मेरय-मज्ज-पमादट्ठाना विरति’ति।
सोगतानं(बौद्धों को) पंचसीलं पालनीयं।
सीलाचरणेन जीवने सुखं च सन्ति समायाति।

तदन्तरं अहं अप्पहारं/पातरासं(अल्पहार) करोमि।
पातरासं भुञ्जित्वा अज्झयनं करोमि।
दस वादने(बजे) अहं विज्झालयं गच्छामि(जाता हूं)।
विज्झालये झानेन अज्झयनं करोमि।
अहं मम आचरियानं गारवं करोमि।
ते अम्हे विसयानुसारं पाठेन्ति।
अहं विञ्ञाणं, गणितं, हिन्दी, पालिं, आग्लं भासा पठामि।
विञ्ञाणं मम पिय विसयो।
पालि मम पिय भासा।
घरे परिवारजनेहि सह पालि भासितुं अहं वायाम करोमि।
पालि एका सरला, सुबोधा भासा।
पालि अम्हाकं संखार भासा।

मज्झण्हे भोजनं भुञ्जामि (भोजन करता हूं)।
अहं सब्बदा(सर्वदा) साकाहारं भोजनं करोमि।
साकाहार भोजनं उत्तमं।
मज्झण्हे भोजनं भुञ्जित्वा पुनं अज्झयनं करोमि।
विज्झालये विविध अवसरेसु विजिंगिसा अयोजिता होन्ति।
अहं रुचिपुब्बकं पटिभागं गण्हामि।

अपरण्हे अहं घरं आगच्छामि।
घरं आगत्वा(आकर) मुखं च हत्थ-पादे धोवामि।
विज्झालय गणवेसं परिवत्तेमि(बदलता हूं)।
ततो मित्तेहि-सह(मित्रों के साथ) कीळामि(खेलता हूं)।
सायंकाले घरस्स(घर के) सह-कम्मं करोमि।
परिवारजनेहि सह बुद्ध विहारं गच्छामि।
अम्हाकं बुद्ध विहारो सिक्खाय पमुख ठानं।
जना, इध पालि भासा पठन्ति, पाठेन्ति।

रत्तियं(रात में) अहं भोजनं भुञ्जामि।
अनन्तरं विज्झालयस्स गह-कम्मं करोमि।
ततो मात-पितु वन्दित्वा(वन्दन कर) सयामि(सोता हूं)।

कांग्रेस का उहापोह

कांग्रेस का उहापोह
हमें लगता है, राहुल गाँधी को कांग्रेस-अध्यक्ष का, एक तरह से थोपा पद,  अब कतई नहीं स्वीकारना चाहिए. यह एक कड़ा सन्देश होगा पार्टी के अन्दर घाघ नेताओं के लिए और पार्टी के बाहर धुर-विरोधियों के लिए. बेशक, यह कांग्रेस के लिए भी फायदेमंद होगा. 
कांग्रेस के बुढऊँ नेताओं का यह खयाल गलत है कि इससे कांग्रेस बिख़र जाएगी/ टूट जाएगी. बल्कि ऐसा कह कर ये नेता पार्टी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और कुर्बानियों से बच रहे हैं. राहुल गाँधी कांग्रेस अध्यक्ष पद किसी गैर गाँधी परिवार को सौंप कर वह मुकाम हासिल कर सकते हैं जो प्रधान मंत्री की कुर्सी ठुकरा कर सोनिया गाँधी को हासिल हुआ.
निस्संदेह, कांग्रेस अध्यक्ष पर कोई युवा नेता हो जो किसी खिंची लकीर या घेरे में चलने को बाध्य न हो, जो राहुल गाँधी के हाथ में हाथ मिला कर युवाओं को पार्टी से जोड़ें और देश में रक्त का नव-संचार करें.
सनद रहे, एक लोकतांत्रिक देश में मजबूत विपक्ष की उपस्थिति स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जितना आवश्यक है, उसके कहीं अधिक अल्पसंख्यक और समाज के कमजोर वर्ग की आवाज उठाने निहायत जरुरी है.

