Friday, February 28, 2020

छतिसगढ़ के स्कूल-कालेजों में पालि पढाया जाए

सेवा में
1. आदरणीय भूपेश बघेलजी
माननीय मुख्यमंत्री महोदय,
छत्तीसगढ़ राज्य शासन, रायपुर
1. आदरणीय - - - - - - - -
माननीय स्कूल शिक्षा मंत्री महोदय,
छत्तीसगढ राज्य शासन, रायपुर
1. आदरणीय - - - - - - - -
माननीय उच्चशिक्षा मंत्री महोदय,
छत्तीसगढ़ राज्य शासन, रायपुर

विषय-   स्कूल-कालेजों में महाराष्ट्र,  उ. प्र., बिहार आदि राज्यों की तरह संस्कृत के साथ पालि भाषा पढ़ाये जाने एवं केन्द्र की तरह राज्य में पालि भाषा के संवर्धन हेतु ‘छत्तीसगढ़ पालि प्रतिष्ठान’ की स्थापना बाबद।

महोदय!
पालि भाषा भारत-वर्ष की अत्यन्त पुरातन और अतीव महत्त्वपूर्ण भाषा है। इस देश की संस्कृति, इतिहास और दर्शन पालि-भाषा से पूर्णतः प्रभावित और अभिसिंचित हैं। भारत-वर्ष के प्राचीन इतिहास से ज्ञात होता है कि इस देश में पुरातन काल में पालि-भाषा एक ‘जनभाषा’ थी। समाज के सभी वर्गों के लोग इस भाषा के माध्यम से अपने विचारों तथा सांस्कृतिक-विरासत का आदान-प्रदान किया करते थे। इसी भाषा को तथागत भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेशों की माध्यम-भाषा बनाया, ताकि समाज के सभी वर्गों के लोग उनकी शिक्षा को समझ सके तथा तदनुसार उन्हें ग्रहण कर आचरण में उतार सके। एक समय ऐसा भी था कि जनभाषा होने तथा लोकप्रियता के कारण यह भाषा ‘राष्ट्र-भाषा’ का गौरव प्राप्त किये हुए थी। फिर समय बदला और धीरे-धीरे इस भाषा का देश से विलोप ही हो गया, किन्तु पड़ौसी देशों ने इसे बड़ा ही सम्भाल कर रखा तथा इसका संवर्धन भी किया। आज से लगभग 110 वर्ष पूर्व भारत के महान् मनीषियों एवं विद्वानों के माध्यम से इसका भारत में पुनरागमन हुआ है तथा आज अनेक विश्वविद्यालयों में इसके स्वतन्त्रा विभाग संचालित हो रहे हैं।

यद्यपि पालि भाषा का समाज में आज अधिक प्रचलन नहीं हो पाया है। आज नागरिक पालि के विषय में अधिक नहीं जानते हैं, किन्तु भारतीय भाषाओं में पालि भाषा के शब्द तथा धातुएँ बड़ी संख्या में प्राप्त होते हैं। विलुप्त होने के बावजूद पालि भाषा की सुगन्ध को यहाँ की विभिन्न भाषाओं (मराठी, भोजपुरी, हिन्दी, उड़िया, तेलुगु, गुजराती इत्यादि) में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यूरोप तथा एशिया महाद्वीप सहित विश्व के अनेक देशों में पालि-भाषा का समाज में अत्यन्त सम्मानजनक स्थान है। अनेक देशों में पालि-भाषा के अध्ययन-अध्यापन की अच्छी व्यवस्था है। पालि के अध्ययन-अध्यापन के लिए वहां स्वतन्त्र विश्वविद्यालय तक हैं। भारत में पालि की स्थिति अच्छी नहीं है।

यहाँ समाज का एक बड़ा वर्ग (बौद्ध-जनसमुदाय) आज पालि-भाषा के माध्यम से अपने संस्कार करता आ रहा है। बौद्धों में परित्त-पाठ मूलतः पालि में ही सम्पन्न किया जाता है। लेकिन इसके बावजूद पालि के संवर्धन, अनुसन्धान और प्रचार-प्रसार हेतु कार्य करने वाली एक भी शासकीय संस्था सही अर्थों में पूरे देश में नहीं है। समाज का प्रबुद्ध वर्ग पालि के प्रचार-प्रसार के लिए थोड़ा प्रयासरत भी दिखाई दे रहा है; किन्तु यह अपर्याप्त ही है। हाँ, विपस्सना के प्रचार के साथ धीरे-धीरे समाज में पालि के प्रति जागरुकता बढ़ रही है तथा लोग पालि को पाठ्यक्रम में शामिल कराते हुए अपने बच्चों को इसका अध्यापन कराने के इच्छुक हैं, क्योंकि समस्त पालि साहित्य में नैतिक-शिक्षा, शील-सदाचार और शुद्ध-धर्म का स्वरूप ही विद्यमान है। यदि बच्चों को पालि पढ़ाना शुरु कर दिया जाये, तो आने वाली पीढ़ी शील-सदाचार और चारित्रिक दृष्टि से अधिक बलवती होगी।

