Saturday, August 31, 2019

दायरा

दायरा 
बेशक, सामाजिक-धार्मिक और कानूनी दायरे में दलित; हिन्दुओं के साथ हैं. यह दायरा देश की एकता और अखंडता के मद्दे-नजर लाजिमी है. बाबासाहब अम्बेडकर ने इस तरह के विचार कई मर्तबा राष्ट्र की एकता और अखंडता के परिपेक्ष्य में व्यक्त किए हैं. 
बहुसंख्यक हिन्दुओं से आजादी हमें, सम्मान जनक जीने के लिए चाहिए. निस्संदेह, इसकी कीमत राष्ट्रीय एकता और अखंडता नहीं हो सकती. अगर हिन्दू और दलितों में टकराव है, मैं दलित समाज के साथ खड़ा हूँ, किन्तु जहाँ तक देश का प्रश्न है, तो देश मेरे लिए पहले हैं, डॉ अम्बेडकर ने कहा. 
यह ठीक है कि हमारी इस सोच का लाभ बहुसंख्यक हिन्दू उठाते रहेंगे किन्तु इससे अलग होना घातक होगा. और इसलिए, बाबासाहब अम्बेडकर ने; जब सनातनी हिन्दुओं ने उनकी एक न सुनी, बुद्ध का मार्ग चुना. बुद्ध का 'माध्यम मार्ग' जहाँ हमें अपनी अतीत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से जोड़ता है, सम्मान जनक जीने का मार्ग प्रशस्त करता है, वही अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध जगत हमारी असहायता पर संबल प्रदान करता है.

Friday, August 30, 2019

दुब्बलस्स मतिमता

मतिमता
 (युक्ति )
अतीते एकस्मिं वने सीहो मिगराजा होति।
अतीत में एक वन में मृगराज सिंह थे।
तस्मिं येव वने एको ससो होति।
उसी वन में एक खरगोश था।
सीहो संस आह- अहं तुवं खादामि।
सींह ने खरगोश से कहा- मैं तुम्हें खाता हूॅं।
ससो वदति।
खरगोश कहता है।
मिगराज, मा मं खाद।
अस्मिं वने अञ्ञो पि सीहो अत्थि।
इस वन में दूसरा भी सींह है।
सो ‘अहं मिगिन्दो’ ति वदति।
वह ‘मैं मृगराज हूॅं’’ ऐसा कहता है।
महाराज, सो एकस्मिं उदपाने वसति।
महाराज, वह एक जलाशय में रहता है।
तं वस्सतु।
उसे देखें।
सीहो उदपानं गन्त्वा पस्सति।
सींह जलाशय जा कर देखता है।
उदपाने अत्तनो छाया दिस्वा ‘अयं अञ्ञो सीहो‘ ति चिन्तेसि।
जलाशय में अपना छाया देखकर ‘यह अन्य सींह है’ ऐसा सोचने लगा।
सीहनाद नदित्वा तं अपरं सीहं हन्तुं खिप्पं उदपाने पतति।
सींह गर्जना कर उस दूसरे सींह की हत्या करने शीघ्र जलाशय में कूदता है।
मरति च।
और मरता है।
एवं दुब्बलेन पि मतिमता ससेन बलवा सीहो घातितो।
इस प्रकार कमजोर खरगोश के युक्ति से बलवान सींह का घात हुआ।

Wednesday, August 28, 2019

पंडुु रोगाबाधो

एकेन खो पन समयेन अवन्तिकायं रञ्ञो पज्जोतस्स पंडुु रोग आबाधो अहोसि।
एक समय अवंति के राजा चंड प्रद्योत को पंडू रोग से पीड़ित हुआ।
बहु महंता महंता दिसा पामोक्खा वेज्जा आगंत्वा ना सक्खिसुं अरोगं कातुं।
बहुत-से बड़े-बड़े,  दिशाओं में प्रख्यात वैद्य आकर रोग दूर न कर सकें।
बहु हिरञ्ञं आदाय अममन्सु
बहुत सुवण्ण लेकर।
अथ खो राजा पज्जोतो,  रञ्ञो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स सन्तिके दूतं पाहेसि-
तब राजा प्रद्योत ने मगध के राजा सेनिय बिम्बिसार के पास दूत भेजा-
 "मय्हं  खो तादिसो आबाधो, साधु देवो,  वेज्जं आणापेतुं तेन च तिकिच्छापेतुं।"
मुझे ऐसा रोग है, अच्छा है महाराज,  वेद्य को आज्ञा दें जिससे चिकित्सा हो।
अथ खो राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो जीवको कोमार भच्चं आणापेसि-
तब मगध राजा सेनिय बिम्बिसार ने जीवक कोमार्य भृत्य को आज्ञा दी-
 "गच्छ भणे जीवक, उज्जेनि गंत्वा राजानं पज्जोतं तिकिच्छाहि।"
जाओ जीवक, उज्जेनि जा कर राजा प्रद्योत की चिकित्सा करो।
"एवं देवा" ति खो जीवको रञ्ञो बिम्बिसारस्स पटिसुत्वा उज्जेनि गंत्वा,
राजा बिम्बिसार को "हाँ महाराज ", कह कर जीवक उज्जेनि जा कर
रञ्ञो पज्जोतस्स विकारं सल्लक्खेत्वा राजानं पज्जोतं एतद वोच-
राजा प्रद्योत के विकार का विचार कर राजा प्रद्योत को यह कहा-
"सप्पि देव, पचिस्सामि। तं देवो पिविस्सति।"
"घी महाराज, पकाऊंगा, उसको महाराज पियेंगे। "
अलं भणे जीवक, यं सक्कोसि बिना सप्पिना अरोगं कातुं तं करोहि।
नहीं भाई जीवक, बिना घी से जो कर सकते हो, करो।
जेगुच्छ मे सप्पि, पटिकूलं "
घी से मुझे घृणा है। "
अथ खो जीवक एतद अहोसि-
तब जीवक को यह हुआ-
इमस्स खो रञ्ञो तादिसो आबाधो, न सक्का बिना सप्पिना अरोगं कातुं ।
इस राजा को वैसा रोग है, जो बिना घी के दूर नहीं हो सकता।
यन्नूनाहं निपचेय्य कसाव वण्णं कसाव गंधं कसाव रसं।
यदि मैं कसैला रंग, कसैली गंध, कसैला रस पकाऊं।
अथ खो जीवको नाना भेसज्जेहि सप्पि निप्पथि कसाव वण्णं कसाव गंधं कसाव रसं।
तब जीवक ने नाना औसधि से पकाया, कसैला रंग, कसैली गंध, कसैला रस।
अथ खो जीवकस्स एतद अहोसि- इमस्स खो रञ्ञो सप्पि पीतं परिणामेतं उद्देकं दस्सति।
तब जीवक को ऐसा हुआ- इसके घी को पीते ही परिणाम स्वरूप राजा को डकार होती है।
चंडो अयं राजा घातापेय्यापि मं, यन्नूनाहं पटिगच्चे व आपुच्छेय्यं।
यह राजा चंड है, मुझे मरवा देगा, यदि मैं वापिस आ कर आज्ञा लूँ।
अथ खो जीवको येन राजा पज्जोतो तेन उपसंकमि
तब जीवक जहाँ राजा प्रद्योत था, गया
उपसंकमित्वा राजानं पज्जोतं एतद वोच-
जा कर राजा प्रद्योत से यह कहा
मयं खो देव, वेज्जा नाम तादिसेन मुहुत्तेन मूलानि उद्धराम, भेसज्जानि संहराम।
हम महाराज,  मुहूर्त से जड़े उखाड़ेंगे  औसधि  का संग्रह करेंगे।
देवो वाहानागारेसु च द्वारेसु च आणापेतुं-
महाराज, वाहन-आगार में और द्वारों में आज्ञा दें-
'येन वाहनेन जोवको इच्छति तेन वाहनेन गच्छतु ,
जिस वाहनेन सी जीवक जाना चाहे, उस वाहन से जाने दे
येन द्वारेन इच्छति, तेन द्वारेन गच्छतु
जिस द्वार से चाहे, उस द्वार से जाए
यं कालं इच्छति, तं कालं गच्छतु च पविसतु च।
जिस समय चाहे, उस समय जाने दे, प्रवेश करने दे।
राजा तथा आणापेसि।
वैसे राजा ने आज्ञा दी( भदंत आनंद कोसल्यायन :31 दिन में ; पालि पृ 145)।
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1. आणापेतुं- आज्ञा दे। तिकिच्छापेतुं- चिकित्सा कराएं। जेगुच्छ- घृणा। पटिगच्चे- जावूं। आपुच्छेय्य- आज्ञा लूँ ।
उद्देकं- डकार। घातापेय्यापि- मरवा सकता है। उद्धराम- उखाड़ते हैं। संहराम- संग्रह करते हैं। 
2. महाकात्यायन- बुद्ध का प्रमुख सावक औरअवंति के राजा चंड प्रद्योत के पुरोहित का लड़का। जाति-भेद पर महाकात्यायन का राजा प्रद्योत के मध्य संपन्न संवाद (मधुरिय सुत्त: म. नि.) बौद्ध ग्रंथों प्रसिद्द है।
3. प्रतीत होता है, बुद्ध का प्रद्योत के राज्य में जाना नहीं हुआ(कोसम्बी; 'भगवान बुद्ध , जीवन और दर्शन'  पृ 45 )।   

Oldest Buddha Suttas (अशोक का भाबरू शिलालेख)

अशोक का भाबरू शिलालेख
पियदसि लाजा मागधं संघं अभिवादनं आहा। अपा वाधतं च फासु विहालतं चा।  विदितं वे भंते आवतक हमा वुधसि धंमसि संघसीति गलवे च पसादे च ए केचि भंते भगवता बुधेन भासिते सचे से सुभासिते वा ए चु खो भंते हमियाये  दिसेया देवं सघं में चिलठितिके होसतीति अलहामि हकं तं वतये। इमानि भंते धंम-पलियायानि विनयसमुकसे, अलियवसानि, अनागतभयानि, मुनिगाथा, मोनेयसूते, उपतिसपसिने ए चा लाहुलोवादे मुसावादं अधिगिच्य भगवता बुधेन भासिते। एतान भंते धम-पलियायानि इछामि। किं ति बहुके भिखुपाये च भिखुनिये चा अभिखिनं सुनयु चा उपधालेयेयु चा। हेवं हेवा उपासका चा एतेनि भंते इमं लिखापयामि अभिहेतं म जानंताति।