सर्वाईव ऑफ़ द फिटेस्ट.

सर्वाईव ऑफ़ द फिटेस्ट.
बीएसपी के 11 सांसद मन बहलाने के लिए ठीक है. यह एहसास कराते हैं कि हम जिन्दा है. यह एहसास कराते हैं कि हम मरे नहीं हैं. यह इस बात का एहसास है कि दलित कौम मरती नहीं है. वह महामहिम रामनाथ कोविंद हो अथवा रामविलास पासवान या रामदास आठवले जैसी शक्ल में जिन्दा रहती है. प्रकृति का यही स्वभाव है. जीव-जंतु तो वातावरण और परिवेश के मुताबिक अपना रंग बदल देते हैं. सर्वाईव ऑफ़ द फिटेस्ट.

Wednesday, June 19, 2019

विपस्सना: राजा ढाले

विपश्यना एक थोतांड
१९५६ मध्ये डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांनी केलेल्या अभूतपूर्व अशा धम्मक्रांतिनंतर त्या चळवळीला खो घालणारे किंवा त्या वैचारिक क्रांतिला चुकीच्या दिशेने नेणारे असे अनेक प्रवाह, फाटे काही लोकांनी फोडले. त्याचं एक दृश्य स्वरूप म्हणजे सत्यनारायण गोयंका यांनी १९७२ सालापासून सुरू केलेली विपश्यना ही चळवळ. विपश्यना म्हणजे आत पहाणं असा तिचा अर्थ असेल तर आत म्हणजे नेमकं कुठे? हा एक अतिशय जटील आणि भोंगळ प्रश्न आहे. खरं तर बाबासाहेब आंबेडकर ४ डिसेंबर १९५४ रोजी रंगूनच्या जागतिक धम्म परिषदेला गेले असताना तिथल्या बौद्ध शासनसभा या संस्थेला जो मेमोेरेण्डम (खलिता) दिला, त्या खलित्यामध्ये ‘मेडिटेशन,’ ‘कॉन्टम्प्लेशन’ आणि ‘अभिधम्म’ या गोष्टी भारतातील होऊ घातलेल्या बौद्ध चळवळीला आणि बौद्धांना मारक ठरतील हे भविष्य आधीच वर्तवलं होतं.
परंतु बाबासाहेबांनी आपली चळवळ धम्माशी निगडित केली. तर गोयंका गुरुजींनी नेमकी ती उलट्या दिशेने नेली. म्हणजे अभिधम्माकडे नेली. आज आमच्या मनात धम्म आणि अभिधम्म यांच्यातील द्वंद्व वैचारिक पातळीवर स्पष्ट होत असताना गोयंका गुरुजींनी अभिधम्माचा होऊ घातलेला पर्यायाने महायानाचा होऊ घातलेला पुनःउद्धार ही गोयंका गुरुजींची उलटी दिशा निश्चितच बौद्ध धम्माच्या निखळ स्वरूपाला घातक ठरणारी आहे. गोयंका गुरुजींनी आम्हाला विचाराकडून निर्लेप समाधीकडे नेण्याचा प्रयत्न केलेला आहे. आणि तो घातक आहे. कारण निर्विकल्प समाधी म्हणजे विचाराशिवाय असलेली समाधी. जिथे विचार संपतात तिथे सगळेच अगतिक होतात. अशा तर्हेचा अगतिक आणि लाचार समाज, भोंगळ समाज गोयंका गुरुजींना अभिप्रेत होता काय? अशी त्यांच्या कार्याबद्दल शंका यायला वाव आहे.
जिथे विचारच संपतात तिथे अविचाराचा, अलौकिकतेचा, अभौतिकतेचा आणि पर्यायाने सर्व अंधश्रद्धांचा उगम सहज शक्य आहे. अशावेळी बाबासाहेबांनी दिलेला बौद्ध धम्म अथवा गौतम बुद्धांनी प्रत्येक वेळी प्रत्येक गोष्टीचा विचार आणि पुनर्विचार करण्याची आम्हाला दिशा दिली आहे, ती सोडून आम्ही मूर्खाच्या नंदनवनात वावरण्यासाठी विपश्यनेच्या रूपाने मोकळे झालो आहोत, असं मला वाटतं.