छत्तीसगढ़ एक बहु-सांस्कृतिक तथा विविधता से परिपूर्ण प्रदेश है। यहाँ इस भाषा तथा संस्कृति से सम्बद्ध अनेक पुरातात्विक-धरोहरें भी हैं। प्राचीनकाल में दक्षिण कोशल के नाम से प्रसिद्ध यह प्रदेश बुद्ध का प्रवास स्थान रहा है, जैसे कि प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ ‘अवदानशतक’ में उल्लेख है। चीनी यात्राी ह्वेनसांग (639 ईस्वी)  के अनुसार अपनी धम्मयात्रा के दौरान सम्राट अशोक ने दक्षिण कौशल की राजधानी सिरपुर में एक स्तूप का निर्माण किया था, जो ‘अवदानशतक’ में किए गए उल्लेख का ठोस सबूत है। 6वीं से 10वीं सदी के मध्य सिरपुर महत्वपूर्ण बुद्धिस्ट स्थल के साथ एक बहुमुखी व्यापारिक केन्द्र भी रहा है। ह्वेनसांग के ही अनुसार महान दार्शनिक बौद्ध भिक्षु नागार्जुन यहां के एक विहार में रहा करते थे।

पण्दुवंशी राजा भवदेव रणकेसरी के आरंग अभिलेखानुसार उसने बुद्ध आवास का निर्माण किया था जिसे पूर्व में राजा सूर्यघोष ने अपने मृत पुत्र की याद में खड़ा किया था। स्पष्ट है, राजा भवदेव रणकेसरी स्वयं बौद्ध राजा था। पूरातत्व विभाग द्वारा किए गए खनन से प्राप्त बौद्ध विहारों की विसाल श्रंखला और अन्य सामग्री से स्पष्ट है बुद्धिज्म इस प्रदेश में 13 सदी तक फलता-फूलता रहा।

मल्हार(बिलासपुर) में प्राप्त 7 से 12 वीं सदी का बौद्धकालीन इतिहास अपनी समृद्धता की दास्तान स्वयं कहता है। इसी प्रकार का साक्ष्य पुरातात्विक खनन से प्राप्त भोंगपाल(बस्तर) का बौद्धकालीन इतिहास है। प्रज्ञागिरी(दूर्ग) पहाड़ी पर स्थित 30 फुट उंची बुद्ध प्रतिमा जैसे बगल के राष्ट्रीय राजमार्ग से गुजरते यात्रियों को शांति और करुणा का संदेश देती है। तिब्बति बौद्ध परम्परा का केन्द्र बना ‘मेनपाट’ तिब्बतियों के साथ राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है; आदि अनेक स्थान हैं, जो बौद्ध-कला, स्थापत्य और इससे सम्बद्ध हैं।

निस्संदेह, छत्तीसगढ़ किसी समय बौद्ध कला और शिक्षा का बड़ा केन्द्र रह चुका है। भगवान बुद्ध की शिक्षा का छत्तीसगढ़ की धरा से पूरे विश्व में शान्ति स्थापना के लिए सन्देश सम्प्रेरित किया गया। अतः छत्तीसगढ़ में पालि भाषा के संवर्धन, अनुसन्धान, अध्ययन-अध्यापन और प्रचार-प्रसार की दृष्टि से स्कूल-कालेजों में पालि पढ़ने-पढ़ाने की सुविधा देना आवश्यक है वहीं, राज्य की राजधानी रायपुर अथवा प्राचीन बुद्धिस्ट नगरी सिरपुर में ‘छत्तीसगढ़ पालि प्रतिष्ठान’ की स्थापना परम आवश्यक है। अनेक देशों के नागरिक श्रद्धापूर्वक छत्तीसगढ़ की पावन धरा में स्थित धम्म-स्थलों के दर्शन और अनुसन्धान हेतु आते हैं। इस कारण ‘छत्तीसगढ़ पालि प्रतिष्ठान’ के माध्यम से पालि को वास्तविक रूप में वैश्विक-प्रसार प्राप्त होगा तथा अन्तर्राष्ट्रीय रोजगार की दृष्टि से भी यह अतीव लाभदायक सिद्ध होगा। पालि भाषा के विकास से अवश्य ही छत्तीगढ़ को विश्व के मानचित्र में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त होगा। ‘छत्तीसगढ़ पालि प्रतिष्ठान’ की स्थापना के पश्चात् यह भी आवश्यक है कि यह संस्था वास्तविक रूप में पालि के विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार की दृष्टि से कार्य करें। इस हेतु इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण विभागों, प्रभागों तथा केन्द्रों की स्थापना की जानी चाहिए, जिससे भारत का प्राचीन इतिहास पुनर्जीवित हो सकेगा ।
तत्सम्बन्ध में अनुरूप कार्रवाई की अपेक्षा में। धन्यवाद।