पालि अनुवाद
पियदसी राजा मागधं संघं अभिवादनं आह। अप्पावाधतं च फासुविहारतं च।  विदितं वो भंते यावतको अम्हाकं  बुद्धस्मिं धम्मस्मिं गारवो च पासादो च। यो कोचि भंते, भगवता बुद्धेन भासितो(धम्मपलियायो), सब्बो सो सुभासितो एव। यो तु  खो भंते अम्हेहि देसेय्यो हेवं सद्धम्मो चिरट्ठितिको हेस्सति ति, अरहामि अहं तं वत्तये।  इमानि भंते धम्म-पलियायानि विनय-समुकसो, अरियवंसा, अनागतभयानि, मुनिगाथा, मोनेय्यसुत्तं, उपतिसउपतिस्स-पसिनो,  ये च राहुलोवादे मुसावादं अधिकिच्च। भगवता बुद्धेन भासितो(धम्मपलियायो)।  एतानि भंते, धम्म-पलियायानि इच्छामि। किं ति बहुका भिक्खवो च भिक्खुनियो च अभिक्खणं सुनेय्युं च उपधारेय्युं च, हेवं हेव उपासका च उपासिका च। एतेन भंते ! इमं लेखापयामि अभिहेतं मे जानन्तू ति ।

प्रियदर्शी मगध राजा संघ को अभिवादन करके संघ का स्वास्थ्य और सुख निवास पूछता है। भदन्त,  आप जानते ही हैं कि बुद्ध, धर्म तथा संघ के प्रति मुझमें कितना आदर एवं श्रद्धा है। भगवान बुद्ध का सारा ही वचन सुभाषित है। भदन्त, मैं जिसका निर्देश यहां कर रहा हूँ , वह केवल इसलिए है कि सद्धर्म चिरस्थायी हो और इसलिए बोलना उचित लगता है। भदन्त, ये धर्मपर्याय हैं- विनयसमुकसे, अलियवसानि, अनागतभयानि, मुनिगाथा, मोनेयसूते, उपतिसपसिने, और भगवान बुद्ध का यह भाषण जो उन्होंने राहुल को दिए हुए उपदेश में असत्य भाषण के विषय में किया था। इस सूत्रों के सम्बन्ध में भदन्त मेरी इच्छा यह है कि बहुत से भिक्खु और भिक्खुनियां उन्हें बारम्बार सुनें और कण्ठस्थ करें। इसी प्रकार उपासक और उपासिकाएं भी करें। भदन्त, यह लेख मैंने खुदवाया है। इसलिए कि मेरा अभिहित सब लोग जानें।

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1. भाबरू- जयपुर के पास एक पहाड़ी स्थान।
2. विनयसमुकसे(विनय समुत्कर्ष)-  धम्मचक्कपवत्तन सुत्त।    अलियवसानि- अरियवंससुत्तः अ. नि. चतुक्क निपात। अनागतभयानि- अ. नि. पंचक निपात। मुनिगाथा- मुनिसुत्तः सुत्तनिपात। मोनेयसूते-  नालकसुत्तः सुत्तनिपात। उपतिसपसिने(उपतिस्स पन्ह)- - सारिपुत्त सुत्तः सुत्तनिपात। राहुलोवाद सुत्त- चुल राहुलोवाद अथवा अम्बलट्ठिक राहुलोवाद सुत्तः मज्झिम निकाय(धर्मानन्द कोसम्बीः भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन)।
3. उक्त 7 में से सुत्तनिपात में आए हुए 3 सुत्त यथा मुनिगाथा, नालकसुत्त और सारिपुत्त सुत्त पद्य में हैं, शेष 4 गद्य में हैं।
4. ये सातों सुत्त मोटे तौर पर विनय से सम्बन्धित हैं।
5. सुत्तपिटक के प्राचीनत्तम सुत्तों को पहचानने के लिए ये सातों सुत्त बहुत उपयुक्त हैं।  

आयाचना सुत्तं

आयाचना सुत्तं
भिक्खुओ! श्रद्धावान भिक्खु यदि सम्यक प्रकार से कामना करता है तो उसकी यही कामना होनी चाहिए कि मैं ऐसा होऊं जैसे सारिपुत्त और मोग्गल्यायन। भिक्खुओ, यही तुला है, यही मापदण्ड है, मेरे भिक्खु-सावकों के लिए।
सद्धो भिक्खवे! भिक्खु एवं सम्मा आयाचमानो, आयाचेय्य- तादिसो होमि यादिसा सारिपुत्त-मोग्गल्लाना। एसा भिक्खवे, तुला एवं पमाणं मम सावकानं भिक्खूनं।
भिक्खुओ! श्रद्धावान भिक्खुनि यदि सम्यक प्रकार से कामना करती है तो उसकी यही कामना होनी चाहिए कि मैं ऐसी होऊं, जैसे खेमा और उप्पलवणा भिक्खुनियां। भिक्खुओ, यही तुला है, यही मापदण्ड है, मेरे भिक्खुनि-साविकाओं के लिए।
सद्धा भिक्खवे! भिक्खुनि एवं सम्मा आयाचमाना, आयाचेय्य- तादिसी होमि यादिसी खेमा च भिक्खुनि उप्पलवणा। एसा भिक्खवे, तुला एवं पमाणं मम साविकानं भिक्खूनीनं।
भिक्खुओ! श्रद्धावान उपासक यदि सम्यक प्रकार से कामना करता है तो उसकी यही कामना होनी चाहिए कि मैं ऐसा होऊं, जैसे चित्त-गहपति और हस्तक आळवक। भिक्खुओ, यही तुला है, यही मापदण्ड है, मेरे श्रद्धावान-उपासकों के लिए।
सद्धो भिक्खवे! उपासको एवं सम्मा आयाचमानो, आयाचेय्य- तादिसो होमि यादिसो चित्तो च गहपति हस्तक आळवको। एसा भिक्खवे, तुला एवं पमाणं मम उपासकानं।
भिक्खुओ! श्रद्धावान उपासिका यदि सम्यक प्रकार से कामना करता है तो उसकी यही कामना होनी चाहिए कि मैं ऐसी होऊं, जैसे खुज्जुत्तरा और वेळुकण्डकिया नन्द-माता। भिक्खुओ, यही तुला है, यही मापदण्ड है, मेरे श्रद्धावान-उपासिकाओं के लिए।
सद्धा भिक्खवे! उपासिका एवं सम्मा आयाचमाना, आयाचेय्य- तादिसा होमि यादिसा खुज्जुत्तरा च वेळुकण्डकिया नन्द-माता। एसा भिक्खवे, तुला एवं पमाणं मम साविकानं भिक्खूनीनं (अ.नि. भाग-1ः कामना वग्गः दुक निपात।
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आयाचति- कामना/याचना करना।
खेमा-
उप्पलवणा-
चित्त-गहपति-
हस्तक आळवक-
खुज्जुत्तरा- राजा उदयन के दूसरी पत्नी सामावति और उसकी दासी खुज्जुत्तरा; दोनों बुद्ध की अनन्य उपासिकाएं थी।
वेळुकण्डकिया नन्द-माता-

मूसिक सुत्तं

मूसिक सुत्तं
भिक्खुओ! चार प्रकार के चूहे होते हैं। चतस्सो इमा भिक्खवे, मूसिका।
कौन-से चार प्रकार के? कतमा चतस्सो?
बिल खोदने वाला, किन्तु उस में रहने वाला नहीं। रहने वाला किन्तु बिल खोदने वाला नहीं। न बिल खोदने वाला, न रहने वाला। बिल खोदने वाला और रहने वाला।
गाधं कता नो वसिता। वसिता नो गाधं कता। नेव गाधं कता नो वसिता। गाधं कता च वसिता च।
इसी प्रकार भिक्खुओ, संसार में  चार प्रकार के लोग होते हैं।
एवमेव खो भिक्खवे, चत्तारो पुग्गलो सन्तो संविज्जमाना लोकस्मिं।
कौन-से चार ? कतमे चत्तारो?
भिक्खुओ, एक आदमी धर्म का भलि-भांति अध्ययन करता है, किन्तु यह दुक्ख है, यह दुक्ख निरोध गामिनी है, यर्थात रूप से नहीं जानता। इस प्रकार भिक्खुओ, वह आदमी बिल खोदने वाला होता है किन्तु उस में रहने वाला नहीं।
इध भिक्खवे, एकच्च पुग्गलो धम्मं परियापुणाति, सो इदं दुक्खं, अयं दुक्खं निरोध गाामिनी पटिपदा’ति यथा भूतं न पजानाति। एवं खो भिक्खवे, पुग्गलो गाधं कता होति न वसिता।
भिक्खुओ, एक आदमी धर्म का पाठ नहीं करता है, किन्तु यह दुक्ख है, यह दुक्ख निरोध गामिनी है, यर्थाथ रूप से जानता है। इस प्रकार भिक्खुओ, वह आदमी रहने वाला होता है किन्तु बिल खोदने वाला नहीं।
इध भिक्खवे, एकच्च पुग्गलो धम्मं न परियापुणाति, सो इदं दुक्खं, अयं दुक्खं निरोध गाामिनी पटिपदा’ति यथा भूतं पजानाति। एवं खो भिक्खवे, पुग्गलो वसिता होति न गाधं कता।
भिक्खुओ, एक आदमी न धर्म का भलि-भांति अध्ययन करता है और न यह दुक्ख है, यह दुक्ख निरोध गामिनी है, यर्थाथ रूप से जानता है। इस प्रकार भिक्खुओ, वह आदमी न बिल खोदने वाला होता हे और न रहने वाला।
इध भिक्खवे, एकच्च पुग्गलो धम्मं न परियापुणाति, न सो इदं दुक्खं, अयं दुक्खं निरोध गाामिनी पटिपदा’ति यथा भूतं पजानाति। एवं खो भिक्खवे, पुग्गलो न गाधं कता होति न वसिता।
भिक्खुओ, एक आदमी धर्म का भलि-भांति अध्ययन करता है और यह दुक्ख है, यह दुक्ख निरोध गामिनी है, यर्थाथ रूप से जानता है। इस प्रकार भिक्खुओ, वह बिल खोदने वाला होता है और रहने वाला होता है।
इध भिक्खवे, एकच्च पुग्गलो धम्मं परियापुणाति, सो इदं दुक्खं, अयं दुक्खं निरोध गाामिनी पटिपदा’ति यथा भूतं पजानाति। एवं खो भिक्खवे, पुग्गलो गाधं कता होति च वसिता च(अ. नि. भाग- 2ःचतुक्क निकाय )। 