विपश्यना केल्यामुळे जर ज्ञान प्राप्त होणार असेल, डोळे मिटून राहिल्याने जर ज्ञान प्राप्त होणार असेल तर बाबासाहेबांनी जगातल्या तीन विख्यात विद्यापीठात अभ्यास करून त्यातील दोन खंडातील विद्यापीठांच्या अत्युच्च पदव्या प्राप्त केल्या, त्याऐवजी त्यांनी डोळे मिटून स्वस्थ बसण्याचा पर्याय का स्वीकारला नाही? किंवा राजगृहासारखी केवळ गं्रथसंपदा जपणारी इमारत बांधून अहर्निश अभ्यास तरी का केला? गोयंकांच्या मते, विपश्यना हाच जर ज्ञान प्राप्त करण्याचा मार्ग असेल तर बाबासाहेबांनी हा विद्या शिकण्याचा खटाटोप तरी का केला? म्हणजेच बाबासाहेबांनी ‘बुद्ध आणि त्यांचा धम्म’मध्ये विपश्यनेचा प्रचार करण्याऐवजी बुद्धांच्या तर्कशुद्ध विचारांचा प्रचार केला आहे. त्याचा अर्थच असा की, बाबासाहेब बुद्धांच्या विचारामुळेच जगाचा विकास होईल असं मानत होते. तर गोयंका गुरुजी तो विचारच थोपवत होते. आणि त्यात ‘हीन’ मिसळत होते.
इथल्या भोळ्याभाबड्या जनतेला विपश्यनेच्या मार्गाने नेण्यासाठी त्यांनी जे परिश्रम केले ते धम्माच्या प्रचारासाठी केले असते तर बरं झालं असतं. याउलट गोयंका गुरुजींनी आपल्या विपश्यना केंद्राच्या जगभर शाखा काढण्याचा प्रयत्न केला. कशासाठी? त्यांनी असं म्हटलं की, विपश्यनेचं मूळ हे वेदाच्या शिकवणीत आहे. असं असेल तर जे अहिंदू आहेत, जे ब्राह्मणेतर आहेत अशा लोकांना बौद्धधम्माच्या नावाने वैदिक साधना पद्धती का शिकवत होते हा फार महत्त्वाचा प्रश्न आहे. आणि म्हणूनच गोयंका गुरुजी हे जनसामान्यांना फसवण्याच्या मार्गातील एक मोठा कट होता असं म्हणावं लागेल.
गौतम बुद्धाचा विचार शिकवण्याऐवजी गौतम बुद्धाच्या आचार पद्धतीचे चुकीचे अर्थ लावून त्यावर विकसित केलेली विपश्यना ही एक समाजाला दिलेली भूल आहे. उदाहरणार्थ, बाबासाहेबांनी आम्हाला बौद्ध व्हायला सांगितलं. बुद्ध व्हायला सांगितलं नाही. बुद्धाची जागा घ्यायला सांगितलं नाही. बुद्ध हा आमचा आदर्श आहे. ते मागे सारून तुम्हीही बुद्ध बनू शकता अशा तर्हेची शिकवण देणं आणि बुद्धाला छोटं बनवणं हा होतो.
खरं तर बुद्धाने सदाचाराची शिकवण दिली. परंतु लोकांना सदाचार सांगण्याऐवजी त्यांना बुद्धाच्याच स्थानावर नेऊन ठेवण्याचा प्रचार करतात हे कशासाठी? कारण बुद्ध हे तत्त्वज्ञान आहे आणि ते डोळे मिटून घेण्याचं नव्हे तर डोळे उघडण्याचं तत्त्वज्ञान आहे. म्हणूनच विपश्यनेतून बुद्धाचा वसा आणि वारसा आज पुन्हा धोक्यात येण्याची शक्यता आहे.
खरं तर भारतात फुले-आंबेडकरांनी जी शैक्षणिक क्रांती केली आहे, तळागाळातल्या लोकांना शिक्षण घेण्याची जी सुसंधी मिळवून दिली आहे आणि त्यामुळे सरकारी नोकर्यांचे आणि ‘मार्यांच्या’ जागांचे दरवाजे खुले करून एक नवा इतिहास घडवला आहे. तळागाळातल्या लोकांना वर उचलण्याचा आणि त्यांनाही समतेच्या द्वारात उभं करण्याचा जो निखालस आणि अभूतपूर्व पराक्रम केलाय तो धुळीत मिळवण्यासाठी, त्यांना शिक्षणाचे दरवाजे बंद करण्याचा आणि पुन्हा त्यांच्या मूळ स्थितीला नेण्याचा हा प्रतिक्रांतिवाद्यांचा डाव आहे आणि त्यात विपश्यना ही अग्रगामी आहे. आमच्यातले काही उच्च पदस्थ अधिकारीसुद्धा या डावाला बळी पडून शिक्षणाच्या क्षेत्रातसुद्धा विपश्यनेचा शिरकाव करताना आढळतील. त्यांना बाबासाहेब म्हणजे काय? अभिधम्म म्हणजे काय? धम्म म्हणजे काय? हे कधी कळलं आहे काय? म्हणूनच कुर्हाडीचा दांडा गोतास काळ ठरलेले हे अधिकारी ‘आत’ पाहण्याऐवजी आपल्या सभोवतालच्या जगाकडे डोळे उघडून पाहतील तर फार बरं होईल.