दिनाँक
  हस्ताक्षर
नाम-
                                                   संस्था का नाम(जिसके आप सम्बद्ध हैं)- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
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निवेदक- अ. ला. उके
सम्पर्क- 0963082611/ amritlalukey@gmail.com

Wednesday, February 26, 2020

कुसंगति

कुसंगति- 
‘नाहं भिक्खवे, अञ्ञं एकधम्मम्पि समनुपस्सामि, यो एवं महतो अनत्थाय संवत्तति, यथा इदं, भिक्खवे,  पापमित्तता। पापमित्तता, भिक्खवे, महतो अनत्थाय संवत्तति’(पमादादि वग्गो- 94ः एकक निपातः अंगुत्तर निकाय)।
 -भिक्खुओ! किसी भी दूसरी चीज(अञ्ञं) को मैं नहीं (नाहं) देखता(समनुपस्सामि) हूँ, जो इतनी ज्यादा(महतो) अनर्थकर (अनत्थाय) होती हो(संवत्तति), जितनी पाप-मित्रता(कुसंगति)। पाप-मित्रता, भिक्खुओ! बहुत अनर्थकारी है।

Tuesday, February 25, 2020

मात-पितु वन्दनीया

मात-पितु वन्दनीया
मात-पितु जग जननीया, वन्दनीया।
माता-पिता जग को जन्म देने वाले वन्दनीय है।
लोकस्स दस्सेतारो, सब्बेहि पूजनीया।
लोक दर्शन कराने वाले, सभी के द्वारा पूजनीय हैं।
गब्भकालतो, सिसुकालतो,
गर्भकाल से, बचपन से
ते सन्तानं धारेन्ति, पालेन्ति
वे सन्तान को धारण करते हैं, पालन करते हैं ।
यं किंचि बालक, बालिका पत्थेन्ति
जो कुछ बालक, बालिका मांगते है,
तं सब्बं तेसं देन्ति।
वे सब उन्हें ला देते हैं।
कदाचि मात-पितरो फरुसं भासन्ति,
कभी माता-पिता कठोर वचन बोलते हैं,
पन तं तेसं हिताय, सुखाय च।
किन्तु वह उनके हित और सुख के लिए होता है।
तेन कारणेन सब्बे जना
इसी कारण से सभी लोग
मात-पितूनं मानेन्ति, तेसं वचनं अनुपालेन्ति।
माता-पिता को मानते, उनके वचनों का अनुपालन करते हैं।
मात-पितूनं सेवा सेट्ठं सेवा
माता-पिता की सेवा उत्तम सेवा है।
यं अत्तनो महत्तारो मात-पितूनं
जो अपने बुजुर्ग माता-पिता की
उपट्ठानं करोन्ति, सेवन्ति
देख-भाल करते हैं, सेवा करते है,
ते यसो च लोके कित्ति लभन्ति।
वे यश और लोक में कीत्ति प्राप्त करते हैं।