देश की न्याय व्यवस्था: डॉ अम्बेडकर

टाईम्स आँफ इंडिया के 31 अगस्त 1950 कै अंक में निम्नलिखित समाचार छपा-
ग्रामीण क्षेत्रों मे निचली जातियों की सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था कैसी है,
इस बारे में पर्याप्त प्रकाश उन तथ्यों पर पड़ता है,
जो इलाहबाद उच्च न्यायालय में एक अपील की सुनवाई के दौरान बयान किए गए, 
जो निम्नलिखित है-
एटा जिले के सारस गांव में चिरोंजी नाम का एक धोबी पिछले विश्व युद्ध में फौज में भर्ती हो गया और चार-पाँच साल तक अपने गांव से बाहर रहा.
जब वह लड़ाई से अपने घर लौटा तो उसने लोगों के कपड़े धोना बन्द कर दिया और गांव मे फौजी की वर्दी पहन कर घूमा करता था.
उसने सारस के राजा, जो उस समय गांव का एकछत्र जमींदार था, के अहलकारों (अधिकारी-कर्मचारियों) तक के कपड़े धोने बन्द कर दिए,
गांव वालों को बड़ा क्रोध आया.
जब 31 दिसम्बर 1947 को वह धोबी (फौजी) अपने खुद के कपड़े धो रहा था,
राजा के अहलकार समेत गांव के चार आदमी उसके पास आए और उससे अपने कपड़े धोने के लिए कहा.
ऐसा करने के लिए उसने इंकार कर दिया.
गांव वाले चिरोंजी को राजा के पास ले गए और वहां उसे पीटने लगे.
उसकी माँ और मौसी उसे बचाने के लिए वहां आए.
लेकिन उन्हें भी मारा-पीटा गया.
ये लोग चिरोंजी को रामसिंह की देखरेख में छोड़कर चले आए.
कहा जाता है कि चिरोंजी ने रामसिंह को अकेला पाकर तमाचा मारा और वहां से भाग आया.
तब रामसिंह राजा के दूसरे और अहलकारों के साथ चिरोंजी का उसके घर तक पीछा किया.
जहां वह जाकर छिप गया था.
गांव वालों ने उससे दरवाजा खोलने के लिए कहा.
जब कोई जवाब नही मिला,
तब उसका घर जला दिया गया.
इससे बहुत-सी और झोपड़ियां जलकर राख हो गई.
धोबी (फौजी) ने पुलिस से शिकायत की,
लेकिन पुलिस ने इस पर कोई यकीन नही किया,
और कहा कि झूठी रिपोर्ट लिखवाने के लिए उस पर मुकदमा चलाया जाएगा.
तब उसने मजिस्ट्रेट की अदालत में अर्जी दी,
अभियुक्तों को दोषी पाया गया और उन्हें तीन-तीन साल की कैद की सजा सुनाई गई.
मजिस्ट्रेट ने जो सजा दी,
उच्च न्यायालय ने उसे बहाल (दोषमुक्त) कर दिया.
-डाॅ० बाबासाहब अम्बेडकर- खण्ड-9 पृ० 97 & 98

युद्ध, समस्या का हल नहीं

युद्ध, समस्या का हल नहीं
यद्यपि भारत-पाकिस्तान रिश्तों पर कुछ कहने से बचना चाहिए मगर, यह तो मीडिया ही है जो दिन-रात अधोषित युद्ध छेड़े हुए है. चूँकि विदेश नीति की बात है, इसलिए विपक्षी दलों की बोलती बंद है. विपक्षी दलों की बोलती इसलिए भी बंद है कि माहौल अत्यंत सांप्रदायिक बना दिया गया है. उन्हें भी हिन्दू वोट चाहिए. 
तमाम न्यूज चेनल दोनों देशों की सामरिक शक्ति का विवरण देकर बता रहे हैं कि पाकिस्तान, भारत के सामने कहीं भी नहीं टिकता. जबकि, चीन सीधे-सीधे पाकिस्तान के साथ है.

Tuesday, August 27, 2019

इमरान की धमकी

इमरान की धमकी 
कमजोर तभी मरने-मारने की बात करता है, जब बल का प्रयोग उसके अस्तित्व पर बन आता है. कश्मीरी नुमाईन्दों सहित पाक से बातचीत के दरवाजे बंद करना मोदी सरकार के लिए आत्मघाती कदम भी हो सकता है. आप पाकिस्तान की नाके-बंदी कर सकते हैं, अधिक समय तक अपनो की नहीं. 
इमरान अब तक अपनी वाणी और कर्म में गंभीर रहें हैं, अत: 'किसी भी हद तक जाने' वाली उनकी धमकी को हलके से लेना गलत होगा. 
युद्ध अमेरिका जैसे देशों के लिए फायदेमंद होता है. फर्क ट्रम्प को नहीं भारत की जनता को पड़ना है. नेता बेहद सुरक्षा में होते हैं मगर रोजी-रोटी के लिए सडकों पर रेंगते लोग नहीं.

Monday, August 26, 2019

हिमेश रेशमिया

हिमेश रेशमिया
कला और मानवता दोनों को नमन. बिना मानवता के कला की भी इज्जत नहीं होती. 
ट्रेनों में, हम आये दिनों कितनी 'रानू मण्डल' को सुनते हैं. वह सिर पर बेतरतीब बालों को बांधे, बहते नाक वाली आपके सामने हाथ फैलाये 5-6 साल की लड़की भी हो सकती है, या जंग खाए पतले लोहे के रिंग से नंगे फर्श पर हाथ-पावं सिकोड़ कर लाचारी को अभिशप्त अपनी काया निकालती मैले-कुचेली फ़राक वाली लड़की, अथवा लता मंगेशकर को मात देने वाली सुरीली आवाज वाली 'रानू मंडल'.

गाली का जवाब गाली नहीं

गाली का जवाब गाली नहीं 
किसी प्रतिक्रिया का जवाब गाली नहीं हो सकता. दरअसल, यह उसके नहीं, आपके स्तर को व्यक्त करती है. अगर आज भी हमारी जुबां में गाली है तो निस्संदेह, हमने बाबासाहब का पहला ही कमांडडेंट 'एजुकेट' को पार नहीं पाया है. चाहे उनकी गाली के बदले ही क्यों न हो, अगर हम भी गाली बक रहें हैं, तो लानत है, हमारे 'एजुकेट' होने में. 
गाली का जवाब गाली नहीं हो सकता. यह सच है कि हम गाली सहते और सुनते रहें हैं. उनके मुंह में हमारे प्रति गाली है, उनके संस्कारों के हमें गाली देना सीखाया जाता है, उनके धर्म-ग्रंथों में हमारे प्रति भद्दी-भद्दी गाली है, पर गाली का जवाब गाली नहीं हैं न ? 
बुद्ध बुराई के बदले भलाई की बात करते हैं. धम्म वाणी में नहीं, आचरण में होना चाहिए. चाहे जितना तित्त और मिथ्या भाषण करें, हमें जवाब पूरी ताकत से देना है, सप्रमाण और सधी हुई भाषा में.

धम्म कब चिरस्थाई रहता है ?(किम्बिल सुत्तं)

एक समय भगवा किमिलायं विहरति वेलुवने।
एक समय भगवान किम्बिल प्रदेश के वेलुवन में विहार कर रहे थे।
अथ खो आयस्मा किमिलो येन भगवा तेनुपसंकमि।
उस समय आयु. किम्बिल भगवान के पास पहुंचे।
उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि।
पास जाकर वे भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए।
एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा किमिलो भगवन्तं एतद वोच-
एक ओर बैठे आयु. किम्बिल ने भगवान से यह कहा-
‘‘को नु खो, भन्ते! हेतु को पच्चयो, येन तथागते परिनिब्बुते सद्धम्मो न चिरट्ठितिको होति?’’
‘‘भन्ते! इसका क्या कारण है, क्या हेतु है कि तथागत के परिनिर्वाण के बाद सधम्म चिर स्थायी नहीं होता?’
‘‘इध किमिल, तथागते परिनिब्बुते, भिक्खु-भिक्खुनियो, उपासका-उपासिकायो सत्थरि अ-गारवा विहरन्ति, अ-पतिट्ठा। धम्मे अ-गारवा विहरन्ति, अ-पतिट्ठा। संधे अ-गारवा विहरन्ति, अ-पतिट्ठा। सिक्खाय अ-गारवा विहरन्ति, अ-पतिट्ठा। अञ्ञ-मञ्ञं अ-गारवा विहरन्ति, अ-पतिट्ठा। अयं खो, किमिल ! हेतु अयं पच्चयो, येन तथागते परिनिब्बुते सद्धम्मो न चिरट्ठितिको होति?’’
‘‘हे किम्बिल! यदि भिक्खु-भिक्खुनिया, उपासक-उपासिकाएं शास्ता के प्रति गौरव रहित हो जाती है, आदर रहित हो जाती है। धर्म के प्रति गौरव रहित हो जाती है, आदर रहित हो जाती है। संध के प्रति गौरव रहित हो जाती है, आदर रहित हो जाती है। शिक्षा-पदों के प्रति गौरव रहित हो जाती है, आदर रहित हो जाती है। परस्पर गौरव रहित हो जाती है, आदर रहित हो जाती है। यही कारण, यही हेतु है, किम्बिल, कि तथागत के परिनिर्वाण के बाद सधम्म चिर स्थायी नहीं होता।’’
‘‘को नु खो, भन्ते! हेतु को पच्चयो, येन तथागते परिनिब्बुते सद्धम्मो चिरट्ठितिको होति?’’
‘‘भन्ते! इसका क्या कारण है, हेतु है कि तथागत के परिनिर्वाण के बाद सधम्म चिर स्थायी रहता है?’’
‘‘इध किमिल, तथागते परिनिब्बुते, भिक्खु-भिक्खुनियो, उपासका-उपासिकायो सत्थरि सगारवा विहरन्ति, स-पतिट्ठा। धम्मे स-गारवा विहरन्ति, स-पतिट्ठा। संधे स-गारवा विहरन्ति, स-पतिट्ठा। सिक्खाय स-गारवा विहरन्ति, स-पतिट्ठा। अञ्ञ -मञ्ञं स-गारवा विहरन्ति, स-पतिट्ठा। अयं खो, किमिल ! हेतु अयं पच्चयो, येन तथागते परिनिब्बुते सद्धम्मो चिरट्ठितिको होति".
‘‘हे किम्बिल ! यदि भिक्खु-भिक्खुनिया, उपासक-उपासिकाएं शास्ता के प्रति गौरव सहित हो जाती है, आदर सहित हो जाती है। धर्म के प्रति गौरव सहित हो जाती है, आदर सहित हो जाती है। संघ के प्रति गौरव सहित हो जाती है, आदर सहित हो जाती है। शिक्षा-पदों के प्रति गौरव सहित हो जाती है, आदर सहित हो जाती है। परस्पर गौरव सहित हो जाती है, आदर सहित हो जाती है। यही कारण, यही हेतु है, किम्बिल, कि तथागत के परिनिर्वाण के बाद सधम्म चिर स्थायी रहता है(किम्बिल सुत्तं: अ. नि. भाग-2ः पंचक निपात)।’’