अलीकडेच श्रीमान सत्यनारायण गोयंका यांच्या निधनानिमित्त २ ऑक्टोबर २०१३ च्या वृत्तपत्रात आलेल्या जाहिरातीनुसार त्यांच्याबद्दलची माहिती प्रकट झालीय. त्यात ही जाहिरात म्हणते, ‘महाकारूणी भगवान गौतम बुद्धांनी शिकवलेली ही महाकल्याणकारी पण मागील २००० वर्षे लुप्त झालेली विपश्यना विद्या बर्मा येथून भारतामध्ये आणून श्री. गोयंकांनी आपल्या अथक परिश्रमांनी फक्त भारतातच नाही तर जगातल्या सर्व देशांमध्ये आणि प्रत्येक जाती, संप्रदाय तसेच वर्गातल्या लोकांमध्ये केवळ चार दशकांच्या काळात पोचवली.’ या अवतरणावरून आपल्या लक्षात येतं की, भगवना गौतम बुद्धांनी शिकवलेली विपश्यना मागील २००० वर्षांमध्ये लुप्त झाली असेल तर आत्ताच ती प्रकट कशी झाली? विपश्यनेचं स्कूल बंद पडलं असताना हे स्कूल कुठल्याही ट्रेनिंगशिवाय सुरूच कसं झालं? म्हणजे विपश्यना हे बुद्धाच्या विचारांवर केलेलं आरोपण आहे, असं माझं ठाम मत आहे. बुद्ध ४५ वर्षं लोकांमध्ये फिरताना आढळतो तो लोकांनी विचार करण्यासाठी होय. लोकांनी डोळे मिटण्यासाठी नव्हे. खरं तर जगातील स्पर्धांमध्ये आम्ही विनष्ट व्हावं आणि पुन्हा मागासलेले बनावं हीच तर आंतरिक इच्छा नाही ना…? खरं तर गोयंका गुरुजी बर्मामध्ये उद्योजक म्हणून होते. काही काळ त्यांना मायग्रेनचा उपद्रव सुरू झाला. तेव्हा तिथल्या ऊ बा खिन मेमोरिअल ट्रस्टमध्ये त्यांच्यावर त्याच नावाच्या माणसाने उपचार केले आणि फरक पडला. ऊ बा खिनने प्रभावित झालेले सत्यनारायण गोयंका हे विपश्यनेकडे वळले. म्हणजे विपश्यनेच्या नावाने जे स्कूल उत्पन्न झालं ते ऊ बा खिन यांनी जन्माला घातलं होतं, ही गोष्ट विचार करण्यासारखी आहे. अशा तर्हेच्या अंधभक्तीतून यदाकदाचित पूर्वी विपश्यना व्यवहारात असेलच किंवा प्रचलित असेल तर तिचं स्वरूप आणि आजचं स्वरूप एकच आहे, असं म्हणायला काहीही आधार नाही. आणि आजच्या स्पर्धेच्या जगात, भौतिक जगात विपश्यनेची काहीही गरज नाही, असं माझं मत आहे.
गौतम बुद्धाच्या विचारांमुळे जगात जी क्रांती होईल ती आधुनिक शस्त्र आणि शास्त्रामुळे नव्हे तर त्याने मानवा हाती दिलेल्या अहिंसक क्रांतिच्या मार्गाने. आज जगाची सगळी स्पर्धा ही एका देशाने दुसर्या देशाला पाण्यात पाहणारी, आंधळी आहे. तिला डोळस बंधुभावात रूपांतरित करण्याची फार मोठी गरज आहे. त्यामुळे गोयंका गुरुजींनीही ध्यानाचा बाजार केला आणि अडाणी लोकांना त्यात फशी पाडलं. यामुळे त्यांच्या निधनानंतर तरी योग्य चर्चा होणार आहे का?
अत्ता ही अत्तनो नाथो,
अत्ता हि अत्तनो गति।
असं गोयंका गुरुजींच्या शोकसंदेशपर जाहिरातीत म्हटलंय. हे नवीन वचन जोडलं आहे. माणूस स्वयंप्रभ माणूस होण्यासाठी या फसव्या गतीची काहीच गरज नाही. तो फक्त स्वतःच्या मालकीचा असायला हवा एवढंच माझं म्हणणं आहे.
– राजा ढाले(साप्ताहिक 'कलमनामा' तून साभार...13 आक्टो 2013)