Tuesday, February 4, 2020

शम्बूक: कंवल भारती

शम्बूक
हम जानते हैं तुम इतिहास पुरुष नहीं हो
वरना कोई लिख देता
तुम्हें भी पूर्वजन्म का ब्राह्मण
स्वर्ग की कामना से
राम के हाथों मृत्यु का याचक
लेकिन शम्बूक
तुम इतिहास का सच हो
राजतन्त्रों में जन्मती
असंख्य दलित चेतनाओं का प्रतीक
व्यवस्था और मानव के संघर्ष का विम्ब
शम्बूक
तुम हिन्दुत्व के ज्ञात इतिहास के
किसी भी काल का सच हो सकते हो
शम्बूक जो तुम्हारा नाम नहीं है
क्योंकि तुम घोघा नहीं थे,
घृणा का शब्द है जो दलित चेतना को
व्यवस्था के रक्षकों ने दिया था
शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम उलटे होकर तपस्या नहीं कर रहे थे
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा है
तुम्हारी तपस्या एक आन्दोलन थी
जो व्यवस्था को उलट रही थी
शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम्हें सदेह स्वर्ग जाने की कामना नहीं थी,
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा है
तुम अभिव्यक्ति दे रहे थे
राज्याश्रित अध्यात्म में उपेक्षित देह के यथार्थ को
शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम्हारी तपस्या से
ब्राह्मण का बालक नहीं मरा था
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा
मरा था ब्राह्मणवाद
मरा था उसका भवितव्य।
शम्बूक
सिर्फ़ इसलिए राम ने तुम्हारी हत्या की थी।
तुम्हें मालूम नहीं
जिस मुहूर्त में तुम धराशायी हुए थे
उसी मुहूर्त में जी उठा था
ब्राह्मण-बालक
यानी ब्राह्मणवाद
यानी उसका भवितव्य
शम्बूक
तुम्हें मालूम नहीं
तुम्हारे वध पर
देवताओं ने पुष्प-वर्षा की थी
कहा था-- बहुत ठीक, बहुत ठीक
क्योंकि तुम्हारी हत्या
दलित चेतना की हत्या थी,
स्वतन्त्रता, समानता, न्यायबोध की हत्या थी
किन्तु, शम्बूक
तुम आज भी सच हो
आज भी दे रहे हो शहादत
सामाजिक-परिवर्तन के यज्ञ में

कर्ज

कर्ज
महिलाओं को, चाहे SCs/STs/OBCs अथवा ब्राह्मण/बनिया/ हिन्दू, मुस्लिम सिक्ख/ईसाई; जिस धर्म की हो, बाबासाहब की पूजा करनी ही चाहिए. सोचिए, अगर बाबासाहब अम्बेडकर 'हिन्दू कोड बिल', जो बाद में टुकड़ों-टुकड़ों में ही क्यों न हो, पास हुआ, को अपनी प्रतिष्ठा का विषय न बनाते.
इस देश की महिलाओं को अपने पूजा-घरों में जो भी देवी/देवता हो, को परे रख बाबासाहब अम्बेडकर की मूर्ति/फोटो लगा कर उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए, अपने बच्चों को शेरनी का दूध (Thoughts of Ambedkar) पिला कर अम्बेडकर बनाना चाहिए.

Monday, February 3, 2020

छंदोबद्ध काव्य बुद्धवचन नहीं

ति-पिटक या बाह्य जो भी ग्रन्थ हैं, अगर गाथा में हैं, छंदोबद्ध रचना है, तो वे बुद्ध्वचन नहीं हो सकते. छंदोबद्ध काव्य  बुद्धदेशना की प्रकृति के सर्वथा विरुद्ध है. बुद्ध ने 'छंदोबद्ध काव्य'('पद्यमय रचना') का विरोध किया है (संयुक्त निकाय भाग- 1  पृ  308 )।

पालि का उदगम

प्राकृत  भाषा-
प्राकृत का अर्थ  है, प्रकृति-जन्य। जो भी प्राकृतिक है, प्रकृति-जन्य है, अभी-संस्कृत(परिष्कृत) नहीं है, प्राकृत है। प्राकृत भाषाओं के प्राचीनतम रूप तृतीय शताब्दी ई. पू. के महाराजा अशोक के शिलालेखें में सुरक्षित मिलते हैं। एक शिलालेख में इस प्राकृत का पालि नाम मिलता है। यही पालि भाषा बौद्धों की पवित्र साहित्यिक भाषा बनी है। शिलालेखों, स्तम्भ-लेखों, समस्त साहित्यिक ग्रंथों और कुछ अंशों में संस्कृत नाटकों में सुरक्षित इन प्राचीन प्राकृत भाषाओं से ही वर्तमान भारत की अधिकांश भाषाएं बोलियां, जैसे पंजाबी, सिन्धी, गुजराती, मराठी, हिन्दी, बिहारी और बंगला- निकली है।