पिंगियानि सुतं

पिंगियानी सुतं
लिच्छवियो! दुनिया में पांच रत्नों का प्रादुर्भाव कठिन है।
पंचन्नं लिच्छवी! रतनानं पातुभावो दुल्लभो लोकस्मिं।
कौन-से पांच रत्नों का?
कतमेसं पंचन्नं?
दुनिया में तथागत अरहत सम्यक सम्बुद्ध का प्रादुर्भाव कठिन है।
तथागतस्स अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स पातुभावो दुल्लभो लोकस्मिं।
दुनिया में तथागत द्वारा उपदिष्ट धर्म का उपदेश करने वाले का प्रादुर्भाव कठिन है।
तथागत उपवेदितस्स धम्मविनयस्स देसेता पुग्गलो दुल्लभो लाेेकस्मिं।
दुनिया में तथागत द्वारा उपदिष्ट धर्म-विनय का उपदेश होने पर उसके समझने वाले का प्रादुर्भाव कठिन है।
तथागत उपवेदितस्स धम्मविनयस्स देसितस्स विञ्ञाता पुग्गलो दुल्लभो लोकस्मिं।
दुनिया में तथागत द्वारा उपदिष्ट धर्म-विनय का उपदेश होने पर उस समझ कर तदनुसार आचरण करने वाले का प्रादुर्भाव कठिन है।
तथागत उपवेदितस्स धम्मविनयस्स देसितस्स विञ्ञाता धम्मानुधम्मपटिपन्नो  पुग्गलो दुल्लभो लोकस्मिं।
दुनिया में कृतज्ञ, कृत-उपकार को जानने वाले आदमी का प्रादुर्भाव कठिन है।
कतञ्ञू कतवेदी पुग्गलो दुल्लभो लोकस्मिं।
लिच्छवियो! दुनिया में पांच रत्नों का प्रादुर्भाव कठिन है।
इमेसं खो लिच्छवी, पंचन्नं रतनानं पातुभावो दुल्लभो लोकस्मिं।
स्रोत- अ. नि.- भाग-2ः पंचक निपात पृ. 434

यागु/यवागु सुत्तं

यागु(यवागु) सुत्तं
भिक्खुओं! यवागुगु(दाल की खीचड़ी) खाने से पांच शुभ परिणाम होते हैं।
पंचिमे भिक्खवे! आनिसंसा यागुया।
कौन-से पांच?
कतमे पंच ?
भूख मिटती है, प्यास मिटती है, वायु यथोचित गति से गमन करता है, वस्ती की शुद्धि होती है और अपच-शेष पच जाता है।
खुद्दं पटिहनति, पिपासं पटिविनेति, वातं अनुलोमेति, वत्थिं सोधेति, आमावसेसं पाचेति।
इमे खो मे भिक्खवे, पंच आनिसंसा यागुया‘ति( अ. नि. भाग-2 : पंचक सुत्त )।

धम्मस्स सवणं सुत्तं

धम्मस्स सवणं सुत्तं
भिक्खुओ! धम्म सवण करने के पांच शुभ परिणाम हैं।
पंचिमे भिक्खवे! आनिसंसा धम्म सवणे।
कौन-से पांच?
कतमे पंच?
पहले नहीं सुनी हुई बात सुनने को मिलती है। सुनी हुई बात स्पष्ट हो जाती है। संदेह मिट जाता है। मिथ्या दृष्टि नष्ट हो जाती है। चित्त प्रसन्न हो जाता है।
अस्सुतं सुणाति। सुतं परियोदापेति। कंख वितरति। दिट्ठिं उजु करोति। चित्तस्स पसीदति।
भिक्खुओ! धम्म सवण करने के पांच शुभ परिणाम हैं।
इमे खो भिक्खवे! पंच आनिसंसा धम्म सवणे(अ. नि. भाग-2ः पंचक निपात)।

Sunday, August 25, 2019

न्याय-व्यवस्था-

न्याय-व्यवस्था-
सुप्रीम कोर्ट के फैसले 'सुप्रीम' हो सकते हैं, जरुरी नहीं न्याय-संगत भी हो. दरअसल, कोर्ट फैसला वादी-प्रतिवादी दोनों के द्वारा कोर्ट के सामने 'उपलब्ध कराए गए तथ्यों' के आधार पर करता है. आवश्यक नहीं कि 'उपलब्ध कराए गए तथ्य' पर्याप्त और पूर्ण हों. इसलिए कई बार और तथ्य मिलने के बाद 'रिविजन पिटीशन' डाली जाती है. दूसरे, जज का 'माइंड सेट' भी फैसले में अहम भूमिका निभाता है. ऐसे कई उदाहरण है कि फैसलों की आलोचना हुई है. तीसरे, जज के फैसले पर शासन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. शासन क्या चाहता है, फैसला इससे अछूता नहीं होता. कहाँ अपील करना है, नहीं करना है, शासन तय करता है.

आनंद अच्छरियं सुत्त

आनंद अच्छरियं सुत्त
भिक्खुओ! आनद में ये चार आश्चर्य जनक अद्भुत बातें हैं। 
चत्तारो मे भिक्खवे! अच्छरिया अब्भुता धम्मा आनंदे। 
कौन-सी चार ?
कतमे चत्तारो ?
यदि भिक्खु-परिषद, आनंद के दर्शन करने के लिए आती है तो वह दर्शन से प्रसन्न हो जाती है। 
सचे, भिक्खवे, भिक्खु परिसा आनंदं दस्सनाय उपसंकमति, दस्सनेन सा अत्तमना(प्रसन्न) होति। 
यदि आनंद धर्म का उपदेश करता है तो वह आनंद के उपदेश से भी प्रसन्न होती है। 
तत्र चे आनन्दो धम्म भासति, भासितेन सा अत्तमना होति
यदि आनंद चुप हो जाता है तो भिक्खु-परिषद अतृप्त रह जाती है।
यदि आनन्दो तुण्हि भवति, भिक्खु-परिसा अत्तित्ताव होति।  

यदि भिक्खुनि-परिषद, आनंद के दर्शन करने के लिए आती है तो वह दर्शन से प्रसन्न हो जाती है। 
सचे, भिक्खवे, भिक्खुनि-परिसा आनंदं दस्सनाय उपसंकमति, दस्सनेन सा अत्तमना(प्रसन्न) होति। 
यदि आनंद धर्म का उपदेश करता है तो वह आनंद के उपदेश से भी प्रसन्न होती है। 
तत्र चे आनन्दो धम्म भासति, भासितेन सा अत्तमना होति
यदि आनंद चुप हो जाता है तो भिक्खुनि-परिषद अतृप्त रह जाती है।
यदि आनन्दो तुण्हि भवति, भिक्खुनि-परिसा अत्तित्ताव होति।  

यदि उपासक-परिषद, आनंद के दर्शन करने के लिए आती है तो वह दर्शन से प्रसन्न हो जाती है। 
सचे, भिक्खवे, उपासक परिसा आनंदं दस्सनाय उपसंकमति, दस्सनेन सा अत्तमना(प्रसन्न) होति। 
यदि आनंद धर्म का उपदेश करता है तो वह आनंद के उपदेश से भी प्रसन्न होती है। 
तत्र चे आनन्दो धम्म भासति, भासितेन सा अत्तमना होति
यदि आनंद चुप हो जाता है तो उपासक-परिषद अतृप्त रह जाती है।
यदि आनन्दो तुण्हि भवति, उपासक-परिसा अत्तित्ताव होति।  

यदि उपासिका-परिषद, आनंद के दर्शन करने के लिए आती है तो वह दर्शन से प्रसन्न हो जाती है। 
सचे, भिक्खवे, उपासिका परिसा आनंदं दस्सनाय उपसंकमति, दस्सनेन सा अत्तमना(प्रसन्न) होति। 
यदि आनंद धर्म का उपदेश करता है तो वह आनंद के उपदेश से भी प्रसन्न होती है। 
तत्र चे आनन्दो धम्म भासति, भासितेन सा अत्तमना होति
यदि आनंद चुप हो जाता है तो उपासिका-परिषद अतृप्त रह जाती है।
यदि आनन्दो तुण्हि भवति, उपासिका-परिसा अत्तित्ताव होति।  

भिक्खुओ! आनंद में ये चार आश्चर्य जनक अद्भुत बातें हैं।
इमे खो भिक्खवे, चत्तारो अच्छरिया अब्भुता धम्मा आनंदे'ति ।
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अ-तित्त-  (अतृप्त/असंतुष्ट, देखें धम्मपद गाथा 48)
अत्तमना(तृप्त)- अतित्ताव(अतृप्त)   