Tuesday, June 18, 2019

शर्म मगर, उन्हें नहीं आती ?

शर्म मगर, उन्हें नहीं आती ? 
दलित हितों के सयम्भू नेता अभी भी बहनजी को कोसने में लगे हैं ! कोसने में लगे हैं कि 'मोदी सुनामी' के चलते वे नावं सहित कैसे समंदर में 'गायब' हो गए ? उन्हें जरा भी शर्म नहीं है कि 'चुनावी रणनीति' के तहत बीजेपी क्यों और कैसे सैकड़ों छतरीधारियों को वर्षो से जूतें घीस रहे कार्य-कर्ताओं के सिर पर अचानक आसमान से उतारती है ? उन्हें इस बात पर जरा भी शर्म नहीं आती कि शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे पूरे पांच साल बीजेपी को जी भर कोसने के बाद कैसे चुनाव के वक्त सारे मतभेद एक तरफ रख एक हो जाते हैं ? उन्हें जरा भी शर्म नहीं आती कि हजारों जातियों में बंटे हम दलित, क्यों हजारों पार्टियाँ बना कर एक-दूसरे के वोट काटते रहते हैं ! क्या यह सच नहीं कि हम बंटे हैं और, बंटे रहना चाहते हैं ?

Thursday, June 13, 2019

बुद्धिस्ट तीर्थ स्थान (Buddhist Holy Places)

सारनाथ भगवता धम्म-चक्क पवत्तन ठानं। एत्थ भगवा सम्बोधि लभित्वा पञ्च वग्गीय भिक्खूनं धम्मचक्क पवत्तयि। अनन्तरं भगवा बुद्धस्स अनगिनत अनुयायिनो सम्पूण्णं जम्बुदीपे अभविंसु।


राजानो, गहपतियो, समणा, बाह्मणा, महिसिया, गणिका सब्बे'व भगवतो बुद्धस्स अनुयायिनो अभविन्सु। सम्पूण्णं जम्बुदीपे भगवतो बुद्धस्स  मानव कल्याणकारी धम्मो अपसरि।

Related imageभारत भूमि, विसस्स सोगातानं पावन-भूमि। जना अत्थ आगच्छन्ति, भगवता नमन्ति, अभिनन्दति। धञ्ञो अयं भारत देसो, यत्थ भगवा बुद्धो उप्पन्नो।