संस्कृत-
यह वैदिक भाषा का परवर्ती परिष्कृत(अभी-संस्कृत)  रूप है जिसे पाणिनि ने 300 ई. पू. में सूत्र आबद्ध किया था.  इसमें वैदिक भाषा के बहुत से प्राचीन रूप (शब्दरूप और धातु-रूप यथा लोट लकार आदि ) पूर्णतया लुप्त हो गए और नए शब्दों का समावेश हुआ। वैदिक भाषा के परिष्कृत होने से प्राकृत भाषाओँ को 'असभ्य', 'पैशाची' और 'जन-साधारण की भाषा' कहा गया।

द्रविड़ परिवार-
दक्षिण भारत की द्रविड़ परिवार की भाषाएं तेलगु, तमिल, कन्नड़ और मलयालम यद्यपि आर्य-परिवार की भाषाएं नहीं हैं, तथापि आर्य-ब्राह्मणों के दक्षिण में प्रवेश से इनमें संस्कृत शब्द भरे हुए हैं और इनके साहित्य में संस्कृत भाषा की रचना-शैली की ही सर्वत्र प्रधानता है। पढ़ना-लिखना आर्य-ब्राह्मणों का एकाधिकार था।

सैन्धव सभ्यता की वर्णमाला-
तृतीय शताब्दी ई. पू. के सिक्कों तथा अशोक के अभिलेखों के वर्ण चिन्हों और सैन्धव सभ्यता के वर्ण-संकेतों में उल्लेखनीय साम्यता से भाषा-विज्ञानी सैन्धव सभ्यता को भारतीय लिपि की जननी

सेमेटिक वर्णमाला का प्रभाव-
मेसोपोटामिया से इधर फैलते हुए, शायद 700 ई. पू. के लगभग, सेमिटिक भाषा की वर्णमाला का एक रूप भारत के उत्तर-पश्चिम में प्रारम्भ हुआ। इस लिपि को भारत में जो सबसे पहले अपनाया गया, उसका ज्ञान हमें तृतीय शताब्दी ई. पू. के सिक्कों और अभिलेखों से होता है। अशोक ने अपने शिलालेख में इसे धम्मलिपि कहा है, किन्तु  आर्य-ब्राह्मण लेखकों ने इसे ‘ब्राह्मी’ अर्थात ‘ब्रह्मा के मुख से निसृत लिपि’ कह प्रचारित किया।

मातृ-लिपि-
इसी धम्मलिपि से ही भारत की सभी परकालीन लिपियां निकली हें। इनमें सबसे महत्वपूर्ण नागरी लिपि है। नागरी का अभिप्राय है ‘नगर-निवासियों  की लिपि’ या शायद गुजरात के 'नागर ब्राह्मणों की लिपि'। बाद में 8वीं शताब्दी के लगभग इसे ‘देवनागरी’ अर्थात देवताओं के नगरों की लिपि’ कहा गया।

उत्तर भारत में संस्कृत भाषा बहुधा नागरी लिपि में ही लिखी जाती है, परन्तु बंगाल और उड़ीसा आदि प्रान्तों में अपनी प्रान्तीय लिपियों- बंगला और उड़िया आदि  में भी लिखी जाती है। दक्षिण भारत में संस्कृत के लिए नियमित रूप से द्रविड़ परिवार की लिपियों की ही उपयोग किया जाता है(स्रोत-  संस्कृत व्याकरण प्रवेशिकाः डॉ आर्थर ए. मेकडानल) ।
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धम्मलिपि एक ऐसी प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। प्राचीन धम्मलिपि के उत्कृष्ट उदाहरण सम्राट अशोक द्वारा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बनवाये गये शिलालेखों के रूप में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। अशोक ने अपने लेखों की लिपि को ‘धम्मलिपि’ का नाम दिया है।

साधारणत:  धम्मलिपि को 'ब्राह्मी लिपि' कह कर इसे अशोक से जोड़ा जाता है। किन्तु इसका स्रोत नहीं बताया जाता। स्मरण रहे, ईसा पूर्व 4 थी सदी में व्याकरणाचार्य पाणिनि ने जब वैदिक भाषा को सूत्र-बद्ध किया तो किसी लिपि का उल्लेख नहीं किया है। जबकि बौद्धों के ग्रन्थ ललितविस्तर( ईसा की पहली सदी) में बालक सिद्धार्थ को ब्राह्मण गुरु से 64  भाषा और लिपियों की सूची दे उन में प्रवीण होने की बात कही गई है।

अशोक के विभिन्न स्थानों में प्राप्त अभिलेखों में  कुल 4 लिपियों का प्रयोग हुआ है-
1. धम्मलिपि  2. खरोस्टि 3. आरमाईक 4. ग्रीक