Saturday, August 24, 2019

"सुनो ब्राह्मणों : करम वर्मा

---"सुनो ब्राह्मणों तुमने जो हम पर जुल्म किये उनकी एक झलक देख लो''---
हमारे गाँव में भी कुछ हरि होते थे..
कुछ जन होतेथे...
जो हरि होते थे.. वह जन के साथ..
न उठते थे...न बैठते थे...न खाते थे..न पीते थे...
यहाँ तक कि जन की परछाई तक से परहेज करते थे..
यदि कोई प्यासा जन...भूल या मजबूरी बश
हरि कुंएं की जगत पर पांव भी रख दे
तो कुंए का पानी मूत में बदल जाता था...
हमारे गाँव में जो जन होते थे..
वह जूता बनाते थे.. कपड़ा बुनते थे..मैला उठाते थे..
जो हरि होते थे...जूता पहनते थे
शास्त्र बांचते थे...दुर्गन्ध पौंकते थे...
इसके अलावा हरि हवेली की...लिसाई-पुताई,
गली-कूँचें की सफाई..चौका-बरतन..बालों की कटाई,
कपड़ों की धुलाई..जन ही करते थे..
और कुछ, उसके मीलों पसरे खेतों की
जुताई, बुबाई, गहाई कर..हरि खत्ती को
धन धान्य से भरते थे..
खुद नंगेपांव , नंगे बदन
कच्ची दीवार टंगी फूसिया छतों में
पत्थर पेट बांध सोते थे...
हमारे गाँव में नम्रता
जन की खास पहचान थी
और उद्दण्डता हरि का बांकपन.
तभी तो वह बोहरे का लौंडा,
जो ढंग से नाड़ा भी नहीं खोल पाता,
को दूर से ही आता देख
मेरे बाबा ‘कुंवरजू पांव लागूं’ कहता थे
और वह अशिष्ट अपना हर सवाल
तू से शुरू करता था ..तू पर ही खत्म करता था..
इसका मतलब यह हरगिज नहीं कि -
जन को गुस्सा नही आता था
आता था बहुत-बहुत आता था...
लेकिन अफसोस ..यह गुस्सा
सांपिन बन अपनों को ही खाता था..
जब हरि की साजिश से
दूसरी पांति का जन,
ताल ठोंक मैदान में उतर आता था
लेकिन भैया...
पेट की मार...सयानी उंगलियों की बटबार -
को जन क्या ?
दुध मुंहा जानवर भी भांप जाता था..
ऊपर से दादा की झुकी कमर ने बाताया कि -
बेगार चाहे चिलम थमा कर ली जाये
या लाठी दिखा कर
दोनों में कोई बुनियादी फर्क नहीं था..
आपने जो ओझाई की बात कही थी
सो हमारे गाँव पर भी..सौ फीसदी सही थी..
यह ससुरी ओझाई ही तो थे
जिसके कारन जन हमेशा ...
उस खूंटे से बंधा थे..जिसका एक पांव
शैतान की आंत में...
दूसरा पांव धरती की कांख में धसा था
वह खूंटा वनराज था.. हमारे गाँव के खेत
खलिहान और हाट में
बस उसी की सत्ता चलती थी
देश का सर्वोच्च पंचायत घर उसी की तर्जनी पर टंगा था
और गाँव के दगड़े में..कछुआ सी रेंगती
बोझा गाड़ी की धुरी में ..वह खूंटा ही धसा था..
जिसे जन खींचता था...लथपथ पसीने में
माथा ठोक रोज रोज...भैंसे सा हांफता था...
वह अव्वल दर्जे का बहरू पिया था..
अपने दुर्ग को बचाने हेतु कहीं रामनामी ओढ़...कीर्तन गाता था.
कहीं गिरजा की सीढी से..रास्ता मोक्ष का दिखाता था..
कहीं गुरू तख्त से...‘सत श्री अकाल’ का नारा लगाता था..
कहीं मस्जिद में सूअर...मन्दिर में गोकशी करा
जन जन के हाथों में..गड़ाँ से थमाता था
कहीं जन कल्याण का..खूबसूरत अंगरखा पहन
झोंपड पट्टी के अंधेरों में..सपने उगाता था..
हराम खोर..
विश्व को कपोत घर बनाने की बात करता था
खुद बंजी..हथियारों की करता था
और आजादी तक जाने वाले
हर रास्ते पर..बबूल वन बोता था...
जय भीम नमो बुद्धाय
करन वर्मा
इटावा (उ0प्र0)
मो0 - 9410045781

सोचेय्य सुत्त

शुचिता सुत्त
भिक्खुओ! तीन शुचिताएं होती हैं।
तीणिमानि भिक्खवे! सोचेय्यानि।
कौन-से तीन?
कतमानि तीणि?
काया की शुचिता, वाणी की शुचिता और मन की शुचिता।
कायं सोचेय्यं, वची सोचेय्यं, मनो सोचेय्यं।
भिक्खुओ! काया की शुचिता किसे कहते हैं?
कतमं च भिक्खवे, काय सोचेय्यं?
आदमी प्राणी हिंसा से विरत रहता है, चोरी से विरत रहता है, कामाचार से विरत रहता है, भिक्खुओ, यह काया की शुचिता है।
इध भिक्खवे, भिक्खु पाणातिपाता पटिविरतो होति, अदिन्नदाना पटिविरतो होति, कामाचारा पटिविरतो होति; इदं वुच्चति भिक्खवे, कायं सोचेय्यं।
भिक्खुओ! वाणी की शुचिता क्या है?
कतमं च भिक्खवे, वची सोचेय्यं?
आदमी झूठ बोलने से विरत रहता है, चुगली करने से विरत रहता है, कठोर बोलने से विरत रहता है तथा व्यर्थ बोलने से विरत रहता है, भिक्खुओ, इसे वाणी की शुचिता कहतेे हैं।
इदं भिक्खवे, भिक्खु मुसावादा पटिविरतो होति, पिसुणाय वाचाय पटिविरतो होति, फरुसाय वाचाय पटिविरतो होति, सम्फप्पलापा पटिविरतो होति। इदं वुच्चति भिक्खवे, वची सोचेय्यं।
भिक्खुओ! मन की शुचिता क्या है?
कतमं च भिक्खवे, मनो सोचेय्यं?
आदमी निर्लोभी होता है, अक्रोधी होता है तथा सम्यक दृष्टि वाला होता है, भिक्खुओ, यह मन की शुचिता है।
इध भिक्खवे, भिक्खु एकच्चो अन-अभिज्झालु होति, अ-व्यापन्न चितो होति, सम्मा दिट्ठीको होति, इध वुच्चति भिक्खवे, मनो सोचेय्यं(अ. नि. तिक निपात पृ. 259 )।
------------------------
अभिज्झालु- अत्यंत लोभी।  व्यापन्न- मार्ग-भ्रष्ट। 

पिय सुत्त

पिय सुत्त
"भिक्खुओ! जिस भिक्खु में ये पांच बातें होती है, वह सह-आवासिक और उपासकों को प्रिय होता है।
पञ्चहि भिक्खवे! धम्मेहि समन्नागतो भिक्खु सह-आवासिका च उपासकानं पियो होति।
कौन-सी पांच बातें ?
कतमेहि पंचेहि ?
1. पिय भाषी होता है।
   पिय भासिता होति।
2 . प्रातिमोक्ष के नियमों का पालन करने वाला होता है।a
    पातिमोक्ख संवर सवुत्तो विहरति।
3. छोटे-से दोष में भी भय मानने वाला होता है।
    अणुमत्तेसु वज्जेसु भय दस्सावी होति।
4. आश्रवों को क्षय करने वाला होता है।
     आसवानं खया होति।
5. धम्म को अर्थ, व्यंजन सहित समझने वाला होता है।
    धम्मस्स सात्थ सव्यंजनं परियापुणावी होति (अ. नि. भाग-2  : पंचक निपात) । 

22 प्रतिज्ञाएँ

22 प्रतिज्ञाएँ
जो बुद्धिस्ट और अम्बेडकरवादी बाबा साहब अम्बेडकर प्रदत्त इन 22 प्रतिज्ञाओं को 'निषेधात्मक' कह कर बुद्ध बन्दना और परित्तं पाठ में इनका संगायन से परहेज करते हैं, वे दरअसल उस पढ़ी-लिखी बहू की तरह है, जो बड़ों के सामने पल्लू से सिर ढकना 'नारी की सामाजिक मर्यादा' समझते हैं.
22 प्रतिज्ञाएँ धम्म की रीढ़ है. यह बुद्ध के उपदेशों में अन्तर्हित हैं . यह बुद्ध की देशना है. चाहे, दीघनिकाय हो या मज्झिम निकाय, बुद्ध उपदेश इन निषेधों से भरे पड़े हैं. नव निर्माण पुराने खंडहरों पर संभव नहीं है. अगर होगा तो उसकी विश्वनीयता प्रश्नांकित होगी ही.

क्राइसिस

एकता आसमान से नहीं आती, यह बस पैदा हो जाती है। आप एकता-एकता कहते रहो, एकता नहीं आएगी। एकता के लिए किसी प्लानिग की भी आवश्यकता नहीं होती। यह एकायक, स्पान्टेेनसली उभर आती है। एकता के लिए किसी स्थापित नेतृत्व की भी आवश्यकता नहीं होती। क्राईसिस खुव-ब-खुद नेतृत्व पैदा कर देता है।  दरअसल, क्राइसिस एकता को पैदा करती है।
सवाल है, क्राइसिस क्या है ? क्राइसिस है, गुरु रविदास मंदिर की तोड़-फोड़। यह दुष्कृत्य स्पान्टेेनस था, तो जन -उन्माद भी स्पान्टेेनस था।  इसे किसी ने आयोजित/प्रायोजित नहीं किया था, यह स्वत: स्पान्टेेनसली हो गया था। सीधी-सी बात है,  एकता पूर्व-निर्धारित नहीं है । प्लानिंग एकता का स्वभाव  नहीं है। एकता का आवश्यक तत्व है, क्राइसिस। क्राइसिस ही स्पान्टेेनसली  एकता में रूपांतरित होती है।
अधिक-से अधिक हम कह सकते हैं, क्राईसिस के लिए 'उर्वरा भूमि' की दरकार हो सकती है। उर्वरा भूमि अर्थात सामाजिक चेतना, जन-जाग्रति। 

Unity is knocking our door

Unity is knocking our door 
राजनीति में नहीं तो कम-से कम दिल्ली के गुरु रविदास मंदिर मामले में देश के सारी दलित जातियों को एक हो जाना चाहिए. 
Guru Ravidas gave us crisis, we have to en-cash this. Crisis generate leader and leader leads movement.