पञ्च चत्तालिसति वस्सानि भगवा यानि यानि ठानानि उपदेसितानि, तानि ठानानि महा तित्थानि'ति वुच्चन्ति। भगवतो बुद्धस्स जीवनेन सम्बद्धानि चत्तारि ठानानि महत्त पुण्णानि सन्ति। भगवता बुद्धेन स्वयं महा परिनिब्बान पुब्बं एतेसं दस्सनं महत्तं कथितं आसि।

एतानि चत्तारि दस्सनियानि ठानानि एवं पकारेण सन्ति-
1. जाति ठानं लुम्बिनी वनं।  2. सम्बोधि लाभ ठानं बुद्धगया(उरुवेला)। 3. धम्मचक्कपवत्त ठानं सारनाथो(इसि-पतनमिगदायो)। 4. महा परिनिब्बान ठानं कुसिनारा (मल्लानं साल वनं)। 

इतोपि, चत्तारि ठानानि भगवा बुद्ध सम्बद्धानि सन्ति, यानि सम्पूण्णेे विस्से बुद्ध पूजा ठानं विय विराजन्ते।  तानि इमानि सन्ति- 1. सावत्थी  2. संकिस्सा  3. नालंदा सहितं राजगिरं 4. वेसाली।  इमानि सब्बानि मिलित्वा अट्ठ महा तित्थानि'ति  वुच्चन्ति।  पच्चेक सोगातान एतेसं दस्सनं अवस्सं  करणीयं।

इतोपि अनेकानि बुद्ध तित्थानि भारत भूूमियं सुसोभन्ते। नागपुरस्स दिक्खा भूमि अतीव विख्यातं। एत्थ बाबासाहब अम्बेडकरो एकूूनविसति छ पञ्चासा सतमे वस्से अक्टूबर मासस्स चतुद्दसमे दिवसे अत्तनो अनुयायियो सह  धम्मचक्क पवत्तन कृत्वा भारत भूमियं पुनं एकं बारं बुद्धमय अकरि ।

छत्तीसगढ़स्स सिरपुर ठानं अतीव विस्स पसिद्धं अत्थि।  एतस्स पुरातनं नामं सिरिपुरं'ति आसि ।  एतस्मिं ठाने अतीव विसाल बुद्ध विहारानं समुच्चय ठानं वत्तति। पूरा काले अयं मगध रट्ठस्स राजधानी आसि।

सारनाथ भगवता धम्म-चक्क पवत्तन ठानं। एत्थ भगवा सम्बोधि लभित्वा पञ्च वग्गीय भिक्खूनं धम्मचक्क पवत्तयि।


बुद्धगया, राजगिरं, नालंदा, कुसिनारा, कपिलवत्थु, लुम्बिनी, वेसाली, सावत्थी, संकिस्सा, सांची इच्चादि केसंचि महत्त पुण्णानं  बुद्ध तित्थानं सन्ति। 
10 Feb 2019  :  
वेसाक पुण्णमी-
वेसाक पुण्णमी ति-गुण पावन पुण्णमी'ति  नामेन विख्याता ।
वेसाक मासस्स पुण्णमी दिने मयं तिगुण पावन पुण्णमी आचराम। ति-गुणं अत्थं ति-विधा गुणं। भगवा बुद्ध सम्बद्धानि ति-विधा महत्त पूण्णानि घटनानि सन्ति। वेसाक पुण्णमी दिनं येव भगवा बुद्धो उप्पन्नो। अस्मिं दिने हिमवन्त पदेसे लुम्बिनी वने भगवा महिसिया महामायाय कुच्छियाय विजायि। अनेन अयं सोगतानं पठमं धारणीयं वत्तं दिनं।

दुतियं, वेसाक पुण्णमी, अयं भगवा सम्बोधि लाभ दिनं। उरुवेलायं बोधि रुक्ख मूले निसिन्नो भगवा सम्बोधि लाभो अकरि। ततियं, वेसाक पुण्णमी, भगवा महा परिनिब्बानस्स दिनं। अस्मिं एव दिने कुसिनारायं मल्लानं सालवने  दिन्नं साल रुक्खानं अधो भगवा परिनिब्बानं अलभि। एवं पकारेण वेसाक पुण्णमी ति-गुण पावन पुण्णमी नामेन विख्याता।