 धम्मलिपि की विशेषताएँ-
-यह बाँये से दाँये की तरफ लिखी जाती है।
-यह मात्रात्मक लिपि है। व्यंजनों पर मात्रा लगाकर लिखी जाती है।
-कुछ व्यंजनों के संयुक्त होने पर उनके लिये 'संयुक्ताक्षर' का प्रयोग (जैसे प्र= प् + र) ।
-वर्णों का क्रम वही है जो आधुनिक भारतीय लिपियों में है।
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Sunday, February 2, 2020

वाल्मीकि (भंगी) कौन ? : डॉ एस एन बौद्ध

वाल्मीकि (भंगी) कौन ?
वाल्मीकि समाज को भंगी / चुहडा /खाकरोब /मेहतर /स्वीपर आदि नामों से भी पुकारा या जाना जाता था। "वाल्मीकि" नाम बहुत बड़ी साजिश /षडयंत्र के तहत दिया गया था, साजिश /षडयंत्र क्या था? वाल्मीकि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को सत्यता की जानकारी हेतु यह लेख लिखा गया है, कृपया इसे जरूर पढियेगा।
आखिर वाल्मीकि कौन थे ब्राह्मण या अछूत, आइये जानते हैं अब तक की सबसे कड़वी सच्चाई
काफी समय से यह चर्चा का विषय रहा है कि आखिर वाल्मीकि कौन थे, ब्राह्मण या अछूत, अब पूरी तरह सिद्ध हो चुका हैं कि महाकवि वाल्मीकि ब्राह्मण थे ,उनका अछूतों और दलितों से किसी भी प्रकार का दूर- दूर तक क़ोई सम्बन्ध ही नही था और न है ।
महाकवि वाल्मीकि का खानदान इस प्रकार है*
ब्रह्मा, प्रचेता और वाल्मीकि। वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड सर्ग 16 श्लोक में वाल्मीकि ने कहा है, राम मैं प्रचेता का दसवाँ पुत्र हुँ। मनुस्मृति में लिखा है प्रचेता ब्रह्मा का पुत्र था । रामायण के नाम से प्रचलित कई पुस्तको में भी महाकवि वाल्मीकि ने अपना जन्म ब्राह्मण कुल में बताया है ।
चूहड़ा जाति को वाल्मीकि कब बनाया गया, इसके पीछे लगभग 80-90 वर्षो पुराना इतिहास है । जब डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर ने घोषणा की कि मैं हिन्दू पैदा हुआ , यह मेरे वश में नही था , लेकिन मैं हिन्दू के तौर पर मरूँगा नही। और अछूतों को हिन्दू धर्म का त्याग कर देना चाहिए क्योकि हिन्दू धर्म में रहते हुए ऊँची जाति की नफ़रत और भेदभाव से छुटकारा नही मिल सकता ।
बाबा साहब डॉ अम्बेडकर की इस घोषणा से गैर हिन्दुओं के मुह में अछूतों को अपने धर्म में शामिल करने के लिए मुंह में पानी आता रहा। वही हिन्दू धर्म के ठेकेदारो के पैरो के नीचे से जमींन खिसकने लगी थी।अपनी योजना के अधीन हिन्दू आर्य समाजी नेताओ ने चूहड़ा जाति के लिए महाकवि वाल्मीकि को खोज निकाला, और चमारो को उनके जाति में पैदा होने के कारण रविदास जी के अनुयायी बनने के लिए प्रेरित किया ।
आर्य समाज ने अपनी इस योजना को सफल बनाने के लिए लाहौर में वेतनभोगी कुछ वर्कर नियुक्त किये इनमें पृथ्वीसिंह आजाद ,स्वामी शुद्रानंद और प्रो. यशवंत राय प्रमुख थे। इन लोगो ने लाहौर ट्रेनिंग से वापस आकर वाल्मीकि को चूहड़ा जाति के ऊपर थोप दिया। हिन्दुओ की नफरत से बचने के लिए चूहड़ा जाति ने आर्य समाज के प्रचारको के प्रभाव में आकर अपनी जाति का नाम बदलकर वाल्मीकि रख दिया।
किन्तु हिन्दुओ की नफ़रत में कोई अंतर नही आया भेदभाव और नफ़रत पहले जैसे ही बरक़रार है।आज कल के शिक्षित नौजवान इस सडयंत्र को समझने लगे है। वे मानते है कि वाल्मीकि यदि शुद्र था तो उनको संस्कृत पड़ने लिखने का आधिकर उस काल में किसने दिया ? वाल्मीकि शुद्र थे तो रामायण में शूद्रों के प्रति इतनी नफ़रत क्यों लिखी गई।
आज नौजवान न तो अपने आप को वाल्मीकि कहलाने से इंकार कर रहे है, बल्कि दूसरी तरफ वे वाल्मीकि रामायण की कठोर शब्दों में आलोचना भी करते है। आप खुद सोचिये और अपना भविष्य उज्जवल करने के लिए अम्बेडकर की विचार धाराओं को अपनाना है या फिर जीवन भर इसी दलदल में रहना है।
अब आप ही को तय करना है कि हमें रोशनी और उन्नति की ओर जाना है या अँधेरे में फसकर अपना जीवन बर्बाद करना है 
1927 में साइमन कमीशन का प्रतिनिधि मंडल एक दिन रात्री 11 बजे पंडित जवाहरलाल नेहरू के बंगले पर मिलने गया, पता लगा कि वह सो रहे है, 12 बजे मोहन दास करमचंद गांधी से मिलने गये तो वह भी सोये हुए मिले, एक बजे रात्रि बाबासाहेब से मिलने गये तो वह जाग रहे थे, प्रतिनिधि मंडल ने नेहरू और गांधी के बारे में जब बताया तो बाबासाहेब ने कहा कि "उनका समाज जाग रहा है इसलिए वे सो रहे है, लेकिन मेरा समाज सो रहा है इसलिए मैं जाग रहा हूँ ''