उन्माद /सनक

उन्माद /सनक 
देश के पूर्व वित्त मंत्री और वर्षों केंद्र में गृह मंत्री रह चुके, सुप्रीम कोर्ट के ख्याति प्राप्त वकील, कानूनदा को CBI का दीवार फांद घर में घुस कर गिरफ्तार करना, बिना कश्मीरियों के परामर्श धारा 370 हटा देना, खड़े-खड़े नोटबंदी कर देश की सारी मुद्रा का अवमूल्यन कर देना; कोई उन्माद/ 'सनक' ही प्रतीत होती है !

बहुसंख्यक आस्था और दलित

बहुसंख्यक आस्था और दलित 
दलितों को राम, कृष्ण या किसी देवी-देवता से परहेज नहीं है, आखिर इस देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं की आस्था का सवाल है, जो . बेशक,  हरेक को अपने-अपने धर्म और धार्मिक/सामाजिक मान्यताओं, परम्पराओं को मानने की आजादी हो. बस, दलित तो यह चाहते हैं, इस आस्था में, आस्था और परम्पराओं को मजबूत करते धर्म-ग्रंथों में; नारी और शूद्रों के प्रति जो अपमान जनक पसंग हैं, उन्हें निकाल बाहर किया जाए अथवा,  कम-से-कम उसकी निंदा हो. उन्हें स्कूल-कालेजों में न पढाया जाए. आप राम का जयघोष कर बगल में छूरी नहीं रख सकते ?

Friday, August 23, 2019

Be aware with the Vipassanavalas

Be aware with the Vipassanavalas 
Vipassana is not only killing Ambedkarism but it diluting Buddhism too. Vipassanavalas tell the people that, after Vipassana, mind functioning changed completely to think/work. Yes, true, mind functioning changed completely; not to react, not to agitate, not to have concern dalit problems, no means to boiling topics.....! Why should be up-set on these Kav-Kav ? Be aware with these Vipassanavalas. 
Vipassana is no concern with Lord Buddha, no matter with Mahayana or Hinyana. There is no basic of Vipassana with Buddha teaching. May be it foreign hypnotizing/healing concept/Technic prevalent in that countries during Buddhism rise. It is well known that when Buddhism was spread abroad, it was badly got mixed with Vajrayaan/Tantrayaana of Mahayana thought of School.

सुभासितानी

पदुपं यथा कोकनदं सुगंधं, पातो सिया फुल्लवीत गंधं। 
जिस प्रकार प्रात:काल सुगन्धित युक्त लाल रंग का कमल पुष्पित होता है, 
अंगिरसं पस्स विरोचमानं, तपन्त-आदिच्च-इव-अन्तलिक्खे(म. नि.: पञ्चक निपात पृ  435)। ।।
उसी के समन अंगिरस-गोत्र वाले तथागत को देखो, जो आकाश में चमकते हुए सूर्य के समान प्रकाशमान है

वाचा सुत्तं (अ. नि भाग-2 .: पञ्चक निपात )

वाचा सुत्तं 
भिक्खुओ! जिस वाणी में ये पांच बातें होती हैं, वह वाणी सुभाषित होती है।
पंचहि भिक्खवे! अंगेहि समन्नागता वाचा सुभासिता होति।
कौन-सी पांच बातें ?
कतमेहि पंचेहि ?
समय देख कर बोली गई वाणी, सत्य वाणी, कोमल वाणी, हितकर वाणी तथा मैत्री-चित से बोलो गई वाणी।
कालेन च भासिता, सच्चा च भासिता, सण्हा च भासिता, अत्थसंहिता च भासिता, मेेत्त चित्तेन च भासिता।
इन पांच अंगों से युक्त भाषा ही सुभाषित होती है।
इमेहि खो भिक्खवे, पञ्चहि अंगेहि समन्नागता वाचा सुभासिता होति (अ. नि. भाग-2  : पंचक निपात )। 

रोग सुत्त

रोग सुत्त
भिक्खुओ! दो प्रकार के रोग हैं।
द्वेमे भिक्खवे! रोगा।
कौन-से दो?
कतमे द्वे।
शारीरिक रोग और मानसिक रोग।
कायिको रोगो च चेतसिको रोगो।
ऐसे प्राणी दिखाई देते हैं जो कहते हैं कि हम वर्ष भर, दो वर्ष, पचास . . . सौ वर्ष और उस से अधिक निरोग रहें।
दिस्सन्ति भिक्खवे, सत्ता कायिकेन रोगेन एकम्पि वस्सं, द्वेपि वस्सानि, पञ्ञासम्पि वस्सानि, वस्ससतापि वस्सानि भिय्योपि आरोग्यं पटिजानमाना।
किन्तु भिक्खुओ, ऐसे प्राणी दुर्लभ हैं जो कहते हों, हम मानसिक रोग से क्षण भर के लिए निरोग रहें, क्षीणास्रवों को छोड़कर।
ते भिक्खवे, सत्ता दुल्लभा लोकस्मिं ये चेतसिकेन रोगेन मुहुतम्पि आरोग्यं पटिजानन्ति, अञ्ञत्र खीणासवेहि(अ. नि. भाग-२: चतुक्क निपात)।

भोजन सुत्तं

आओ, भगवा वाणी और हमारे पूर्वजों की भाषा पालि सीखें-
भोजन सुत्तं
"भिक्खुओ! भोजन का दान  देने वाला दायक, ग्रहण करने वाले को चार चीजों का दान करता है।
"भोजनं भिक्खवे! ददमानो दायको, पटिग्गाहकानं चत्तारी ठानानि देति।
 किन चार चीजों का ?
कतमानि चतारि ?
आयु का दान करता है, वर्ण का दान करता है,
आयुं देति, वण्णं देति
सुख का दान करता है तथा बल का दान करता है(अंगुत्तर निकाय भाग 2: चतुक्क निपात )।
सुखं देति, बलं देति। 

Thursday, August 22, 2019

मोदी क्या 'पिछड़ा वर्ग' में आते हैं ?

मोदी क्या 'पिछड़ा वर्ग' में आते हैं ?
(एक फेसबुक मित्र की पोस्ट) 
मोदी गुजरात की सर्वाधिक सम्पन्न "मोढ घांची" जाति के हैं। यह जाति गुजरात की सबसे ज्यादा सम्पन्न जाति है। इस जाति की संपन्नता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि नीरव मोदी, ललित मोदी जैसे अनेक मोदी नामधारी इस जाति के लोग हीरों जवाहरलाल, सोने, चांदी व अन्य प्रकार के व्यवसाय करने वाले अरब-खरब पति व्यापारी हैं,  जो देश का हजारों करोड़ लेकर फ़रार हैं या यूं कहिये कि घोटाला उजागर होने के बाद अपने चौकीदार ने इन्हें बाकायदा देश से सुरक्षित बाहर भेज दिया है।

नरेन्द्र मोदी ने गुजरात की सबसे समृद्ध जाति को भी मुख्यमंत्री के पद का दुरुपयोग करके अपनी खुद की जाति को पिछड़े वर्ग में शामिल करके पिछड़ों के हिस्से की सरकारी नौकरियां हड़प लीं। मोदी ने अपनी जाति अर्थात मोढ घांची जाति को पिछड़े वर्ग में शामिल करने का आदेश 1 जनवरी 2002 को जारी किया और उसके बाद पिछड़ों का हक मारते हुए गुजरात के सभी छोटे-बड़े पदों पर धड़ाधड़ अपनी जाति के लोगों को भर दिया।


अगर मोदी की जाति (मोढ घांची) पिछड़ी होती तो 1953 में गठित प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग जिसे काका कालेलकर आयोग के नाम से जाना जाता है और 1978 में गठित द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग जिसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है, में शामिल कर ली जाती लेकिन ऐसा नहीं किया गया क्योंकि इन दोनों आयोगों ने पाया कि यह जाति गुजरात की ऊँची, सम्पन्न और सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त जाति है।