वेसाक पुण्णमी दिने पुब्बे'व बुद्ध अनुयायियो अत्तनो-अत्तनो घरे स्वच्छं च साज-सज्जं करोन्ति। सायं काले सब्बे घरेसु दीप माला जालित्वा उस्सवं आचरेन्ति। बुद्ध विहारानं अपि सज्जं करोन्ति। दीप मालेहि जोतन्ति, पकासेन्ति। अस्मिं दिने पातेव उट्ठहित्वा सिनानं  कत्वा बुद्ध विहारे गच्छन्ति। ति-रतनं पूजन्ति, वन्दन्ति नमन्ति। जना अञ्ञ-मञ्ञं अभिनन्दन्ति, सुभ कामना, पेसेन्ति देन्ति पटि-ददान्ति। रत्तियं घरे विविध भोजना नि खज्जानि पाचेन्ति। मित्तानं पायासं वितरन्ति।

पियदस्सि असोको  धम्मराजा
ठाने-ठाने तेन सीलालेखा, थम्बलेखा, गुहालेखा लिखापिता। जनेहि धम्माचरणं च सम्माचरणं चरितब्बं'ति तं पमुखा संदेसा। सब्बासु दिट्ठिसु तस्स समान भावो। धम्मराजा'ति असोको विस्सुतो इतिहासके।


तस्स रज्जं जम्बुुदीपस्स महत्तं राजानं विसालं येन सो 'चक्कवत्ती असोको''ति नामेन पसिद्धो, एवं  'देवानं पियो पियदस्सी''ति तेसु सीलालेखेसु कथयति ।

असोक थम्बे ठिता चत्तारो सीहा भारत देसस्स राज मुद्दा। असोक थम्बे ठितं यं 'धम्म चक्कं' तेन अम्हाकं रट्ठस्स धम्म-धजो अलंकतो।











 '
















सारनाथस्स  'महाबोधि सोसायटी ऑफ़ इण्डिया' बुद्ध विहार













 11 Feb 2019

























12 Feb 2019

                                                                             बुद्धगया

 13 Feb 2019


                                                           बांगला देश बुद्धिस्ट महाविहार

















































14 Feb 2019











14 Feb 2019 : प्राग्बोधि गुफा


























सुजाता


 15 Feb 2019  : रोप वे : शांति स्तूप की ओर








































































 16 Feb 2019













 17 Feb 2019: भदंत ज्ञानेश्वर बुद्ध विहार कुसीनगर























कुसिनारा-
यत्थ, भगवा वेसाख पूण्णमी दिवसे महापरिनिब्बाणं अलभि। भगवा दस्सनाय देसस्स, अपरं देसस्स जना अभिक्खणं आगच्छन्ति। ते भगवा पस्सन्ति, परिभमन्ति, नमन्ति, वन्दन्ति। 

6.10 मीटर लम्बी विशाल मूर्ति लेटी मुद्रा में

परिनिब्बाण थूपो-


बुद्ध काले, कुसिनारा मल्लस्स राजधानी अहोसि। महापरिनिब्बाणं सुत्तानुसारेन, कुसिनारा मल्लेहि भगवतस्स  दाह किरिया यथोचित सम्मानेन अभवि ।


 18 Feb 2019























 19 Feb 2019









 20 Feb 2019: काठमांडू नेपाल
                                                                    Buddhnath Stupa














                                                               Swoyambhu Stupa











21 Feb 2019

कपिलवत्थु , रञ्ञो  सुद्धोदनस्स नगरी। सिद्धत्थो, रञ्ञो सुद्धोदनस्स पुत्तो। अयमेव सिसु कालान्तरेण भगवा गोतम बुद्धो'ति  नामेन विख्यातो। 






 22 Feb 2019











23 Feb 2019 : लखनऊ