विदेशों से पढ़ाई समाप्त कर बाबासाहेब ने थोडे़ समय वकालत की, कालेज में पढाया भी, बॉम्बे हाईकोर्ट के जज का पद भी ठुकराया, केवल इसलिए क्योंकि वह स्वतंत्र होकर उन लोगों के अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहते थे, जिन्हें सदियों से गुलामों से भी बदतर जीवन जीने के लिए बाध्य /मजबूर किया गया था। बाबासाहेब ने बहुत परिश्रम करके आंदोलन /संघर्ष किये जिससे अछूतों को कुछ सुविधाएं मिलती शुरू हुई और वह बाबासाहेब के आंदोलनों में सक्रिय होकर भाग लेने लगे।
साइमन कमीशन 1927 में सर्वे करने इस उद्देश्य से आया भारत की अंदरूनी स्थिति क्या है? क्योंकि कांग्रेस की कार्य प्रणाली से मौहम्मद अली जिन्ना भी नाराज चल रहे थे और बाबासाहेब भी। साइमन कमीशन को वास्तविक स्थिति की रिपोर्ट ब्रिटिश प्रधान मंत्री को 1930 में होने वाली Round Table Conference के लिए सौंपनी थी। *कृपया ध्यान दें।
अछूतों की हमदर्दी का नाटक हिन्दूवादी शक्तियां /कांग्रेस कर रही थीे, यानी उनका कहना था कि हम तो डॉ. अंबेडकर से पहले अछूतोद्धार के लिए काम कर रहे है, इस सबके बावजूद भी अछूत बाबासाहेब के आंदोलन में लामबंद हो रहे थे।
आपने देखा होगा या सुना होगा कि गांव /देहात में भंगी और चमारों की बस्तियों सटी हुई होती है। भंगी कौम मार्शल आर्ट की जन्मदाता है, दूसरे नंबर पर चमार आते हैं।
यह भी लोगों का कहना है मैंने भी बचपन में सुना था , शायद आपने भी सुना होगा कि भंगी का लठ पहले तो निकलता नहीं और अगर निकल गया तो मकसद पूरा करके ही वापस आता है नहीं तो आता ही नहीं है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि भंगी जाति के लोग चमारों से भी ज्यादा हौंसला बुलंद लोग हैं।
हिन्दूवादी ताकतों /कांग्रेस ने चिंतन शुरू किया कि डा अंबेडकर के आंदोलन को कैसे कमजोर किया जायें?? यह सोचकर हिन्दू महासभा ने लाहौर अब पाकिस्तान में हिन्दूवादी शक्तियों /कांग्रेस की कॉन्फ्रेंस आयोजित की थी। Conference में मोतीलाल नेहरू, मोहन दास करमचंद गांधी, पंडित मदन मोहन मालवीय, पंडित अमीचंद आदि ने भाग लिया था, सम्मेलन में चर्चा हुई कि अछूतो में दो जातियां शारीरिक रूप से ताकतवर है और संख्या में भी ज्यादा है, भंगीयों व चमारों अपनी ओर मिला लिया जाये तो डॉ.अंबेडकर का आंदोलन असफल/कमजोर हो सकता है। सम्मेलन में प्रस्ताव पारित किया गया कि भंगीयों को वाल्मीकि नाम से संबोधित किया जाये और बताया जाये कि आप उस महर्षि वाल्मीकि के वंशज हो जिसने राम के जन्म से हजारों वर्ष पूर्व रामायण जैसा ग्रन्थ लिख दिया था, इसलिए आप हमारे भाइ हो जो हमसे बिछड गये थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पंडित अमीचंद शर्मा ने "वाल्मिकी प्रकाश" नामक एक किताब लिखी और उसकी चौपाइयों तथा महर्षि वाल्मीकि का पूरे देश में योजना वद्ध तरीके से हारमोनियम, ढोलक, चिमटा बजाकर भंगीयों की बस्तियों में प्रचार प्रसार करना आरम्भ कर दिया , इस समाज के लोग महर्षि वाल्मीकि को अपना वंशज /गुरु मान कर आसमान में उडने लगे क्योंकि नामकरण पंडितों के द्वारा हुआ था। बाद में भंगी समाज के लोग खुश होकर स्वंय ही वाल्मीकि प्रकाश /महर्षि वाल्मीकि का प्रचार प्रसार करने लगे। बस फिर क्या था अमीचंद शर्मा का तीर ठीक निशाने पर लगा, वही हुआ जो वो चाहता था ।
उसी सम्मेलन में चमारों को जाटव नाम से पुकारने की योजना बनाई गई और बताया कि आप उसी जटायु के वंशज हो, जिन्होनें हमारी सीता माता की रक्षा के लिए रावण से युद्ध करते करते वीरगति प्राप्त की थी, आप भी हमारे भाई हो।
यह प्रमाणिकता बाबा साहेब के साहित्य में उपलब्ध है।
चमारों पर हिन्दूओं की इस काल्पनिक कहानी का असर न के बराबर रहा, इसलिए आज वह बाल्मिकीयों के मुकाबले अधिक उन्नतिशील है। लेकिन भंगीयों पर वाल्मीकि प्रकाश /महर्षि वाल्मीकि का एेसा जादू चढा कि वह बाबासाहेब के आंदोलन से भटक गए। आज भी 90 % वाल्मिकी भटके हुये ही है । काश यह समाज वाल्मीकि प्रकाश / महर्षि वाल्मीकि नाम के चक्कर न पडकर बाबासाहेब के सिद्धांतों पर चलता तो आज समाज, चमारों से ज्यादा उन्नतिशील होता
बौद्धाचार्य डॉ एस एन बौद्ध 9953177126 