अण्णाभाऊ साठे: दासू भगत

प्रतिभावंत लेखक; अण्णाभाऊ साठे
१९८२ मधील ऑगष्टचा महिना. त्यावेळी मी मुंबईच्या जे.जे. इन्स्टिट्युट ऑफ अप्लाईड आर्ट मध्ये तिसऱ्या वर्षात शिकत होतो. अचानक मुंबई पोलिसांचा स्ट्राईक सुरू झाला. मुंबईतील सर्व दळवळण बंद झाले. लोकल, बेस्ट गाड्या, टॅक्सीज. कॉलेजमध्ये आम्हाला सांगितले की-ज्यानां शक्य आहे त्यानां लगेच घरी जावे. रस्त्यावर मिलट्रीच्या व्हॅन फिरू लागल्या. आमचे होस्टेल बांद्र्याला होते. हार्बर किंवा पश्चिम रेल्वे लोकलने आम्ही ये जा करत असू. त्यामुळे आमच्या समोर दोनच पर्याय होते. एक कॉलेजला थांबणे किंवा पायी होस्टेल गाठणे. होस्टेलची भरपूर मूले असल्यामुळे आम्ही सर्वांनी पायी जायचे ठरवले आणि हार्बर लाईनच्या रेल्वे ट्रॅकने चालत निघालो. मधले काही स्टेशन वगळता दोन्ही बाजूला अगदी ट्रॅकला लागूनच मोठी झोपडपट्टी आहे. लोकलने जाता येता रोज प्रवास करतानां अनेकांच्या चेहऱ्यावर या झोपडपट्टीवासियां बद्दलच्या तुच्छतेच्या भावना स्पष्ट दिसत. गंमत म्हणजे झोपडपट्टीतील हेच रहिवाशी आम्हा पायी जाणाऱ्या सर्वांना चहानाश्ता, बिस्किटे देत होते. मनात कुठे तरी अपराधी भाव प्रकटले. तेव्हांचे बोरीबंदर (आताचे सिएसटी) ते बांद्रा हे अंतर १४ कि.मी. दुपारी १२ च्या आसपास निघालेलो आम्ही बांद्र्याला सातच्या आसपास पोहचलो. पायाची पार ऐशीतैशी झाली होती………
आज मला हे सर्व आठवण्याचे कारणही तसेच महत्वाचे आहे. सध्याच्या सांगली जिल्ह्यातील वाळवा तालुक्यात वाटेगाव नावाचे गाव आहे. पूर्वी हे गाव कुरूंदवाड नावाच्या संस्थानात होते. भाऊराव आणि वालूबाई साठे हे याच गावात आपल्या तुकाराम नावाच्या मुलां बरोबर रहात. घरात अठरा विश्वे दारिदय त्यात गावकुसा बाहेरचं वेदनादायी जगणं. क्रांतीसिंह नाना पाटील यांच्या क्रांतीकारी भाषणाने सर्व परीसर ढवळून निघालेला काळ होता तो. तुकाराम तेव्हा ११ वर्षांचा होता आणि गावाकडे दुष्काळ पडला. आता खायचं काय आणि जगायचं कसं? त्यावेळी सर्वांनाच मुंबईचा आधार वाटत असे. पोटाला नक्की काही तरी काम मिळत असे. पण मुंबईला पोहचायचं कसं? खिशात तर दमडी नाही !!!! शेवटी भाऊराव आपल्या बायको मुलाला घेऊन पायीच निघाले. २२७ मैलांचा पायी प्रवास करून हे कुटूंब मुंबईल पोहचले….१४ कि.मी.च्या बोरीबंदर- बांद्रा प्रवासाने आमची वाट लावली मग एवढा मोठा प्रवास या कोवळ्या तुकारामाने कसा केला असेल? तो कदाचित यासाठी केला असेल की पूढे त्याला रशियाचे आमंत्रण मिळणार होते.
भायखळ्याच्या चाँदबिबी चाळीत या कुटूंबाला निवारा मिळाला. वडिलांच्या आग्रहामुळे तुकारामचे शिक्षण सुरू झाले होते खरे पण मागासवर्गीय मुलांना शाळेच्या आत बसायची परवानगी नव्हती त्यामुळे तुकाराम शाळेत रमला नाही. मुंबईत फिरताना दोन गोष्टींकडे तो आकर्षिला गेले, एक म्हणजे विविध राजकीय संघटना आणि दुसरे म्हणजे मूक चित्रपट. भविष्यात हाच किरकोळ देहयष्टी लाभलेला मुलगा आपल्या साहित्याने सर्व सारस्वतांची दखल घेण्यास भाग पाडणार होता. आणि तसेच घडले देखिल. वाटेगावातल्या गावकुसा बाहेरचा तुकाराम साठे स्वत:च्या प्रचंड कर्तृत्वाने अण्णाभाऊ साठे बनला. अण्णा अंर्तबाहय कम्युनिस्ट होते. पक्षाच्या सभांचे आयोजन करणे, वॉलपेंटिंग करणे, हॅण्डबिले वाटणे, मोर्चे काढणे, छोट्या-मोठ्या सभेसमोर गोष्टी सांगणे, पोवाडे, लोकगीते म्हणून दाखविणे या सर्व गोष्टींमुळे कम्युनिस्ट वर्तुळात ते सर्वांना एकदम हवेहवेसे झाले. याच काळात ते सर्वाचे आवडते अण्णाभाऊझाले. अण्णाभाऊचा अवाका प्रचंड मोठा. महाराष्ट्राला ते सर्वाघिक शाहिर म्हणून जरी परिचित असले तरी त्यांचे अनेक पैलू होते. त्यांच्या प्रत्येक पैलूवर स्वतंत्र लेख होऊ शकतील. पण मला त्यांचा भावलेला सर्वात मोठा पैलू म्हणजे त्यांच्या कादंबऱ्या आणि कादंबऱ्यावर निर्मित् झालेले मराठी चित्रपट.
अण्णाभाऊनी ग्रामीण व्यवस्थेचे अतिशय सुक्ष्मपणे निरिक्षण केले होते. तेथील व्यवस्थेचे चटकेही अनुभवले होते. त्यामुळे त्यांच्या कथा व कादंबरी लेखनात एक सहजता होती. कल्पनेने पात्र निर्माण करायची गरज त्यानां कधीच पडली नाही. १९६१ मध्ये रेखा फिल्मस ने सर्वप्रथम त्यांच्या वैजयंताया कादंबरीवर याच नावाचा चित्रपट काढला. याचे मूख्य निर्माते गजानन जहागिरदार हे चित्रपटसृष्टीतले मोठे नाव होते. ते निर्माते आणि दिग्दर्शक होते. पटकथा-संवाद व्यकंटेश माडगुळकर तर संगीत वसंत पवार यांचे होते. म्हणजे सर्वच दिग्गज मंडळी होती. कलाकारात अधिक शिरोडकर, अरुण सरनाईक, गजानन जागीरदार, जयश्री गडकर, दत्तोपंत आंग्रे, प्रभाकर मुजुमदार, रत्नमाला., लीला गांधी, शरद तळवलकर असा ताफा होता.
वैजयंताही गजरा कलावंतीणीची मुलगी. एका उपेक्षित पण तितक्याच तडफदार स्त्रीची ही व्यक्तरेखा अण्णाभाऊनी अत्यंत ताकदीने रेखाटली होती. चित्रपट गाजला आणि चालला देखिल. मराठी चित्रपटसृष्टीला एक दमदार लेखक मिळाला. १९६९ मध्ये त्यांच्या तिन कादंबऱ्यावर आधारीत तिन चित्रपट आले. आवडी (टीळा लाविते मी रक्ताचा), माकडीचा माळ (डोंगरची मैना),चिखलातले कमळ (मुरळी मल्हारी रायाची). हे तिनही चित्रपट तुफान चालले. डोंगरची मैनाअनंत माने यांनी दिग्दर्शीत केला होता. पटकथा-संवाद शंकर पाटील, गीते जगदिश खेबुडकर, संगीत राम कदम आणि अरुण सरनाईक, गुलाब मोकाशी, चित्रा, जयश्री गडकर, दादा साळवी, निळू फुले, बर्ची बहाद्दर, राम नगरकर अशी तगडी कलावंत मंडळी. मला स्वत:लाही हा चित्रपट खूप आवडला होता. अण्णाभाऊ स्वत: तमाशात होते, स्वत: उत्तम शाहीर होते, स्वत:ची अशी ठाम विचारसरणी होती, वाचनाचा आणि निरीक्षणाचा अनुभव होता त्यामुळे त्यांच्या कादबंरीतली सर्व पात्रे रसरशीत होती. खोटेपणाचा कसलाच आव नव्हता की बेगडी कृत्रीमपणा नव्हता. त्यामुळे त्यांचे साहित्य चित्रपटांचा विषय होऊ शकले……
अण्णाभाऊची फकिराही सर्वाधिक गाजलेली कादंबरी होय. या कादंबरीच्या १६ आवृत्तया प्रकाशीत झाल्या. १९६३ मध्ये चित्रनिकेतन या संस्थेने ही कादंबरी रूपेरी पडद्यावर आणली. अण्णा भाऊ साठे जेव्हा मुंबईच्या माटुंगा लेबर कॅम्पया दलित-शोषितांच्या वस्तीत कम्युनिस्ट चळवळीत कार्य करू लागले तेव्हा खर्याि अर्थाने त्यांचे विचार क्रांतिकारक होऊ लागले. त्यावेळी लेबर कॅम्पमधील प्रमुख कम्युनिस्ट नेते/कार्यकर्ते होते आर.बी. मोरे, के.एम. साळवी, शंकर नारायण पगारे. मार्क्सतवादी विचारांने अण्णाभाऊ प्रभवित झाले ते याच काळात. ईथेच त्यांनी पहिले गाणे लेबर कॅम्पमधील मच्छरावर लिहिले. याच लेबर कॅम्पमध्ये अण्णा भाऊ साठे, शाहीर अमर शेख व शाहीर द.ना. गव्हाणकर या त्रयींनी कम्युनिस्ट पक्षाच्या मार्गदर्शनाखाली लाल बावटा कलापथकाची १९४४ साली स्थापना केली होती. या ठिकाणी त्याची लेखणी खऱ्या अर्थाने फुलत गेली आणि धारदार पण होत गेली.
अण्णा भाऊंच्या इमानदारया नाटकाचा हिंदी प्रयोग करण्यात सुप्रसिद्ध हिंदी चित्रपट अभिनेते कॉ. बलराज साहनी यांनी पुढाकार घेतला होता. त्यावेळी कम्युनिस्ट पक्षाशी संबंधित इंडियन पीपल्स थिएटर असोसिएशन’(इप्टा) या संस्थेतील ते महत्वाचे अभिनेते होते. त्या नाटकात अभिनेते ए.के. हंगल यांनी महत्त्वाची भूमिका केली होती. पूढे अण्णाभाऊच्या साहित्य समर्पित वृत्तीने इप्टाचे अखिल भारतीय अध्यक्षपदही मिळाले. यापूर्वी एकाही मराठी माणसाला हा मान मिळाला नव्हता. याच ठिकाणी त्यांची ओळख ख्वाजा अहमद अब्बास या लेखक निर्माता दिग्दर्शकांशी झाली. फकिराची पटकथा ज्या तिघांनी लिहीली होती त्यात के.ए. अब्बास हे ही एक होते. कुमार चंद्रशेखर यांनी हा चित्रपट दिग्दर्शीत केला होता. १९१० मधील दुष्काळाचे चित्रण यात आले आहे. स्वातंत्र्यपूर्व काळात इंग्रजांनी अपराधी जमाती कायदा (१८७१) आणून त्यात १९८ जमातींचा समावेश केला होता. या जाती जन्मजात अपराधी असल्याचे जाहीर केले होते. ब्रिटिशांनी निर्माण केलेल्या या कायद्या विरोधात फकिरा आपल्या मांग जातीच्या सहकाऱ्यानां सोबत घेऊन् लढला होता. मात्र आजही विषण्ण करणारी गोष्ट म्हणजे स्वातंत्र्यानंतर अपराधी जमाती कायद्याचे नाव बदलून भारत सरकारने ३१ आगस्ट १९५२ मध्ये सराईत गुन्हेगारी कायदाअसा बदल केला खरा परंतु नाव बदल करूनही कायद्यातील तरतुदी कायम आहेत. आजही या जमातीच्या बहुतांश बाया-माणसांवर गुन्हे दाखल होत असतात. फकिरात स्वत: अण्णाभाऊनी देखिल काम केले आहे व संवाद लेखनही केले आहे.
१९७० मध्ये वारणेचा वाघआला. ब्रिटिश सैन्यात नेमबाज म्हणून ओळखल्या जाणाऱ्या सत्तूने नंतर ब्रिटिश सत्तेला सळो की पळो करून सोडले. नतंर हाच सत्तू वारणेचा वाघ म्हणून ओळखला गेला. हा सत्तू बघतानां मला नेहमी बिरसा मुंडा आठवत असे. ज्याला सत्तूनं त्याच्या आईच्या पोटात वाढवला,त्यानेच सत्तूचा खून केला. बिरसाला देखिल त्याच्याच भाईबंदाने पकडून ब्रिटिशाच्या हवाली केले होते. परकिय शत्रूपेक्षा असे घरभेदी लोक हे नेहमीच देशाचे महाभयंकर शत्रू असतात. यांचे वशंज आजही आम्हाला बघावयास मिळतात. अलगूजकादंबरीवर आधारीत अशी ही साताऱ्याची तऱ्हा१९७४ मध्ये प्रदर्शीत झाला होता. अण्णाभाऊंच्या निधना नंतर बऱ्याच वर्षांनी म्हणजे २०१० मध्ये त्यांच्या चित्राया कादंबरीवर आधारीत याच नावाचा चित्रपट आला. पटकथा-संवाद राज काझी यांचे तर दिग्दर्शन राज कुबेर यांचे होते. निर्माता एम.अली शेख यांच्या या चित्रपटात अंकुश चौधरी, अंजली उजवणे, अतुल इंगळे, कुलदिप पवार, डॉ.विलास उजवणे, मधु कांबीकर इत्यादी कलावंताच्या भूमिका होत्या. अण्णाभाऊंच्या एकूण आठ कादंबऱ्यावर चित्रपट निर्माण झाले. मराठी चित्रपटातील हा एक विक्रमच म्हटला पाहिजे की एकाच लेखकाच्या इतक्या कादंबऱ्या चित्रपटाच्या विषय होऊ शकल्या.
चित्रपटांसाठी नाटयमय घटनां फार आवश्यक असतात. अण्णाभाऊंच्या कादंबऱ्यातील प्रत्येक घटना आपल्या समोर एक चित्र उभे करतात. पटकथा म्हणजे असे छोटे प्रसंगच असतात. ज्याला चित्रपट भाषेत scene असे म्हटले जाते तर अनेक छोटे छोटे shot मिळून एक scene तयार होतो. अण्णाभाऊच्यां कांदबरीत असे नाट्यमय सिन असत ज्यामुळे दिग्दर्शाकांचे निम्मे काम आगोदरच पूर्ण होई. घटना वास्तवादी असत आणि या प्रत्येक प्रसंगातुन ते आपली भूमिका स्पष्टपणे मांडत. त्यात कसलाही दिखावूपणा वा नाटकीपणा नसल्यामुळे ते सर्वसामान्य प्रेक्षकांच्या थेट मनाला भिडत असत. भारतीय संस्कृतीतील जातहे वास्तव त्यांच्या इतके त्यांच्या काळात प्रभावीपणे मोजक्याच साहित्यकारानां मांडता आले. ते जर अधिक जगले असते तर चित्रपट कथानां कदाचित वेगळे आयामही मिळाले असते.
अण्णाभाऊंचा धारदार आवाज, त्यांचे पाठांतर, पेटी, तबला, ढोलकी, बुलबुल ही वाद्ये वाजवण्याची कला या गुणांमुळे जनमानसात शाहीर म्हणून ते प्रचंड लोकप्रिय होते. बंगालचा दुष्काळ, तेलंगण संग्राम, पंजाब-दिल्लीचा पोवाडा, अंमळनेरचे हुतात्मे, काळ्या बाजाराचा पोवाडा, ’माझी मैनाहा संयुक्त महाराष्ट्र चळवळीवरील छक्कड, कामगार चळवळीवरील एकजुटीचा नेताते हिटलरच्या फॅसिझम विरोधात स्टॅलिनग्राडचा पोवाडा, बर्लिनचा पोवाडा, चिनी क्रांतीवरील चिनी जनांची मुक्तिसेनाहे गौरवगान आणि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांवरील गाजलेले जग बदल घालुनी घाव-सांगुनी गेले भीमरावअशी अनेक गाणी, कवने, पोवाडे अण्णा भाऊ साठे यांनी रचले. वाटेगाव ते मुंबई असा चालत पायी प्रवास करणारे अण्णाभाऊ नंतर आत्मविश्वासाने एकटेच विमान प्रवास करुन रशियाला गेले तत्पूर्वीच त्यांची `चित्राही कादंबरी रशियन भाषेत प्रकाशित झाली होती. तेथे त्यांनी 'शिवचरित्र' पोवाड्यातून सांगितले त्याचे रशियन भाषेत भाषांतर झाले. भारतात परत आल्यावर या प्रवासावर आधारीत ‘’माझा रशियाचा प्रवास’’ हे प्रवास वर्णनही खूप गाजले.
तर असा हा बहुमूखी प्रतिभावंत फार कमी काळ जगला. आताच्या काळा प्रमाणे आपल्या आयुष्याचे जर २५ वर्षे या प्रमाणे तीन टप्पे केले तर आपले सुरूवातीची २५ वर्षे पदवी/पदविका प्राप्त करण्यातच जातात. अण्णाभाऊ गेले तेव्हा ते फक्त ४९ वर्षांचे होते. म्हणजे त्यांची किशोर अवस्थेतील १४ वर्षे वजा केली तर ३५ वर्षे शिल्लक राहातात ज्याकाळात त्यांनी ३५ कादंबर्या्, ८ पटकथा, ३ नाटके, एक प्रवासवर्णन, १३ कथासंग्रह, १४ लोकनाट्ये, १० प्रसिद्ध पोवाडे व १२ उपहासात्मक लेख लिहित चळवळीही केल्या. हे सर्व करतानां एकांत, निवांत, टेबल खूर्ची, गादी,लोड तक्के, कपाटं अशा कुठल्याच गोष्टी त्यांच्या जवळ नव्हत्या, होती ती फक्त प्रतिभा !!!!
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दासू भगत (१८ जुलै २०१८)