Saturday, February 1, 2020

पालियं सल्लापो

पालियं सल्लापो

जयभीम भगिनी, अहं राहुलो।
जयभीम भाता, अहं धम्मरक्खिता।

धम्मरक्खिता- इध, भवं कति वादने आगतो?
राहुलो- अहं दस वादने आगतो।

राहुलो- अज्ज, बहु उण्हं वत्तति।
धम्मरक्खिता- आम! किञ्चि उण्हं वत्तति।

धम्मरक्खिता-  किञ्चि जलं पिबितु।
राहुलो- साधुवादो, जलं बहु सीतलं अत्थि।

धम्मरक्खिता-  त्वं हियो किं अकरि ?  (कर रहे थे ?)
राहुलो- अहं पालि सिक्खितुं अगमि।  (गया था)

राहुलो-  पालि भगवा वाणी।
धम्मरक्खिता- आम! पालि अम्हाकं संखार भासा। (संस्कार)

धम्मरक्खिता- पालि बहु सरला सुबोधा भासा।
राहुलो- असोक काले, पालि रट्ठभासा आसि। (राष्ट्रभाषा)

राहुलो- पालि सिक्खनीया, पालि पठनिया।
धम्मरक्खिता- आम! पालि वदनिया, भासनिया।

धम्मरक्खिता- सुवे तव का योजना? कल
राहुलो- अहं पालि सिक्खतुं गमिस्सामि।  (जाऊंगा)

धम्मरक्खिता- अहं अपि अगमिस्सामि।  (आऊंगी)
राहुलो- स्वागतं। भोति आगन्तुं सक्कोति।

राहुलो- पुनं मिलामं।
धम्मरक्खिता- भाता, पुनं मिलाम।

धम्मरक्खिता- जयभीम।
राहुलो- जयभीम।