सत्य नारायण की पूजा

सत्य नारायण की पूजा
(एक फेसबुक मित्र की पोस्ट) 
गाँव में सत्य नारायण की पूजा बहुत होती थी। हमने पूजा की पोल खोलने की ठानी। मैंने एक मित्र को प्लानिंग के साथ पूजा में बिठाया। 
पंडितजी ने गोबर के गणेश बनाकर मित्र को कहा कि गणेशजी पर पानी प्राछन्न करो। मेरे मित्र ने कहा कि यह तो गाय का गोबर है लेकिन आप गणेश कह रहे हैं। यह गलत है। पंडितजी ने कहा मान लो गणेशजी हैं। मित्र ने कहा कैसे मान ले पंडित जी ने कहा अरे भाई मै कहता हूँ मान लो। मित्र ने कहा ठीक है। 
पूजा शुरू हुई । 

पूजा में पंडितजी ने तमाम उदहारण देकर बताया की जिसने सत्य नारायण की पूजा की उसे लाभ हुआ जिसने नहीं सुनी उसे नुकसान हुआ। मेरे मित्र ने कहा पंडित जी आपने बताया जिसने सुनी उसे फायदा हुआ, जिसने नहीं सुनी उसे नुकसान हुआ लेकिन वह कथा/मन्त्र क्या है। पंडितजी निरुत्तर। खैर कथा समाप्त होने के बाद मेरे मित्र ने उसी गोबर गणेश को उठाया और उसे गोल-गोल करके पेड़ा (मिठाई) का आकार देकर पंडित जी से कहा यह लो पंडितजी प्रसाद के रूप में पेड़ा खाओ। 

पंडितजी ने कहा यह तो गोबर है इसे कैसे खाऊ। मित्र ने कहा मान लो पेड़ा है। पंडितजी ने कहा ऐसे कैसे मान लूँ। मित्र ने कहा मै कह रहा हूँ मान लो। पंडितजी ने कहा क्यों मित्र ने कहा आपने मुझे गोबर को गणेश मानने के लिए कहा, मैंने मान लिया, फिर आप क्यों नहीं मानोंगे।


पंडितजी की सिट्टी पिट्टी गुम। थैला लेकर भागने लगे। हम लोगों ने उनकी साईकिल पकड़ी और कहा ठीक है यह नहीं खाओगे तो जो प्रसाद (गुड चना की दाल) बना है उसे तो खा लो। पंडितजी ने थैली देकर कहा कि इसमें दे दो। हम लोगों ने कहा कि प्रसाद मेरे साथ आप भी खाओ। उन्होंने नही खाया और पूछने पर कहा कि मै "आपके घर का प्रसाद " नही खा सकता। हमने पूछा क्यों ? वही उत्तर आप नीच जाति के हो। फिर मैंने पूंछा अभी आपने कथा में कहा था कि जिसने प्रसाद का तिरस्कार किया उसका सर्वनाश हो गया था, लेकिन आप ही प्रसाद का तिरस्कार कर रहे हैं।
हम लोगो को यहाँ मुर्ख बनाने आते हो क्या ?


पंडितजी साईकिल छोडकर भागने लगे। हमने पूंछा अच्छा यह तो बताते जाओ की जो हर बार बचा हुआ प्रसाद ले जाते थे उसका क्या करते थे पंडितजी यह कहते हुए भाग गए कि वह प्रसाद मेरे जानवर खाते हैं।
साथियों मेरा अनुरोध है किसी बात को मानने से पहले जानो। जो प्रसाद आप खाते हो , वही प्रसाद उनके जानवर खाते हैं अर्थात आपकी गिनती उनकी निगाह में जानवरों के समान है। मानसिक गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ दो। उनकी निगाह में जानवरों के समान है।